ध्रुवीय ज्योति (Aurora) या मेरुज्योति
ध्रुवीय ज्योति (Aurora) या मेरुज्योति, वह रंग-बिरंगा रमणीय दीप्तिमय प्रकाश छटा है जो ध्रुवीय क्षेत्रों के वायुमंडल के ऊपरी भाग (100 से 1000 किमी. की ऊंचाई) में दिखाई पड़ती है। उत्तरी अक्षांशों की ध्रुवीय ज्योति को सुमेरु ज्योति (aurora borealis ऑरोरा बोरिएलिस) या उत्तर ध्रुवीय ज्योति, तथा दक्षिणी अक्षांशों की ध्रुवीय ज्योति को कुमेरु ज्योति (aurora australis ऑरोरा ऑस्ट्रेलिस) या दक्षिण ध्रुवीय ज्योति कहते हैं।ऑरोरा यूनान की सुबह की देवी को कहते हैं और बोरिएस यूनानी भाषा में उत्तरी हवाओं को कहते हैं। उत्तरी अमेरिका के मूल निवासी, क्री, इसे ‘’आत्माओं का नाच’’ कहते हैं। प्राचीन रोमवासियों और यूनानियों को इन घटनाओं का ज्ञान था और उन्होंने इन दृश्यों का बेहद रोचक और विस्तृत वर्णन किया है। दक्षिण गोलार्ध वालों ने कुमेरु ज्योति का कुछ स्पष्ट कारणों से वैसा व्यापक और रोचक वर्णन नहीं किया है, जैसा उत्तरी गोलार्ध वालों ने सुमेरु ज्योति का किया है। इनका जो कुछ वर्णन प्राप्त है उससे इसमें कोई संदेह नहीं रह जाता कि दोनों के विशिष्ट लक्षणों में समानता है।
बैंजामिन फ़्रैंकलिन ने सबसे पहले नॉर्दर्न लाइट्स के सिद्धांत की ओर दुनिया का ध्यान खींचा। उनका मत था कि ये रोशनियाँ ध्रुवीय इलाकों में विद्युत चार्ज के सांद्रण की ओर जाती हैं जो बाद में वृष्टि की वजह से गहन हो जाती हैं। वैज्ञानिक हमेशा ऑरोराज़ से आकर्षित रहे हैं। लेकिन 1600 तक वे यह नहीं जान सके थे कि पृथ्वी का एक चुम्बकीय क्षेत्र है। 1950 के दशक में शोधकर्ताओं ने पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र को सौर वायु से जोड़ा और इस रंगों के प्रदर्शन को समझाया।
विभिन्न आकृतियों में दिखाई देने वाला यह प्रकाश उस समय प्रकट होता है जब ध्रुवीय पवन के आयनित कण, सौर संस्फुरों (सन फ्लेयर) के दौरान, उच्च वायुमंडल में उपस्थित गैसों के साथ अंतःक्रिया करते हैं और चुंबकीय ध्रुवों की ओर आकर्षित होते हैं।
ऑरोरा सौर वायु के पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र से टकराने से पैदा होते हैं। जब प्रोटॉन और इलेक्ट्रॉन्स की बाढ़ सी आकर आयनॉस्फीयर (वायुमण्डल की सबसे ऊपरी परत) की गैसों से टकराती है, तो इसका परिणाम आसमान में एक बेहतरीन रोशनी के रूप में दिखता है।
सुमेरु ज्योति :-
सुमेरु ज्योति के अनेक रूप होते हैं। स्टॉर्मर (Stormer) ने इनका वर्गीकरण इस प्रकार किया है :--
(क) किरणसंरचना प्रदर्शित करनेवाली ज्योति - इसके अंतर्गत कॉरोना (कांतिचक्र) किरण और तथाकथित परिच्छद (draparies) हैं।
(ख) किरणसंरचना न प्रदर्शित करनेवाली ज्योति - इसके अंतर्गत समांग चाप (homogeneous arcs), समांग पट्ट (bands), और स्पंदमान (pulsating) पृष्ठ हैं।
वेगॉर्ड (Vegord) ने ज्योति को (अ) शांत और (आ) चल रूपों में वर्गीकृत किया है।
अंतरराष्ट्रीय भूपृष्ठ तथा भूभौतिक संघ (International Geodetic and Geophysical Union) द्वारा स्वीकृत प्रतीकों के साथ विविध ज्योतियों का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है :--
1. समांग चाप एच ए (HA) - इनकी सीमाएँ पर्याप्त स्पष्ट होती हैं। ये आकाश में कुछ दिशाओं में फैले होते हैं और चाप का उच्चतम बिंदु चुंबकीय याम्योत्तर (meridian) पर होता है। दीप्त चाप ऊपरी भाग हरा, मध्य भाग पीला और निचला भाग सामान्यत: लाल होता है।
2. सकिरण चाप आर ए (RA) - इनसे किरणें पहिए के अरों (spokes) के समान अपसृत होती हैं।
3. स्पंदमान चाप पी ए (PA) - ये स्पंदित होकर और दमककर कुछ ही सेकंड में लुप्त हो जाते हैं।
4. किरण आर (R) - ये अकेली या झुंड में बड़ी राशि में प्रकट हो सकती हैं। ये एकमात्र शांत (केवल प्रकट और लुप्त होनेवाली), या तेजी से चलनेवली, हो सकती हैं।
5. परिच्छद डी (D) - ये बहुत लंबी किरणों से बने और पर्दे सदृश होते हैं। कभी कभी किरणें चुंबकीय बलरेखाओं का अनुसरण करती हुई पंखे जैसी दिखाई पड़ती हैं।
6. किरीट या कॉरोना सी (C) - ये अत्यंत उच्च अक्षांशों पर, जहाँ चुंबकीय बलरेखा, भूपृष्ठ पर प्राय: अभिलंब होती हैं, दिखाई पड़ते हैं। प्रेक्षक के चुंबकीय शिरोविंदु के पास ही आकाश के किसी निश्चित विंदु से किरीट किरण की धाराएँ फैलती हैं।
7. समांग पट्ट एच बी (H B) और किरण संरचना पट्ट, आर बी (R B) - ये चाप की दिशा में ही फैलते हैं।
8. स्पंदमान पी एस (P S) या स्पंदहीन डी एस (D S) विसरित दीप्तिमय पृष्ठ - यह अनिश्चित आकार और स्पष्ट सीमाओं का दीप्त मेघ सा दिखाई पड़ता है।
9. दुर्बल दीप्ति जी (G) - यह क्षितिज के निकट चाप के ऊपरी भाग में उषाकाल के समान प्रतीत होती है।
उपर्युक्त वर्णित विविध प्रकार की ज्योतियों में संरचनायुक्त या संरचनाविहीन चाप, पट्ट और परिच्छद ही अधिक सामान्य हैं, जबकि स्पंदमान पृष्ठ और किरणें बहुत कम दिखाई पड़ती हैं।
मेरुज्योति की विशेषताएँ :-
चुंबकीय निम्न अक्षांशों से उच्च अक्षांशों की ओर मेरुज्योति की आवृत्ति क्रमश: बढ़ती जाती है और ध्रुवीय क्षेत्रों में सर्वाधिक होती है। ऊँचाई के साथ मेरुज्योति के वितरण के अध्ययन से ज्ञात होता है कि मेरु ज्योति की घटना 90 और 130 किमी. के बीच होती है। स्टॉर्मर के अनुसार मेरुज्योति की निम्नसीमा 80 किमी. की ऊँचाई है। चाप, पट्ट और परिच्छद क्षैतिज दिशा में चुंबकीय याम्योत्तर के लगभग समकोण की दिशा में फैलते हैं और किरण धाराएँ चुंबकीय बल रेखाओं के साथ साथ न्यूनाधिक क्षैतिज दिशाओं में फैलती हैं। वास्तविक दिशा स्थान पर निर्भर करती है। यह महत्व की बात है कि किरणधारा के विकिरणविंदु का चुंबकीय शिरोविंदु से संपतन (coincidence) होता है। मेरुज्योतीय सक्रियता में दैनिक और मौसमी परिवर्तन देखे जाते हैं। आधी रात के ठीक पहले स्पष्ट दैनिक प्रमुख उच्चतम और प्रात: दुर्बल उच्चतम सक्रियता होती है। निम्न अक्षांशों की वार्षिक आवृत्ति में दो उच्चतम सक्रियताएँ होती हैं जिनका विषुवों (equinoxes) से संपतन होता है। ज्यों-ज्यों हम मेरुज्योतीय क्षेत्र की ओर बढ़ते हैं ये उच्चतम सक्रियताएँ एक दूसरे के निकट आती जाती हैं और उच्चतम सक्रियता मध्य जाड़े में होती है। मेरुज्योतीय सक्रियता सुज्ञात 11 वर्षीय और सक्रियता का अनुसरण करती है और जब बड़े-बड़े सूर्य धब्बों के समूह सूर्य के केंद्रीय याम्योत्तर के निकट से गुजरते हैं, उसी समय इस घटना के होने की प्रवृत्ति होती है। चुंबकीय विक्षोभ के समान ही 27 दिनों बाद पुन: मेरुज्योतीय सक्रियता की प्रवृत्ति देखी जाती है।
क्यूरी (Currie) एवं एडवर्ड (Edward) के अनुसार निर्मित चित्र ऊपर दिया है, जिस से मेरुज्योतीय, चुंबकीय और भौमधारा सक्रियताओं में साम्य का पता चलता है। पार्थिव चुंबकीय विक्षोभ और ध्रुवीय प्रकाश दोनों ही दृश्य घटनाओं का मूल तीव्र वेग से आविष्ट सूर्य की कणिकाओं को माना जाता है। इन दृश्य घटनाओं की व्याख्या के लिए अनेक सिद्धांत प्रतिपादित हुए हैं, जिनमें चैपमैन (Chapman) और फेरारो (Ferraro) का सिद्धांत, जिसे बाद में मांर्टिन (Martyn) ने पल्लवित किया, सर्वाधिक संतोषप्रद और महत्वपूर्ण है।
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