कुम्भ महापर्व
विश्व का सबसे बड़ा मेला है कुम्भ महापर्वकुम्भ महापर्व विश्व का सबसे बड़ा मेला है। यह भारत की प्राचीन गौरवरूपी वैदिक संस्कृति व सभ्यता का प्रतीक है। इस महापर्व के अवसर पर देश-विदेश से लोग आते हैं और स्नान, दान कर पुण्य अर्जित करते हैं। कुम्भ पर्व के संबंध में वेद, पुराणों में अनेक मंत्र व प्रसंग मिलते हैं जिनसे सिद्ध होता है कि यह पर्व अत्यंत प्राचीन समय से चला आ रहा है। ऋग्वेद के दशम मंडल के अनुसार कुम्भ पर्व में जाने वाला मनुष्य स्वयं स्नान, दान व होमादिक कार्मों से अपने पापों को उसी तरह नष्ट करता है जैसे कुल्हाड़ी वन को काट देती है। जिस प्रकार नदी अपने तटों को काटती हुई प्रवाहित होती है उसी प्रकार कुम्भ पर्व मनुष्य के संचित कर्मों से प्राप्त हुए मानसिक और शारीरिक पापों को नष्ट करता है और नूतन घड़े की तरह निज स्वरूप को नष्ट कर नवीन सुवृष्टि प्रदान करता है।
कालचक्र में सूर्य, चंद्रमा एवं देवगुरु वृहस्पति का महत्वपूर्ण स्थान है। इन तीनों ग्रहों का योग ही कुम्भ पर्व का आधार है। प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन व नासिक सभी तीर्थों पर हर 12 वर्षों के पश्चात सूर्य, चंद्र व वृहस्पति इन तीनों का विशेष योग बनने पर कुम्भ महापर्व का समागम होता है। माघ मास की अमावस्या पर जब सूर्य और चंद्रमा मकर राशि पर तथा वृहस्पति वृष राशि स्थित हों तो उस समय प्रयाग में कुम्भ महापर्व का योग बनता है। स्कंद पुराण में वर्णित है - ''मकरे च दिवानाथे वृषभे च वृहस्पतौ कुम्भ योगो भवेत तत्र प्रयागे हि अतिदुर्लभे।''
कुम्भ महापर्व की महत्ता को बताता है ऋग्वेद
संस्कृत ग्रंथ ‘अमरकोश’ के अनुसार ''कुम्भे घटेभ मूर्धाशौ'' कुम्भ घड़ा, हाथी का गण्डस्थल, एक राशिपति का ग्यारहवां भाग, इन तीन अर्थों में प्रयुक्त होता है। समुद्र मंथनजन्य अमृत कुम्भ से सम्बद्ध होने के कारण कुम्भ शब्द उपचारेण एक विशेष अर्थ ‘कुम्भ पर्व’ अर्थ में प्रयुक्त होता है। कुम्भ शब्द की व्युत्पत्ति छह प्रकार से की गई है।
1- ‘कुं पृथ्वीं उम्भयति पुरयाति मंगलेन ज्ञानामृतेन वा’ अर्थात जो समस्त पृथ्वी को मंगल ज्ञान से पूर्ण कर दे।
2- ‘कुत्सित उम्भति:’ अर्थात जो पर्व संसार के अरिष्ट और पापों को दूर कर दे।
3- ‘कु: पृथ्वी उम्यते अनुगृह्यते आच्छाद्यते आनन्देन पुण्येन वा’ अर्थात जिस पर्व के द्वारा पृथ्वी को आनंद व पुण्य से ढक दिया जाय।
4- ‘कु: पृथ्वी उम्यते लह्वी क्रियते पाप प्रक्षालनेन येन’ अर्थात पृथ्वी पर पापों को धोकर जब उसे हल्का बना दिया ऐसा पर्व कुम्भ ।
5- ‘कु: पृथ्वी भावयति दीपयति’ अर्थात जो पर्व पृथ्वी को सुशोभित कर दे, दीप्त कर दे, उसके तेज को बढ़ा दे।
6- ‘कुं सुखं ब्रह्म तद उम्भति प्रयच्छतीति कुम्भ:’ अर्थात सुख स्वरूप परम ब्रह्म के अनुभव को प्रदान करने वाले संत समागम का नाम कुम्भ है।
कुम्भ शब्द का उल्लेख वेदों में आता है। ऋग्वेद के दशम मंडल एवं यजुर्वेद व अथर्ववेद में कुम्भ शब्द समस्त संसारवासियों के लिए शुभ कर्मों के अनुष्ठान हेतु आता है। ''पूर्ण: कुम्भेऽधिकाल आग्हिस्तं वै पश्यामो बहुधा नु संत:। सह इमा विश्वाभवनानि प्रत्यंकाले तमाहु परमेश व्योमन्'' अथर्ववेद में ब्रह्माजी का कथन है - हे पृथ्वी ! मैं तुम्हें दूध, दही और जल से पूर्ण चार कुम्भों को चार स्थान पर देता हूं। ''चतुर: कुम्भय चतुर्था ददामि क्षीरेण पूर्णाम उद्केनदध्ना'' पुराणों के अनुसार पहले चाक्षुष मनवंतर में देव दानवों ने भगवान विष्णु की सहायता से समुद्र मंथन किया। स्कंद पुराण के अनुसार समुद्र मंथन से कालकूट विष के अतिरिक्त तेरह रत्न प्रकट हुए जिसमें से एक अमृत कलश भी था। अन्य पुराणों के अनुसार जब देवगुरु वृहस्पति के संकेत से इन्द्रपुत्र जयंत अथवा कल्पभेद से गरुण जो उस समय कुम्भ को लेकर भागे, उस समय समस्त देव-दानव उनका पीछा किए। उनमें परस्पर 12 दिन (देवताओं का दिन) तक संघर्ष चलता रहा। उस समय सुरक्षा की दृष्टि से कुम्भ को 12 स्थानों पर रखा गया जिसमें से 8 स्वर्ग के थे तथा चार स्थान पृथ्वी के थे। पृथ्वी के चारो स्थान हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन व नासिक हैं। चंद्रमा ने कुम्भ को ढरकने से, सूर्य ने टूटने से, गुरु ने दैत्यों की छीना-झपटी से तथा शनि ने इन्द्र के भय से रक्षा की। जैसा कि कहा गया है - ''पृथिव्यां कुम्भ योगस्य चतुर्थाभेद उच्यते। चतु:स्थले निपनात् सुधा कुम्भस्य भूतले।। इन्द्र:प्रस्रवगात् रक्षां सूर्यो विस्फोटनात् रधौ। दैत्येभ्यश्च गुरु रक्षां सौरि: देवेन्द्रजात् भयात।।''
देवताओं का एक दिन मानवों का एक वर्ष है। अत: प्रत्येक 12 वर्ष पश्चात कुम्भ पर्व हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन एवं नासिक में होता है। ज्योतिष के अनुसार गुरु प्राय: एक वर्ष में एक राशि का भोग करता है। कुम्भ राशि के गुरु में हरिद्वार, वृष राशि के गुरु में प्रयाग, सिंह राशि के गुरु में उज्जैन तथा तुला राशि के गुरु में नासिक में कुम्भ पर्व होता है। सूर्य प्राय: एक महीने में एक राशि का भोग करता है। जब सूर्य मेष राशि का हो तो हरिद्वार में मुख्य स्नान, मकर का हो तो प्रयाग में, मेष का हो तो उज्जैन में तथा सिंह राशि का होने पर नासिक में प्रमुख स्नान होता है। सूर्य के साथ चंद्र की स्थिति भी कुम्भ पर्व के लिए आवश्यक है। चंद्र सूर्य की मेष संक्रांति तथा अमावस्या तिथि में होने पर हरिद्वार का पुण्यकाल, माघ अमावस्या तिथि के चंद्रमा में प्रयाग का पुण्यकाल, स्वाती नक्षत्र का योग तुला के चंद्रमा में उज्जैन तथा सिंह के चंद्रमा में नासिक का पुण्य काल आता है।
कुंभ महापर्व का आधार है समुद्र मंथन की कथा
कुंभ की उत्पत्ति के संबंध में पुराणों में कई आख्यान मिलते हैं। इनमें स्कंद पुराण में उल्लिखित समुद मंथन की कथा सर्वाधिक प्रसिद्ध है। इस कथा के अनुसार हिमालय के समीप क्षीरोद नामक एक सागर है। एक समय देवताओं और दानवों के बीच अमृत कुंभ की प्राप्ति के लिए सागर के मूल में कूर्म (कच्छप) और उसके ऊपर मन्दराचल पर्वत को स्थापित कर, वासुकी नाग को रस्सी बनाकर उसका मंथन किया गया। समुद्र मंथन द्वारा क्षीरसागर से चौदह रत्न निकले - कालकूट विष, पुष्पक विमान, ऐरावत हाथी, पारिजात वृक्ष, अप्सरा रंभा, कौस्तुभ मणि, बाल चंद्रमा, कुण्डल धनुष, शार्रंग घनुष, कामधेनु गाय, उच्चैश्रवा घोड़ा, मां लक्ष्मी, विश्वकर्मा व अमृत कुंभ ।
देवताओं के संकेत पर इन्द्र पुत्र जयंत अमृत कुंभ लेकर बड़े वेग से भागने लगे। दैत्यगण जयंत का पीछा किए। अमृत प्राप्ति के लिए देवताओं और दैत्यों के मध्य 12 दिन तक (मनुष्य के बारह वर्ष) तक भयंकर युद्ध हुआ। इस युद्ध के दौरान जिन-जिन स्थानों पर कुंभ से अमृत की बूंद गिरी थी, उन-उन स्थानों- प्रयाग, हरिद्वार, नासिक व उज्जैन पर कुंभ महापर्व आयोजित होता है।
कुंभ पर्व पर त्रिवेणी में स्नान, दानादि की विधि
माघ (मौनी) अमावस प्रमुख पर्व को प्रमुख स्नान के पूर्व या पश्चात शुभ स्नान पर्व पर अरुणोदय या सूर्योदय काल के समय संकल्प पूर्वक स्नान करने से विशेष लाभ मिलता है। सर्वप्रथम संकल्प में कहें - ''सर्वपापाय निवृत्ति पूर्वकं सर्वाभीष्ट फलवाप्ति धर्मार्थ काम मोक्ष चतुर्विध पुरुषार्थ सिद्धयर्थं भगवत्या गंगाया: यमुना सरस्वती भगवान विष्णु शिवस्य च षोडशोपचार पूजन च विधाय गंगा यमुना पावन धाराया इह प्रयाग पुण्यतीर्थे स्नानं पूजनं दानं च करिष्ये।'' त्रिवेणी (संगम) में प्रवेश करने से पूर्व पुष्पाक्षत, नारियल एवं मुद्रा सहित अर्पित करते हुए यह मंत्र पढ़ें - ''गंगे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वती। नर्मदे सिंधु कावेरी जलेऽस्मिन संनिधिं कुरु।। ॐ गङ्गयै नम:।। ॐ यमुनायै नम:।। ॐ सरस्वत्यै नम:।।'' पुन: निम्न मंत्रों से दोनों हाथों में जल लेकर भगवान सूर्य से प्रार्थना करें - ''अपस्त्वमसि देवेश ज्योतिषां पतिरेव च। पापं नाशय मे देव वाङ्मन: कर्मभि: कृतम्।'' पुन: दोनों हाथों द्वारा एक कुंभ मुद्रा बनाकर भगवान विष्णु एवं सूर्यादि देवों का ध्यान करते हुए निम्न मंत्र पढ़ें - ''दु:ख दारिद्रय नाशाय विष्णोस्तोषणाय च। प्रात: स्नान करोमि अद्य माघ मासे पाप विनाशम्।। मकरस्थै रवौ माधे गोविन्द च्युत माधव। स्नानेनानेव मे देवं यथोक्त फलदो भव।।'' फिर सूर्य देव को ताम्र बर्तन में लाल चंदन, पुष्पाक्षत डालकर इस मंत्र के साथ अर्घ्य देवें - ''ऐहि सूर्य सहस्त्रांशो अथवा ॐ घृणि सूर्याय नम:।'' तदुपरान्त ब्रह्मा, विष्णु, महेश, भगवती गंगा, सरस्वती व सूर्यादि देवों को जलांजलि देकर नमस्कार करें। स्नानोपरान्त घृत सहित अन्नादि से आपूरित कुंभ को वस्त्र, अलंकार, पुष्प-पत्रों से सुसज्जित कर उसकी षोडश या पंचोपचार पूर्वक पूजन करके सुवर्ण, चांदी या वस्त्र धनादि की दक्षिणा सहित किसी सुपात्र ब्राह्मण को दान करें। ब्राह्मण व साधुओं को भोजन कराने से सैकड़ों गोदान का फल मिलता है। विष्णु पुराण में कहा गया है कि हजारों अश्वमेध यज्ञ करने से, सौ बाजपेय यज्ञ करने से और लाख बार पृथ्वी की प्रदक्षिणा करने से जो फल प्राप्त होता है वह फल केवल प्रयाग के कुंभ स्नान-दान से मिल जाता है - ''अश्वमेध सहस्त्राणि बाजपेय शतानि च। लक्षं प्रदक्षिणा भूमे: स्नानेन तत्फलम्।।''
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