मैसूर पैलेस (अम्बा विलास महल/महाराजा पैलेस)
मैसूर पैलेस, कर्नाटक में दक्षिणी भारत में मैसूर शहर में एक ऐतिहासिक महल है। कर्नाटक तमिलनाडु की सीमा पर बसा यह पैलेस विश्व के कुछ सुंदर महलों में से एक है। मैसूर पैलेस अपनी खूबसूरती के चलते पूरी दुनिया में अपनी एक खास जगह रखता है।
लेकिन हैरानी की बात है कि एक ऐसा गढ़ भी है जिसके इतिहास में कोई बदलाव नहीं हुआ इसका नाम है - मैसूर पैलेस। मूल रूप से ये महल एक गढ़ था। इसके आसपास के सभी क्षेत्रो में खाइयों के साथ एक दृढ़ क्षेत्र बना हुआ था।
मैसूर महल तीसरे या चौथी पीढ़ी के शासक वंश द्वारा स्थापित महलनुमा संरचना है। मैसूर महल को अंबा विलास महल के नाम से भी जाना जाता है। भारतीय - सारसैनिक शैली में गुम्बदों, प्राचीरों, आर्च तथा कोलोनेड के साथ निर्मित यह महल अपनी भव्यता के कारण ब्रिटेन के बकिंघम पैलेस के साथ तुलना में शुमार किया जाता है।
ऐसा है मैसूर पैलेस
मैसूर पैलेस मैसूर के शासक, मैसूर के शाही परिवार का आधिकारिक आवास है। यहाँ पर इन्होंने 1399 से 1950 तक शासन किया। इस रियासत महल में दो दरबारी हॉल है जहां पर शाही अदालत की औपचारिक बैठक होती है और यहाँ पर आंगनों, उद्यानो और इमारतों की विशाल सरणी है। महल मैसूर के भीतरी मध्य क्षेत्र में है और पूर्व की ओर चामुंडी हिल्स की तरफ का सामना करना पड़ता है।
किसने बनवाया मैसूर पैलेस
मैसूर सामान्यतः महलों के शहर के रूप में वर्णित है। यहाँ पर सात महलों का समावेश हैं जिसमे मैसूर पैलेस भी शामिल है। मैसूर पैलेस पुराने किले के भीतर होने के कारण विशेष रूप से संदर्भित किया जाता है।
मैसूर पैलेस का निर्माण महाराजा राजर्षि महामहिम कृष्णराजेंद्र वाडियार चतुर्थ द्वारा किया गया था। हाल में यह महल कर्नाटका सरकार द्वारा संभाला जाता है। मैसूर पैलेस अब भारत में ताजमहल के बाद सबसे प्रसिद्ध पर्यटक आकर्षणों में से एक है और कम से कम 6 लाख आगंतुकों का यहाँ पर सालाना आना होता है।
मैसूर पैलेस के शाही वंश
कृष्णराज वाडियार चतुर्थ (नलवाडी कृष्णराज वाडियार) 1799 से 1868 तक महाराजा थे। टीपू सुल्तान की मृत्यु के बाद कृष्णराज ने मई 1799 में मैसूर को अपनी राजधानी बनाया और शिक्षा, धार्मिक स्थलों के निर्माण सहित मंदिरों के लिए गहने दान आदि पर ध्यान केंद्रित किया। चामराजा वोडेयार 9 को पांच साल की उम्र में 23 सितंबर, 1868 में ताज पहनाया गया था।
उसका गवर्नर जनरल द्वारा राजा अभिषेक किया गया था। उन्हें 1881 में मैसूर प्रतिनिधि विधानसभा के साथ भारत के पहले लोकतांत्रिक संस्थाओं की स्थापना का श्रेय जाता है। नलवाडी कृष्णराज वोडेयार चतुर्थ 1895 से 1940 तक महाराजा थे। उन्हें महात्मा गांधी द्वारा सेंट राजा बुलाया गया था।
उन्होंने सर एम विश्वेश्वरैया और सर मिर्जा इस्माइल के साथ मिलकर शिवानासमुद्र पर एशिया का पहला हाइड्रो इलेक्ट्रिक प्रोजेक्ट और 1916 में मैसूर विश्वविद्यालय को स्थापित किया था। वर्तमान महाराजा यदुवीर वाडियार है जिसको उनकी आंटी द्वारा गोद लिया गया था।
अम्बा विलास महल का इतिहास
मैसूर पैलेस बाद में बनवाया गया। इससे पहले का राजमहल चन्दन की लकड़ियों से बना था। 1897 में राजकुमारी जयालक्षमणि की शादी के दौरान चंदन की लकड़ी से बना महल आग लगने की वजह से तबाह हो गया। इसके बाद महाराजा कृष्णराजेंद्र वाडियार IV ने ब्रिटिश आर्किटेक्ट (वास्तुकार) हेनरी इरविंग (Henry Irwin) को फिर पैलेस बनने की जिम्मेदारी सौंपी। फिर 15 साल के लम्बे समय में इस महल का निर्माण पुराने लकड़ी के महल के स्थान पर 1912 में वोडेयार के 24वें राजा द्वारा कराया गया था। दूसरा महल पहले से ज्यादा बड़ा और अच्छा है। पुराने महल को बाद में ठीक किया गया जहाँ अब संग्रहालय है। जिसमें स्मृति चिन्ह, तस्वीरें, आभूषण, शाही परिधान और अन्य सामान रखे गए हैं, एक समय जो वोडेयार शासकों के पास होते थे। ऐसा कहा जाता है कि महल में सोने के आभूषणों का सबसे बड़ा संग्रह प्रदर्शित किया गया है।
बताया जाता है कि महाराजा कृष्णराजेंद्र वाडियार IV उस वक्त भारत के सबसे अमीर राजा हुआ करते थे। उस वक्त इंग्लिश स्टेट्समैन लॉर्ड सैमुअल ने उनकी तुलना सम्राट अशोका से की थी। वहीं, महात्मा गांधी ने उन्हें 'राजर्षि' कहा था।
मैसूर पैलेस में इंडो-सारासेनिक, द्रविडियन, रोमन और ओरिएंटल शैली (दविड़, पूर्वी और रोमन स्थापत्य कला) का वास्तुशिल्प देखने को मिलता है। नफासत से घिसे सलेटी पत्थरों से बना यह महल गुलाबी रंग के पत्थरों के गुंबदों से सजा है। यह जितना खूबसूरत बाहर से दिखाई देता है उतनी ही इसकी रौनक अंदर से दिखाई देती है।
महल तीन मंजिला है और संगमरमर पत्थर का बना हुआ है। एक टावर पांच मंजिला यानी 145 फीट का है। महल के चारों ओर बड़े बड़े लॉन और सुंदर बगीचे हैं। महल के एक भाग में काफी बड़ा म्यूजियम है जो आम जनता के लिए खुला है।
महल में एक बड़ा सा दुर्ग है जिसके गुंबद सोने के पत्तरों से सजे हैं। ये सूरज की रोशनी में खूब जगमगाते हैं।
स्थापत्य
शाही हाथी का सोने का हौज़, दरबार हॉल और कल्याण मंडप यहां के मुख्य आकर्षण हैं। महल में प्रवेश का रास्ता एक सुंदर दीर्घा से होकर गुजरता है जिसमें भारतीय तथा यूरोपीय शिल्पकला और सजावटी वस्तुएं हैं। हाथी द्वार इसकी आधी दूरी पर है, जो महल के केन्द्र का मुख्य प्रवेश द्वार है। इस प्रवेश द्वार को फूलों की डिज़ाइन से सजाया गया है और इस पर दो सिरों वाले बाज का मैसूर का शाही प्रतीक बना हुआ है। हाथी प्रवेश द्वार के उत्तर में शाही हाथी हौज प्रदर्शित किया गया है।
मैसूर पैलेस का गोम्बे थोट्टी - गुड़िया घर हैं। यहां 19वीं और आरंभिक 20वीं सदी की गुड़ियों का संग्रह है। इसमें 24 कैरिट स्वर्ण के 84 किलो सोने से सजा लकड़ी का शाही हाथी हौद भी है जिसे हाथियों पर राजा के बैठने के लिए लगाया जाता था। इसे एक तरह से घोड़े की पीठ पर रखी जाने वाली काठी भी माना जा सकता है।
गोम्बे थोट्टी के सामने सात तोपें रखी हुई हैं। इन्हें हर साल दशहरा के आरंभ और समापन के मौके पर दागा जाता है। महल के मध्य में पहुंचने के लिए गजद्वार से होकर गुजरना पड़ता है। वहां कल्याण मंडप अर्थात् विवाह मंडप है। उसकी छत रंगीन शीशे की बनी है और फर्श पर चमकदार पत्थर के टुकड़े लगे हैं। कहा जाता है कि फर्श पर लगे पत्थरों को इंग्लैंड से मंगाया गया था।
दूसरे महलों की तरह यहां भी राजाओं के लिए दीवान-ए-खास और आम लोगों के लिए दीवान-ए-आम है। यहां बहुत से कक्ष हैं जिनमें चित्र और राजसी हथियार रखे गए हैं। राजसी पोशाकें, आभूषण, तुन (महोगनी) की लकड़ी की बारीक नक्काशी वाले बड़े-बड़े दरवाजे और छतों में लगे झाड़-फानूस महल की शोभा में चार चांद लगाते हैं।
दशहरा में 200 किलो शुद्ध सोने के बने राजसिंहासन की प्रदर्शनी लगती है। कुछ लोगों का मानना है कि यह पांडवों के जमाने का है।
महल की कल्याण मंडप की ओर जाने वाली दीवारों पर सुंदर तैल चित्र लगे हुए हैं जिनमें मैसूर के दशहरा त्यौहार के शाही जुलूस को सजीव चित्रित किया गया है। इन तस्वीरों के बारे में एक विशिष्ट बात यह है कि इसे किसी भी दिशा से देखा जा सकता है ऐसा लगता है कि यह जुलूस आप ही की दिशा में आ रहा है।
यह हॉल अपने आप में अत्यंत भव्य है और इसमें विशाल झूमरों और कई रंगों वाले कांच को मोर के आकार में सजाकर बनाए गए डिज़ाइन से सजाया गया है। महल के ऐतिहासिक दरबार हॉल में ऊंची छत और शिल्पकारी से बने खम्भे हैं जिन्हें सोने से लेपित किया गया है। यहां कुछ प्रतिष्ठित कलाकारों द्वारा बनाई गई दुर्लभ तस्वीरों का खजाना भी है। यह हॉल जो सीढियों के ऊपर है, यहां से चामुंडी पहाड़ी का मनोरम दृश्य दिखाई देता है, जो शहर के ऊपर है और यहां शाही परिवार की संरक्षक देवी, चामुंडेश्वरी देवी को समर्पित एक मंदिर है।
प्रवेशद्वार से भीतर जाते ही मिट्टी के रास्ते पर दाहिनी ओर एक काउंटर है जहाँ कैमरा और सेलफोन जमा करना होता है। काउंटर के पास है सोने के कलश से सजा मन्दिर है। दूसरे छोर पर भी ऐसा ही एक मन्दिर है जो दूर धुँधला सा नज़र आता है। दोनों छोरों पर मन्दिर हैं, जो मिट्टी के रास्ते पर है और विपरीत दिशा में है महल का मुख्य भवन तथा बीच में है उद्यान।
अंदर एक विशाल कक्ष है, जिसके किनारों के गलियारों में थोड़ी-थोड़ी दूरी पर स्तम्भ है। इन स्तम्भों और छत पर बारीक सुनहरी नक्काशी है। दीवारों पर क्रम से चित्र लगे है। हर चित्र पर विवरण लिखा है। कृष्णराजा वाडियार परिवार के चित्र। राजा चतुर्थ के यज्ञोपवीत संस्कार के चित्र। विभिन्न अवसरों पर लिए गए चित्र। राजतिलक के चित्र। सेना के चित्र। राजा द्वारा जनता की फ़रियाद सुनते चित्र। एक चित्र पर हमने देखा प्रसिद्ध चित्रकार राजा रवि वर्मा का नाम लिखा था। लगभग सभी चित्र रवि वर्मा ने ही तैयार किए।
कक्ष के बीचों-बीच छत नहीं है और ऊपर तक गुंबद है जो रंग-बिरंगे काँचों से बना है। इन रंग-बिरंगे काँचों का चुनाव सूरज और चाँद की रोशनी को महल में ठीक से पहुँचाने के लिए किया गया था। निचले विशाल कक्ष देखने से पहले तल तक सीढियाँ इतनी चौड़ी कि एक साथ बहुत से लोग चढ सकें। पहला तल पूजा का स्थान लगा। यहाँ सभी देवी-देवताओं के चित्र लगे थे। साथ ही महाराजा और महारानी द्वारा यज्ञ और पूजा किए जाने के चित्र लगे थे। बीच का गुंबद यहाँ तक है।
दूसरे तल पर दरबार हाँल है। बीच के बड़े से भाग को चारों ओर से कई सुनहरे स्तम्भ घेरे हैं इस घेरे से बाहर बाएँ और दाएँ गोलाकार स्थान है। शायद एक ओर महारानी और दरबार की अन्य महिलाएँ बैठा करतीं थी और दूसरी ओर से शायद जनता की फ़रियाद सुनी जाती थी क्योंकि यहाँ से बाहरी मैदान नज़र आ रहा था और बाहर जाने के लिए दोनों ओर से सीढियाँ भी है जहाँ अब बाड़ लगा दी गई है। इसी तल पर पिछले भाग में एक छोटे से कक्ष में सोने के तीन सिंहासन है - महाराजा, महारानी और युवराज केलिए।
सजावट
हफ्ते के अंतिम दिनों में, छुट्टियों में और खास तौर पर दशहरा में महल को रोशनी से इस तरह सजाया जाता है, आंखें भले ही चौंधिया जाएं लेकिन नजरें उनसे हटना नहीं चाहतीं। बिजली के 97,000 बल्ब महल को ऐसे जगमगा देते हैं जैसे अंधेरी रात में तारे आसमान को सजा देते हैं।
सोने का सिंहासन और दशहरा
दशहरा पर मैसूर के राजमहल में खास लाइटिंग होती है। सोने-चांदी से सजे हाथियों का काफिला 21 तोपों की सलामी के बाद मैसूर राजमहल से निकलता है। जो करीब 6 किलोमीटर दूर बन्नी मंडप में खत्म होता है। काफिले की अगुआई करने वाले हाथी की पीठ पर 750 किलो शुद्ध सोने का अम्बारी (सिंहासन) होता है, जिसमें माता चामुंडेश्वरी की मूर्ति रखी होती है। पहले इस अम्बारी पर मैसूर के राजा बैठते थे, लेकिन 26वें संविधान संशोधन के बाद 1971 में राजशाही खत्म हो गई। तब से अम्बारी पर राजा की जगह माता चामुंडेश्वरी देवी की मूर्ति रखी गई।
मैसूर के वाडियार शासक
मैसूर के कई शाही वंश रहें। जैसे -
आदि यादुराव (1399-1423),
हिरिया बेट्टद चामराजा वाडियार मैं (1423-1459),
थिम्मा राजा वाडियार मैं (1459-1478),
हिरिया चामराजा रास वाडियार द्वितीय (1478-1513),
हिरिया बेट्टद चामराजा वाडियार तृतीय (1513-1553),
थिम्मा राजा वाडियार द्वितीय (1553-1572),
बोअल चामराजा वाडियार चतुर्थ (1572-1576),
बेट्टद चामराजा वाडियार वी (1576-1578),
राजा वाडियार मैं (1578-1617),
चमराजरास वाडियार छठे (1617-1637),
राजा वाडियार द्वितीय (1637-1638),
रणधीरा कांतिरवा नरसराजा वाडियार मैं (1638-1659),
डोडा देवराज वाडियार (1659-1673),
चिक्का देवराज वाडियार (1613-1704),
कांतिरवा मजाराजा वाडियार (1704-1714),
डोडा कृष्णराज वाडियार मैं (1714-1732),
चामराजा वाडियार सप्तम (1732-1734),
कृष्णराज वाडियार द्वितीय (1734-1766),
नानाजा राजा वाडियार (1766-1770),
बेट्टद चामराजा वाडियार आठवीं (1770-1776),
खासा चामराजा वाडियार नवें (1766-1796),
कृष्णराज वाडियार तृतीय (1799-1868),
चामराजा वाडियार एक्स (1868-1894),
कृष्णराज वाडियार चतुर्थ (1902-1940),
श्री जया चामराजा वाडियार इलेवन (1940 - 1947)।
अभिशाप के साए में राज परिवार
1612 में वाडेयार ने विजयनगर एम्पायर के महाराजा तिरुमलराजा को हराकर मैसूर में यदु राजवंश की स्थापना की। तब तिरुमलराजा की पत्नी रानी अलमेलम्मा गहने लेकर जंगल में छिप गई, लेकिन वाडेयार के सैनिकों ने उन्हें ढूंढ निकाला। खुद को चारों तरफ से घिरा देख रानी कावेरी नदी में कूद गईं। कहा जाता है कि नदी में डूबते वक्त रानी ने श्राप दिया- 'जिसने मेरा नाश किया है उस वंश में अब कोई उत्तराधिकारी पैदा नहीं होगा।' तब से कभी वाडेयार राजा-रानी को पुत्र नहीं हुआ। यह सिलसिला पिछले तकरीबन 550 सालों से चला आ जारा है। राजवंश की महारानियों को राज परिवार के किसी मेंबर को वारिस के तौर पर गोद लेना होता है।
पिछले साल मिला था नया महाराज
मैसूर पैलेस मौजूदा समय में कर्नाटक सरकार के कब्जे में है। फिलहाल इसे लेकर मैसूर के शाही वाडियार खानदान और कर्नाटक सरकार के बीच सुप्रीम कोर्ट में मुकदमा भी चल रहा है। पिछले साल मई में मैसूर राजघराने को नया महाराज मिला था। उसी दौरान यदुवीर वडियार का राजतिलक हुआ था। बेंगलुरु से 150 किलोमीटर दूर अंबा विला पैलेस में यदुवीर 27th राजा हैं। मैसूर राजवंश भारत में अब तक सबसे ज्यादा समय (619 साल) तक राजशाही परंपरा को मानने वाला वंश है।
कौन हैं यदुवीर?
24 साल के यदुवीर पिछले साल ही अमेरिका की यूनिवर्सिटी ऑफ मैसाचुसेट्स से इंग्लिश और इकोनॉमिक्स की डिग्री लेकर लौटे हैं। महाराज बनने के बाद उन्हें कृष्णदात्ता चामराजा वाडियार के नाम से भी जाना जाने लगा है। पिछले साल 23 फरवरी को महारानी ने यदुवीर को गोद लिया था और उन्हें राजा बनाने का एलान किया था। वाडियार राजघराने ने 1399 से मैसूर पर राज करना शुरू किया था। तब से राजा का एलान होते आया है। पिछली बार 1974 में राजतिलक हुआ था। तब यदुवीर के चाचा श्रीकांतदत्ता नरसिम्हाराजा वाडियार को गद्दी पर बैठाया गया था। 2013 में उनकी मौत हो गई थी। दो साल गद्दी खाली रही थी और उसके बाद यदुवीर को राजा बनाया गया। श्रीकांतादत्ता नरसिम्हा राजा वाडियार और रानी गायत्री देवी को संतान नहीं थी।
टाइमिंग
- सुबह 10.00 से शाम 05.30 बजे तक (हफ्ते के सभी दिन खुला रहता है पैलेस)
- एंट्री चार्ज (एडल्ट): 40 रुपए
- 10 से 18 के बीच के बच्चे: 20 रुपए
- 10 साल के बीचे के बाचे: फ्री एंट्री
- फॉरेन टूरिस्ट: 200 रुपए (साथ में ऑडियो किट फैसिलिटी)
कहां मिलती है टिकट
मैसूर पैलेस के साउथर्न गेट पर आपको टिकट मिल जाएंगे।
कब- कब रौशन होता है पैलेस
शाम 07.00 pm से 07.45 के बीच (हर रविवार, इसके अलावा नेशनल हॉलिडे और स्टेट फेस्टिवल पर)
साउंड एंड लाइट शो
- मैसूर पैलेस साउंड एंड लाइट शो टाइमिंग: शाम 7.00 से 7.40 तक
- साउंड एंड लाइट शो एंट्री चार्जेस (एडल्ट): 40 रुपए
- 7 से 12 साल के बच्चों के लिए: 25 रुपए - फॉरेन टूरिस्ट: 200 रुपए
कैसे पहुंचे...
By Air
मैसूर से 170 किमी दूर है बेंगलुरु इंटरनेशनल एयरपोर्ट। बेंगलुरु के लिए सभी बड़े शहरों से आपको फ्लाइट्स मिल जाएंगी। आपी KSRTC की बस या टैक्सी लेकर तीन घंटे में मैसूर पहुंच सकते हैं।
By Bus
बेंगलुरु के अलावा कर्नाटक के कई बड़े शहरों से मैसूर के लिए बस चलती है। आपको आसानी से यहां के लिए प्राइवेट और गवर्नमेंट बसें और टैक्सी मिल जाएगी।
By Train
बेंगलुरु से मैसूर तक आसानी से आप ट्रेन के जरिए पहुंच सकते हैं। यहां के लिए आपको रेगुलर ट्रेन्स मिल जाएंगी। इसके अलावा टीपू एक्सप्रेस, चामुंडी एक्सप्रेस, कावेरी एक्सप्रेस, मैसूर एक्सप्रेस भी मैसूर तक चलती है।
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