हार्लेक्विन इक्थियोसिस
ये एक दुर्लभ बीमारी है जो 30 लाख बच्चों में से एक बच्चे को ही होती है। विशेषज्ञों ने बताया कि शरीर में प्रोटीन और म्यूकस मेंबरेन की गैर-मौजूदगी की वजह से बच्चे की ऐसी हालत हो जाती है। ऐसे में जन्म लेने वाले बच्चे की त्वचा एकदम सख्त और मोटी हो जाती है। इसके साथ ही त्वचा का रंग सफेद हो जाता है। एक हिंदी वेबसाइट के मुताबिक ये भारत में ऐसा तीसरा मामला है। दिल्ली के दरियागंज से पहले ऐसे बच्चे बिहार के भागलपुर और महाराष्ट्र के नागपुर में जन्म ले चुके हैं। भारत के अलावा पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान नें ऐसे चार केस देखे जा चुके हैं।
इसलिए हो जाती है मौत
इस बीमारी से पीड़ित ज्यादातर बच्चों की एक महीने के अंदर मौत हो जाती है। अस्पताल के डॉक्टरों के मुताबिक, यह बीमारी एबीसीए 12 जीन की खराबी से होती है। इससे त्वचा के नीचे चर्बी नहीं बन पाती। इससे त्वचा काफी कठोर हो जाती है। त्वचा में गहरी दरारों की वजह से संक्रमण का खतरा अधिक होता है। इसके अलावा त्वचा सख्त होने के कारण फेफड़े को फूलने के लिए जगह नहीं मिल पाती। इसलिए ऐसे बच्चे ठीक से सांस नहीं ले पाते हैं। यही वजह है कि उनकी मौत हो जाती है।
हालांकि, ऐसी बीमारी से जूझने वाले बच्चे ज्यादा दिनों तक जिंदा नही रह पाते। लेकिन 33 वर्षीय नुसरत नेली शाहीन इकलौती ऐसी शख्स हैं जो इस सिंड्रोम से ग्रसित होने के बावजूद जिंदा हैं। अचरज की बात तो यह कि वह देख भी सकती हैं और सुनने में भी सक्षम हैं। वहीं, उनके चारों भाई-बहन, जिन्हें भी यही बीमारी थी, ज्यादा दिनों तक जिंदा न रह सके।
तीन लाख में एक बच्चा होता है प्रभावित
1750 से इस बीमारी के बारे में जानकारी मिली। त्वचा को नियमित रूप से मोश्चुरयिज़ करने की ज़रूरत होती है क्यूंकि त्वचा पर से पपड़ी निकल कर गिरती रहती है जिससे खाल के भीतरी हिस्से सामने आ जाते हैं जो हानिकारक है।
विश्व में केवल ऐसे 12 मामले सामने आए
ऐसे पहला पहला मामला अमरिका के साउथ कैरोलीना में अप्रैल 1750 में जन्मा था। तब से लेकर अभी तक विश्व में 12 ऐसे मामले सामने आ चुके है। भारत के अलावा ऐसी बेबी जर्मनी, पाकिस्तान और दक्षिण अफ्रीका में एक महिला ने ऐसा बेबी को जन्म दिया था।
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