श्री रंगनाथस्वामी मंदिर, तिरुचिरापल्ली, तमिलनाडु : (Ranganathaswamy Temple, Tiruchirappalli, Tamil Nadu)
बंगाल की खाड़ी के तट पर स्थित राज्य तमिलनाडु भारत के खूबसूरत राज्यों में से एक है, पर्यटन के स्तर पर यहां काफी कुछ देखने लायक है। एक से बढ़कर एक नायाब ऐतिहासिक धरोहर यहां देखने को मिलती है। यहां पर कई तरह के भव्य मंदिर भी हैं। इन्हीं मंदिरों में से एक रंगनाथ स्वामी मंदिर है।
श्री रंगनाथस्वामी मंदिर सृष्टि के पालनहार नारायण भगवान विष्णु के स्वरूप रंगनाथ भगवान का है। भगवान रंगनाथ को विष्णु का ही अवतार माना जाता है। यह मंदिर तमिलनाडु के तिरुचिरापल्ली के नामक द्वीप पर कावेरी नदी के तट पर स्थित है। श्री रंगनाथस्वामी मंदिर को श्रीरंगम मंदिर (Srirangam Temple), तिरुवरंगम तिरुपति, पेरियाकोइल, भूलोक वैकुण्ठ आदि विभिन्न नामों से भी जाना जाता है। यह द्रविण शैली में निर्मित है। यह मंदिर बेहद राजसी ढंग से निर्मित है और इसका लोकेशन भी अच्छी है। यह मंदिर, शक्ति और साधना का प्रतीक है।
मंदिर में एक 1000 साल पुरानी ममी भी संरक्षित है। मंदिर की भव्यता और विष्णु के रंगनाथ रूप के दर्शन के लिए भारत से ही नहीं, बल्कि विश्वभर से लाखों की संख्या में सैलानी आते हैं। जितना खूबसूरत इस मंदिर दिखने में है उतना ही दिलचस्प इसका इतिहास और निर्माण गाथा भी है।
रंगनाथ स्वामी मंदिर से जुड़ी एक कथा (Story of Sri Ranganatha Swamy Temple)
पुराणों के अनुसार गौतम ऋषि ने तप करके नासिक में गोदावरी नदी को देव लोक से पृथ्वी पर बुलाया था। जिसके तट पर त्र्यम्केश्वर मंदिर बना हुआ है। वैदिक काल में गोदावरी नदी के तट पर ही गौतम ऋषि का आश्रम भी था। जिसकी वजह से ये इलाका अन्य इलाकों की तुलना में ज़्यादा हरा-भरा और उपजाऊ भूमि वाला क्षेत्र था। अकाल के समय में भी गौतम ऋषि के आश्रम वाला क्षेत्र उसकी पीड़ा से दूर रहा करता था।
उस समय अन्य क्षेत्रों में जल की काफी कमी थी। अकाल के ही समय में एक दिन जल की तलाश में कुछ ऋषि गौतम ऋषि के आश्रम जा पहुंचे। अपने यथाशक्ति अनुसार गौतम ऋषि ने उनका आदर सत्कार कर उन्हें भोजन कराया। परंतु गौतम ऋषि के बढ़ते यश-कीर्ति से अन्य ऋषिजन उनसे जलने लगे थे। उर्वरक भूमि की लालच में ऋषियों ने मिलकर छल द्वारा गौतम ऋषि पर गौ हत्या का आरोप लगा दिया तथा उन्हें आश्रम से बाहर कर दिया गया। तथा उनकी सम्पूर्ण भूमि हथिया ली। आश्रम से निकलने के बाद गौतम मुनि दुखी रहने लगे।
आश्रम चले जाने के क्षोभ में गौतम ऋषि कावेरी नदी के तट पर पहुंचे फिर इसी जगह श्रीरंगम में आकर भगवान विष्णु की तपस्या करने लगे और उनकी सेवा की। गौतम ऋषि के सेवा से भगवान नारायण ने प्रसन्न होकर स्वामी रंगनाथ के रूप में दर्शन दिए और पूरा क्षेत्र उनके नाम कर दिया। इसके बाद गौतम ऋषि ने ब्रह्मा जी की प्राथना की और उनसे इस जगह भगवान विष्णु का मंदिर बनाने के लिए कहा। तभी से इस जगह को भगवान रंगनाथ के नाम से पहचाना जाने लगा।
विभीषण को मिली जिम्मेदारी
यह भी माना जाता है कि इस मंदिर में भगवान राम ने लंबे समय तक देवताओं की आराधना की थी। त्रेतायुग में रावण को पराजित करने के बाद भगवान राम जब लंका से वापस लौट रहे थे तब यह स्थान उन्होने विभिषण को सौंप दिया था। ऐसी मान्यता है कि यहां पर भगवान राम विभिषण के सामने अपने वास्तविक स्वरूप विष्णु रूप में प्रकट हुए थे और यहां रंगनाथ के रूप में निवास करने की इच्छा प्रकट की थी। उस समय से ही यहां भगवान विष्णु श्री रंगनाथस्वामी के रूप में यहां वास करते हैं।
कहा जाता है कि श्रीराम राज्याभिषेक के पश्चात् विभीषण ने श्रीरघुनाथजी से श्रीरंगजी को मांग लिया। वह इन्हें लेकर लंका जा रहे थे। इसी दौरान रंगद्वीप में उन्हें रखकर स्नान पूजन करने लगे। पूजा के बाद रंगजी उठाना चाहा पर वे नहीं उठा सके। वे अनशन करने लगे तो स्वप्न में आदेश हुआ ‘कावेरी का यह द्वीप मुझे प्रिय है। मैं लंका की ओर मुख करके स्थित हो जाउंगा। तुम यहीं दर्शन कर जाया करो। तबसे श्रीरंगजी यहीं पर विराजमान हैं।
ममी की होती है पूजा
वैष्णव संस्कृति के दार्शनिक गुरु रामानुजाचार्य से भी इस मंदिर का एक गहरा और खास संबंध है। इतिहास के अनुसार, श्री रामानुजाचार्य अपनी वृद्धावस्था में यहां आ गए थे। करीब 120 वर्ष की आयु तक श्रीरंगम में रहे थे। कुछ समय बाद भगवान श्री रंगनाथ से देहत्याग की अनुमति ली, तदोपरांत अपने शिष्यों के सामने देहावसान की घोषणा कर दी। माना जाता है कि भगवान रंगनाथ स्वामी की आज्ञा के अनुसार ही उनके मूल शरीर को मंदिर में दक्षिण पश्चिम दिशा के एक कोने में रखा गया है। यह मंदिर दुनिया में एकमात्र ऐसा मंदिर है, जहां एक वास्तविक मृत शरीर को हिंदू मंदिर के अंदर कई वर्षों से रखकर पूजा जाता है। मंदिर में रामानुजाचार्य के 1000 वर्ष पूर्व के मूल शरीर को संभाल कर रखा गया है।
उपदेश मुद्रा में है ममी
आम तौर पर ममी निद्रा भंग रूप में होती हैं लेकिन रामानुजाचार्य की ममी सामान्य बैठने की स्थिति यानी उपदेश मुद्रा में प्रतीत होती है। मंदिर में उनकी मूर्ति के पीछे उनकी ममी को रखा गया है। इस ममी पर केवल चंदन और केसर का लेप लगाया जाता है। इसके अलावा किसी अन्य रासायनिक पदार्थ का उपयोग इस ममी को संरक्षित करने के लिए नहीं किया जाता है। पिछले 878 वर्षों से केवल कपूर, चंदन और केसर के मिश्रण को दो साल में एक बार रामानुजाचार्य की ममी पर लगाया जाता है। इस लेप के कारण शरीर केसरिया रंग में परिवर्तित हो चुका है।
श्रीरंगम मंदिर उत्सव (Srirangam Temple Festival)
मंदिर में हर साल एक वार्षिक उत्सव मनाया जाता है। उत्सव के समय देवी-देवताओ की मूर्तियों को गहनों से सुशोभित भी किया जाता है। स्थानिक लोग धूम-धाम से इस उत्सव को मनाते है।
वैकुण्ठ एकादशी (Vaikunta Ekadasi) :
तमिल महीने मार्गजी (मर्गाज्ही) (दिसम्बर-जनवरी) में पागल पथु (10 दिन) और रा पथु (10 दिन) नाम का 20 दिनों तक चलने वाला उत्सव मनाया जाता है। जिसके पहले 10 दिन पागल-पथु (10 दिन) उत्सव को मनाया जाता है और अगले 10 दिनों तक रा पथु नाम का उत्सव मनाया जाता है। रा पथु के पहले दिन वैकुण्ठ एकादशी मनायी जाती है। तमिल कैलेंडर में इस उत्सव की ग्यारहवी रात को एकादशी भी कहा जाता है, लेकिन सबसे पवित्र एकादशी वैकुण्ठ एकादशी को ही माना जाता है।
श्रीरंगम मंदिर ब्रह्मोत्सव (Brahmotsavam) :
ब्रह्मोत्सव का आयोजन तमिल माह पंगुनी (मार्च-अप्रैल) में किया जाता है। अंकुरपुराण, रक्षाबंधन, भेरीराथान, ध्रजरोहन और यागसला जैसी पूर्व तैयारियां उत्सव के पहले की जाती है। श्याम में चित्राई सड़क पर उत्सव का आयोजन किया जाता है। उत्सव के दुसरे ही दिन, देवता की प्रतिमा को मंदिर में गार्डन के भीतर ले जाया जाता है। इसके बाद कावेरी नदी से होते हुए देवताओ को तीसरे दिन जियार्पुरम ले जाया जाता है।
स्वर्ण आभूषण उत्सव (Swarn Abhushan Utsav) :
मंदिर में मनाये जाने वाले वार्षिक स्वर्ण आभूषण उत्सव को ज्येष्ठाभिषेक के नाम से जाना जाता है, जो तमिल माह आनी (जून-जुलाई) के समय में मनाया जाता है। इस उत्सव में देवता की प्रतिमाओ को सोने और चाँदी के भगोनो में पानी लेकर डुबोया जाता है।
श्रीरंगम मंदिर के दुसरे मुख्य उत्सव (Srirangam Temple other festival) :
मंदिर में मनाये जाने वाले दुसरे उत्सवो में मुख्य रूप से रथोत्सव शामिल है, जिसका आयोजन तमिल माह थाई (जनवरी-फरवरी) में किया जाता है और मंदिर के मुख्य देवता को रथ पर बिठाकर मंदिर की प्रतिमा करायी जाती है। साथ ही मंदिर में पौराणिक गज-गृह घटनाओ के आधार पर चैत्र पूर्णिमा का भी आयोजन किया जाता है। इस कथा के अनुसार एक हाथी मगरमच्छ के जबड़े में फस जाता है और भगवान रंगनाथ ही उनकी सहायता करते है। इसके साथ-साथ मंदिर में वसंतोत्सव का भी आयोजन तमिल माह वैकासी (मई-जून) में किया जाता है, सूत्रों के अनुसार इसका आयोजन 1444 AD से किया जा रहा है।
ज्येष्ठाभिषेक, श्री जयंती, पवित्रोत्सव, थाईपुसम, वैकुण्ठ एकदशी और वसंतोत्सव आदि इस मंदिर में मनाये जाने वाले प्रमुख त्यौहारो में से एक है। वर्ष में केवल एक बार वैकुण्ठ एकदशी के दिन ही यहाँ वैकुण्ठ लोग उर्फ़ स्वर्ग के द्वार खोले जाते है। ऐसा माना जाता है की इस दिन परमपद वासल में प्रविष्ट होने वाला इंसान मोक्ष प्राप्त करके वैकुण्ठ धाम जाता है। मंदिर में वैकुण्ठ एकदशी के दिन ही सबसे ज्यादा भीड़ होती है।
शुक्ल पक्ष सप्तमी के दिन रंगनाथ मंदिर में हर साल रंग जयंती का आयोजन किया जाता है। रंगनाथ स्वामी के जन्म दिवस के रूप में मनाया जाने वाला यह उत्सव पूरे आठ दिन तक चलता है। माना जाता है कि इस पवित्र स्थान पर बहने वाली कावेरी नदी में कृष्ण दशमी के दिन स्नान करने से व्यक्ति को अष्ट-तीर्थ करने के बराबर का पुण्य प्राप्त होता है।
होता है धार्मिक उत्सव
तिरुचिरापल्ली के श्रीरंगम में स्थित होने के कारण श्रीरंगम मंदिर के नाम से भी प्रसिद्ध है। मंदिर की खास बात यह भी है कि यह गोदावरी और कावेरी नदी के मध्य बना हुआ है। मंदिर को धरती के बैकुंठ के नाम से भी जाना जाता है। मंदिर में भगवान विष्णु की अद्भुत मूर्ति है।
श्रीरंगम मंदिर को अक्सर विश्व में सबसे बड़ा कार्यशील हिंदू मंदिर के रूप में भी सूचीबद्ध किया गया है। मंदिर परिसर की दीवारों को हर्बल और वनस्पति रंगों के उपयोग से उत्तम चित्रों के साथ चित्रित किया गया है।
शयनमुद्रा में हैं नारायण
मंदिर के अंदर आदिशेष भगवान विष्णु की सर्वप्रिय मुद्रा यानि शयन की मुद्रा में अखंड भव्य काले रंग की प्रतिमा है। श्रीरंगनाथ स्वामी शेषनाग की शैय्या पर विराजमान हैं। उनकी गिनती दक्षिण भारत के जागृत देवताओं में होती ैहै, जो किसी भी तुरंत सुन लेते हैं। यह मंदिर भगवान विष्णु के 108 मुख्य मंदिरों में से एक है।
यह इकलौता मंदिर है जिसकी प्रशंसा तमिल भक्ति आंदोलन के सभी संतों के गीतों में मिलती है। यहां पर प्रत्येक दिन 200 भक्तों को मुफ्त में भोजन कराने की रीति है। आनंदम योजना के अंतर्गत यहां भोजन परोसा जाता है। और तमिलनाडु सरकार के हिंदू धार्मिक (Hindu Religious) और एंडॉमेंट बोर्ड (Endowment Board of the Government of Tamil Nadu) द्वारा मौद्रिक शर्तों का पालन किया जाता है।
मंदिर को अलवर सन्तों के 12 दिव्य प्रबन्ध से सुशोभित किया गया है। नालयिर दिव्य प्रबन्ध तमिल के 4,000 पद्यों को कहते हैं जिनकी रचना बारह अलवर सन्तों आठवीं शती के पहले ने की थी। तमिल में 'नालयिर' का अर्थ है - 'चार हजार'। वर्तमान रूप में इन पद्यों का संकलन नाथमुनि द्वारा नौंवी और दसवीं शताब्दी में किया गया। ये पद्य आज भी खूब गाए जाते हैं।
मंदिर में एक लकड़ी की मूर्ति जिसे याना वहाना (Yana Vahan) कहा जाता है, जिस पर भगवान विष्णु बैठे हुए मस्तोदोनटिओटाइदा (Mastodontoidea) जैसे दिखते है। मस्तोदोनटिओटाइदा एक प्रागैतिहासिक हाथी है जो 15 मिलियन वर्ष पूर्व विलुप्त हो गया था।
फ्रांसीसी सैनिकों द्वारा कर्नाटक युद्ध के दौरान मुख्य देवता की मूर्ति की आंख से हीरा चोरी हो गया था। 189.62 कैरेट (37.924 ग्रा) का ऑरलोव हीरा मॉस्को क्रेमलिन के डायमंड फंड में आज भी संरक्षित है।
इस मंदिर को प्राचीन काल से ही प्राकृतिक आपदाओं का खतरा बना हुआ है, यहां पर डच, पुर्तगाली और अंग्रेजों ने कई बार आक्रमण किया। इस मंदिर ने कई संकट झेले है। मुग़लों के आक्रमण से यह मंदिर भी अछूता ना रहा। इसे भी बहुदा स्तर पर क्षतिग्रस्त करने का प्रयास किया गया।
रंगनाथस्वामी मंदिर का इतिहास : (Ranganathaswamy Temple History)
मंदिर का जिक्र संगम युग (1000 ई. से 250 ई.) के तमिल साहित्य और शिलप्पादिकारम (तमिल साहित्य के पांच श्रेष्ठ महाकाव्यों में से एक) में भी मिलता है।
मंदिर का इतिहास हमें 9वी से 16वी शताब्दी के बीच का दिखाई देता है और मंदिर से जुड़ा हुआ पुरातात्विक समाज भी हमें इसके आस-पास दिखाई देता है।
इस मंदिर का निर्माण किसने कराया इस बारे में कोई सटीक तथ्य तो नहीं मिले हैं। फिर भी मंदिर से जुड़े हुए पुरातात्विक शिलालेख हमें 10वी शताब्दी में ही दिखाई देते है। मंदिर में दिखने वाले शिलालेख चोला, पंड्या, होयसला और विजयनगर साम्राज्य से संबंधित है, जिन्होंने तिरुचिरापल्ली जिले पर शासन किया था।
इस मंदिर को बनाने में होयसल और विजयनगर साम्राज्य के राजाओं का काफी योगदान रहा है। मंदिर के भीतरी भवन का निर्माण हम्बी नामक एक महिला ने करवाया गया था। 894 ई़ में गंग वंश के शासनकाल में थिरुमलाराया ने यहाँ नवरंग मंडप का निर्माण कराया, उन्होंने ही महाद्वार की बायीं तरफ भगवान तिरुमाला के मंदिर को भी बनवाया था।
रंगनाथन की प्रतिमा पहले जहाँ स्थापित की गयी थी, वहाँ बाद में जंगल बन चूका था। इसके कुछ समय बाद चोला राजा जब शिकार करने के लिए तोते का पीछा कर रहे थे तब उन्होंने अचानक से भगवान की प्रतिमा मिल गयी। इसके बाद राजा ने रंगनाथस्वामी मंदिर परिसर को विकसित कर दुनिया के सबसे विशाल मंदिरों में से एक बनाया।
इतिहासकारों के अनुसार, जिन साम्राज्यों ने दक्षिण भारत में राज किया (मुख्यतः चोला, पंड्या, होयसला और नायक), (मैसूर के वाडियार और हैदर अली द्वारा भी) वे समय-समय पर मंदिर का नवीकरण भी करते रहते और उन्होंने तमिल वास्तुकला के आधार पर ही मंदिर का निर्माण करवाया था। इन साम्राज्यों के बीच हुए आंतरिक विवाद के समय भी शासको ने मंदिर की सुरक्षा और इसके नवीकरण पर ज्यादा ध्यान दिया था। कहा जाता है की चोला राजा ने मंदिर को सर्प सोफे उपहार स्वरुप दिए थे। मंदिर का निर्माण चोल वंश के राजकुमार धर्म वर्मा ने करवाया था।
कुछ इतिहासकारों ने राजा का नाम राजमहेंद्र चोला बताया, जो राजेन्द्र चोला द्वितीय के सुपुत्र थे। लेकिन यह बात भी बहुत रोचक है की बाद के शिलालेखो में हमें इनका उल्लेख कही भी दिखाई नही देता। ना ही चौथी शताब्दी में हमें इनका उल्लेख दिखाई देता है और ना ही नौवी शताब्दी में।
1310 से 1311 में जब मलिक काफूर ने साम्राज्य पर आक्रमण किया, तब उन्होंने देवताओ की मूर्ति भी चुरा ली और वे उन्हें दिल्ली लेकर चले गए। इस साहसी शोषण में श्रीरंगम के सभी भक्त दिल्ली निकल गए और मंदिर का इतिहास बताकर उन्होंने सम्राट को मंत्रमुग्ध किया। उनकी प्रतिभा को देखकर सम्राट काफी खुश हो गए और उन्होंने उपहार स्वरुप श्रीरंगम की प्रतिमा दे दी। इसके बाद धीरे-धीरे समय भी बदलता गया।
वर्तमान मंदिर 15वीं सदी का बताया जाता है। कहा जाता है कि यह मंदिर आदि शंकराचार्य के समय काफी प्रसिद्ध था। यह कहा जाता है की आदि शंकराचार्य खुद यहां आकर भगवान के लिए रंगनाथाष्टकम गाते थे।
टीपू सुल्तान का भी योगदान
मैसूर से नजदीक होने के कारण यह भी माना गया है कि शासक टीपू सुल्तान का भी मंदिर निर्माण में योगदान हो सकता है। कहते हैं टीपू यहां के पुजारियों में बहुत आस्था रखता था। इतनी ही नहीं अंग्रेजों के साथ हुए एक युद्ध में मिली जीत के लिए भी उसने यहां के पंडितों को धन्यवाद दिया था। उसका मानना था कि उनकी सलाह के कारण उसे विजय मिली थी। इसलिए सुल्तान ने उन्हें आदर-सम्मान के साथ आर्थिक सहयोग भी दिया था।
मुस्लिम शासक होते हुए भी हैदर अली और टीपू सुल्तान की रंगनाथ स्वामी में आस्था थी। हैदरअली ने मंदिर का पाताल मंडप बनवाया था। टीपू सुल्तान ने भी मंदिर के विस्तार में योगदान किया।
वास्तुकला का उत्कृष्ट नमूना
यह मंदिर वास्तुकला की तमिल शैली में बनाया गया है। वैसे तो मंदिर ग्रेनाइट पत्थर से बनाया गया है लेकिन मंदिर में मुख्य देवता की मूर्ति स्टुको (Stucco) (कटुशर्करा विधि) से बनी हुई है। मूर्ति तथा मंदिर को देख प्रतीत होता है देव पुरुष ही रहे होंगे जिनके हाथों से साक्षात भगवान विष्णु का घर बनाया। इसके अलावा यहां अन्य देवी-देवताओं को समर्पित देवालय भी दिखते हैं। वास्तु कला के लिहाज से यहां तमिल शैली की बहुलता देखने को मिलती है। यह मंदिर विशाल परिसर वाले मंदिरों में से है। मंदिर के विमानम (गर्भगृह के ऊपर की संरचना) के ऊपरी भाग में सोने का उपयोग किया गया है।
इस विशाल मंदिर परिसर का क्षेत्रफल लगभग 6,31,000 वर्ग मी (156 एकड़) है और परिधि 4116 मी है। मंदिर की दीवारें करीब 32,592 फ़ीट तक फैली हुई हैं। मंदिर में 17 बड़े गोपुरम, 39 पवेलियन, 50 श्राइन, 9 तालाबों के अलावा 1000 स्तंभ है। इस स्तम्भों की ख़ासियत ये है कि 15-20 फ़ीट ऊंचे होने के बावजूद आज भी ये अपने अस्तित्व को संभाले खड़े हैं। इनमें से कुछ स्तम्भों पर भगवान की आकृतियां भी उकेरी गई हैं। ये सभी स्तम्भ एक सिरे में कुछ इस तरह लगाए गए हैं कि देखने में किसी बांस के जंगल की तरह लगते हैं। इस मंदिर में 1000 स्तंभों (वास्तव में 953) का हॉल एक नियोजित थियेटर की तरह संरचना का एक अच्छा उदाहरण है। मंदिर के अंदर का मुख्य आकर्षण 1000 स्तंभों वाला मुख्य कक्ष है। इन स्तंभों में अद्भुत नक्काशी देखने को मिलती है।
इसके विपरीत, "सेश मंडप", मूर्तिकला में इसकी जटिलता के साथ, एक अदभुत द्रश्य का उदाहरण है। ग्रैनाइट से बने 1000 स्तंभित हॉल का निर्माण विजयनगर काल (1336-1565) में किया गया था। इन स्तंभों में कुछ मूर्तियाँ जिसमें जंगली घोड़े और बड़े पैमाने पर बाघों के घूमते हुए सिर जो कि प्राकृतिक लगते है को बनाया गया हैं। मंदिर के दो स्तंभों पर विष्णु की 24 भाव-भंगिमाओं में मूर्तियां हैं।
श्रीरंगम मंदिर का परिसर 7 प्रकारों (घेरों) (संकेंद्रित दिवारी अनुभागों) और 21 गोपुरमों (7 मुखबिर एवं 21 टावर) से मिलकर बना हुआ है। इनमें से चार घेरों में श्रीरंगम का नगर बसा हुआ है। मंदिर के बाहरी घेरे का परिमाप 3 किलोमीटर लंबा है। इस मंदिर का मुख्य गोपुरम यानी मुख्य द्वार 236 फीट (72 मी) ऊँचा है, इसे ‘राजगोपुरम’ (शाही मंदिर टावर) कहा जाता है। जो 13 प्रतिशत के क्षेत्रफल में बना हुआ है। इसमें दो गोपुरम काफी विशाल हैं। मंदिर का सातवां घेरा पूरी तरह तैयार नहीं हो सका था। आप छठे घेरे के विशाल गोपुरम से मंदिर परिसर में प्रवेश करते हैं। जो इसे भारत का सबसे बड़ा मंदिर बनाता है। भारत का सबसे बड़ा मंदिर होने के साथ-साथ यह दुनिया के सबसे बड़े धार्मिक मंदिरों में से भी एक है। मंदिर परिसर में कुल 53 देवी देवताओं की मूर्तियां स्थापित हैं।
मंदिर परिसर में 2 बड़े टैंक हैं, चंद्र पुष्करिणी और सूर्य पुष्करिणी। इस पूरे कॉम्प्लेक्स को इस तरह से बनाया गया है कि सारा एकत्रित पानी टैंकों में चला जाता हैं। प्रत्येक पुष्करिणी की क्षमता करीब 2 मिलियन लीटर है और इसमें मछलियों के कारण पानी साफ होता है।
3 नंवबर, 2017 को इस मंदिर को बड़े पैमाने पर पुननिर्माण के बाद सांस्कृतिक विरासत संरक्षण हेतु ‘यूनेस्को एशिया प्रशांत पुरस्कार मेरिट, 2017’ (The UNESCO Asia Pacific Award of Merit 2017) भी मिला था। यह संयुक्त राष्ट्र संघ से पुरस्कार प्राप्त करने वाला तमिलनाडु का पहला मंदिर है। दो महत्वपूर्ण मापदंडों ने इस मंदिर को पुरस्कार जीतने के लिए सबसे अधिक योग्य बनाया है, यह मंदिर परिसर के पुनर्निर्माण के साथ-साथ वर्षा जल संचयन और ऐतिहासिक जल निकासी व्यवस्था को बहाल करने के पारंपरिक तरीके हैं। दक्षिण भारतीय शैली से सुशोभित रंगनाथ मंदिर को UNESCO ने वर्ल्ड हेरिटेज का दर्जा दिया हुआ है।
दर्शन
मंदिर सुबह आठ बजे से एक बजे तक और शाम को चार बजे से आठ बजे तक दर्शन के लिए खुला रहता है। मंदिर में दर्शन के लिए लंबी भीड़ नहीं होती। दक्षिण के तमाम मंदिरों की तरह यहाँ भी मंदिर का अपना प्रसाद काउंटर है।
कैसे पहुँचे
श्री रंगपट्टनम कर्नाटक के मंड्या जिले में आता है। बंगलुरू से श्री रंगपट्टनम 125 किलोमीटर है। सड़क मार्ग से ढाई घंटे का रास्ता है। वहीं मांड्या से इसकी दूरी 26 किलोमीटर है। मैसूर से भी यहाँ पहुँचना सुगम है। मैसूर से दूरी महज 22 किलोमीटर है।
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