तुरतुक - भारत का आखिरी गांव
लद्दाख क्षेत्र की नुब्रा घाटी में एक तरफ श्योक नदी और दूसरी ओर कराकोरम पर्वत श्रृंखला की ऊंची चोटियों से घिरा तुरतुक गांव अपने में समूचा इतिहास समेटे है। नुब्रा घाटी में स्थित तुरतुक तक पहुंचना आसान नहीं है। लेह के पहाड़ों-घाटियों से गुजरती ऊबड़-खाबड़ सडक़ ही यहां तक पहुंचने का एकमात्र रास्ता है। हालांकि सडक़ के दोनों तरफ मनोरम दृश्यों की भरमार है। दृश्य ऐसे कि नजरें बस ठहर जाएं।
लद्दाख के आखिरी छोर पर बसा ये गांव अपनी सभ्यता और संस्कृति की वजह से भी खास है। खार दूंगला दर्रे में बसा ये गांव ऊंचे पहाड़ों के बीच बसा हुआ है। तुरतुक लद्दाख़ के लेह जिले में एक गांव है। यह श्योक नदी के किनारे लेह शहर से 205 किमी दूर नुब्रा तहसील में स्थित है।
1947 की जंग के बाद तुरतुक पाकिस्तान के नियंत्रण में चला गया था, लेकिन 1971 की लड़ाई में भारत ने इसे फिर से हासिल कर लिया। सरहद से सटे इस गांव को सुरक्षा कारणों से भारत ने पाकिस्तान को नहीं लौटाया। तब से यहां भारत का नियंत्रण है। यहां के सभी गांव वालों के पास भारतीय पहचान-पत्र हैं। 1971 में कब्जे के बाद सभी को भारतीय नागरिकता दे दी गई थी।
भौगोलिक दृष्टि से, तुरतुक बाल्टिस्तान क्षेत्र में स्थित है और भारत में ऐसे चार गांवों में से एक है, अन्य तीन त्याक्षी, चुलुंका और थांग (चोरबत घाटी) हैं। तुरतुक भारत में आखिरी चौकी है जिसके बाद पाकिस्तान नियंत्रित गिलगित-बल्तिस्तान शुरू होता है। तुरतुक सियाचिन ग्लेशियर के प्रवेश द्वारों में से एक है।
एक दौर में ये इलाका मशहूर सिल्क रुट का हिस्सा था। यहां से भारत, चीन, रोम और फारस तक व्यापार होता था।
बाल्टी नस्ल के लोग
तुरतुक गांव बौद्धों के गढ़ लद्दाख में है, लेकिन तुरतुक एक बाल्टी गांव है, यहां कि ज्यादातर आबादी मुसलमानों की है। इन लोगों पर तिब्बत और बौद्धों का गहरा प्रभाव है। माना जाता है कि ये सभी इंडो-आर्यनों के वंशज हैं। मूल रूप से ये लोग बाल्टी भाषा बोलते हैं, जो मूल रूप से एक तिब्बती भाषा है। और लद्दाखी और उर्दू भाषा भी बोलते हैं। लेकिन इनका खानपान और संस्कृति साझा है।
तुरतुक भारत के कुछ स्थानों में से एक है जहां बाल्टी संस्कृति देख सकते है। बाल्टी एक नस्लीय समूह है जिनके पूर्वज तिब्बती थे और जो अब मुख्य रूप से पाकिस्तान के स्कर्दू इलाके में रहते हैं।
यहां के गांव वाले नूरबख्शिया मुसलमान हैं, जो इस्लाम की सूफी परंपरा का हिस्सा है। गांव के लोग सलवार कमीज पहनते हैं। इनके अलावा उनकी और भी कई चीज़ें बाल्टिस्तान में रहने वाले अपने कुनबे के लोगों से मिलती-जुलती हैं। नियंत्रण रेखा से आगे पाकिस्तान की ओर जाने पर उनकी बस्तियां हैं।
इतिहास
जम्मू-कश्मीर की नई सरहदें बनने से पहले बाल्टिस्तान एक अलग राज्य होता था। सोलहवीं सदी तक यहां तुर्किस्तान के यागबू वंश के शासकों ने राज किया था। ये शासक मध्य एशिया से आए थे और 800 से लेकर 1600 ईस्वी तक इन्होंने यहां राज किया। बाल्टिस्तान के यागबू राजों के राज में कला और साहित्य को खूब बढ़ावा मिला। इनकी कुछ इमारतें तुरतुक गांव में भी हैं, जिन्हें आज म्यूजियम की शक्ल दे दी गई है। तुरतुक राजाओं के वंशज आज भी तुरतुक को अपना घर मानते हैं।
तुरतुक में और आसपास पर्यटन
यहां के सरहदी इलाके पिछले कई दशकों से शांत हैं और 2010 में तुरतुक को सैलानियों (पर्यटकों) के लिए भी खोल दिया गया है। यह आखिरी बड़ा गांव है जहां नियंत्रण रेखा से पहले पर्यटक गतिविधि की अनुमति है।
2012 से यहां आने के वास्ते ‘इनर लाइन परमिट‘ लेना आवश्यक कर दिया गया। अब यहां आने के वास्ते लेह स्थित डीसी कार्यालय से परमिट बनवाना होता है। नुब्रा घाटी और तुरतुक ‘इनर लाइन’ के अंतर्गत आते हैं।
तुरतुक गांव श्योक घाटी का हिस्सा है। इस गांव में श्योक नदी के ऊपर पठार पर स्थित कुछ गोम्पा हैं और गांव में देखने के लिए एक पुराना शाही घर है।
इस गांव में मौजूद झरने का दृश्य बेहद खास है। दूर-दूर तक फैले घास के मैदान और लकड़ी के बने पुल को पार करने के बाद जब आप इस झरने को देखते हैं तो रास्ते की सारी थकान मिट जाती है।
काराकोरम
अगर आप ट्रैकिंग के शौकीन है तो काराकोरम की पहाड़ियों पर जाएं। पर्यटकों की नजर से दूर लद्धाख के इस गांव की यात्रा एक अनोखा अनुभव देती है।
ठहरने की व्यवस्था
तुरतुक गांव में ठहरने के लिए होटल कम मिलेंगे। लेकिन यहां के लोगों के घर में होमस्टे की सुविधा मिलेगी।
पत्थर को बनाया जिंदगी का साथी
बाल्टी लोगों ने कराकोरम के पत्थरों को अपना साथी बना लिया है। वे पत्थरों से दीवारें बनाते हैं। उनके घर और चारदीवारी भी पत्थरों से ही बनी हैं। खेतों की सिंचाई के लिए नालियां भी पत्थरों से बनाई गई हैं।
तुरतुक की ऊंचाई लद्दाख के दूसरे इलाकों से कम है। यह गांव समुद्र तट से सिर्फ 2,900 मीटर की ऊंचाई पर है। यहां ख़ासी गर्मी पड़ती है। गांव वालों ने पथरीले परिवेश का इस्तेमाल करके प्राकृतिक पत्थर-शीत भंडारण गृहों का निर्माण किया है, जहां वे मांस, मक्खन और गर्मी में खराब होने वाली दूसरी चीज़ें रखते हैं। बाल्टी भाषा में इनको नांगचुंग कहते हैं, जिसका मतलब होता है शीत घर। पत्थरों से बने इन बंकरनुमा घरों में ठंडी हवा आने-जाने के लिए सुराख बने होते हैं। जिससे अंदर रखी वस्तुएं बाहर के तापमान से ठंडी रहती हैं।
पहाड़ों का सीना चीर लाए हरियाली
तुरतुक में पथरीला परिवेश होने से खेती आसान नहीं है। फिर भी यहां के निवासियों ने पहाड़ों का सीना चीर कर हर तरफ हरियाली कर दी है।
यहां की मुख्य फसल जौ है। तुरतुक अपनी खुबानी और अखरोट के लिए मशहूर है। यहां के बागानों में आपको खुबानी से लगदग पेड़ मिलेंगे। जो देखने में बहुत सुंदर लगते हैं। इसके साथ ही यहां पर अखरोट के भी बहुत से पेड़ नजर आ जाएंगे। यहां की कम ऊंचाई की वजह से बाल्टी लोग यहां कुट्टू भी बोते हैं।
हालांकि इनकी खेती मेहनत का काम है। यहां के खेतों में सालों भर काम चलता है। कभी पौधे लगाए जा रहे होते हैं तो कभी उनकी कटाई हो रही होती है। कराकोरम पर्वत श्रृंखला के भूरे पहाड़ों और नदी घाटियों की वीरान जमीन के बीच तुरतुक की हरियाली नखलिस्तान सरीखी लगती है।
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