शनिवार, 27 मई 2023

सेंगोल (राजदंड)

सेंगोल (राजदंड) - भारत की स्वतंत्रता का प्रतीक

सेंगोल स्वर्ण परत वाला एक राजदंड है जिसे 28 मई 2023 को भारत के नए संसद भवन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्थापित किया। इसका इतिहास चोल साम्राज्य से जुड़ा है। सेंगोल जिसे हस्तान्तरित किया जाता है, उससे न्यायपूर्ण शासन की अपेक्षा की जाती है।

1947 में धार्मिक मठ - अधीनम के प्रतिनिधि ने सैंगोल भारत गणराज्य के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को सौंपा था। बाद में इसे इलाहाबाद संग्रहालय में रख दिया गया था। सेंगोल मुख्यतः चांदी से बना है जिसके ऊपर सोने का पानी चढ़ा है।

शब्द उत्पत्ति

'सेंगोल' तमिल शब्द 'सेम्मई' (नीतिपरायणता) व 'कोल' (छड़ी) से मिलकर बना है। सेम्मई का अर्थ है 'नीतिपरायणता', यानि सेंगोल को धारण करने वाले पर यह विश्वास किया जाता है कि वह नीतियों का पालन करेगा। यही राजदंड कहलाता था, जो राजा को न्याय सम्मत दंड देने का अधिकारी बनाता था। ऐतिहासिक परंपरा के अनुसार, राज्याभिषेक के समय, राजा के गुरु के नए शासक को औपचारिक तोर पर राजदंड उन्हें सौंपा करते थे।

‘सेंगोल’ शब्द संस्कृत के ‘संकु’ (शंख) से भी आया हो सकता है। सनातन धर्म में शंख पवित्रता का प्रतीक है।

तमिलनाडु के तंजावुर में स्थित तमिल विश्वविद्यालय में पुरातत्त्व के प्रोफेसर एस राजावेलु के अनुसार तमिल में सेंगोल का अर्थ 'न्याय' है। तमिल राजाओं के पास ये सेंगोल होते थे जिसे अच्छे शासन का प्रतीक माना जाता था। शिलप्पदिकारम् और मणिमेखलै, दो महाकाव्य हैं जिनमें सेंगोल के महत्त्व पर प्रकाश डाला गया है। विश्वप्रसिद्ध तिरुक्कुरल में भी सेंगोल का उल्लेख है।

बनावट व प्रतीकात्मकता

सेंगोल सोने की परत चढ़ा हुआ राजदंड है, जिसकी लंबाई लगभग 5 फीट (1.5 मीटर) है इसका मुख्य हिस्सा चांदी से बना है। सेंगोल को बनाने में 800 ग्राम सोने का प्रयोग किया गया था।

इसे जटिल डिजाइनों से सजाया गया है और शीर्ष पर नंदी की नक्काशी की गई है। नंदी हिंदू धर्म में एक पवित्र पशु और शिव का वाहन है। इसे धर्म के प्रतीक के रूप में देखा जाता है, जिसे पुराणों में एक बैल के रूप में व्यक्त किया गया है। नंदी की प्रतिमा इसका शैव परंपरा से जुड़ाव दर्शाती है। हिंदू व शैव परंपरा में नंदी समर्पण का प्रतीक है। यह समर्पण राजा और प्रजा दोनों के राज्य के प्रति समर्पित होने का वचन है। दूसरा, शिव मंदिरों में नंदी हमेशा शिव के सामने स्थिर मुद्रा में बैठे दिखते हैं। हिंदू मिथकों में ब्रह्मांड की परिकल्पना शिवलिंग से की जाती रही है। इस तरह नंदी की स्थिरता शासन के प्रति अडिग होने का प्रतीक है।

इसके अतिरिक्त नंदी के नीचे वाले भाग में देवी लक्ष्मी व उनके आस-पास हरियाली के तौर पर फूल-पत्तियां, बेल-बूटे उकेरे गए हैं, जो कि राज्य की संपन्नता को दर्शाती हैं।

इतिहास - ऐसी थी राजदंड की अवधारणा

प्राचीन काल में भारत में जब राजा का राज्याभिषेक होता था, तो विधिपूर्वक राज्याभिषेक हो जाने के बाद राजा राजदण्ड लेकर राजसिंहासन पर बैठता था। राजसिंहासन पर बैठने के बाद वह कहता था कि अब मैं राजा बन गया हूँ अदण्ड्योऽस्मि, अदण्ड्योस्मि, अदण्ड्योऽ (मैं अदण्ड्य हूँ, मैं अदण्ड्य हूँ); अर्थात मुझे कोई दण्ड नहीं दे सकता। तो पुरानी विधि ऐसी थी कि उनके पास एक संन्यासी खड़ा रहता था, लँगोटी पहने हुए। उसके हाथ में एक छोटा, पतला सा पलाश का डण्डा रहता था। वह उससे राजा पर तीन बार प्रहार करते हुए उसे कहता था कि 'राजा! यह अदण्ड्योऽस्मि अदण्ड्योऽस्मि गलत है। दण्ड्योऽसि दण्ड्योऽसि दण्ड्योऽसि अर्थात तुझे भी दण्डित किया जा सकता है। ऐसा कहते हुए वह राजा को राजदंड थमाता है। यानि कि राजदंड, राजा की निरंकुशता पर अंकुश लगाने का साधन भी रहा है। महाभारत में इसी आधार पर महामुनि व्यास, युधिष्ठिर को अग्रपूजा के जरिए अपने ऊपर एक राजा को चुनने के लिए कहते हैं।

5000 साल पुराने महाभारत में भी मिलता है इतिहास

रामायण-महाभारत के कथा प्रसंगों में भी ऐसे उत्तराधिकार सौंपे जाने के ऐसे जिक्र मिलते रहे हैं। इन कथाओं में राजतिलक होना, राजमुकुट पहनाना सत्ता सौंपने के प्रतीकों के तौर पर इस्तेमाल होता दिखता है, लेकिन इसी के साथ राजा को धातु की एक छड़ी भी सौंपी जाती थी, जिसे राजदंड कहा जाता था। इसका जिक्र महाभारत में युधिष्ठिर के राज्याभिषेक के दौरान भी मिलता है। जहां शांतिपर्व में इसके जिक्र की बात करते हुए कहा जाता है कि 'राजदंड राजा का धर्म है, दंड ही धर्म और अर्थ की रक्षा करता है।'

कई राजवंशों में खास रहा है राजदंड

राजदंड उन तीन आधारभूत शक्तियों में से एक रहा है, जो राजा और राज्य की संप्रुभता का प्रतीक रही हैं। इनमें राजदंड के अलावा मुकुट या छत्र और पताका भी प्रमुख रहे हैं। जहां पताका के जरिए राज्य की सीमा निर्धारित होती थी, तो वहीं छत्र और मुकुट प्रजा के बीच राजा की मौजूदगी का प्रतीक थी और राजदंड, राजा की आम सभा में न्याय का प्रतीक रहा है। इतिहास के कालखंड से जुड़ी एक रिपोर्ट के मुताबिक, राजदंड का प्रयोग मौर्य साम्राज्य (322-185 ईसा पूर्व) में भी हुआ करता था। मौर्य सम्राटों ने अपने विशाल साम्राज्य पर अपने अधिकार को दर्शाने के लिए राजदंड का इस्तेमाल किया था। चोल साम्राज्य (907-1310 ईस्वी) के अलावा गुप्त साम्राज्य (320-550 ईस्वी) और विजयनगर साम्राज्य (1336-1646 ईस्वी) के इतिहास में भी राजदंड प्रयोग किया गया है। अभी हाल ही में ब्रिटेन में प्रिंस चार्ल्स का कोरोनेशन करते हुए उनके हाथ में राजदंड की ही प्रतीक एक छड़ी थमाई गई है। ये इस बात की गवाह है कि शाही वस्तुओं में राजदंड सबसे अहम तथ्य और शब्द रहा है, जिसे राजा और राज्य की शक्तियां तय करने की क्षमता मिली हुई है।

राजदंड सौंपने के दौरान 7वीं शताब्दी के तमिल संत संबंध स्वामी द्वारा रचित एक विशेष गीत का गायन भी किया जाता था।

1947 में कैसे सामने आया सेंगोल - सी राजगोपालाचारी ने दी थी राय

अभी के सेंगोल की बात करते हुए तथ्यों के तार चोल साम्राज्य के साथ अधिक जुड़े नजर आते हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि, सेंगोल की 1947 से जुड़ा जो विस्तृत इतिहास सामने आया है, उसके धागे तमिल संस्कृति की प्राचीनता से जुड़े हैं।

ऐसा कहा जाता है कि वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन ने पंडित जवाहरलाल नेहरू से एक सवाल किया था: "ब्रिटिश से भारतीय हाथों में सत्ता के हस्तांतरण के प्रतीक के रूप में किस समारोह का पालन किया जाना चाहिए?" इस प्रश्न ने नेहरू को वयोवृद्ध स्वतंत्रता सेनानी सी राजगोपालाचारी (राजाजी) से परामर्श करने के लिए प्रेरित किया। राजाजी ने चोल कालीन समारोह का प्रस्ताव दिया जहां एक राजा से दूसरे राजा को सत्ता का हस्तांतरण उच्च पुरोहितों की उपस्थिति में पवित्रता और आशीर्वाद के साथ पूरा किया जाता था। राजाजी ने तमिलनाडु के तंजावुर जिले में शैव संप्रदाय के धार्मिक मठ - तिरुवावटुतुरै आतीनम् से संपर्क किया। तिरुवावटुतुरै आतीनम् 500 वर्ष से अधिक पुराना है और पूरे तमिलनाडु में 50 मठों को संचालित करता है। तंजौर ही इतिहास का तंजावुर है जहां एक समय चोल राजवंश की महान राजधानी थी।
 
अधीनम के नेता ने तुरंत पांच फीट लंबाई के 'सेंगोल' को तैयार करने के लिए चेन्नई में सुनार वुम्मिदी बंगारू चेट्टी को नियुक्त किया।

वुम्मिदी बंगारू चेट्टी ने सेंगोल तैयार करके अधीनम के प्रतिनिधि को दे दिया। अधीनम के नेता ने वह सैंगोल पहले लॉर्ड माउंटबेटन को दे दिया। फिर उनसे वापस लेकर 15 अगस्त की तारीख 1947 के शुरू होने से ठीक 15 मिनट पहले स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को दे दिया। लोकप्रिय पुस्तक "फ्रीडम एट मिडनाइट" में, लेखकों ने उल्लेख किया है कि स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर, दो हिंदू संन्यासी एक प्राचीन परंपरा का पालन करते हुए प्रधानमंत्री नेहरू को स्वर्ण राजदंड, 'सेंगोल' सौंपने आए थे, जिसमें हिंदू संतों ने भारत के राजा अपनी शक्ति के प्रतीकों के साथ।

स्थापना

28 मई, 2023 को, नई संसद के उद्घाटन की शुरुआत में, अधीनम पुजारियों ने एक पारंपरिक पूजा की जिसमें प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने भाग लिया, और मोदी सम्मान के प्रतीक के रूप में पवित्र सेंगोल के सामने झुके। तब अधीनम पुजारियों के एक समूह ने सेंगोल को पीएम मोदी को प्रस्तुत किया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसी सेंगोल को नए संसद भवन में लोकसभा के अध्यक्ष के आसन के ठीक निकट स्थापित कर दिया। कुछ विश्लेषकों का मानना है कि सेंगोल भारत की सभ्यतागत परंपरा की पुनः खोज का प्रतीक बन गया है।



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