कोहिनूर हीरा (Koh-i-noor Diamond)
अन्य कई प्रसिद्ध जवाहरातों की भांति कोहिनूर की भी अपनी कथाएं रही हैं। इससे जुड़ी मान्यता के अनुसार, यह पुरुष स्वामियों के दुर्भाग्य और मृत्यु का कारण बना व स्त्री स्वामिनियों के लिए सौभाग्य लेकर आया। एक अन्य मान्यता के अनुसार, कोहिनूर का स्वामी संसार पर राज्य करने वाला बना। लेकिन जब से अपनी पहचान बनाई, इसने भारत में तबाही और अस्थिरता ही मचाई और मुस्लिम शासको के लिए भी यह बर्बादी का सूचक रहा। किंवदंती है कि कोहेनूर अशुभ रत्न है और अपने स्वामी पर इसका प्रभाव अनिष्टकारी होता है।
उत्पत्ति और खोज
कोहिनूर का उद्गम व आरम्भिक इतिहास स्पष्ट नहीं है। इसकी कहानी भी परी कथाओं से कम रोमांचक नहीं है। खनन से जुड़ी दक्षिण भारत में हीरों की कई कहानियां रहीं हैं, परंतु कौन-सी इसकी है, कहना मुश्किल है।14वीं शताब्दी से पूर्व इस हीरे का इतिहास ठीक ज्ञात नहीं है। दिल्ली सल्तनत में खिलजी वंश का अंत 1320 में होने के बाद गियासुद्दीन तुगलक ने गद्दी संभाली थी। उसने अपने पुत्र उलुघ खान को 1323 में ककातीय वंश के राजा प्रतापरुद्र को युद्ध में हराने भेजा था। इस हमले को कड़ी टक्कर मिली, परन्तु उलूघ खान एक बड़ी सेना के साथ फिर युद्ध करने लौटा। इसके लिए अनपेक्षित राजा प्रतापरुद्र वारंगल के युद्ध में हार गया। तब वारंगल की लूट-पाट, तोड़-फोड़ व हत्या-कांड महीनों चली। सोने-चांदी व हाथी-दांत की बहुतायत मिली, जो कि हाथियों, घोड़ों व ऊंटों पर दिल्ली ले जाया गया। कोहिनूर हीरा भी उस लूट का भाग था। यहीं से, यह हीरा दिल्ली सल्तनत के उत्तराधिकारियों के हाथों से मुगल सम्राट बाबर के हाथ 1526 में लगा।
इस हीरे की प्रथम दृष्टया पक्की टिप्पणी यहीं सन् 1526 से मिलती है। बाबर ने अपने संस्मरण में आगरा की विजय में एक बृहत् उत्तम हीरा प्राप्त करने का उल्लेख किया है। संभवत: वह कोहेनूर ही था, क्योंकि उस हीरे का भार आठ मिस्कल (320 रत्ती) बताया है। तराशे जाने के पूर्व कोहेनूर का भार इतना ही था। बाबर ने अपने बाबरीनामा में लिखा है कि यह हीरा सन 1294 में मालवा के एक (अनामी) राजा का था। (सन् 1306 में यह हीरा सबसे पहले मालवा के महाराजा रामदेव के पास देखी गयी।) बाबर ने इसका मूल्य यह आंका कि पूरे संसार का दो दिनों तक पेट भर सके, इतना महंगा। बाबरनामा में दिया है कि किस प्रकार मालवा के राजा को जबर्दस्ती यह विरासत अलाउद्दीन ख़िलज़ी को देने पर मजबूर किया गया। उसके बाद यह दिल्ली सल्तनत के उत्तराधिकारियों द्वारा आगे बढ़ाया गया, और अन्ततः 1526 में, बाबर की जीत पर उसे प्राप्त हुआ। हालांकि, बाबरनामा 1526 से 1530 में लिखा गया था, परन्तु इसके स्रोत ज्ञात नहीं हैं। उसने इस हीरे को सर्वदा इसके वर्तमान नाम से नहीं पुकारा है। बल्कि एक विवाद के बाद यह निष्कर्ष निकला कि बाबर का हीरा ही बाद में कोहिनूर कहलाया। बाबर एवं हुमायुं, दोनों ने ही अपनी आत्मकथाओं में, बाबर के हीरे के उद्गम के बारे में लिखा है। यह हीरा पहले ग्वालियर के कछवाहा शासकों के पास था, जिनसे यह तोमर राजाओं के पास पहुंचा।
अंतिम तोमर विक्रमादित्य को सिकंदर लोधी ने हराया, व अपने अधीन किया, तथा अपने साथ दिल्ली में ही बंदी बना कर रखा। लोधी की मुगलों से हार के बाद, मुगलों ने उसकी संपत्ति लूटी, किन्तु राजकुमार हुमायुं ने मध्यस्थता करके उसकी संपत्ति वापस दिलवा दी, बल्कि उसे छुड़वा कर, मेवाड़, चित्तौड़ में पनाह लेने दिया। हुमायुं की इस भलाई के बदले विक्रमादित्य ने अपना एक बहुमूल्य हीरा, जो शायद कोहिनूर ही था, हुमायुं को साभार दे दिया। परन्तु हुमायुं का जीवन अति दुर्भाग्यपूर्ण रहा। वह शेरशाह सूरी से हार गया। सूरी भी एक तोप के गोले से जल कर मर गया। उसका पुत्र व उत्तराधिकारी जलाल खान अपने साले द्वारा हत्या को प्राप्त हुआ। उस साले को भी उसके एक मंत्री ने तख्तापलट कर हटा दिया। वह मंत्री भी एक युद्ध को जीतते-जीतते आंख में चोट लग जाने के कारण हार गया, व स्ल्तनत खो बैठा। हुमायुं के पुत्र अकबर ने यह रत्न कभी अपने पास नहीं रखा, जो कि बाद में सीधे शाहजहां के खजाने में ही पहुंचा। शाहजहां भी अपने बेटे औरंगजेब द्वारा तख्तापलट कर बंदी बनाया गया, जिसने अपने अन्य तीन भाइयों की हत्या भी की थी। निश्चित रूप से ज्ञात है कि कोहेनूर औरंगजेब के पास था और वह उसे बड़े यत्न से रखता था।
कोहिनूर की भिन्न कोणों से टैवर्नियर की अभिकल्पना के अनुसार, मुगल सम्राट शाहजहां ने कोहिनूर को अपने प्रसिद्ध मयूर-सिंहासन (तख्ते-ताउस) में जड़वाया। उसके पुत्र औरंगजेब ने अपने पिता को कैद करके आगरा के किले में रखा। यह भी कथा है, कि उसने कोहिनूर को खिड़की के पास इस तरह रखा कि उसके अंदर, शाहजहां को उसमें ताजमहल का प्रतिबिम्ब दिखाई दे। कोहिनूर, मुगलों के पास 1739 में हुए ईरानी शासक नादिरशाह के आक्रमण तक ही रहा। उसने आगरा व दिल्ली में भयंकर लूटपाट की। तब मुग़ल बादशाहों की बहुमूल्य वस्तुओं के साथ वह दिल्ली के मुगल शासक शाह मोहम्मद से मयूर सिंहासन सहित कोहिनूर व अगाध सम्पत्ति फारस ईरान लूट कर ले गया। इस हीरे को प्राप्त करने पर ही, नादिर शाह के मुख से अचानक निकल पड़ा वाह ! कोह-इ-नूर !! जिससे इसको अपना वर्तमान नाम मिला। 1739 से पूर्व, इस नाम का कोई भी सन्दर्भ ज्ञात नहीं है।
कोहिनूर का असली मूल्यांकन नादिर शाह की एक कथा से मिलता है। उसकी रानी ने कहा था, कि यदि कोई शक्तिशाली मानव, पांच पत्थरों को चारों दिशाओं व ऊपर की ओर, पूरी शक्ति सहित फेंके, तो उनके बीच का खाली स्थान यदि सुवर्ण व रत्नों मात्र से ही भरा जाए, उनके बराबर इसकी कीमत होगी।
सन् 1747 में नादिर शाह की हत्या के बाद, यह अफगानिस्तान के अहमद शाह अब्दाली (काबुल के अमीर) के हाथों में पहुंचा। 1830 में, शूजा शाह, अफगानिस्तान का तत्कालीन पदच्युत शासक किसी तरह कोहिनूर के साथ, बच निकला व पंजाब पहुंचा, व वहां के महाराजा रंजीत सिंह को यह हीरा भेंट किया। इसके बदलें स्वरूप, रंजीत सिंह ने ईस्ट इंडिया कंपनी को, अपनी टुकड़ियां अफगानिस्तान भेज कर, अफगान गद्दी जीत कर, शाह शूजा को वापस दिलाने के लिये तैयार कर लिया।
हीरा भारत के बाहर निकला
महाराजा रंजीत सिंह, ने स्वयं को पंजाब का महाराजा घोषित किया था। लेकिन 1839 में अपनी मृत्यु शय्या पर उन्होंने अपनी वसीयत में, कोहिनूर को पुरी, उड़ीसा प्रसिद्ध श्री जगन्नाथ मंदिर को दान देने को लिखा था। किन्तु उनके अंतिम शब्दों के बारे में विवाद उठा, और अन्ततः वह पूरे ना हो सके। 29 मार्च, 1849 को लाहौर के किले पर ब्रिटिश ध्वज फहराया। इस तरह पंजाब, ब्रिटिश भारत का भाग घोषित हुआ। लाहौर संधि का एक महत्वपूर्ण अंग निम्न अनुसार था, कोह-इ-नूर नामक रत्न, जो शाह-शूजा-उल-मुल्क से महाराजा रणजीत सिंह द्वारा लिया गया था, लाहौर के महाराजा द्वारा इंग्लैण्ड की महारानी को सौंपा जायेगा।संधि का प्रभारी गवर्नर जनरल लॉर्ड डल्हौजी थे जिनकी कोहिनूर अर्जन की चाहत इस संधि के मुख्य कारणों में से एक थी। इनके भारत में कार्य, सदा ही विवादग्रस्त रहे व कोहिनूर अर्जन का कृत्य, बहुत से ब्रिटिश टीकाकारों द्वारा आलोचित किया गया है। हालांकि, कुछ ने यह भी प्रस्ताव दिया कि हीरे को महारानी को सीधे ही भेंट किया जाना चाहिए था, बजाय छीने जाने के किन्तु डल्हौजी ने इसे युद्ध का मुनाफा समझा, व उसी प्रकार सहेजा।
बाद में, डल्हौजी ने, 1851 में, महाराजा रणजीत सिंह के उत्तराधिकारी दलीप सिंह द्वारा महारानी विक्टोरिया को भेंट किये जाने के प्रबंध किए। तेरह वर्षीय, दलीप ने इंग्लैंड की यात्रा की व उन्हें भेंट किया। यह भेंट, किसी रत्न को युद्ध के माल के रूप में स्थानांतरण किए जाने का अंतिम दृष्टांत था। एक महान प्रदर्शनी 1851 में, लंदन के हाइड पार्क में एक विशाल प्रदर्शनी में, ब्रिटिश जनता को इसे दिखाया गया।
कोहिनूर नए रत्नतराशों की सलाह पर इसकी प्रतिरत्न के कटाव में कुछ बदलाव हुए, जिनसे वह और सुंदर प्रतीत होने लगा। 1852 में, विक्टोरिया के पति प्रिंस अल्बर्ट की उपस्थिति में, हीरे को पुनः तराशा गया, जिससे वह 186,16 कैरेट / 186.06 कैरेट (37.2 ग्राम) से घट कर 105.602 कैरेट / 106.6 कैरेट (21.6 ग्राम) का हो गया, किन्तु इसकी आभा में कई गुणा बढ़ोत्तरी हुई। अल्बर्ट ने बुद्धिमता का परिचय देते हुए, अच्छी सलाहों के साथ, इस कार्य में अपना अतीव प्रयास लगाया, साथ ही तत्कालीन 8000 पाउंड भी इसे तराशने में खर्च, जिससे इस रत्न का भार 81 कैरट घट गया, परन्तु अल्बर्ट फिर भी असन्तुष्ट थे। हीरे को मुकुट में अन्य दो हजार हीरों सहित जड़ा गया।
सन् 1911 में कोहिनूर महारानी मैरी के सरताज में जड़ा गया। और आज भी उसी ताज में है। बाद में, इसे महाराजा की पत्नी के किरीट का मुख्य रत्न जड़ा गया। महारानी अलेक्जेंड्रिया इसे प्रयोग करने वाली प्रथम महारानी थीं। इनके बाद महारानी मैरी थीं। 1936 में, इसे महारानी एलिजाबेथ के किरीट की शोभा बनाया गया। सन 2002 में, इसे उनके ताबूत के ऊपर सजाया गया।
प्रचलित इतिहास के अनुसार दुनिया के सबसे दुर्लभ और बेशकीमती हीरे कोहिनूर की ब्रिटेन की महारानी के मुकुट तक पहुंचने की दास्तान महाभारत के कुरुक्षेत्र से लेकर गोलकुण्डा के गरीब मजदूर की कुटिया तक फैली हुई है। ब्रिटेन की महारानी के ताज में जड़ा और दुनिया के अनेक बादशाहों के दिलों को ललचाने की क्षमता रखने वाला अनोखा कोहिनूर दुनिया में आखिर कहां से आया, इस बारे में ऐतिहासिक घटनाओं के अलावा बहुत सी कथाएं भी प्रचलित हैं। यह हीरा अनेक युद्धों, साजिशों, लालच, रक्तपात और जय-पराजयों का साक्षी रहा है। कोहिनूर को रखने वाले आखिरी हिन्दुस्तानी पंजाब का रणजीत सिंह था।
कोहिनूर के जन्म की प्रमाणित जानकारी नहीं है पर ’ज्वेल्स आफ बिट्रेन’ का मानना है कि सन् 1655 के आसपास कोहिनूर का जन्म हिन्दुस्तान के गोलकुण्डा ज़िले की कोहिनूर खान से हुआ, जो आंध्र प्रदेश में, विश्व की सबसे प्राचीन खानों में से एक हैं। सन् 1730 तक यह विश्व का एकमात्र हीरा उत्पादक क्षेत्र ज्ञात था। इसके बाद ब्राजील में हीरों की खोज हुई। शब्द गोलकुण्डा हीरा, अत्यधिक श्वेत वर्ण, स्पष्टता व उच्च कोटि की पारदर्शिता के लिये प्रयोग की जाती रही है। यह अत्यधिक दुर्लभ, अतः कीमती होते हैं। तब हीरे का वजन था 787 कैरेट। इसे बतौर तोहफा खान मालिकों ने शाहजहां को दिया। सन् 1739 तक हीरा शाहजहां के पास रहा। इस हीरे के बारे में दक्षिण भारतीय कथा कुछ पुख्ता लगती है। यह संभव है कि हीरा आंध्र प्रदेश की कोल्लार खान, जो वर्तमान में गुंटूर जिला में है, वहां निकला था।
कथाएँ और मान्यताएँ
पौराणिक कथाओं के अनुसार एक मान्यता यह भी है कि कोहिनूर का पहला उल्लेख 3000 / 5000 वर्ष पहले मिला था और यह प्राचीन संस्कृत इतिहास में लिखे के अनुसार स्यमंतक मणि नाम से प्रसिद्ध रहा था। इसका नाता श्री कृष्ण काल से बताया जाता है। पौराणिक मान्यता के अनुसार स्यमंतक मणि ही बाद में कोहिनूर कहलायी। हिन्दू कथाओं के अनुसार, भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं यह मणि, युद्ध के बाद जामवन्त से ली थी, जिसकी पुत्री जाम्बवती ने बाद में श्री कृष्ण से विवाह भी किया था। भगवान श्रीकृष्ण ने यह मणि जाम्बवंत ऋषि से लोभ में ले ली था। जब जाम्वंत सो रहे थे, तब श्रीकृष्ण ने यह मणि चुरा ली थी।एक अन्य कथा अनुसार, ये मणि सूर्य से कर्ण को फिर अर्जुन और युधिष्ठिर को मिली। इसके बाद अशोक, हर्ष और चन्द्रगुप्त के हाथ यह मणि लगी।
कहते है वैदिक युग में देव दानव युद्ध में असुरों ने इन्द्र के सिंहासन से उखाड़ कर इसे दक्षिण भारत में किसी जगल में गाड़ दिया था।
एक अन्य कथा अनुसार, यह हीरा नदी की तली में एक मछुआरे को मिला था जिसने स्थानीय साहूकार को लगभग 20 रुपये के बराबर धनराशि में इसे बेच दिया था। यह सारी कहानियां, लगभग 3200 ई.पू. की हैं।
वर्तमान में
कोहिनूर, सन् 2007 तक लंदन टॉवर (टॉवर ऑफ़ लंदन) में नुमाइश के लिये रखा गया है। लंदन टॉवर, ब्रिटेन की राजधानी लंदन के केंद्र में टेम्स नदी के किनारे बना एक भव्य क़िला है जिसे सन् 1078 में विलियम द कॉंकरर ने बनवाया था। इसके लिए पत्थर फ़्रांस से मंगाए गए थे। इस परिसर में और भी कई इमारतें हैं। यह शाही महल तो था ही, साथ ही यहां राजसी बंदियों के लिए कारागार भी था और कई को यहां मृत्यु दंड भी दिया गया। हेनरी अष्टम ने अपनी रानी ऐन बोलिन का 1536 में यहीं सर क़लम कराया था। राजपरिवार इस क़िले में नहीं रहता है लेकिन शाही जवाहरात इसमें सुरक्षित हैं जिनमें कोहिनूर हीरा भी शामिल है।कोहिनूर के दावों की राजनीति
इस हीरे की लबी कथा के बाद, कई देश इसपर अपना दावा जताते रहे हैं। 1976 में, पाकिस्तान के प्रधान मंत्री जुल्फीकार अली भुट्टो ने ब्रिटिश प्रधान मंत्री जिम कैलेघन को पाकिस्तान को वापस करने का अनुरोध किया, जिसे उन्होंने एक नम्र नहीं कठोर लहजे में उत्तर दिया। एक अन्य दावा भारत ने किया था।, इसके अलावा अफ्गानिस्तान की तालीबान शासन ने। इसके बाद ईरान ने।भारत वापसी का प्रयास
फिलहाल इसे भारत वापस लाने को कोशिशें जारी हैं। आजादी के फौरन बाद भारत ने कई बार कोहिनूर पर अपना मालिकाना हक जताया है। महाराजा दिलीप सिंह की बेटी कैथरीन की सन् 1942 मे मृत्यु हो गई थी, जो कोहिनूर के भारतीय दावे के संबध में ठोस दलीलें दे सकती थीं।भारत की गोलकुंडा की खानों से कोहिनूर के अलावा और भी दुनिया के कई ऐतिहासिक बेशकीमती हीरे निकले। जैसे ग्रेट मुगल, ओरलोव, आगरा डायमंड, अहमदाबाद डायमंड, ब्रोलिटी ऑफ इंडिया जैसे न जाने कितने ऐसे हीरे हैं, जो कोहिनूर जितने ही बेशकीमती हैं। कोहिनूर जितना तो कोई भी हीरा बेशकीमती नहीं हो सकता इसे हम दावे के साथ कह सकते हैं। और, कोहिनूर की जो कहानियां हैं उसे पढ़ने के बाद तो यह अनुमान नहीं लगया जा सकता कि कौन सी कहानी सही है? आज सन 2012 में इस हीरे कि कीमत हिन्दुस्तान की आधी शहरी जायदाद के बराबर है।
अनमोल हीरा : कोह-इ-नूर ----- वजन: 105 - 60 कैरेट (21 - 600 ग्राम)
वर्तमान कीमत : लगभग 150 हजार करोड रुपये
वर्ण : महान श्वेत ------ उद्गम खान: गोलकुंडा
मूल स्वामी : भारत ------ वर्तमान स्वामी: एलिजाबेथ द्वितीय ग्रेट ब्रिटेन
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