हिडिम्बा मंदिर (Hadimba Temple)
कुल्लू घाटी के देवी-देवताओं और उनके मंदिरों का अध्ययन करें तो पता चलेगा कि इस घाटी के देवी-देवताओं के देवस्थान तो बहुत प्राचीन हैं, परंतु इन पर मंदिरों का निर्माण तत्कालीन शासकों ने अपने-अपने शौक के अनुसार करवाया। यही कारण है कि यहां के 80 प्रतिशत मंदिरों की शैली पहाड़ी ढालू छत शैली है। इनका निर्माण काल एक विशेष काल अवधि थी। इसी प्रकार घाटी में महाराजा बहादुर सिंह (15वीं शताब्दी) के दौरान पैगोडा शैली के मंदिरों का निर्माण हुआ। इनमें त्रिपुर सुंदरी मंदिर नग्गर, आदि ब्रह्मा मंदिर खोखण, त्रिजुगी नारायण मंदिर दयार और पराशर ऋषि मंदिर उल्लेखनीय हैं। मनाली के पास ढूंगरी नामक स्थान पर हिडिम्बा माता का मंदिर भी इसी दौरान बनाया गया।हिमाचल प्रदेश में लकड़ी से बने हजारों साल पुराने विभिन्न देवी- देवताओं के बहुत से मंदिर आज भी पर्यटकों एवं श्रद्धालुओ के आकर्षण का केंद्र हैं। इन्ही मै से एक है- "हिडिम्बा मंदिर" जो हिमाचल का गोरव माना जाता है। लकड़ी से निर्मित यह मंदिर पैगोड़ा शैली में बना है। यह मंदिर धूंगरी मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। पूरा मंदिर लकड़ी का बना है जिसकी छत भी लकड़ी से ही ढाली गई है। दीवारें भी लकड़ी की ही है जिनपर नक्कशी कर देवी-देवताओं के चित्र उकेरे गए है, जो मंदिर की सुन्दरता को बढ़ा देते हैं। मंदिर में महिषासुर मर्दिनी की मूर्ति प्रतिस्थापित है।
हिमाचल प्रदेश के सुदूर में व्यास नदी के किनारे बसी पर्यटन नगरी मनाली में घने देवदार वृक्षों से आच्छादित है यह मंदिर परिसर। परिसर बहुत साफ-सुथरा है। आसपास छोटी-छोटी गुलाब वाटिकाएँ हैं जिनमें अलग-अलग रंग के फूल खिलखिलाते हुए हैं, मानों भक्तों का स्वागत कर रहे हों। मंदिर के नीचे की ओर ढालान पर नगरपालिका ने भी उद्यान बनाया हुआ है जिसमें बच्चों के खेलने लिए झूले आदि लगे हैं।
महाभारत के भीम का विवाह हिडिम्ब राक्षस की बहन हिडिम्बा से हुआ था। भीम और हिडिम्बा के संयोग से उत्पन पुत्र घटोत्कच महाभारत युद्ध में पांड्वो की और से अद्भुत वीरता का प्रदर्शन करते हुए वीरगति को प्राप्त हुआ था। घटोत्कच वही है जिसने महाभारत में कर्ण के घातक बाण के प्रहार से अर्जुन की जान बचाते हुए अपने प्राणों की आहुति दे दी थी। महाभारत में जैसे की वर्णन मिलता है, हिडिम्बा एक राक्षसी थी जो अपने भाई हिडिम्ब के साथ रहती थी। उसे अपने भाई हिडिम्ब की वीरता पर बड़ा गर्व था उसने प्रण किया था कि जो उसे पराजित कर देगा उससे में विवाह करुँगी। वनवास के समय पांडवों का यहाँ आना हुआ था। जब लाक्षागृह से सकुशल बच निकलने के बाद पांडव अज्ञातवास पर थे। अपने आहार की खोज में निकले हिडिम्ब राक्षस का भीम के साथ भीषण द्वन्द होता है और अंत मै भीम हिडिम्ब को मार देता है। इस घटना से दुखी हिडिम्ब की बहन हिडिम्बा कुंती समेत पांड्वो पर आक्रमण करना चाहती है किन्तु भीम का सरूप देख कर मोहित हो जाती है। अंत में माता कुंती द्वारा मानव कल्याण की शर्त पर भीम का हिडिम्बा से हो जाती है। भीम ने हिडिम्बा से गंधर्व विवाह किया और एक बालक को जन्म दिया जो घटोत्कच के नाम से प्रसिद्ध हुआ। हिडिम्बा राक्षसी थी लेकिन अपने तप और पतिव्रत के बल पर उसे देवी का सम्मान मिला। इस एकाकिनी- युवती ने आत्मनिर्भरता के आदर्श को निभाते हुए पुत्र घटोत्कच का पालन- पोषण किया और समय आने पर कुरुक्षेत्र के मैदान में प्राणोत्सर्ग के लिए उदार मन से बेटे को भेज दिया। यह है एक आदर्श भारतीय नारी का उदाहरण "नारी तू नारायणी है" और "या देवी सर्व भूतेशु मात्रिरुपेन संस्थिता" के पवित्र सन्देश को आदर्श बनाकर हिमाचल- वासियों ने हिडिम्बा को अपनी श्रद्धा- आदर से देवी का परम पद प्रदान किया और इस हिडिम्बा मंदिर मै उसको प्रतिष्ठापित किया है। कुल्लू का राजवंश हिडिम्बा को कुलदेवी मानता है। ऐसा माना जाता है की सन 1553 ई. (15वीं शताब्दी) में इस मंदिर का निर्माण कुल्लू के तत्कालीन महाराजा बहादुर सिह ने करवाया था।
कुल्लू के राजा विहंगम दास जो कुल्लू के पहले राजा थे कहते हैं कि वो एक कुम्हार के यहाँ नौकरी करते थे। यह भी कहा जाता है कि देवी ने उसे साक्षात दर्शन देकर राजगद्दी पर बिठा दिया। उन्होंने जालिम ठाकुर राजा का समूल नाश कर डाला। यहाँ के लोग इन्हें अपनी कुल देवी के रूप पूजते हैं। कुल्लू के राजपरिवार के लोग इन्हें अपनी दादी मानते है। आज भी कुल्लू के मेले दशहरे हिडिम्बा देवी का शामिल होना आवश्यक माना गया है। बिना हिडिम्बा देवी की पूजा के पूरी पूजा अधूरी मानी जाती है। मंदिर परिसर में ही हिडिम्बा और भीम के पुत्र महाबली घटोत्कच का भी लघु मंदिर है। आज भी लोग उसके बलिदान की गाथा सुनाते हैं।
समुन्द्र तल से 1220 मीटर की ऊंचाई पर स्थित कुल्लू से मनाली की दुरी 40 किलोमीटर है। मनाली शहर से एक किलोमीटर की दुरी डूंगरी स्थान पर यह हिडिम्बा मंदिर अपने विशिष्ट काष्ठ के अद्भुत शिल्प शोभा के साथ विराजमान है।
कुल्लू रियासत के तत्कालीन राजा बहादुर सिंह ने इस मंदिर का निर्माण किया। मंदिर के प्रवेश द्वार पर लकड़ी पर राजा का नाम और निर्माण तिथि संवत् 1436 अंकित है। मनाली शहर के शीर्ष पर एक समतल स्थान है जोकि चारों ओर से लम्बे-घने देवदार के पेड़ों से घिरा है। पेड़ों के आसपास गोल-चपटी चट्टानें हैं। यहीं एक तीखी लंबी चट्टान के चारों ओर चौकोर दीवार बनाकर इस मंदिर का निर्माण किया गया है। 40 मीटर ऊँचे इस हिडिम्बा मंदिर का आकर शंकु जैसा है। पैगोडा शैली के इस मंदिर की विशेषता यह है कि इसके चार छत हैं। उपर तीन छत वर्गाकार है और चौथी छत शंकु आकर की है जिस पर पीतल चारो ओर से लगा है। नीचे से ऊपर की ओर हर छत क्रमश: छोटी होती हुई अन्तत: शीर्ष पर कलश में बदल जाती है। नीचे की तीन छतें तो देवदार के मोटे-चौड़े तख्तों की है जबकि चौथी छत ताम्बे की चादरों से तैयार की गई है। मंदिर की दीवारें भारी-भरकम लंबे शहतीरों और भारी पत्थरों से चिनी गई हैं। मंदिर के गर्भ ग्रह में विशाल शिला है, जिसमे से शरीर- भाग का आकर, देवी के विग्रह का साक्षात् प्रतिमान है।
मंदिर के भीतर ही माता की पालकी है जिसे समय-समय पर रंगीन वस्त्र एवं आभूषणों से सुसज्जित करके बाहर निकाला जाता है। मंदिर का प्रवेश द्वार अपने आप में कलात्मक है। अन्य देवालयों के ही समान द्वार पर बेल-बूटे, फूल व पत्ते तो उकेरे ही गये हैं, साथ ही पौराणिक पात्रों का चित्रण भी किया गया है। हिडिम्बा को काली का अवतार का अवतार कहा गया है। इसी कारण इस मंदिर के अन्दर दुर्गा की मूर्ति भी है। इस मंदिर में, हिडिम्बा के पैर के ही निशान हैं जो कि एक गुफा के अन्दर हैं। इससे बढ़कर दीवार पर ऐसे अनेक पशुओं के सींग ठोके गये हैं जो आज दुर्लभ हो गये हैं। बकरे, मेंढे और भैंसे के सींग तो हैं ही, साथ ही यामू, टंगरोल और बारासिंघा के सींग भी टांगे गये हैं। यहां पर जानवरों की बलि दी जाती है और उसके बाद उनकी सींग यहीं पर टांग दी जाती है।
हिडिम्बा मनाली के ऊझी क्षेत्र की अधिष्ठात्री देवी हैं। समूचा क्षेत्र हिडिम्बा की प्रजा माना जाता है। यही कारण है कि समूचा क्षेत्र वर्ष में एक बार हिडिम्बा को ‘कौर’ (कर) अदा करता रहा है। कुछ वर्ष पूर्व से यह प्रथा समाप्त हो गई है।
ज्येष्ठ संक्रांति के दिन ढूंगरी में देवी के यहां भारी मेला लगता है। इस अवसर पर आसपास के असंख्य देवी-देवता देवी को श्रद्धासुमन अर्पित करने आते हैं। यह देवसमागम अपने आप में बड़ा भावमय होता है। यूं भी पर्यटन नगरी मनाली में स्थित होने के कारण कोई भी पर्यटक देवी के दर्शन करना नहीं भूलता।
मंदिर परिसर में प्रवेश करते ही बड़ी शांति व आनंद की अनुभूति होती है। होगी भी क्यों नहीं? इस परिसर को देवदार के विशाल वृक्ष अपनी लम्बी-लम्बी शाखाओं से ढके हुए हैं। ये इस स्थल को और भी रमणीक बना देते हैं। इस मंदिर में कोई शोरशराबा नहीं है, कोई लाउड स्पीकर नहीं बजता जिससे यहाँ का वातावरण बड़ा शांत और सुरम्य बना रहता है। दिन में इस मंदिर में कोई खास भीड़भाड़ नहीं होती है। शाम होते ही भक्तों का आना जाना बढ़ जाता है। यहाँ बैठे-बैठे पता ही नहीं लगता कब साँझ ढली और कब रात हो गई। मंदिर में रखी देवी की चरण पादुकाओं को भक्त सिर नवाते हुए अपने ऊपर आनेवाली विपदाओं से छुटकारा पाने का आशीर्वाद लेते हैं।
वैसे तो हिमालय माँ पार्वती के जनक हैं पित्रचरण और कैलाश उनका पतिगृह है, यानि यह हिमाद्री क्षेत्र भगवती दुर्गा का लीला स्थल है। अत: यहाँ के कण- कण मै शक्ति चेतना भरी पड़ी है। इस विशेष सन्दर्भ में यहाँ के निवासियों की परम्परा भी अद्भुत है की कुल्लू के विश्व- प्रसिद्ध दशहरा की नयनाभिराम, देवी- देवतओं की शोभा यात्रा तब तक आरम्भ नहीं होती, जब तक की इस पूरी शोभा यात्रा के नेतृत्व के लिए हिडिम्बा- देवी का रथ सबसे आगे तैयार न हो जाये।
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