लोनार झील (लोनार क्रेटर / Lonar Crater)
हो सकता है कि जिंदगी में आपको कभी दूसरे ग्रहों पर जाने का मौक़ा नहीं मिल पाए, मगर आप महाराष्ट्र के बुलदाना जनपद के लोनार गांव में ज़रूर मंगल ग्रह पर पाई जाने वाली सतह का अनुभव कर सकते हैं। और साथ ही उल्का पिंडों के पृथ्वी पर पड़ने वाले प्रभावों को भी देख सकते हैं। यहाँ आपको उस दुनिया की ताकत का एहसास भी होगा, जिसे हमने अब तक सिर्फ किस्से-कहानियों में ही सुना है।लोनार शहर
लोनार एक छोटा सा शहर है जो महाराष्ट्र राज्य के विदर्भ क्षेत्र के बुलधाना जिले में स्थित है। यह शहर मुंबई से 550 किमी. की दूरी पर बसा हुआ है, और औरंगाबाद से 160 किमी. की दूरी पर है। यह समुद्र स्तर से 1850 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। लोनार दुनिया के तीसरे सबसे बड़े क्रेटर के कारण विख्यात है जो आज से 52,000 (35000) साल पहले ही निर्मित हो गया था। इस झील का व्यास 4000 (6000) फीट का और गहराई 450 (500) फीट की है।
लोनार 850 फीट की ऊंचाई पर बसा यह शहर यहां बने हुए गड्ढ़े के कारण जाना जाता है। लोनार के इस गड्ढ़े का निर्माण प्लेइस्तोसने युग के दौरान पृथ्वी की सतह पर उल्का गिरने के कारण हुआ था। यह लगभग 52,000 साल पहले की बात है। कई सदियां और साल गुजरने के बाद यह गड्ढ़ा एक झील में बदल गया जिसे आज हम लोनार झील के नाम से जानते है। झील बन जाने के बाद यहां का व्यू देखने में काफी आकर्षक और सुंदर लगता है। पास में ही 3 किमी. की दूरी पर कमला माता मंदिर भी स्थित है।
लोनर क्रेटर भारत का सबसे बड़ा क्रेटर है जो उल्कापात से बना है। लोनार झील (लोनार क्रेटर / Lonar Crater) महाराष्ट्र के बुलढ़ाना जिला के लोनार शहर में समुद्र तल से 1,200 मीटर ऊँची सतह पर लगभग 100 मीटर के वृत्त में फैली हुई है। वैसे इस झील का व्यास दस लाख वर्ग मीटर है। इस झील का मुहाना गोलाई लिए एकदम गहरा है, जो बहाव में 100 मीटर की गहराई तक है। मौसम से प्रभावित 50 मीटर की गहराई गर्द से भरी है। लोनार झील 5 से 8 मीटर तक खारे पानी से भरी हुई है। इस झील का उद्गम संभवतः लावा के ऊबड़-खाबड़ बहने और उसके रुकने से हुआ है। यह भी संभव है कि बुझे हुए (मृत) ज्वालामुखी के गर्त से इस झील की उत्पत्ति हुई है।
लोनार झील आकाशीय उल्का पिंड की टक्कर से निर्मित खारे पानी की दुनिया की पहली झील है। इसका खारा पानी इस बात का प्रतीक है कि कभी यहाँ समुद्र था। इसके बनते वक्त क़रीब दस लाख टन के उल्का पिंड की टकराहट हुई। क़रीब 1.8 किलोमीटर व्यास की इस उल्कीय झील की गहराई लगभग पांच सौ मीटर है। आज भी वैज्ञानिकों में इस विषय पर गहन शोध जारी है कि लोनार में जो टक्कर हुई, वो उल्का पिंड और पृथ्वी के बीच हुई या फिर कोई ग्रह पृथ्वी से टकराया था। उस वक्त वो तीन हिस्सों में टूट चुका था और उसने लोनार के अलावा अन्य दो जगहों पर भी झील बना दी, हालांकि पूरी तरह सूख चुकी अम्बर और गणेश नामक इन झीलों का कोई विशेष महत्व नहीं रहा है।
स्मिथसोनियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ वाशिंगटन, जियोलोजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया और यूनाईटेड स्टेट जिओलोजिकल सर्वे ने लगभग 20 वर्ष पहले किए गए एक साझा अध्ययन में इस बात के वैज्ञानिक प्रमाण मिले थे कि लोनर कैटर का निर्माण पृथ्वी पर उल्का पिंड के टकराने से ही हुआ था।
मंगल ग्रह सरीखे दृश्य दिखाने वाली यह झील अन्तरिक्ष विज्ञान की उन्नत प्रयोगशाला भी है, जिस पर समूचे विश्व की निगाह है। अमरीकी अन्तरिक्ष एजेंसी नासा का मानना है कि बेसाल्टिक चट्टानों से बनी यह झील बिलकुल वैसी ही है, जैसी झील मंगल की सतह पर पायी जाती है, यहाँ तक कि इसके जल के रासायनिक गुण भी मंगल पर पायी गयी झीलों के रासायनिक गुणों से मिलते जुलते हैं। ऊँची पहाड़ियों के बीच लोनार के शांत पानी को देखने पर यहाँ घटी किसी बड़ी प्राकृतिक घटना का एहसास होने लगता है।
अभी लगभग चार साल पहले लोनर झील में अजीब-सी चीज़ देखने को मिली, झील का पानी अचानक वाष्पीकृत होकर समाप्त हो गया। गांव वालों ने पानी की जगह झील में नमक और अन्य खनिजों के छोटे-बड़े चमकते हुए क्रिस्टल देखे। ऐसी परिस्थिति में कोई भी जीवन की कल्पना नहीं कर सकता, लेकिन आश्चर्यजनक ढंग से झील में तमाम तरह के सूक्ष्म जीव पाए गए हैं। झील के बाहरी किनारे के पानी की प्रकृति उदासीन है, तो अन्दर जाने पर बेहद क्षारीय जल मिलता है। ब्रिटिश वैज्ञानिकों ख़ास तौर से कर्नल मैकेंजी, डॉ आईबी लायन आदि का कहना था कि झील में पानी की ऊपरी सतह पर जमी नमक की परत बेहद अनूठी है, झील के पानी के लगातार वाष्पीकरण के बावजूद नमक की मात्रा का कम न होना अजीबोगरीब है। ये भी आश्चर्यजनक है कि सिर्फ लोनार झील का पानी ही खारा है, जबकि आस-पास के जल स्त्रोतों से निकलने वाला पानी मीठा है। भूमि के जिस स्त्रोत से झील में जल आ रहा है, झील के बाहर किसी भी दूसरे जल स्त्रोत से नहीं जुड़ा है। अगर ऐसा होता तो आस पास के इलाकों की फसल पूरी तरह से नष्ट हो गयी होती जबकि इसके उलट आस-पास के इलाकों की खेती काफ़ी उन्नत है। यहाँ झील के पानी में नमक की अलग-अलग किस्में पायी जाती है जिनके नाम डाला, खुप्पल, पपरी, भुसकी आदि है। निजाम के शासन-काल में 1843 से 1903 तक लोनार झील के नमक का व्यावसायिक उपयोग किया जाता रहा। ये भी कहा जाता है कि अकबर के शासनकाल में यहाँ पर नमक की एक फैक्टरी भी थी।
लोनार झील की तलहटी में दुर्लभ बैक्टीरिया
संत गडगे बाबा विश्वविद्यालय के जीव वैज्ञानिक दिलीप तांबेकर ने दावा किया कि लोनार झील में यह पहला बायोलॉजिकल साक्ष्य हो सकता है। उन्होंने कहा कि वैज्ञानिकों को 'बेसीलस ओडिसी' बैक्टीरिया का पहली बार 2004 में नासा के मार्स ओडिसी अंतरिक्ष यान में पता चला जो वर्ष 2001 से ही मंगल ग्रह के इर्द-गिर्द घूम रहा है। तांबेकर ने कहा, 'अमेरिकी वैज्ञानिकों ने सूचना दी कि बैक्टीरिया का पृथ्वी पर अस्तित्व नहीं है। लेकिन हमें स्पष्ट पता चला है कि (50 हजार साल पुरानी) लोनार झील मंगल के पुच्छल तारे के पृथ्वी से टकराने के कारण बनी थी।' उन्होंने यह भी कहा कि बैसिलस ओडीसी बैक्टीरिया के अस्तित्व से पता चलता है कि लोनार का निर्माण ज्वालामुखी से नहीं हुआ था।
हाल ही यहाँ के पानी में चुंबकीय कणों से युक्त विशेष किस्म के बैक्टेरिया पाए गए। इस खोज से ब्रह्माण्ड में अन्य कहीं जीवन की खोज में मदद मिली है। कलाड के यशवंतराय चव्हाण विज्ञान कॉलेज के माइक्रोलोजिस्ट महेश चवादार बताते हैं कि इस बैक्टेरिया और उल्का पिंड में कुछ संबंध दिखता है। करेंट साइंस के ताजा अंक में छपी जानकारी के मुताबिक जब लोनार झील बनी होगी, उस वक्त जिस किसी उल्का से पृथ्वी टकराई होगी उस उल्का में या फिर वो उल्का पिंड जिस ग्रह का हिस्सा था उनमें कहीं न कहीं जीवन का अंश था।
लोनार झील के अस्तित्व में आते समय का नजारा
क़रीब 52 हज़ार 424 बी.सी. को मंगलवार की रात के 11 बजे, हमेशा की तरह स्वच्छ आकाश में तारों की बारात अपने शबाब पर। लम्बे बालों वाले बर्फीले गैंडों का एक झुण्ड लोनार के पास की बर्फीली पहाडियों के बीच भोजन की तलाश में आया। आदिमानवों का एक जत्था शिकार से थका हारा नजदीक ही एक गुफा में आराम कर रहा था। कि अचानक खामोशी टूटती है, आंखें चौंधियां देने वाली रोशनी के साथ एक किलोमीटर व्यास का एक उल्का पिंड लगभग 25 किलोमीटर प्रति सेकंड की रफ्तार से ज़मीन की ओर बढ़ता है। जानवरों और आदिमानवों में भगदड़। आग का ये गोला तेज धमाके के साथ ज़मीन में समां जाता है और बड़े ज्वालामुखी के फटने जैसा दृश्य पैदा हो जाता है। लगभग 11.4 स्केल का भूकंप। टकराहट से पैदा हुई भीषण गर्मी से वहाँ मौजूद 50 किमी के घेरे में चट्टानें तेजी से पिघलने लगी हैं। आस-पास की नदियों में सुनामी जैसी लहरें। अभूतपूर्व जैवीय परिवर्तनों में एक अंडाकार विशालकाय झील का निर्माण होता है। पिघले हुए हिमनदों ने सूनामी लहरें और वातावरण में ऐसी गैसें पैदा की, जिससे कई महीनों तक सूरज की रोशनी गायब रही। लगभग सौ परमाणु विस्फोटों के बराबर ऊर्जा। दुनिया की पहली बेसाल्टिक झील के अस्तित्व में आते समय ऐसा ही नजारा हुआ होगा।
लोनासुर की मांद
कहा जाता है कि पद्म पुराण, स्कंद पुराण और आइन-ए-अकबरी में भी इस गड्ढ़े के बारे में उल्लेख किया गया है। जानकारी के अनुसार एक ब्रिटिश अधिकारी जे. ई. अलेक्जेंडर ने सबसे पहले इस गड्ढे के बारे में खोजबीन की थी। पौराणिक कथाओं के अनुसार यह राक्षसों के गुरुओ की कर्मस्थली रही है।
लोनार झील के सन्दर्भ में स्कन्द पुराण में बहुत रोचक कहानी है। बताते हैं कि इस इलाके में लोनासुर नामक एक दानव रहा करता था। उसने आस-पास के देशों को तो अपने कब्जे में ले ही लिया था, देवताओं को भी युद्ध की खुली चुनौती दे दी थी। उसके आतंक से त्रस्त होकर मनुष्य तो मनुष्य, देवताओं ने भी विष्णु से लोनासुर से रक्षा करने की अपील की। भगवान विष्णु ने आनन-फानन में एक ख़ूबसूरत युवक को तैयार किया, जिसका नाम दैत्यसुदन रखा गया। दैत्यसुदन ने पहले लोनासुर की दोनों बहनों को अपने मोहपाश में बांधा फिर एक दिन उनकी मदद से उस एक मांद का मुख्यद्वार खोल दिया, जिसमें लोनासुर छिपा बैठा था। महीनों तक दैत्यसुदन और लोनासुर में युद्ध चलता रहा और अंत में लोनासुर मारा गया। मौजूदा लोनार झील लोनासुर की मांद है और लोनार से लगभग 36 किमी दूर स्थित दातेफाल की पहाड़ी में उस मांद का ढक्कन मौजूद है। पुराण में झील के पानी को लोनासुर का रक्त और उसमें मौजूद नमक को लोनासुर का मांस बताया गया है।
सिर्फ लोनार ही नहीं
भारत उल्काओं का गांव है! सिर्फ लोनार में ही उल्काएं नहीं गिरी थी, माना जाता है कि साढे छह करोड़ साल पहले अंतरिक्ष से 40 किमी से अधिक चौड़ाई वाला एक विशालकाय उल्कापिंड 58 हज़ार मील प्रति घंटे की रफ्तार से धरती पर गिरा था और उसने डायनासोर प्रजाति को विलुप्त कर दिया था। चौंकिये मत, ये घटना भी हिंदुस्तान में ही घटी थी। भारतीय मूल के टेक्सास टेक यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर शंकर चटर्जी ने अपने ताजा अध्ययन में दावा किया गया है कि यह घटना भारत के पश्चिमी तट पर हुई थी। ओरेगन में जियोलॉजिकल सोसाइटी ऑफ़ अमरीका के सम्मेलन में शोध-पत्र पेश करते हुए चटर्जी ने कहा कि भारत के पश्चिम में स्थित जलमग्न शिव बेसिन हमारे पृथ्वी पर स्थित सबसे बडा क्रेटर है। शिव बेसिन में ही बॉम्बे हाई स्थित है, जो खनिज तेल और पेट्रोलियम उत्पादों के उत्खनन का बड़ा केन्द्र है। भारत के पश्चिमी तट पर स्थित 40 किमी व्यास वाला शिवा बेसिन क्रेटर इतने ही चौड़े उल्कापिंड के क़रीब 58 हज़ार मील प्रति घंटा की रफ्तार से पृथ्वी के साथ टकराने से बना है। ग्रेनाइट की मोटी परत को फोड़कर बने इस क्रेटर का बाहरी दायरा 500 किमी चौड़ाई में फैला है।
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