सैल्यूलर जेल - काला पानी (Cellular Jail (Kala Pani))
भारत के मद्रास (चेन्नई) और कलकत्ता (कोलकाता) दोनों से लगभग 1200 किमी. दूर अंडमान निकोबार (Andaman Nicobar) द्वीप समूह की राजधानी पोर्ट ब्लेयर में बनी सेल्युलर जेल आज भी काला पानी की दर्दनाक दास्तां सुनाती है। सेलुलर जेल भारत में औपनिवेशिक शासन के इतिहास में सबसे कुख्यात पन्नो में से एक है। सेल्युलर जेल एक औपनिवेशिक जेल है। सेलुलर जेल को काला पानी के रूप में भी जाना जाता है। और इसे काला पानी इसलिये भी कहते है क्योंकि सावन के मौसम मे द्विप का पानी काला दिखाई पड़ता है।
सैल्यूलर जेल भारत के इतिहास का एक काला अध्याय है। स्वतंत्रता संग्राम के शुरुआत में अंग्रेजों ने भारतीय सेनानियों पर बहुत कहर ढाया। हजारों लोगों को फाँसी पर लटकाया गया, पेड़ों पर बाँधकर फाँसी दी गई और तोपों के मुँह पर बाँधकर उन्हें उड़ाया गया। कइयों को देश निकाला की सजा देकर यहाँ लाया जाता था और उन्हें उनके देश और परिवार से दूर रखा जाता था।
इस जेल को सेल्युलर इसलिए नाम दिया गया था, क्योंकि यहां एक कैदी से दूसरे से बिलकुल अलग रखा जाता था। जेल में हर कैदी के लिए एक अलग सेल होती थी। यहां का अकेलापन कैदी के लिए सबसे भयावह होता था।
यहां कितने भारतीयों को फांसी की सजा दी गई और कितने मर गए इसका रिकॉर्ड मौजूद नहीं है। लेकिन आज भी जीवित स्वतंत्रता सेनानियो के जेहन में काला पानी शब्द भयावह जगह के रूप में बसा है। यह शब्द भारत में सबसे बड़ी और बुरी सजा के लिए एक मुहावरा बना हुआ है।
अंडमान के पोर्ट ब्लेयर सिटी में स्थित इस जेल की चाहरदीवारी इतनी छोटी थी कि इसे आसानी से कोई भी पार कर सकता है। लेकिन यह स्थान चारों ओर से गहरे समुद्री पानी से घिरा हुआ है, जहां से सैकड़ों किमी दूर पानी के अलावा कुछ भी नजर नहीं आता है। यहां का अंग्रेज सुपरिंडेंट कैदियों से अक्सर कहता था कि जेल दीवार इरादतन छोटी बनाई गई है, लेकिन यहां ऐसी कोई जगह नहीं है, जहां से आप जा सकें।
सुदूर द्वीप होने की वजह से यह विद्रोहियों को सजा देने के लिए अनुकूल जगह समझी जाती थी। उन्हें सिर्फ समाज से अलग करने के लिए यहाँ नहीं लाया जाता था, बल्कि उनसे जेल का निर्माण, भवन निर्माण, बंदरगाह निर्माण आदि के काम में भी लगाया जाता था। यहाँ आने वाले कैदी ब्रिटिश शासकों के घरों का निर्माण भी करते थे। 19वीं शताब्दी में जब स्वतंत्रता संग्राम ने जोर पकड़ा, तब यहाँ कैदियों की संख्या भी बढ़ती गई।
सैल्यूलर जेल का इतिहास
1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम ने अंग्रेजी सरकार को चौकन्ना कर दिया। व्यापार के बहाने भारत आये अंग्रेजो को भारतीय जनमानस द्वारा यह पहली कड़ी चुनौती थी, जिसमे समाज के लगभग सभी वर्ग शामिल थे।
दिल्ली में हुए युद्ध के बाद अंग्रेजो को आभास हो चूका था की उन्होंने युद्ध अपनी बहादुरी और रणकौशलता के बल पर नही बल्कि षड्यंत्रों, जासूसों, गद्दारी से जीता था। अपनी इन कमजोरियों को छुपाने के लिए जहाँ अंग्रेजी इतिहासकारों ने 1857 के स्वाधीनता संग्राम को सैनिक ग़दर मात्र कहकर इसके प्रभाव को कम करने की कोशिश की, वही इस संग्राम को कुचलने के लिए भारतीयों को असहनीय व अस्मरणीय यातनाये भी दी।
एक तरफ लोगो को फांसी दी गयी, पेड़ो पर सामूहिक रूप से लटका कर मृत्यु दण्ड दिया गया व तोपों से बांधकर दागा गया, वही जिन लोगो से अंग्रेजी सरकार को ज्यादा खतरा महसूस हुआ, उन्हें ऐसी जगह भेजा गया जहाँ से जीवित वापस आने की बात तो दूर किसी अपने-पराये की खबर तक मिलने की कोई उम्मीद भी नही थी। अंतिम मुघल सम्राट बहादुर शाह जफ़र को अंग्रेजी सरकार ने रंगून भेज दिया, जबकि इसमें भाग लेने वाले अन्य क्रांतिकारियों को काले पानी की सजा बतौर अंडमान भेज दिया गया।
विद्रोह के दब जाने के कुछ समय बाद ही ब्रिटिशो ने बहुत से विद्रोहियों को मार डाला। उनमे से भी जो जिन्दा बच गये उन्हें अंडमान की जेल में आजीवन कारावास की सजा सुना दी गयी।
जेलर अधीक्षक डेविड बेरी और मेजर जेम्स पी. वॉकर, एक सैन्य चिकित्सक, जो आगरा में जेल के वार्डन थे, की सिक्यूरिटी में सबसे पहले 200 क्रांतिकारियों को यहाँ लाया गया। उसके बाद अप्रैल 1868 में कराची से और 733 विद्रोहियों को यहाँ लाया गया था। काला पानी जेल में भारत से लेकर बर्मा तक के लोगों को कैद में रखा गया था।
1863 में, बंगाल गिरिजाघर स्थापना (बंगाल सभापति की स्थापना) के रेव हेनरी फिशर कॉर्बीन को वहां भी भेजा गया था और उन्होंने वहां अंडमानिज गृह की स्थापना की, जो एक दमनकारी संस्था थी। इस जेल के शुरूवात में अधिकतर जो कोई मुगल शाही परिवार का था, या जिसने विद्रोह के दौरान बहादुर शाह जफर से मदद मांगी थी उन्हे ही भेजा जाता था।
सैल्यूलर जेल का निर्माण
सेलुलर जेल का निर्माणकार्य 1896 में शुरू हुआ और 10 साल बाद 10 मार्च, 1906 में पूरा हुआ। और 1857 में सेपॉय विद्रोह के बाद से ही अंडमान द्वीप का उपयोग ब्रिटिशो द्वारा कैदियों को कैद करने के लिए किया जाने लगा था। ऐसा माना जाता है कि उस समय इस विशाल जेल को बनाने में लगभग 5 लाख 17 हज़ार की लागत आई थी।
1896 में सेल्युलर जेल के निर्माण की प्रक्रिया शुरू हुई। सबसे पहले 400 भारतीय कैदियों को यहाँ ले जाया गया और अंडमान निकोबार द्वीप के घने जंगलों को काट कर जेल से लिए जगह खाली करने का काम शुरू हुआ। लेकिन वहाँ पर काम करने वाले लोगों के लिए यहाँ की जलवायु, जंगलों में सांप और बिच्छू उनके लिए लगातार संकट बने रहे और अनेक लोगों को वहाँ पर मलेरिया ने जकड़ लिया। जेल के लिए जमीन खाली होने पर निर्माण शुरू हुआ। सबसे पहले अंग्रेज़ अधिकारियों के आवास, कमिश्नर हाउस, कांफ्रेंस रूम और चर्च आदि का निर्माण हुआ।
इसका मुख्य भवन लाल ईंटों से बना है। ये ईंटें बर्मा से यहाँ लाई गईं, जो आज म्यांमार के नाम से जाना जाता है। इस भवन की 7 शाखाएँ हैं और बीचोंबीच एक टावर है। इस टावर से ही सभी कैदियों पर नजर रखी जाती थी। ऊपर से देखने पर यह साइकल के पहिए की तरह दिखाई देता है। टावर के ऊपर एक बहुत बड़ा घंटा लगा था, जो किसी भी तरह का संभावित खतरा होने पर बजाया जाता था।
प्रत्येक शाखा तीन मंजिल की बनी थी। इनमें कोई शयनकक्ष नहीं था और कुल 698 कोठरियाँ बनी थीं। प्रत्येक कोठरी 15×8 फीट (4.5×2.7 मीटर) की थी, जिसमें तीन मीटर की ऊँचाई पर रोशनदान थे। इन कोठरियों को बनाने का उद्देश्य एक कोठरी का कैदी दूसरी कोठरी के कैदी से कोई संपर्क नहीं रख सके।
यह आज भी विवाद का ही विषय है की इसे अंग्रेजो ने क्यों बनवाया था। इतिहास में तो केवल इतना ही लिखा गया है की भारत के प्रथम स्वाधीनता संग्राम के मद्देनजर अंग्रेज सरकार सकते में आ गयी थी, जिसके कारण उन्हें शायद ऐसा कदम उठाना पड़ा था।
जेल में बंद स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को बेड़ियों से बांधा जाता था। कोल्हू से तेल पेरने का काम उनसे करवाया जाता था। हर कैदी को तीस पाउंड नारियल और सरसों को पेरना होता था। यह तेल ब्रिटिश अधिकारीयों की पत्नियाँ काम में लेती थीं। यदि वह ऐसा नहीं कर पाता था तो उन्हें बुरी तरह से पीटा जाता था और बेडियों से जकड़ दिया जाता था। उन्हें बाथरूम जाने के लिए भी इजाज़त लेनी होती थी। ज़ंजीरों का इस्तेमाल बहुत आम बात थी।
जेल में लगभग 600 कैदियों को एक साथ अलग अलग रखा जाता था। जहां उन्हे एक दूसरे से बात करने की इजाजत नहीं थी उन्हे ना तो पढने के लिये अखबार दिये जाते थे और ना लिखने के लिये पेपर। कहते है कुछ कैदी तो वहां के एकांतवास मे रहते हुये मानसीक रोगी हो जाते थे तो कुछ आत्महत्या कर लेते थे।
इन स्वतंत्रता सैनानियों ने भोगी यहाँ यातनाएँ –
सेलुलर जेल में कैद बहुत से कैदियों में ज्यादातर स्वतंत्रता सेनानी ही थे। इनमें प्रमुख रूप से डॉ. दीवन सिंह, मौलाना फजल-ए-हक खैराबादी, योगेंद्र शुक्ला, बटुकेश्वर दत्त, मौलाना अहमदुल्लाह, मौलवी अब्दुल रहीम सादिकपुरी, बाबूराव सावरकर, विनायक दामोदर सावरकर (Vinayak Damodar Savarkar), भाई परमानंद, शदन चंद्र चटर्जी, सोहन सिंह, वमन राव जोशी, नंद गोपाल आदि थे। वीर विनायक दामोदर सावरकर को 4 जुलाई 1911 को अंडमानियों को जीवन के लिए दो दशक की सजा सुनाई गई। जब वह सेलुलर जेल में आये तो उनके बड़े भाई गणेश सावरकर पहले से ही वहां थे। लेकिन सावरकर भाइयों को दो सााल लगे ये जानने मे।
सेल्युलर जेल में कैद हुए बेहतर ज्ञात राजनीतिक कैदियों में से कुछ में बिलींद्र कुमार घोष, उपेंद्र नाथ बनर्जी, हेम चन्द्र दास, उलास्कर दत्ता, इंदूबुन रॉय, विभूति बुशन सरकार, ऋषिकेश कांजीलाल, सुधीन कुमार सरकार, अब्नाश चंद्र भट्टाचार्जजी और बिरेंद्र चंद्र सेन शामिल थे। इन सभी कैदियों को मनिटोतोला षडयंत्र मामले में भागीदारी के लिए 1910 के बाद सेलुलर जेल भेजा गया था।
बहुत से कैदी जैसे उपेन्द्र नाथ बनर्जी, बरिन्द्र कुमार घोष, और बिरेन्द्र चन्द्र सेन इत्यादि ने अलीपुर केस (1908) दर्ज करने की कोशिश भी की थी। सावरकर बंधुओ को 2 साल तक पता नही चला की वे एक ही जेल में है, क्योकि उन्हें दो अलग-अलग कोठरियों में कैद करके रखा गया था।
क्रूर जेलर ने 87 कैदियों को दिया था फंसी का आदेश –
एक बार यहां 238 कैदियों ने भागने की कोशिश की थी लेकिन उन्हें गिरफ्तार लिया गया। कुछ ने तो उन्हें मिलने वाली यातना के भय से ही आत्महत्या कर ली थी और शेष में से जेलर वॉकर ने 87 लोगों को का साथ फांसी का आदेश दे दिया था।
पहनने को दिए जाते थे टाट के कपड़े –
यहाँ कैदियों को पहनने के लिए टाट के बने वस्त्र दिए जाते थे जिनसे उनके शरीर तक छिल जाते थे। एक बार एक क्रान्तिकारी नन्द गोपाल ने ये वस्त्र पहनने से मना करते हुए कहा था कि अगर हम भगवान के घर से नंगे आ सकते है तो नंगे रह भी सकते हैं और इन्हें पहनने से नंगे रहना बेहतर है और वो नंगे भी रहे।
जेलर को जमकर पीटा था परमानंद और अन्य स्वतंत्रता सैनानियों ने –
एक बार झाँसी के परमानंद ने जेलर डेविड बेरी की जमकर धुनाई कर दी थी क्योंकि उसने परमानंद को गालियाँ दी थी बाद में अन्य लोगों ने भी उसे इतना पीटा कि वो बेहोश हो गया था। बाद में होश आने पर उसे 30 कोड़ों की सज़ा दी गई थी।
महावीर ने दम तोडा भूख हड़ताल नहीं –
जेल में कई स्वतंत्रता सेनानी अमानवीय और अकल्पनीय यातनाओं के कारण उनकी मृत्यु हो गयी। इस जेल के इस कठोर अमानीवय पर ध्यान तब गया जब उसके कैदियों ने 1930 के दशक के शुरूआती दिनों में जेल अधिकारियो को आकर्षित करने के लिए भूख हड़ताल पर चले गये।
जिनमे 33 कैदियों ने कैदियों के साथ किये जा रहे अमानवीय व्यवहार का विरोध किया और भूख हड़ताल पर बैठ गये। उनमे से शहीद-ए-आज़म भगत सिंह से साथी रहे महावीर सिंह ने अंग्रेजों द्वारा यहाँ ढाए जा रहे ज़ुल्मों के विरोध में भूख हड़ताल कर दी। जेल के सिपाहियों ने जेलर के आदेश पर महावीर की हड़ताल तोड़ने के लिए उन्हें पकड़ कर ज़मीन पर लिटा दिया और उनके मुँह में जबरदस्ती दूध डालने का प्रयास किया। मगर महावीर सिंह ने अपनी साँस रोक ली जिससे दूध शरीर में जाने से पहले ही उन्होंने दम तोड़ दिया। अंग्रेजों ने महावीर के मृत शरीर को पत्थर के साथ बांधकर समुन्द्र में फैंक दिया था। और मोहन किशोर नामदास, मोहित मोइत्रा की मृत्यु भूख हड़ताल से हुईं थी।
बटुकेश्वर दत्त और वीर सांवरकर ने किया भूख हड़ताल का नेतृत्व –
महावीर सिंह की मौत के बाद बटुकेश्वर दत्त और वीर सांवरकर ने भूख हड़ताल को अन्य स्वतंत्रता सैनानियों के साथ मिलकर जारी रखा जिसकी खबर जब यहाँ भारत में अन्य स्वतंत्रता सैनानियों को लगी तो उन्होंने भी इसका विरोध किया।
गाँधी – टैगोर के हस्तक्षेप --
1937-38 में महात्मा गाँधी और रविन्द्र नाथ टैगोर ने भूख हड़ताल के मामले में हस्तक्षेप किया और अंग्रेजो ने आखिरकार हार कर सेलुलर जेल में कैद सभी राजनितिक कैदियों (स्वतंत्रता सेनानियों) को रिहा करने का आदेश जारी किया। किंतु जो हत्यारे थे उन्हे नही छोड़ा गया।
द्वितीय विश्व युद्ध में जापान ने किया कब्ज़ा अंग्रेजों को बनाया बंधक –
जापानी शासकों ने अंडमान पर 1942 में कब्जा किया और अंग्रेजों को वहाँ से मार भगाया। जापानी ने क्रूरता से 1942 से 1945 तक 4 वर्षों तक इस क्षेत्र पर शासन किया। इस अवधि के दौरान, इन द्वीपों में जापानी ने भारी सैन्य बुनियादी ढांचे का निर्माण किया। पोर्ट ब्लेयर बंदरगाह, जापानी सेनाओं के सागर विमानों के लिए आगे की निगरानी बेस के रूप में इस्तेमाल किया गया था। उन्होने ने सात जेल विंग मे से दो को तोड़ दिया था ताकि अपने बंकर का निर्माण कर सके।
सभी राजनीतिक कैदियों को कालपानी जेल से रिहा कर दिया गया था और ब्रिटिश सैनिकों और अधिकारियों को उसी जेल में बंद कर दिया गया था।
उस दौरान आजाद हिंद के संस्थापक नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने भी वहाँ का दौरा किया था। और पहली बार उस द्विप पर नेताजी ने तिरंगा झंडा फहराया था। द्वितीय विश्व युद्ध खत्म होने के बाद 1945 में फिर अंग्रेजों ने यहाँ कब्जा जमाया।
आजादी के बाद
भारत को आजादी मिलने के बाद इसकी दो और शाखाओं को ध्वस्त कर दिया गया। बल्कि बहुत से भूतपूर्व कैदियों ने इसका विरोध भी किया था और राजनितिक नेता भी इसे इतिहास धरोहर के रूप में सुरक्षित रखना चाहते थे।
आक्टोपस की तरह सात शाखाओं में फैली इस विशाल कारागार के अब केवल शेष बची तीन शाखाएँ और मुख्य टावर को 1969 में राष्ट्रीय स्मारक घोषित (नेशनल मेमोरियल मॉनुमेंट) कर दिया गया। 1963 में यहाँ गोविन्द वल्लभ पंत अस्पताल खोला गया। वर्तमान में यह 500 बिस्तरों वाला अस्पताल है और 40 डॉक्टर यहाँ के निवासियों की सेवा कर रहे हैं।
कारागार की दीवारों पर वीर शहीदों के नाम लिखे हैं। यहां एक संग्रहालय भी है जहां उन अस्त्रों को देखा जा सकता है जिनसे स्वतंत्रता सैनानियों पर अत्याचार किए जाते थे। यह जेल अब भारतीयों के लिए 'स्वतंत्रता सेनानियों के बलिदान का प्रतीक' है और पर्यटकों यहां जाते हैं।
10 मार्च 2006 को सैल्यूलर जेल का शताब्दी (100) वर्ष समारोह मनाया गया। भारत सरकार द्वारा इस जेल में सजा काट चुके कैदियों को बधाई भी दी गई। 1996 में बनी मलयालम फिल्म काला पानी की शूटिंग यहीं पर हुई थी।
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