गुरुवार, 24 अक्टूबर 2019

गुरुवायुर मन्दिर, केरल

गुरुवायुर मन्दिर (Guruvayur Temple Of Lord Krishna In Kerala)

गुरुवायुर मन्दिर, भारत के केरल राज्य के त्रिसूर जिले के गुरुवायुर में स्थित प्रसिद्ध मन्दिर है। यह कई शताब्दी पुराना है और केरल में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण मन्दिर है। गुरुवायुरप्पन मंदिर भारत में चौथा सबसे बड़ा मंदिर है जहाँ हजारों श्रद्धालु हर दिन आते हैं। मंदिर के देवता भगवान गुरुवायुरप्पन हैं जो बालगोपालन (कृष्ण भगवान का बालरूप) के रूप में हैं। यद्यपि इस मंदिर में गैर-हिन्दुओं को प्रवेश की अनुमति नहीं है, तथापि कई धर्मों को मानने वाले भगवान गुरूवायूरप्पन के परम भक्त हैं। गुरुवायुर जो कि त्रिशूर नगर से लगभग 25 किलोमीटर की दूरी पर है। गुरुवायूर केरल के लोकप्रिय तीर्थ स्थलों में से एक है। इस शहर की सुन्दरता अवर्णनीय है। वर्तमान में गुरुवायूर देवासम बोर्ड के अध्यक्ष केबी मोहनदास हैं।

केरला के इस सांस्कृतिक शहर को भगवान का घर कहा जाता है। केरला की यह समुद्र से नजदीक की जगह दुनिया के 10 सबसे सुन्दर जगह में शामिल किया जाता है जिसे स्वर्ग भी कहा जाता है।

मंदिर का इतिहास और खासियत

गुरुवायुर अपने मंदिर के लिए सर्वाधिक प्रसिद्ध है, जो कई शताब्दियों पुराना है और केरल में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। गुरुवायुरप्पन मंदिर को दक्षिण की द्वारिका के नाम से भी जाना जाता है। मंदिर 5000 साल पुराना है और 1638 में इसके कुछ हिस्से का पुनर्निमाण किया गया था।

गुरुवायुर मंदिर में सिर्फ हिंदुओं को ही प्रवेश की इजाजत है और प्रवेश के लिए पहनावा भी निर्धारित है। गुरुवायुर मंदिर में पुरुष केरल की पारंपरिक लुंगी मुंडू पहन कर ही जा सकते हैं और सीना खुला रहता है। और महिलाओं को साड़ी अथवा सलवार सूट में ही जाने की इजाजत है। लड़कियों को लॉन्ग स्कर्ट और ब्लाउज पहनने की इजाजत है और इन दिनों सलवार कमीज में भी प्रवेश दिया जाता है। जबकि बच्चों को वेष्टी पहनाई जाती है। पुरुषों को कमीज या अन्य कोई परिधान पहनने के लिए इसलिए मनाही है ताकि भगवान की नजर सीधे उनके हृदय पर ही पड़े।

सुरक्षा कारणों से मोबाइल फोन और कैमरा साथ रखने की इजाजत नहीं। इसलिए अच्छा होगा कि आप होटल में ही मोबाइल, कैमरा और सैंडल रख कर आएं।

गुरुवायुर मंदिर की वास्तुकला – Guruvayur Temple Architecture

इस मंदिर को केरल की परम्परा के अनुसार ही बनाया गया है। ऐसा कहा जाता है की इस मंदिर का निर्माण देवताओ के वास्तुकार ‘विश्वकर्मा’ ने करवाया था। इस मंदिर को कुछ अलग तरीके से निर्माण किया गया है की जिससे सूर्य देव भगवान विष्णु के दर्शन कर सके।

जिससे सूर्य की पहली किरण भगवान विष्णु के चरण को सबसे पहले स्पर्श कर सके। इस मंदिर का सबसे मुख्य दरवाजा पूर्व की दिशा में है। इस दरवाजे से भगवान विष्णु के दर्शन होते है।

इस मंदिर के ध्वजस्तंभ को ‘छुत्ताम्बलम’ कहते है। यह स्तंभ पूरी तरह सोने से बना हुआ है और 33.5 मीटर उचा है। इस मंदिर में एक और ‘दीपस्तंभ’ है जो रात के समय में काफी सुन्दर दीखता है।

मदिर में प्रवेश करने का जो द्वार है वो बिलकुल इस स्तंभ के पहले ही है। इस स्तंभ के आगे के रास्ते में 10 बहुत ही सुन्दर खम्बे नजर आते है। इसी जगह पर भगवान गुरुवायुर की प्रशंसा करनेवाले ‘नारायनियम’ के श्लोक भी लिखे है।

गुरुवायुर का अर्थ और मूर्ति का इतिहास

इस मंदिर के नाम में तीन शब्द छिपे हैं। गुरुवायुर शब्द 'गुरु', 'वायु' और 'ऊर' से मिलकर बना है। गुरु यानी देवगुरु बृहस्पति। वायु शब्द भगवान वायुदेव के लिए है और ऊर एक मलयाली शब्द है, जिसका अर्थ होता है भूमि। यानी यह मंदिर का निर्माण बृहस्पति, वायु और भूमि से मिलकर हुआ है। हालांकि इस मंदिर का नाम गुरुवायुर होने के पीछे एक अन्य कहानी भी है।

मंदिर से जुड़ी कथा

एक कथानुसार इस मंदिर में जिस मूर्ति की स्‍थापना की गई है वह मूर्ति भगवान कृष्ण ने द्वारिका में की थी। एक बार जब द्वारिका में भयंकर बाढ़ आई तो यह मूर्ति बह गई। कलयुग की शुरुआत में देव गुरु बृहस्पति को भगवान कृष्ण की यह तैरती हुई मूर्ति मिली। उन्होंने वायु की सहायता द्वारा इस मूर्ति को बचा लिया। वायु और बृहस्पति ने इस मूर्ति को स्थापित करने के लिए पृथ्वी पर एक उचित स्थान की खोज आरम्भ की। खोज करते करते वे केरल पहुंचे, जहां उन्हें भगवान शिव व माता पार्वती के दर्शन हुए। शिव ने कहा की यही स्थल सबसे उपयुक्त है, अत: यहीं पर मूर्ति की स्थापना की जानी चाहिए। तब मानव कल्याण के लिए गुरु (बृहस्पति) एवं वायु (पवनदेव) ने मूर्ति का अभिषेक कर उसकी स्थापना की और भगवान ने उन्हें वरदान दिया कि मूर्ति की स्थापना गुरु एवं वायु के द्वारा होने के कारण इस स्थान को 'गुरुवायुर' के नाम से ही जाना जाएगा। तब से यह पवित्र स्थल इसी नाम से प्रसिद्ध है।

गुरु और वायु के नाम पर ही इस मंदिर का नाम गुरुवायुर श्रीकृष्‍ण मंदिर पड़ा साथ ही भगवान का नाम गुरुवायुरप्पन और नगर का नाम गुरुवायुर पड़ा। मान्यता के अनुसार कलयुग से पहले द्वापर युग के दौरान यह मूर्ति श्रीकृष्ण के समय भी मौजूद थी। एक अन्य मान्यता के अनुसार इस मूर्ति को भगवान विष्णु ने ब्रह्माजी को सौंपा था।

कैसी दिखाई देती है मूर्ति

गुरुवायुरप्पन मंदिर में भगवान कृष्ण की मूर्ति यहां के प्रमुख आकर्षणों में से एक है। मंदिर के गर्भगृह में श्रीकृष्ण की मूर्ति स्थापित है। मंदिर में स्थापित मूर्ति मूर्तिकला का एक बेजोड़ नमूना है। गुरुवायुरप्पन मंदिर में भगवान कृष्ण की चार हाथों वाली मूर्ति है। जिसमें भगवान ने एक हाथ में शंख, दूसरे में सुदर्शन चक्र और तीसरे हाथ में कमल पुष्प और चौथे हाथ में गदा धारण किया हुआ है। ये मूर्ति की पूजा भगवान कृष्ण के बाल रुप यानी बचपन के रुप में की जाती है। इस मंदिर में शानदार चित्रकारी की गयी है जो कृष्ण की बाल लीलाओ को प्रस्तुत करती हैं। मंदिर में भगवान विष्‍णु के दस अवतारों का भी वर्णन किया गया है।

यह केरल के हिंदुओं के लिए सबसे महत्वपूर्ण पूजा स्थलों में से एक है और अक्सर इसे भुलोका वैकुंठम के रूप में जाना जाता है, जिसका अर्थ है धरती पर वैकुण्ठ लोक। जो पृथ्वी पर विष्णु के पवित्र निवास के रूप में स्थित है। गुरुवायुर मंदिर के प्रमुख देवता विष्णु हैं, जिन्हें उनके अवतार कृष्ण के रूप में पूजा जाता है। यहां श्रीकृष्ण को गुरुवायुरप्पन कहते हैं जो कि वास्तव में भगवान श्रीकृष्‍ण का बालरूप है।

गुरुवायुर में भगवान गुरुवायुरप्पन का काफी प्रसिद्ध मंदिर है। गुरुवायुरप्पन यहाँ की सबसे प्रमुख देवता मानी जाती है, जो अपने भक्तों की हर प्रार्थना को सुनते है। भगवान गुरुवायुर के गले में पवित्र तुलसी की माला, मोती का हार पहनाया जाता है। भगवान की इस मूर्ति की आभा दूर से ही दिखती है।

मंदिर में पूजा

गर्भगृह में विराजित भगवान की मूर्ति को आदिशंकराचार्य द्वारा निर्देशित वैदिक परंपरा एवं विधि-विधान द्वारा ही पूजा जाता है। पौराणिक ग्रंथों में इस बात का उल्लेख मिलता है कि गुरुवायुर में पूजा के पश्चात् मम्मियुर शिव की आराधना का विशेष महत्व है। यह कहा जाता है कि मम्मियुर शिव की पूजा किए बिना भगवान गुरुवायुर की पूजा को संपूर्ण नहीं माना जाता है।

मंदिर में शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि का खास महत्त्व है। इस समय यहां पर भव्य उत्सव का आयोजन किया जाता है। साथ ही विलक्कु एकादशी का पर्व भी मनाया जाता है।

यदि आप भी गुरुवायुर मंदिर में भगवान श्रीकृष्ण के दर्शनों के लिए आ रहे हैं तो इस बात का जरूर ध्यान रखें कि दर्शनों में कम से कम तीन से चार घंटे का समय लग सकता है।

समय : मंदिर प्रात: 3 बजे खुलता है दोपहर 1 बजे दर्शन बंद होते हैं। सायं 4.30 पुन: मंदिर खुलता है और रात में 10 बजे बाद बंद होता है। यहां पांच पूजा और तीन सिवेली होती हैं। मंदिर का पुजारी सुबह मुख्य स्थान पर प्रवेश करने के बाद दोपहर तक कुछ भी खाता या पीता नहीं है। मंदिर में रहने वाले पुजारी को मेंसाती कहते हैं, जो कि 24 घंटे भगवान की सेवा में रहते हैं।

मंदिर में मुख्य आयोजन

मंदिर में कर्नाटक संगीत और अन्य केरल के पारंपरिक नृत्य का आयोजन होता है। मंदिर में लगभग हर दिन विवाह और छोरॊनु का आयोजन किया जाता है। जिसके लिए आपको पहले से पंजीकरण कराना होता है। यहा सुबह और शाम को नि:शुल्क भोजन वितरित किया जाता है। हाथियों के जुलूस वाला शिवेली का त्योहार अत्यंत प्रसिद्ध है।

मंदिर परिसर में श्रद्धालुओं के लिए तमाम सुविधाओं की व्यवस्था है क्योंकि यहां प्रतिदिन हजारों की संख्या में श्रद्धालु भगवान श्रीकृष्ण के दर्शनों के लिए आते हैं। गुरुवायुर मंदिर में श्रद्धालुओं के लिए दिन में दो बार प्रसाद वितरण निःशुल्क भोजन का भी आयोजन होता है जिसके लिए अच्छी खासी भीड़ होती है।

कला और साहित्य से रिश्ता

इस मंदिर की सबसे बड़ी विशेषता ये है कि इसका रिश्ता केवल धर्म-कर्म और पूजा पाठ से ही नहीं, बल्कि कला और साहित्य से भी है। ये मंदिर प्रसिद्ध शास्त्रीय नृत्य कला कथकली के विकास में सहायक रही विधा कृष्णनट्टम कली, जो कि नाट्य-नृत्य कला का एक रूप है उसका प्रमुख केंद्र है। गुरुयावुर मंदिर प्रशासन जो गुरुवायुर देवास्वोम कहलाता है एक कृष्णट्टम संस्थान का संचालन करता है।

दो प्रमुख साहित्यिक कृतियाँ

इसके साथ ही, गुरुवायुर मंदिर दो प्रमुख साहित्यिक कृतियों के लिए भी प्रसिद्ध है, जिनमें मेल्पथूर नारायण भट्टाथिरी द्वारा निर्मित 'नारायणीयम' और पून्थानम द्वारा रचित 'ज्नानाप्पना' है। ये दोनों कृतियां भगवान गुरुवायुरप्प्न को समर्पित हैं। इन लेखों में भगवान के स्वरूप के आधार पर चर्चा की गई है तथा भगवान के अवतारों को दर्शाया गया है। नारायणीयम जो संस्कृत भाषा में रचित है, उसमें विष्णु के दस अवतारों का उल्लेख किया आया है। और ज्नानाप्पना जो की मलयालम में रचित है, उसमें जीवन के कटु सत्यों का अवलोकन किया गया है एवं जीवन में किन बातों को अपनाना मानव के लिए श्रेष्ठ है व नहीं है, इन सब बातों को गहराई के साथ उल्लेखित किया गया है। इन रचनाओं का निर्माण करने वाले लेखक भगवान गुरुवायुरप्पन के परम भक्त थे।

क्या है तुलाभरम की रस्म ?

गुरुवायुर मंदिर में तुलाभरम की रस्म भी निभाई जाती है। शास्त्रों में दान के जितने प्रकार बताये गये हैं उनमें तुलाभरम सर्वश्रेष्ठ है। तुलाभरम यदि आप भी करना चाहते हैं तो उसके लिए मंदिर प्रशासन में पहले पंजीकरण करा कर समय लेना होता है। तुलाभरम की रस्म के तहत कोई भी व्यक्ति फूल, अनाज, फल और ऐसी ही वस्तुओं के साथ तराजू में खुद को तौलता है और अपने वजन के बराबर वस्तुएं दान कर देता है। हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी जब गुरुवायुर मंदिर का दौरा किया था तो अपने वजन के बराबर कमल के फूलों का दान किया था।

गुरुवायुर मंदिर के त्यौहार – Guruvayur Temple Festival

उल्सावं : यह त्यौहार कुम्भ के महीने में यानि फरवरी मार्च के दौरान मनाया जाता और यह उत्सव करीब 10 दिनों तक चलता है। इस त्यौहार की शुरुवात मंदिर के ध्वजस्तम्भ को 70 फीट उचाई पर खड़ा करने के साथ की जाती है।

त्यौहार के पहले दिन हाती की दौड़ लगाई जाती है। अगले छे दिन सुबह में, दोपहर और रात के समय हाती का जुलुस निकाला जाता है। सुबह के समय यज्ञ में आहुति दी जाती है। इस त्यौहार के दौरान हर दिन नृत्य, संगीत, सत्संग जैसे सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन भी मेल्पथुर सभामंड़प में किया जाता है।

त्यौहार के 8वे दिन भगवान के सहयोगी को यज्ञ में आहुति दी जाती है और इसे ‘उत्सवबली’ कहा जाता है। इसके बाद में भक्तों को भोजन दिया जाता है।

9वे दिन भगवान शिकार करने के लिए निकलते है और वो काम (इच्छा), क्रोध और बाकी के शत्रु को ख़तम करते है, इस त्यौहार को ‘पल्लिवेत्ता’ कहा जाता है।

इसके बाद में भगवान के थिदम्बू को रुद्रतिर्थ में ले जाते है और वहापर भगवान को स्नान किया जाता है और सभी भगवान के मंत्रो का जप करते है। हजारों भक्त अपने पापो से मुक्ति पाने के लिए स्नान करते है।

उसके बाद में भगवती मंदिर में उच्च पूजा की जाती है। (इस पूजा को ‘दोपहर की पूजा’ कहा जाता है और इस दिन यह पूजा रात के समय की जाती है।) पूरी 11 परिक्रमा करने के बाद में भगवान को मुख्य मंदिर में वापिस लाया जाता है। इसके बाद में ध्वज को निचे उतारा जाता है और इसके साथ ही उत्सव संपन्न होता है।

विशु : मलयाली लोगो का नया साल मदम महीने (अप्रैल के मध्य मे) में आता है और इसी दिन विशु त्यौहार मनाया जाता है। लोगो का ऐसा मानना है की इस त्यौहार के दिन सुबह में कोई अगर अच्छी चीज देख लेता है तो उसका पुरा साल अच्छा जाता है।

इस कहानी को मानते हुए इस त्यौहार के पहले दिन सभी लोग अपने घर में भगवान के सामने कानी(शुभ शकुन) जो कोना के फुल, कच्चे चावल, सोना, बिडे के पान और सुपारी, पिली ककड़ी और सिक्के रखे जाते है। दुसरे दिन सुबह उठने के बाद इन सब चीजो को देखने के बाद पुरा साल अच्छा बीतता है। गुरुवायुर मंदिर में कानी को देखना शुभ माना जाता है।

करोडो लोग रात भर जागते है और भगवान का दर्शन करते है, रात भर भक्तो की नज़ारे केवल भगवान पर ही टिकी रहती है। इसी वजह से ही मंदिर सुबह 3 बजे खुला किया जाता है।

अष्टमी रोहिणी : चिन्गाम के महीने में यानि जुलाई या फिर अगस्त के महीने में रोहिणी नक्षत्र के पर्व पर और श्रावण महीने के 8 वे दिन भगवान श्री कृष्ण की ‘जन्माष्टमी’ मनाई जाती है।

इस त्यौहार के दिन सभी श्री कृष्ण के मंदिर में भगवान की पूजा की जाती है और ऐसा भी कहा जाता है की खुद गुरुवायुर भी भगवान श्री कृष्ण को फूलो का हार पहनते है।

सभी भक्त भगवान को प्रसाद के रूप में चावल और गुड चढाते है और इस प्रसाद को ‘अप्पम’ कहते है क्यों की भगवान श्री कृष्ण को यह काफी पसंद है।

कुचेला दिवस : यह त्यौहार धनु महीने में बुधवार को मनाया जाता है। यह त्यौहार दिसंबर जनवरी महीने में मनाया जाता है। कुचेला एक बहुत ही गरीब ब्राह्मण था और वो भगवान श्री कृष्ण का बचपन का दोस्त था।

एक दिन वो भगवान श्री कृष्ण से मिलने चला गया और साथ में कुछ चावल भी ले गया था जो अपने मित्र श्री कृष्ण को देना चाहता था। वो जब वहापर पंहुचा तो भगवान श्री कृष्ण ने उसका बड़े अच्छे से स्वागत किया।

भगवान श्री कृष्ण के यहाँ जाने के बाद उसे ऐसा महसूस हुआ की वो खुद के घर में ही रह रहा है। मगर एक दिन भगवान श्री कृष्ण ने उसे पूछा की तुम साथ में मेरे लिए क्या लाये हो। इसी घटना की याद में मंदिर कुचेला दिवस मनाया जाता है।

वैश्का : इस त्यौहार को अप्रैल मई महीने के दौरान मनाया जाता है। इस पवित्र महीने में भक्त कड़ी तपस्या करते है और कुछ भक्त व्रत भी रखते है। इस महीने में व्रत रखना बहुत पवित्र माना जाता है।

गुरुवायुर मंदिर तक कैसे पहुचे? – How to Reach Guruvayur Temple

रास्ते से : सभी तरह के वाहनों से इस मंदिर तक पंहुचा जा सकता है। यहापर आने के लिए बस और रेल की सुविधा उपलब्ध है। कुन्नम्कुलम से जानेवाले रास्ते से गुरुवायुर का मंदिर केवल 8 किमी की दुरी पर है। यहापर के निजी बस स्टैंड भी है जो मंदिर की पूर्व दिशा में है।

रेलगाड़ी से : गुरुवायुर मंदिर की पूर्व दिशा में रेलवे स्टेशन है और इस रेलवे स्टेशन से मद्रास मंगलोर से सीधा थ्रिसुर जाने की सुविधा भी उपलब्ध है।

हवाई जहाज से : कोची अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा गुरुवायुर से केवल 80 किमी की दुरी पर है और कालिकत का हवाई अड्डा 100 किमी की दुरी पर है। इन हवाई अड्डो से सभी जगह पर जाने के सुविधा है।

केरल के त्रिचुर जिले में स्थित इस गुरुवायुर मंदिर से जुडी कई सारी बाते है। इस मंदिर में साल भर में कई सारे त्यौहार मनाये जाता है। उल्सावं, विशु, अष्टमी रोहिणी, कुचला दिवस जैसे त्यौहार बड़े आनंद से मनाये जाते है।

पहुंचने का मार्ग

यहां पहुंचने के लिए सबसे निकटम मार्ग तिसूर रेलवे स्टेशन है। दक्षिण रेलवे कोच्चि हार्बर टर्मिनस-पौरण्णुर जंक्शन रेलमार्ग एवं एर्नाकुलम जंक्शन से 75 किलोमीटर दूर त्रिसूर स्टेशन है। यहां से बत्तीस किलोमीटर दूर है गुरुवायुर मंदिर।

गुरुवायुरप्पन मंदिर के आस-पास घूमने के स्थान

1. वेंकटचलपति मंदिर - गुरुवायुरप्पन मंदिर से कुछ दूरी पर भगवान वेंकटचलपति का सुंदर मंदिर है।
2. मम्मियूर महादेव मंदिर - मम्मियूर महादेव मंदिर गुरुवायूर का प्रसिद्ध शिव मंदिर है।
3. पलायुर चर्च - पलायुर चर्च गुरुवायूर की प्रसिद्ध जगहों में से एक है।

गुरुवायुर मंदिर का इतिहास – Guruvayur Temple History

ऐसा माना जाता है की इस मंदिर का पुनर्निर्माण सन 1638 में किया गया था। इस मंदिर को उस समय केरला के सबसे प्रसिद्ध तीर्थस्थल बनाने का काम पाच भक्तों ने किया था।

सन 1716 में डच ने इस मंदिर पर हमला कर दिया था और मंदिर को आग भी लगा दी थी। लेकिन फिर से सन 1747 मे इस मंदिर को बनवाया गया।

सन 1766 मे हैदर अली ने कालीकत और गुरुवायुर को अपने कब्जे में कर लिया था। लेकिन उसने वताक्केपत वारियर से 10000 फ़रम लिए थे जिसके बदले में उसने मंदिर पर का नियंत्रण छोड़ दिया था।

उसके बाद इस मंदिर की असुरक्षितता भी बढ़ गयी थी और लोगो ने मंदिर में आना बंद कर दिया था जिसकी वजह से मंदिर को मिलने वाला दान भी ख़तम हो गया था। लेकिन यह सब देखने के बाद हैदर अली ने सन 1780 मे मंदिर को ‘देवादय’ यानि दान देने की घोषणा की थी। लेकिन यह दान देने के लिए मालाबार का गवर्नर श्रीनिवास राव ने बादशाह से सिफ़ारिश की थी जिसकी वजह से यह मंदिर बच पाया।

1789 में हैदर अली का लड़का टीपू सुल्तान बादशाह बन गया था क्यों की वो ज़मोरिन को हराना चाहता था और हिन्दू धर्मं के लोगो को मुसलमान बनाना चाहता था। इस बात से डरने से मंदिर की मुख्य देवता मुलाविग्रह की मूर्ति को अलग जगह पर छुपा दिया था और उत्सवाविग्रह देवता की मूर्ति को अम्बलापुजा को ले जाया गया था।

मंदिर के नजदीक आते ही टीपू ने मंदिर को आग लगा दी थी और मंदिर को लुटा भी था। मगर वहा पर बिच में बारिश शुरू हो गयी और वहापर एक अजीबसी आवाज सुनाई दे रही थी जिसकी वजह से मंदिर को कुछ नहीं हुआ और मंदिर बच गया।

जब अंग्रेजो ने टीपू को हरा दिया तो उसके बाद मंदिर में फिर से देवताओ को स्थापित किया गया। उल्लानाद पनिकर ने खुद सन 1875 से 1900 के बिच मंदिर की देखभाल की थी और मंदिर का सारा खर्चा उन्होंने ही किया था।

सन 1841 में मद्रास सरकार ने भी मंदिर को ‘देवादय’ देने की फिर से शुरुवात की थी जिसे टीपू सुलतान ने बंद करवा दिया था। धीरे धीरे मंदिर का विकास होने लगा और मंदिर को फिर से पुनर्निर्मित किया गया।

20वी शताब्दी के दौरान मंदिर के व्यवस्थापक श्री कोंती मेनन ने मंदिर को और बेहतर बनाने की कोशिश की। सन 1928 में एक बार फिर से ज़मोरिन ने मंदिर की देखभाल करने की जिम्मेदारी खुद पर ली थी।

सन 1931-32 के दौरान दलितों को मंदिर में प्रवेश मिलने के लिए केरल के गांधी केलाप्पन के नेतृत्व में सत्याग्रह किया गया था। इसका परिणाम यह हुआ की सन 1936 में त्रावनकोर मंदिर में दलितों को जाने की इजाजत मिल गयी और इसके साथ ही ऐसा ही कुछ नियम 1946 में मालाबार में और 1947 में कोचीन में लागु किया गया।

तब से हर हिन्दू को मंदिर में जाकर भगवान के दर्शन करने की अनुमति मिल गयी। लेकिन ‘नमस्कार साध्य’ यानि भगवान को भोज चढाने की इजाजत केवल ब्राह्मणों को ही थी। उस समय उत्तुपुरा में यही परंपरा थी। लेकिन आखिरी में यह परंपरा भी बंद करनी पड़ी।

1 जनवरी 1982 से देवस्वाम में करीब 500 से 1000 तीर्थयात्री यहा पर भोजन करते है। भक्त भी अपनी इच्छा के अनुसार यहा पर दान देते है।

टीपू सुलतान का इस मंदिर पर हमला

एक बार टीपू सुलतान इस मंदिर पर हमला करने वाला था। वो पूरी सेना के साथ में मंदिर पर हमला करने के लिया आया था। उसने मंदिर में आने के बाद मंदिर को पूरी तरह से लुटा और मंदिर को खतम करने के लिए आग भी लगा दी थी।

मगर वहापर अचानक ही बारिश शुरू हो गयी। बारिश बड़ी जोर से आ रही थी जिसकी वजह से मंदिर में लगी आग भी बुझ गयी और उसकी सेना मंदिर को खतम करना चाहती थी मगर वो मंदिर को कुछ भी नहीं कर सकी।

इतना सब कुछ होने के बाद भी मंदिर बिलकुल अच्छी हालत में था। आखिरी में टीपू सुलतान और उसकी सेना वहा से चली गयी।

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