देव सूर्य मंदिर
देव सूर्य मंदिर, देवार्क सूर्य मंदिर या केवल देवार्क के नाम से प्रसिद्ध, यह भारतीय राज्य बिहार के औरंगाबाद जिले में देव नामक स्थान पर स्थित एक हिंदू मंदिर है जो देवता सूर्य को समर्पित है। यह सूर्य मंदिर अन्य सूर्य मंदिरों की तरह पूर्वाभिमुख न होकर पश्चिमाभिमुख है। लेकिन यही एक मंदिर है जो सूर्य मंदिर होते हुए भी ऊषाकालीन सूर्य की रश्मियों का अभिषेक नहीं कर पाता वरन अस्ताचलगामी सूर्य की किरणें ही मंदिर का अभिषेक करती हैं।
देवार्क मंदिर अपनी अनूठी शिल्पकला के लिए भी जाना जाता है। काले पत्थरों को तराश कर बनाए गए इस मंदिर की नक्काशी उत्कृष्ट शिल्प कला का नमूना है।
इतिहासकार इस मंदिर के निर्माण का काल छठी - आठवीं सदी के मध्य होने का अनुमान लगाते हैं जबकि अलग-अलग पौराणिक विवरणों पर आधारित मान्यताएँ और जनश्रुतियाँ इसे त्रेता युगीन अथवा द्वापर युग के मध्यकाल में निर्मित बताती हैं।
परंपरागत रूप से इसे हिंदू मिथकों में वर्णित, कृष्ण के पुत्र, साम्ब द्वारा निर्मित बारह सूर्य मंदिरों में से एक माना जाता है।
इस मंदिर के साथ साम्ब की कथा के अतिरिक्त, यहां देव माता अदिति ने की थी पूजा। मंदिर को लेकर एक कथा के अनुसार प्रथम देवासुर संग्राम में जब असुरों के हाथों देवता हार गये थे, तब देव माता अदिति ने तेजस्वी पुत्र की प्राप्ति के लिए देवारण्य में छठी मैया की आराधना की थी। तब प्रसन्न होकर छठी मैया ने उन्हें सर्वगुण संपन्न तेजस्वी पुत्र होने का वरदान दिया था। इसके बाद अदिति के पुत्र हुए त्रिदेव रूप आदित्य भगवान, जिन्होंने असुरों पर देवताओं को विजय दिलायी। कहते हैं कि उसी समय से देव सेना षष्ठी देवी के नाम पर इस धाम का नाम देव हो गया और छठ का चलन भी शुरू हो गया।
अतिरिक्त पुरुरवा ऐल, और शिवभक्त राक्षसद्वय माली-सुमाली की अलग-अलग कथाएँ भी जुड़ी हुई हैं जो इसके निर्माण का अलग-अलग कारण और समय बताती हैं।
एक अन्य विवरण के अनुसार देवार्क को तीन प्रमुख सूर्य मंदिरों में से एक माना जाता है, अन्य दो लोलार्क (वाराणसी) और कोणार्क हैं।
मंदिर में सामान्य रूप से वर्ष भर श्रद्धालु पूजा हेतु आते रहते हैं। हालाँकि, यहाँ बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में विशेष तौर पर मनाये जाने वाले छठ पर्व के अवसर पर भारी भीड़ उमड़ती है। यहाँ लगभग प्रत्येक दिन श्रद्धालु के भीड़ का जमावड़ा लगा होता है पर खास कर रविवार को यहाँ दूर दूर से हवन और पूजन करने हेतु श्रद्धालु आते रहते हैं। मान्यता है की आज तक इस मंदिर से कोई भी याचक खाली हाथ नहीं लौटा और अपने मनोवांछित फल की प्राप्ति करने के तत्पश्चात वो यहाँ की कार्तिक या चैत्र के छठ पूजा में सूर्य देव को अर्घ भी समर्पण करते हैं।
इस मंदिर पर सोने का एक कलश है। किवदंतियों के अनुसार यह सोने का कलश यदि कोई चुराने की कोशिश करता है तो वह उससे चिपक कर रह जाता है।
मान्यताएँ
प्राथमिक
देव के बारे में एक अन्य लोककथा भी है। एक बार भगवान शिव के भक्त माली व सोमाली सूर्यलोक जा रहे थे। यह बात सूर्य को रास नहीं आयी। उन्होंने दोनों शिवभक्तों को जलाना शुरू कर दिया। अपनी अवस्था खराब होते देख माली व सोमाली ने भगवान शिव से बचाने की अपील की। फिर, शिव ने सूर्य को मार गिराया। सूर्य तीन टुकड़ों में पृथ्वी पर गिरे। कहते हैं कि जहां-जहां सूर्य के टुकड़े गिरे, उन्हें देवार्क देव, बिहार के पास, लोलार्क सूर्य मंदिर काशी के पास और कोणार्क सूर्य मंदिर कोणार्क के पास के नाम से जाना जाता था। यहां तीन सूर्य मंदिर बने। देव का सूर्य मंदिर उन्हीं में से एक है।
मंदिर निर्माण के कुछ वर्ष बाद ही एक घटना घटी की जब देवासुर संग्राम में जब असुरों के हाथों देवता हार गये थे, तब देव माता अदिति ने तेजस्वी पुत्र की प्राप्ति के लिए देवारण्य में छठी मैया की आराधना की थी। तब प्रसन्न होकर छठी मैया ने उन्हें सर्वगुण संपन्न तेजस्वी पुत्र होने का वरदान दिया था। इसके बाद अदिति के पुत्र हुए त्रिदेव रूप आदित्य भगवान, जिन्होंने असुरों पर देवताओं को विजय दिलायी। कहते हैं कि उसी समय से देव सेना षष्ठी देवी के नाम पर इस धाम का नाम देव हो गया और छठ का चलन भी शुरू हो गया।
देव नाम को लेकर
एक अनुश्रुति यह भी है कि इस जगह का नाम कभी यहां के राजा रहे वृषपर्वा के पुरोहित शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी के नाम पर देव पड़ा था।
शक्ति की प्रदर्शन
जनश्रुति है कि एक बार औरंगजेब काला पहाड़ मूर्तियों एवं मंदिरों को तोड़ता हुआ यहां पहुंचा तो देव मंदिर के पुजारियों ने उससे काफी विनती की कि इस मंदिर को न तोडें क्योंकि यहां के भगवान का बहुत बड़ा महात्म्य है। इस पर वह हंसा और बोला यदि सचमुच तुम्हारे भगवान में कोई शक्ति है तो मैं रात भर का समय देता हूं तथा यदि इसका मुंह पूरब से पश्चिम हो जाए तो मैं इसे नहीं तोडूंगा। पुजारियों ने सिर झुकाकर इसे स्वीकार कर लिया और वे रातभर भगवान से प्रार्थना करते रहे। सबेरे उठते ही हर किसी ने देखा कि सचमुच मंदिर का मुंह पूरब से पश्चिम की ओर हो गया था और तब से इस मंदिर का मुंह पश्चिम की ओर ही है। हर साल चैत्र और कार्तिक के छठ मेले में लाखों लोग विभिन्न स्थानों से यहां आकर भगवान भास्कर की आराधना करते हैं भगवान भास्कर का यह त्रेतायुगीन मंदिर सदियों से लोगों को मनोवांछित फल देने वाला पवित्र धर्मस्थल रहा है। यूं तो साल भर देश के विभिन्न जगहों से लोग यहां मनौतियां मांगने और सूर्यदेव द्वारा उनकी पूर्ति होने पर अर्ध्य देने आते हैं।
अन्य
सूर्य पुराण से सर्वाधिक प्रचारित जनश्रुति के अनुसार सतयुग में इक्ष्वाकु के पुत्र व अयोध्या के निर्वासित राजा ऐल, जो किसी ऋषि के शापवश श्वेत कुष्ठ से पीड़ित थे। वे एक बार शिकार करने देवारण्य (देव इलाके के जंगल) में पहुंचने के बाद राह भटक गए। राह भटकते भूखे-प्यासे राजा को एक छोटा-सा सरोवर दिखाई पड़ा जिसके किनारे वे पानी पीने गए और अंजुरी में भरकर पानी पिया। पानी पीने के क्रम में वे यह देखकर घोर आश्चर्य में पड़ गए कि उनके शरीर के जिन जगहों पर पानी का स्पर्श हुआ उन जगहों के श्वेत कुष्ठ के दाग जाते रहे। इससे अति प्रसन्न और आश्चर्यचकित राजा अपने वस्त्रों की परवाह नहीं करते हुए सरोवर के गंदे पानी में लेट गए और इससे उनका श्वेत कुष्ठ पूरी तरह जाता रहा। अपने शरीर में आश्चर्यजनक परिवर्तन देख प्रसन्नचित राजा ऐल ने इसी वन प्रांत में रात्रि विश्राम करने का निर्णय लिया और रात्रि में राजा को स्वप्न आया कि उसी सरोवर में भगवान भास्कर की प्रतिमा दबी पड़ी है। प्रतिमा को निकालकर वहीं मंदिर बनवाने और उसमें प्रतिष्ठित करने का निर्देश उन्हें स्वप्न में प्राप्त हुआ। कहा जाता है कि राजा ऐल ने इसी निर्देश के मुताबिक सरोवर से दबी मूर्ति को निकाल कर मंदिर में स्थापित कराने का काम किया और सूर्य कुण्ड का निर्माण कराया लेकिन मंदिर यथावत रहने के बावजूद उस मूर्ति का आज तक पता नहीं है। जो अभी वर्तमान मूर्ति है वह प्राचीन अवश्य है, लेकिन ऐसा लगता है मानो बाद में स्थापित किया गया हो। मंदिर परिसर में जो मूर्तियां हैं, वे खंडित तथा जीर्ण-शीर्ण अवस्था में हैं।
उसी पोखर में उन्हें ब्रह्मा, विष्णु व शिव की मूर्तियां मिलीं, जिन्हें राजा ने मंदिर में स्थान देते हुए त्रिदेव स्वरूप आदित्य भगवान को स्थापित कर दिया। इसके बाद वहां भगवान सूर्य की पूजा शुरू हो गयी, जो कालांतर में छठ के रूप में विस्तार पाया।
मंदिर का निर्माण
प्रचलित मान्यता के अनुसार इसका निर्माण देवशिल्पी भगवान विश्वकर्मा ने स्वयं अपने हाथों से सिर्फ एक रात में किया है। और कहा जाता है कि इतना सुंदर मंदिर कोई साधारण शिल्पी बना ही नहीं सकता।
इस मंदिर के बाहर पाली लिपि मेंं लिखित अभिलेख मिलने से पुरातत्वविद इस मंदिर का निर्माण काल आठवीं-नौवीं सदी के बीच का मानते हैं। मंदिर के नामकरण व निर्माण को लेकर अनुश्रुतियां अपनी जगह हैं, पुरातात्विक प्रमाण भी इसकी प्राचीनता की ओर इशारा करते हैं।
मंदिर के प्रवेश द्वार पर लगे शिलालेख से ज्ञात होता है कि इसकी शिल्प कला नागर शैली, द्रविड़ शैली, वेसर शैली का मिश्रित प्रभाव वाली है। शिल्प कला से स्पष्ट होता है कि यह छठी - आठवीं सदी के बीच के बीच हुआ है।
मंदिर के निर्माणकाल के संबंध में उसके बाहर ब्राही लिपि में लिखित और संस्कृत में अनुवादित एक श्लोक जड़ा है, जिसके अनुसार 12 लाख 16 हजार वर्ष त्रेता युग के बीत जाने के बाद इलापुत्र पुरूरवा ऐल ने देव सूर्य मंदिर का निर्माण आरंभ करवाया। शिलालेख से पता चलता है कि सन् 2017 ईस्वी में इस पौराणिक मंदिर के निर्माण काल का एक लाख पचास हजार सत्रह वर्ष पूरा हो गया है।
स्थापत्य
कहा जाता है कि सूर्य मंदिर के पत्थरों में विजय चिन्ह व कलश अंकित हैं। विजय चिन्ह यह दर्शाता है कि शिल्प के कलाकार ने सूर्य मंदिर का निर्माण कर के ही शिल्प कला पर विजय प्राप्त की थी। देव सूर्य मंदिर के स्थापत्य कला के बारे में कई तरह की किंवदंतियाँ है। मंदिर के स्थापत्य से प्रतीत होता है कि मंदिर के निर्माण में उड़िया स्वरूप नागर शैली का समायोजन किया गया है। नक्काशीदार पत्थरों को देखकर भारतीय पुरातत्व विभाग के लोग मंदिर के निर्माण में नागर शैली एवं द्रविड़ शैली का मिश्रित प्रभाव वाली वेसर शैली का भी समन्वय बताते है।
प्रतिमाएँ
मंदिर के प्रांगण में सात रथों से सूर्य की उत्कीर्ण प्रस्तर मूर्तियां अपने तीनों रूपों- उदयाचल- प्रात: सूर्य, मध्याचल- मध्य सूर्य और अस्ताचल- अस्त सूर्य के रूप में विद्यमान हैं। इसके साथ ही वहाँ अद्भुत शिल्प कला वाली दर्जनों प्रतिमाएं हैं। मंदिर में शिव के जांघ पर बैठी पार्वती की प्रतिमा है। सभी मंदिरों में शिवलिंग की पूजा की जाती है। इसलिए शिव पार्वती की यह दुर्लभ प्रतिमा श्रद्धालुओं को खासी आकर्षित करती है।
काले और भूरे पत्थरों की अति सुंदर कृति जिस तरह उड़ीसा प्रदेश के पुरी स्थित जगन्नाथ मंदिर का शिल्प है, ठीक उसी से मिलता-जुलता शिल्प देव के प्राचीन सूर्य मंदिर का भी है।
मंदिर का स्वरूप
मंदिर का शिल्प उड़ीसा के कोणार्क सूर्य मंदिर से मिलता है। देव सूर्य मंदिर दो भागों में बना है। पहला गर्भगृह जिसके ऊपर कमल के आकार का शिखर है और शिखर के ऊपर सोने का कलश है। दूसरा भाग मुखमंडप है जिसके ऊपर पिरामिडनुमा छत और छत को सहारा देने के लिए नक्काशीदार पत्थरों का बना स्तम्भ है। तमाम हिन्दू मंदिरों के विपरीत पश्चिमाभिमुख देव सूर्य मंदिर देवार्क माना जाता है जो श्रद्धालुओं के लिए सबसे ज्यादा फलदायी एवं मनोकामना पूर्ण करने वाला है।
करीब एक सौ फीट ऊंचा यह सूर्य मंदिर स्थापत्य और वास्तुकला का अद्भुत उदाहरण है। बिना सीमेंट अथवा चूना-गारा का प्रयोग किए आयताकार, वर्गाकार, अर्द्धवृत्ताकार, गोलाकार, त्रिभुजाकार आदि कई रूपों और आकारों में काटे गए पत्थरों को जोड़कर बनाया गया यह मंदिर अत्यंत आकर्षक व विस्मयकारी है।
शिल्प कला
नक्काशीदार पत्थरों को जोड़कर बनाया गया यह सूर्य मंदिर दो भागो में है। पहला भाग गर्भ गृह है, जिसके ऊपर कमलनुमा शिखर बना है। दूसरा भाग सामने का मुख मंडप है, जिसके ऊपर पिरामिडनुमा छत है। ऐसा नियोजन नागर शैली की प्रमुख विशिष्टता है। उड़ीसा के मंदिरो में अधिकांश शिल्प कला इसी प्रकार की है। हालांकि, उड़ीसा के मंदिरो की तरह गर्भगृह की बाहरी भाग में रथिकाओं का नियोजन देव सूर्य मंदिर में नही है। देव मंदिर के मुख्य मंडप के दोनो पार्श्वों में बने छज्जेदार गवाक्ष आंतरिक एवं ब्राह्य भाग में संतुलन स्थापित करते हैं। ऐसा निर्माण विकसित कोटि के मंदिरों मे ही देखा जाता है। देव मंदिर के निर्माण में प्रयुक्त शिल्प कला उड़ीसा के भुवनेश्र्वर मंदिर व मुक्तेश्र्वर मंदिर में नजर आती है। देव मंदिर में जाने के लिए सामान्य ऊंचाई की सीढि़यां तय कर मुख मंडप मे प्रवेश किया जाता है। मुख मंडप आयताकार है, जिसकी पिरामिडनुमा छत को सहारा देने के लिए विशालकाय पत्थरों को तराशकर बनाया गया स्तंभ हैं।
देव सूर्य महोत्सव
देव सूर्य महोत्सव के नाम से विश्व प्रख्यात सूर्य जन्मोत्सव 1998 से लागातार प्रशासनिक स्तर पर दो दिवसीय देव सूर्य महोत्सव आयोजन किया जाता है जिसमें हर वर्ष सूर्य देव की जन्म के अवसर पर मनाया जाता है। यह बसंत पंचमी के दूसरे दिन मतलब सप्तमी को पूरे शहर वासी नमक को त्याग कर बड़े ही धूम धाम से मानते हैं। इस दिन के अवसर पर कई तरह की कार्यक्रम भी कराया जाता है। बसंत सप्तमी के दिन में देव के कुंड मतलब ब्रह्मकुंड में भव्य गंगा आरती भी होती है जिसे देखने देश के कोने कोने से आते है इसी दिन देव शहर वर्ष की पहली दिवाली मानती है। और रात्रि में बॉलीवुड तथा भोजीवुड के कलाकारों को आमंत्रित किया जाता है और पूरा देव झूम उठता है।
रथ यात्रा देव
रथ यात्रा देव सूर्य नगरी देव में सर्वप्रथम 2018 में सूर्य सप्तमी के दिन जिसे प्रारंभ हुआ था जो संज्ञा समिति के द्वारा एक दिवसीय त्रिकोण सूर्य रथयात्रा रविवार को भानू सप्तमी या यूँ कहें अचला भानु सूर्य सप्तमी को ऐतिहासिक उदयाचलगामी सूर्य मंदिर उमगा से प्रारंभ हुआ था। जो उमगा से देव-देवकुंड होते हुए पुन: उदयाचलगामी उमगा पहुंचकर सूर्य यात्रा का समापन किया गया था। लेकिन सूर्य देव की रथ यात्रा शन 2019 से देव में कार्य कर रहे संस्था एवम शहरवासी के द्वारा आयोजित किया जाता है। जो एक भव्य सूर्य रथ यात्रा निकलती है।
रख-रखाव
देव सूर्य मंदिर न्यास समिति
इस मंदिर के देखभाल का दायित्व देव सूर्य मंदिर न्यास समिति का है। देव सूर्य मंदिर न्यास समिति के अध्यक्ष सुरेंद्र प्रसाद है। देव छठ मेला 2018 से तीन माह पूर्व डीएम राहुल रंजन महिवाल व एसपी डॉ. सत्य प्रकाश ने देव सूर्य मंदिर न्यास समिति के सौजन्य से एप बनवाई। ताकि देव छठ मेला में देशभर से आनेवाले छठ व्रती व श्रद्धालुओं को बेहतर सुविधा दी जा सके। आप अपने स्मार्टफोन के गूगल प्ले स्टोर पर जाएं। आप अंग्रेजी में Deo Chhath Puja लिखकर सर्च करें। आप इसे इंस्टाॅल कर लें। इसके बाद आप अपनी सुविधा के अनुसार मोबाइल से घर बैठे इसका आनंद उठा सकते हैं।
मंदिर के मुख्य पुजारी सच्चिदानंद पाठक ने बताया कि प्रत्येक दिन सुबह चार बजे भगवान को घंटी बजाकर जगाया जाता है। उसके बाद पुजारी भगवान को नहलाते हैं, ललाट पर चंदन लगाते हैं, नया वस्त्र पहनाते हैं। यह परंपरा आदि काल से चली आ रही है। भगवान को आदित्य हृदय स्त्रोत का पाठ सुनाया जाता है।
देव पहुंचने वाले छठ व्रतियों में मुंडन और मनौती से जुड़े लोगों की संख्या काफी होती है। एक अनुमान के अनुसार प्रतिवर्ष छठ में यहां दो लाख से अधिक बच्चों का मुंडन होता है। मन्नत माने हजारों लोग यहां व्रत करने आते हैं। मुंडन के लिए यहां सूर्य मंदिर समिति के द्वारा टेंडर निकाला जाता है। जो इसका टेंडर लेता है वह नाई के कई ग्रुप बनाकर इस कार्य को पूरा करता है। प्रत्येक मुंडन पर सौ से 500 रुपए तक की राशि खर्च हो जाती है। मुंडन का कार्य सूर्य मंदिर परिसर और सूर्य कुंड परिसर के समीप होता है। कई लोग यहां पुत्र प्राप्ति की कामना से भी आते हैं। मान्यता है कि देव में छठ व्रत करने के बाद मन्नतों के अनुरूप भगवान भास्कर पुत्र की सौगात देते हैं। कुष्ठ रोग के निवारण के लिए भी बड़ी संख्या में भक्त यहां पहुंचते हैं। ऐसी मान्यता है कि सूर्य कुंड में स्नान करने से कुष्ठ रोग खत्म हो जाता है। मुंडन, पुत्र प्राप्ति, कुष्ठ रोग निवारण आदि को लेकर लोग पहुंचते हैं।
कई जगहों पर बने गेट
देव आने वाले वाहनों को ड्रॉप गेट पर रोक दिया जाता है। देव बाजार में वाहनों के प्रवेश पर मनाही होती है। यह ड्रॉप गेट बहुआरा के समीप, महाराणा प्रताप कॉलेज के समीप, भवानीपुर में, सिंचाई कॉलोनी के समीप, मदनपुर रोड में बाला पोखर के समीप बनेगा।
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