शनिवार, 9 नवंबर 2019

मल्लिकार्जुन मंदिर, आन्ध्र प्रदेश

मल्लिकार्जुन (MALLIKARJUN TEMPLE)

भारत के राज्य आंध्र प्रदेश में शैल पर्वत श्रृंखला है। इस शैल / श्रीशैल (Srisailam) पर्वत को दक्षिण का कैलाश भी कहा जाता है। इसे श्रीशैल या श्रीशैलम भी कहा जाता है। शैल पर्वत से निकलने वाली कृष्णा नदी के तट पर मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग स्थित है। श्रीशैलम पर्वत करनूल जिले के नल्ला-मल्ला नामक घने जंगलों के बीच है। नल्ला मल्ला का अर्थ है सुंदर और ऊंचा।

मल्लिकार्जुन मंदिर भगवान् शिव के बारह ज्योतिर्लिंग में से दूसरा ज्योतिर्लिंग है इसके साथ यहाँ स्थित माता भ्रामराम्बा देवी का मंदिर प्रमुख 18 शक्ति पीठों में से एक है। यह मंदिर भारत का एकमात्र ऐसा मंदिर है जिसे ज्योतिर्लिंग के साथ शक्तिपीठ और दक्षिण के कैलाश की उपाधि प्राप्त है। 12 ज्योतिर्लिंगों में से मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग को द्धितीय ज्योतिर्लिंग माना जाता है। जो भगवान शिव के अवतार है।

शिवपुराण के कोटिरुद्र संहिता के अनुसार मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग शिव तथा पार्वती दोनों का सयुंक्त रूप है। ‘मल्लिका’ का अर्थ माता पार्वती का नाम है, वहीं ‘अर्जुन’ भगवान शंकर को कहा जाता है। इस प्रकार सम्मिलित रूप से ‘मल्लिकार्जुन’ नाम उक्त ज्योतिर्लिंग का जगत् में प्रसिद्ध हुआ। इस प्रकार से इस ज्योतिर्लिंग में भगवान शिव और देवी पार्वती दोनों की ज्योतियां प्रतिष्ठित हैं। यहां भगवान शिव की मल्लिकार्जुन के रूप में पूजा की जाती है।

मल्लिकार्जुन मंदिर भूतनाथ मंदिरों के समूह का एक भाग है तथा इस क्षेत्र का दूसरा सबसे प्रमुख मंदिर है। मंदिर का गर्भगृह बहुत छोटा है और एक समय में अधिक लोग नहीं जा सकते। मल्लिकार्जुन मंदिर की वास्तुकला बहुत सुंदर और जटिल है। विशाल मंदिर में द्रविड़ शैली में ऊंचे स्तंभ और विशाल आंगन बनाया गया है, जो कि विजयनगर वास्तुकला के बेहतरीन नमूनों में से एक माना जाता है। अगस्त्य झील के उत्तर पूर्व में स्थित इस मंदिर की संरचना सीढीनुमा है जो कल्याणी चालुक्यों की वास्तुकला की विशेषता है। इस मंदिर की कई विशेषताएं हैं जैसे क्षैतिज परत, पिरामिड संरचना, खुले मंडप जिन्हें कोणीय छतों द्वारा ढंका गया है तथा सपाट दीवारें।

यह मंदिर लगभग 2 हेक्टेयर की जगह में 499 फीट और 28 फीट लम्बी और 600 फीट ऊँची दीवारों से घिरा हुआ है। मान्यताओं के अनुसार यहां आने वाले हर भक्त की सभी सात्विक मनोकामनाएं पूरी होती है। मंदिर की दिवारें 600 फीट की ऊंचाई वाली 152 मीटर (49.9 फीट) और 8.5 मीटर (28 फीट) से बनी है। दीवारों पर कई अद्भुत मुर्तियां बनी हुई है, जो की लोगों की आकर्षण का केंद्र मानी जाती है।

अनेक धर्मग्रन्थों में इस स्थान की महिमा बतायी गई है। जिसका वर्णन स्कंदपुराण,महाभारत, शिव पुराण तथा पद्मपुराण आदि ग्रंथो मे मिलता हैं। महाभारत के अनुसार श्रीशैल पर्वत पर भगवान शिव का पूजन करने से अश्वमेध यज्ञ करने का फल प्राप्त होता है। कुछ ग्रन्थों में तो यहाँ तक लिखा है कि श्रीशैल के शिखर के दर्शन मात्र करने से दर्शको के सभी प्रकार के कष्ट दूर भाग जाते हैं, उसे अनन्त सुखों की प्राप्ति होती है और आवागमन के चक्कर से मुक्त हो जाता है। स्कंद पुराण में श्री शैल काण्ड नाम का अध्याय है। इसमें मंदिर का वर्णन मिलता है। इससे इस मंदिर की प्राचीनता का पता चलता है। तमिल संतों ने भी प्राचीन काल से ही इसकी स्तुति गायी है। जो मनुष्य इस लिंग का दर्शन करता है, वह समस्त पापों से मुक्त हो जाता है और अपने परम अभीष्ट को सदा-सर्वदा के लिए प्राप्त कर लेता है। भगवान शंकर का यह लिंगस्वरूप भक्तों के लिए परम कल्याणप्रद है।

इस पर्वत पर बहुत से शिवलिंग मिलते हैं। महाशिवरात्रि के दौरान यहां सात दिनों तक भव्य मेला आयोजन किया जाता है, जिसमें शामिल होने के लिए दूर-दूर से भक्त गण पहुंचते हैं। श्रीशैल का यह पूरा क्षेत्र घोर वन में है। अतः मोटर मार्ग ही है। पैदल यहाँ की यात्रा केवल शिवरात्रि पर होती है।

मल्लिकार्जुन मंदिर का स्थापत्य और निर्माण शैली

दक्षिणी मंदिरो की तरह यह एक पुराना मंदिर है। एक ऊंची पत्थर से निर्मित चारदीवारी के मध्य मे स्थित है। जिस पर हाथी घोडो की कलाकृति बनी हई है। इस परकोटे मे चारों ओर द्धार है। जिन पर गोपुर बने है। प्राकार के भीतर एक और प्राकार है। दूसरे प्राकार के भीतर मल्लिकार्जुन का निज मंदिर है यह मंदिर बहुत बडा नही है। मंदिर के गर्भगृह में लगभग आठ उंगल ऊंचा शिवलिंग स्थापित है। मंदिर के पूर्विद्धार के सामने सभा मंडप है। जहा शिवरात्रि पर शिव पार्वती विवाह उत्सव होता है। मंदिर के पिछे की ओर पार्वती देवी का मंदिर स्थित है। मंदिर के पूर्विद्धार से कृष्णा नदी तक एक मार्ग गया है जिसे पीताल गंगा कहते है। पाताल गंगा की मंदिर से दूरी लगभग तीन किलोमीटर है। जो कि आधा मार्ग समान्य है और आधा मार्ग बहुत कठीन माना जाता है आधे मार्ग मे नीचे उतने के लिए लगभग 842 सीढीयां बनी है। जो इस मार्ग को कठीन बनाती है। इसके अलावा यहा पास ही में त्रिवेणी घाट भी है। यहां दो नाले कृष्णा नदी मे आकर मिलते है। इस स्थल को त्रिवेणी घाट कहते है।

मंदिर परिसर –

मौजूदा मल्लिकार्जुन मंदिर एक विशाल परिसर में स्थित है जिसमे मल्लिकार्जुन और माता भ्रामराम्बा के मंदिरों के साथ कई सारे उप मंदिर, खम्भे, मंडप और झरने बने हुए हैं। इसमें नन्दीमंडपा, वीरासीरोमंडपा, मल्लिकार्जुन, भ्रामराम्बा देवी का मंदिर पूर्व से पश्चिम दिशा की तरफ एक सीधी पंक्ति में स्थित हैं। इसके साथ कुछ छोटे मंदिर जैसे वृद्ध मल्लिकार्जुन, सहस्त्र लिंगेस्वर, अर्ध नारीश्वर, वीरमद, उमा महेश्वर पांच मंदिरों का समूह जिसे पांडव नथिस्टा तथा इन नौ मंदिरों की पंक्ति जिसे नव ब्रह्मा मंदिर कहा जाता है।

मंदिर का इतिहास –

इस मन्दिर का भलीभाँति सर्वेक्षण करने के बाद पुरातत्त्ववेत्ताओं ने ऐसा अनुमान किया है कि इसका निर्माणकार्य लगभग दो हज़ार वर्ष प्राचीन है। इस ऐतिहासिक मन्दिर के दर्शनार्थ बड़े-बड़े राजा-महाराजा समय-समय पर आते रहे हैं।

मल्लिकार्जुन मंदिर का इतिहास सातवाहन वंश के साम्राज्य के समय से मिलता है। और उनके अनुसार इस मंदिर की खोज दूसरी शताब्दी में की गयी थी। पुल्लुमावी के नासिक अभिलेख से मिली जानकारी के अनुसार इस मंदिर का इतिहास पहली शताब्दी से मिलता है। इसके अलावा पल्लव, चालुक्य, काकतीय, रेड्डी आदि राजाओं द्वारा इस मंदिर में कई विकास के कार्यों के प्रमाण मिलते हैं।

14वीं सदी में प्रलयवम रेड्डी ने कृष्णा यानि की पातालगंगा से मंदिर तक सीढ़ीदार मार्ग का निर्माण करवाया था जहाँ अब पक्की सडक बनी हुई है। विजयनगर साम्राज्य के राजा हरिहर ने यहाँ मंदिर के मुख्यमंडपम और दक्षिण गोपुरम का निर्माण करवाया था। आज से लगभग पाँच सौ वर्ष पूर्व श्री विजयनगर के महाराजा कृष्णराय यहाँ पहुँचे थे। 15वीं शताब्दी में कृष्णदेव राय ने राजगोपुरम का निर्माण करवाया था। उन्होंने यहाँ एक सुन्दर मण्डप का भी निर्माण कराया था, जिसका शिखर सोने का बना हुआ था। उनके डेढ़ सौ वर्षों बाद महाराज शिवाजी भी मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग के दर्शन हेतु क्रौंच पर्वत पर पहुँचे थे। इस मंदिर के उत्तरी गोपुरम का निर्माण सन 1667 में छत्रपति शिवाजी महाराज के द्वारा करवाया गया था। उन्होंने मन्दिर से थोड़ी ही दूरी पर यात्रियों के लिए एक उत्तम धर्मशाला बनवायी थी।

पौराणिक कथानक - जब कार्तिकेय शिव-पार्वती से हुए नाराज

शिव पार्वती के पुत्र स्वामी कार्तिकेय और गणेश दोनों भाई विवाह के लिए आपस में कलह करने लगे। कार्तिकेय का कहना था कि वे बड़े हैं, इसलिए उनका विवाह पहले होना चाहिए, किन्तु श्री गणेश अपना विवाह पहले करना चाहते थे। इस झगड़े पर फैसला देने के लिए दोनों अपने माता-पिता भवानी और शंकर के पास पहुँचे। उनके माता-पिता ने कहा कि तुम दोनों में जो कोई इस पृथ्वी की परिक्रमा करके पहले यहाँ आ जाएगा, उसी का विवाह पहले होगा। शर्त सुनते ही कार्तिकेय जी अपने वाहन मोर पर बैठकर पृथ्वी की परिक्रमा करने के लिए दौड़ पड़े। इधर स्थूलकाय श्री गणेश जी और उनका वाहन भी चूहा, भला इतनी शीघ्रता से वे परिक्रमा कैसे कर सकते थे। गणेश जी के सामने भारी समस्या उपस्थित थी। श्रीगणेश जी शरीर से ज़रूर स्थूल हैं, किन्तु वे बुद्धि के सागर हैं। उन्होंने कुछ सोच-विचार किया और अपनी माता पार्वती तथा पिता देवाधिदेव महेश्वर से एक आसन पर बैठने का आग्रह किया। उन दोनों के आसन पर बैठ जाने के बाद श्रीगणेश ने उनकी सात परिक्रमा की, फिर विधिवत् पूजन किया -

पित्रोश्च पूजनं कृत्वा प्रकान्तिं च करोति यः।
तस्य वै पृथिवीजन्यं फलं भवति निश्चितम्।।

इस प्रकार श्रीगणेश माता-पिता की परिक्रमा करके पृथ्वी की परिक्रमा से प्राप्त होने वाले फल की प्राप्ति के अधिकारी बन गये। उनकी चतुर बुद्धि को देख कर शिव और पार्वती दोनों बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने श्रीगणेश का विवाह भी करा दिया। जिस समय स्वामी कार्तिकेय सम्पूर्ण पृथ्वी की परिक्रमा करके वापस आये, उस समय श्रीगणेश जी का विवाह विश्वरूप प्रजापति की पुत्रियों सिद्धि और बुद्धि के साथ हो चुका था। इतना ही नहीं श्री गणेशजी को उनकी ‘सिद्धि’ नामक पत्नी से ‘क्षेम’ तथा बुद्धि नामक पत्नी से ‘लाभ’, ये दो पुत्ररत्न भी मिल गये थे। भ्रमणशील और जगत् का कल्याण करने वाले देवर्षि नारद ने स्वामी कार्तिकेय से यह सारा वृत्तांत कहा सुनाया। श्रीगणेश का विवाह और उन्हें पुत्र लाभ का समाचार सुनकर स्वामी कार्तिकेय जल उठे। इस प्रकरण से नाराज़ कार्तिक ने शिष्टाचार का पालन करते हुए अपने माता-पिता के चरण छुए और वहाँ से चल दिये।

माता-पिता से अलग होकर कार्तिक स्वामी क्रौंच पर्वत पर रहने लगे। शिव और पार्वती ने अपने पुत्र कार्तिकेय को समझा-बुझाकर बुलाने हेतु देवर्षि नारद को क्रौंचपर्वत पर भेजा। देवर्षि नारद ने बहुत प्रकार से स्वामी को मनाने का प्रयास किया, किन्तु वे वापस नहीं आये। उसके बाद कोमल हृदय माता पार्वती पुत्र स्नेह में व्याकुल हो उठीं। वे भगवान शिव जी को लेकर क्रौंच पर्वत पर पहुँच गईं। इधर स्वामी कार्तिकेय को क्रौंच पर्वत अपने माता-पिता के आगमन की सूचना मिल गई और वे वहाँ से तीन योजन अर्थात् छत्तीस किलोमीटर दूर चले गये। कार्तिकेय के चले जाने पर भगवान शिव उस क्रौंच पर्वत पर ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रकट हो गये तभी से वे प्रादुर्भूत शिवलिंग मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग के नाम से प्रसिद्ध हुए। तभी से इस मंदिर को मल्लिकार्जुन मंदिर कहा जाने लगा। शास्त्रों के अनुसार पुत्र स्नेह के कारण शिव-पार्वती प्रत्येक पर्व पर कार्तिकेय को देखने के लिए जाते हैं। कहा जाता है पुत्र की खोज में आज भी माता पार्वती प्रत्येक पूर्णिमा और शंकर भगवान् प्रत्येक अमावस्या को यहाँ आते हैं।

अन्य कथानक - ज्योतिर्लिंग के प्राकट्य की लोककथा

एक अन्य कथानक के अनुसार कौंच पर्वत के समीप में ही चन्द्रगुप्त नामक किसी राजा की राजधानी थी। उनकी राजकन्या किसी संकट में उलझ गई थी। उस विपत्ति से बचने के लिए वह अपने पिता के राजमहल से भागकर पर्वतराज की शरण में पहुँच गई। वह कन्या ग्वालों के साथ कन्दमूल खाती और दूध पीती थी। इस प्रकार उसका जीवन-निर्वाह उस पर्वत पर होने लगा। उस कन्या के पास एक श्यामा (काली) रंग गौ थी, जिसकी सेवा वह स्वयं करती थी। उस गौ के साथ विचित्र घटना घटित होने लगी। कोई व्यक्ति छिपकर प्रतिदिन उस श्यामा का दूध निकाल लेता था। एक दिन उस कन्या ने किसी चोर को श्यामा का दूध दुहते हुए देख लिया, तब वह क्रोध में आगबबूला हो उसको मारने के लिए दौड़ पड़ी। जब वह गौ के समीप पहुँची, तो उसके आश्चर्य का ठिकाना न रहा, क्योंकि वहाँ उसे एक शिवलिंग के अतिरिक्त कुछ भी दिखाई नहीं दिया। शिवलिंग के दर्शन करने से वे बहुत प्रसन्न हुईं और उन्होंने उसी स्थान पर एक मंदिर बनवाया। वही शिवलिंग मंदिर आगे चलकर मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग नाम से प्रसिद्ध हुआ।

अन्य तीर्थ एवं दर्शनीय स्थल

मुख्य मंदिर के बाहर पीपल पाकर का सम्मिलित वृक्ष है। उसके आस-पास चबूतरा है। दक्षिण भारत के दूसरे मंदिरों के समान यहाँ भी मूर्ति तक जाने का टिकट कार्यालय से लेना पड़ता है। पूजा का शुल्क टिकट भी पृथक् होता है। यहाँ लिंग मूर्ति का स्पर्श प्राप्त होता है। मल्लिकार्जुन मंदिर के पीछे पार्वती मंदिर है। इन्हें मल्लिका देवी कहते हैं। सभा मंडप में नन्दी की विशाल मूर्ति है।

पातालगंगा - मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग की पहाड़ी से पाँच किलोमीटर नीचे पातालगंगा के नाम से प्रसिद्ध कृष्णा नदी हैं, जिसमें स्नान करने का महत्त्व शास्त्रों में वर्णित है। मंदिर के पूर्वद्वार से लगभग दो मील पर पातालगंगा है। इसका मार्ग कठिन है। एक मील उतार और फिर 852 सीढ़ियाँ हैं। पर्वत के नीचे कृष्णा नदी है। यात्री स्नान करके वहाँ से चढ़ाने के लिए जल लाते हैं। वहाँ कृष्णा नदी में दो नाले मिलते हैं। वह स्थान त्रिवेणी कहा जाता है। उसके समीप पूर्व की ओर एक गुफा में भैरवादि मूर्तियाँ हैं। यह गुफा कई मील गहरी कही जाती है। अब यात्री मोटर बस से 4 मील आकर कृष्णा में स्नान करते हैं।

भ्रमराम्बादेवी (Brahmaramba) ('ब्रह्मराम्बा' या 'ब्रह्मराम्बिका') - मन्दिर के पास जगदम्बा का भी एक स्थान है। मल्लिकार्जुन मंदिर से पश्चिम में दो मील पर यह मंदिर है। यहाँ माँ पार्वती को ‘भ्रमराम्बा’ कहा जाता है। यह 51 शक्तिपीठों में है। कहा जाता है कि यहां माता सती की ग्रीवा (गर्दन) गिरी थी। ब्रह्मा जी ने सृष्टि कार्य की सिद्धि के लिए इनका पूजन किया था।

शिखरेश्वर - मल्लिकार्जुन से 6 मील पर शिखरेश्वर तथा हाटकेश्वर मंदिर है। यह मार्ग कठिन है।

विल्वन - शिखरेश्वर से 6 मील पर एकम्मा देवी का मंदिर घोर वन में है। यहाँ मार्ग दर्शक एवं सुरक्षा के बिना यात्रा संभव नहीं। हिंसक पशु इधर बन में बहुत हैं।

आस पास पर्यटन स्थल –

* भ्रमराम्बा देवी का मंदिर दूरी 1 किमी
* पातालगंगा दूरी 1 किमी
* शिखारम स्थल दूरी 8 किमी
* श्री शैलम धाम दूरी 14 किमी
* मलैला तीर्थम दूरी 58 किमी
* अक्का महादेवी गुफा दूरी 10 किमी
* उमा महेश्वरम दूरी 87 किमी
* नागार्जुन सागर उद्धान दूरी 60 किमी
* बैर्लुती जंगल कैंप दूरी 96 किमी
* तिर्वल म्युजियम दूरी 1 किमी
* साक्षी गणपति का मंदिर दूरी 3 किमी
* फलधारा पंचधारा दूरी 4.5 किमी
* हट्केश्वरम दूरी 4.5 किमी
* कैलाश द्वारम स्थल दूरी 5 किमी
* कदलीवनम गुफा दूरी 22 किमी
* शैलेश्वरम धाम दूरी 60 किमी
* गुप्त मल्लिकार्जुन धाम दूरी 45 किमी
* नागार्जुन सागर डैम दूरी 166 किमी

आरती व दर्शन का समय –

मल्लिकार्जुन मंदिर सुबह 5:30 से दोपहर 01:00 बजे तक खुला रहता है इसके बाद शाम को 06:00 से 10:00 बजे तक खुला रहता है। इस मंदिर में आरती सुबह 05:15 से 06:30 तक होती है उसके बाद शाम को 05:20 से 06:00 तक होती है। प्रसाद के रूप में यहाँ पर लड्डू का प्रसाद अर्पित किया जाता है।

अमानती घर –

इस मंदिर में फोटो निकालना व कैमरा और मोबइल अंदर लेके जाना पूर्णतः प्रतिबंधित है। इसलिए आप अपना सामान जैसे बैग, मोबाईल, कैमरा और कोई इलेट्रोनिक सामान अमानती घर में जमा करा सकते है। जिसके लिए प्रति बैग 10 रुपए, प्रति मोबाईल और कैमरा 5 रुपए का शुल्क लिया जाता है। आप अपने जूते चप्पल भी जूता घर में जमा करा सकते है जिसके लिए आपको प्रति जोड़ी 2 रुपए देने होते हैं।

ठहरने की व्यवस्था –

मंदिर के पास ही भक्तो को ठहरने के लिए कई सारे गेस्ट हाउस, धर्मशाला और छोटे छोटे मकान बने हुए है। इसके साथ ही शिवरात्रि के मेले के समय भीड़ ज्यादा होने के कारण छोटें छोटे मंदिरों में भी रुकने की व्यवस्था की जाती है।

आवागमन –
मल्लिकार्जुन मंदिर के लिए आप हवाई मार्ग, रेल मार्ग और सड़क मार्ग तीनो के द्वारा ही सफर कर सकते है –

हवाई मार्ग द्वारा – श्री शैलम मंदिर के सबसे निकट 137 किमी की दूरी पर हैदराबाद में राजीव गांधी अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा बना है। यह हवाई अड्डा हैदराबाद को सभी प्रमुख भारतीय और अंतरराष्ट्रीय स्थलों से जोड़ता है। यह देश के सबसे व्यस्त हवाई अड्डों में से एक है और जेट एयरवेज, एयर इंडिया, इंडिगो और स्पाइसजेट जैसी प्रमुख एयरलाइंस नई दिल्ली, मुंबई, गोवा, अगरतला, अहमदाबाद, बैंगलोर, चेन्नई और लखनऊ से उड़ान भरने के लिए संचालित हैं। हवाई अड्डा शहर से लगभग 30 किमी दुरी पर स्थित है। यात्रियों को हवाई अड्डे के बाहर से ऑटो, बस और टैक्सी सेवा आसानी से उपलब्ध है।

रेल मार्ग द्वारा – श्री शैलम से 62 किमी की दूरी पर मर्कापुर रोड रेलवे स्टेशन है यहाँ से आप बस और टैक्सी के द्वारा आसानी से मंदिर तक आ सकते हैं।
काचीगुडा लाइन पर  कर्नूल टाउन स्टेशन से शैल की दूरी 77 मील है तथा दूसरी हुबली लाइंन पर नजदीकी रेलवे स्टेशन नंदयाल है। जहा से शैल की दूरी 71 मील है।

सड़क मार्ग द्वारा – सड़क मार्ग द्वारा श्री शैलम पूरी तरह से बड़े बड़े प्रमुख शहरों से जुडा हुआ है इसलिए आप आसानी से बस या कार द्वारा यहाँ पहुँच सकते है। श्री शैलम के लिए आसपास से लगातार सरकारी और प्राइवेट बस की सुविधा उपलब्ध है। विजयवाड़ा, तिरुपति, अनंतपुर, हैदराबाद और महबूबनगर से नियमित रूप से श्रीसैलम के लिए सरकारी और निजी बसें चलाई जाती हैं।
समान्य समय में बसे आत्माकूर तक ही जाती है। गंटूर से शैल की दूरी 217 मील है। गंटूर और तिरूपति से यहा के लिए सिधी बस सेवा है।

इन 12 ज्योतिर्लिंग के नाम हैं –

1. सोमनाथ 2. मल्लिकार्जुन 3. महाकालेश्वर 4. ओम्कारेश्वर 5. केदारनाथ 6. भीमाशंकर 7. काशी विश्वानाथ 8. त्रयंबकेश्वर 9. वैद्यनाथ 10. नागेश्वर 11. रामेश्वर 12. घृष्णेश्वर

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