रविवार, 12 जनवरी 2020

वैद्यनाथ मन्दिर, देवघर

देवघर (Deoghar) शहर

झारखंड में स्थित देवघर देवालय के लिए खास माना जाता है। बैद्यनाथ धाम, बाबा धाम और कई अन्य नामों से जाना जाने वाला झारखंड जिला का शहर देवघर पवित्र हिंदू तीर्थो में से एक है। यह स्थान झारखण्ड प्रान्त, पूर्व में बिहार प्रान्त के सन्थाल परगना के दुमका नामक जनपद में पड़ता है। इसे देवगढ़ भी कहा जाता है। राज्य के संथाल परगना का यह जिला एक प्रसिद्ध हेल्थ रिजॉर्ट है, लेकिन इसकी पहचान हिंदु तीर्थस्थान के रूप में की जाती है। यह तीर्थस्थान बिहार के पटना शहर से 229 किमी दूर 833 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है।

देवघर सती के 52 शक्तिपीठों में से भी एक है। पुराणों में देवघर को हृदय पीठ और चिता भूमि भी कहा गया है क्योंकि इसी स्थान पर माता पार्वती का हृदय गिरा था और यहीं भगवन शिव ने उनका अंतिम संस्कार किया था।

यह भारत के सबसे गुप्त स्थलों में भी गिना जा सकता है जहां आज भी बौद्ध मठों के खंडहरों को देखा जा सकता है।

वैद्यनाथ मन्दिर, देवघर

वैद्यनाथ मन्दिर (Baidyanath Temple) भारतवर्ष के राज्य झारखंड में अतिप्रसिद्ध देवघर अर्थात देवताओं का घर नामक स्‍थान पर अवस्थित है। पवित्र तीर्थ होने के कारण लोग इसे वैद्यनाथ धाम (Baidyanath Dham) (बाबाधाम) भी कहते हैं। कहा जाता है कि यहाँ पर आने वालों की सारी मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं। इस कारण इस लिंग को "कामना लिंग" भी कहा जाता हैं। देवघर के श्री वैद्यनाथ शिवलिंग की गिनती देश के पवित्र द्वादश ज्योतिर्लिंगों की गणना में नौवाँ स्थान बताया गया है। यह बाबा बैद्यनाथ का मुख्य मंदिर है, जहां ज्योतिर्लिंग स्थापित है, और 21 अन्य मंदिर हैं।

यह मंदिर भारत के प्रमुख शक्तिपीठों में से एक है, जहां दो मंदिर देवी पार्वती को समर्पित हैं, जो शिवशक्ति के पवित्र बंधन को प्रदर्शित करते हैं।

वैद्यनाथ ज्योतिलिंग का वर्णन महा शिवपुरण में मिलता है जो वैद्यनाथ ज्योतिलिंग के स्थान की पहचान कराता है जिसके अनुसार बैद्यंथम ‘चिधभूमि’ में है, जो देवघर का नाम है। शैव पुराण में देवघर को बारह जोतिर्लिंगों में से एक माना गया है।

बैधनाथ को आत्मलिंग, महेश्वर्लिंग, कमानालिंग, रावणेश्वर महादेव, श्री वैधनाथलिंग, नर्ग तत्पुरुष और बेंगुनाथ के आठ नामों से जाना जाता है।

धर्माचार्यों का कहना है कि शिवपुराण में ज्योतिर्लिंग की पूजा का महत्व बताया गया है। शास्त्रों के अनुसार यहां माता सती के हृदय और भगवान शिव के आत्मलिंग का सम्मिश्रण है। इसलिए यहां के ज्योतिर्लिंग में अपार शक्ति है। यहां सच्चे मन से पूजा-पाठ और ध्यान करने पर हर मनोकामना अवश्य पूरी होती है। कहा गया है कि कोई अगर छह महीने तक लगातार शिव ज्योतिर्लिंग की पूजा करता है, तो उसे पुनर्जन्म का कष्ट नहीं उठाना पड़ता। बड़े- बड़े साधु-संत मोक्ष पाने के लिए यहां आते हैं।

बाबा बैजनाथ धाम की कथा और स्थापना :

भगवान शिव के भक्त रावण और बाबा बैजनाथ की कहानी बड़ी निराली है।
इस लिंग की स्थापना का इतिहास यह है कि शिव पुराणों में वर्णित कहानियों के अनुसार, लंका के राजा राक्षस रावण ने महसूस किया था कि जब तक महादेव हमेशा के लिए लंका में नहीं रहते तब तक उनकी राजधानी परिपूर्ण और स्वतंत्र नहीं होगी। तब राक्षसराज दशानन रावण ने हिमालय पर जाकर शिवजी की प्रसन्नता के लिये घोर तपस्या की और अपने सिर काट-काटकर शिवलिंग पर चढ़ाने शुरू कर दिये। एक-एक करके नौ सिर चढ़ाने के बाद दसवाँ सिर भी काटने को ही था कि शिवजी प्रसन्न होकर प्रकट हो गये। और दसवां सिर काटने से रोकते हुए कहा - 'बस करो वत्स! तुम्हारी घोर तपस्या और भक्ति-भाव से मैं अत्यंत प्रसन्न हूं। उन्होंने उसके दसों सिर ज्यों-के-त्यों कर दिये और उससे वरदान माँगने को कहा।

तब रावण ने 'कामना लिंग' को ही लंका ले जाने का वरदान मांग लिया। रावण के पास सोने की लंका के अलावा तीनों लोकों में शासन करने की शक्ति तो थी ही साथ ही उसने कई देवता, यक्ष और गंधर्वो को कैद कर के भी लंका में रखा हुआ था। इस वजह से रावण ने ये इच्छा जताई कि भगवान शिव कैलाश को छोड़ लंका में रहें। महादेव ने उसकी इस मनोकामना को पूरा तो किया पर साथ ही एक शर्त भी रखी। उन्होंने कहा कि अगर तुमने शिवलिंग को रास्ते में कही भी रखा तो मैं फिर वहीं रह जाऊंगा और नहीं उठूंगा। रावण ने शर्त मान ली।

इधर भगवान शिव की कैलाश छोड़ने की बात सुनते ही सभी देवता चिंतित हो गए। देवताओं का चिंता होने लगी अगर रावण शिवलिंग को लंका ले गया तो रावण अजेय हो जाएगा। इस समस्या के समाधान के लिए सभी भगवान विष्णु के पास गए। तब श्री हरि ने लीला रची। भगवान विष्णु ने वरुण देव को आचमन के जरिए रावण के पेट में घुसने को कहा। इसलिए जब रावण आचमन करके शिवलिंग को लेकर श्रीलंका की ओर चला तो देवघर के पास उसे लघुशंका लगी।

ऐसे में रावण एक ग्वाले (अहीर) (/चरवाहे) जिनका नाम बैजनाथ भील था, को शिवलिंग देकर लघुशंका करने चला गया। कहते हैं उस बैजू नाम के ग्वाले के रूप में भगवान विष्णु थे। ((रावण उस शिवलिंग को एक साधू को थमा लघुशंका-निवृत्ति करने चला गया। इधर उस साधू (शिवजी की प्रेरणा से नारद जी साधू बनकर आए थे) से उसे बहुत अधिक भारी अनुभव कर भूमि पर रख दिया।)) (तब भगवान गणेश एक ब्राह्मण का रूप धारण कर रावण के सामने उपस्थित हुए थे।) इस वजह से भी यह तीर्थ स्थान बैजनाथ धाम और रावणेश्वर धाम दोनों नामों से विख्यात है। पौराणिक ग्रंथों के मुताबिक रावण कई घंटो तक लघुशंका करता रहा जो आज भी एक तालाब के रूप में देवघर में है। इधर बैजू ने शिवलिंग धरती पर रखकर स्थापित कर दिया।

जब रावण लौट कर आया तो लाख कोशिश के बाद भी शिवलिंग को उठा नहीं पाया। तब उसे भी भगवान की यह लीला समझ में आ गई। इस असफलता ने उसे निराश कर दिया। इसके बाद उसने हिंसा का प्रयोग किया। वह क्रोधित होकर शिवलिंग पर अपना अंगूठा गढ़ाकर चला गया। परन्तु वो केवल अपने अंगूठे से ही शिवलिंग को खिसकाने में सफल रहा और उसे नुक्सान पंहुचा दिया। बाद में जब उसे अपनी गलती का एहसास हुआ तो उसे अपने किये पर पछतावा हुआ और उसने अपने अपराध की क्षमा मांगी। अपनी योजना में सफलता पाने के पश्चात देवतओं को बहुत प्रसन्नता हुई की शिवलिंग रावण की लंका तक नहीं पहुंच सका। इस के बाद रावण लंका वापस आ गया परन्तु वो हमेशा इस लिंग की पूजा करने आया करता था।

उसके बाद ब्रह्मा, विष्णु आदि देवताओं ने आकर उस शिवलिंग की पूजा की। शिवजी का दर्शन होते ही सभी देवी देवताओं ने शिवलिंग की उसी स्थान पर स्थापना कर दी और शिव-स्तुति करके वापस स्वर्ग को चले गए।

तभी से महादेव 'कामना लिंग' के रूप में देवघर में विराजते हैं। जनश्रुति व लोक-मान्यता के अनुसार यह वैद्यनाथ-ज्योतिर्लिग मनोवांछित फल देने वाला है।

जिस स्थान पर रावण के वंशजो ने पृथ्वी पर जन्म लिया था जिसे वर्तमान में हरिलाजोरी के नाम से जाना जाता है बैद्यनाथ के उत्तर से 4 मील की दुरी पर स्थित है। जिस स्थान पर शिवलिंग को रखा गया है वर्तमान में देवघर के नाम से जाना जाता है और शिवलिंग को बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग के नाम से जाना जाता है।

अन्य परंपराओं के अनुसार, रावण की मृत्यु के पश्चात शिवलिंग की किसी ने भी परवाह नहीं की थी जब तक बैजू, एक कठोर शिकारी ने इसपर ध्यान नहीं दिया था, ये वो शिकारी था जिसने इन्हे अपने भगवान के रूप में स्वीकार किया था और उनकी प्रतिदिन पूजा किया करता था इसलिए इस स्थान को बैजू के भगवान (बैद्यनाथ) के रूप में पूजा जाता है।

ऐसे पड़ा बैद्यनाथ नाम

शिवपुराण के शक्ति खंड में इस बात का उल्लेख है कि माता सती के शरीर के 52 खंडों की रक्षा के लिए भगवान शिव ने सभी जगहों पर भैरव को स्थापित किया था। देवघर में माता का हृदय गिरा था। इसलिए इसे हृदय पीठ या शक्ति पीठ भी कहते हैं। माता के हृदय की रक्षा के लिए भगवान शिव ने यहां जिस भैरव को स्थापित किया था, उनका नाम बैद्यनाथ था। इसलिए जब रावण शिवलिंग को लेकर यहां पहुंचा, तो भगवान ब्रह्मा और बिष्णु ने भैरव के नाम पर उस शिवलिंग का नाम बैद्यनाथ रख दिया। शास्त्रों में भी यहां की महिमा का उल्लेख है। मान्यता है कि सतयुग में ही यहां का नामकरण हो गया था।

पंडितों की माने तो यहां के नामकरण के पीछे एक और मान्यता है। त्रेतायुग में बैजू नाम का एक शिव भक्त था। उसकी भक्ति से भगवान शिव इतने प्रसन्न हुए कि अपने नाम के आगे बैजू जोड़ लिया। इसी से यहां का नाम बैजनाथ पड़ा। कालातंर में यही बैजनाथ, बैद्यनाथ में परिवर्तित हुआ।

माना जाता है कि यहां रावण ने भगवान शिव की पूजा की थी और अपने 12 सिरों को बलिदान रूप में चढ़ाया था, जिसके बाद भोलेनाथ एक वैद्य के रूप में रावण के ठीक करने के लिए आए थे। इस पौराणिक घटना की वजह से इस मंदिर नाम बाबा बैद्यनाथ पड़ा।

मन्दिर के मुख्य आकर्षण

देवघर का शाब्दिक अर्थ है देवी-देवताओं का निवास स्थान। देवघर में बाबा भोलेनाथ का अत्यन्त पवित्र और भव्य मन्दिर स्थित है।

मन्दिर के समीप ही एक विशाल तालाब भी स्थित है। बाबा बैद्यनाथ का मुख्य मन्दिर सबसे पुराना है जिसके आसपास अनेक अन्य मन्दिर भी बने हुए हैं। बाबा भोलेनाथ का मन्दिर माँ पार्वती जी के मन्दिर से जुड़ा हुआ है।

वैद्यनाथ धाम मंदिर के प्रांगण में वैसे तो विभिन्न देवी-देवताओं के 22 मंदिर हैं, लेकिन बीच में स्थित शिव का भव्य और विशाल मंदिर कब और किसने बनाया, यह शोध का विषय माना जाता है। हालांकि कुछ लोग मानते हैं कि बैद्यनाथ मंदिर का निर्माण स्वयं भगवान विश्वकर्मा ने करवाया था।

बैद्यनाथ धाम का मंदिर ठोस पत्थरों से निर्मित है। मंदिर के मध्य प्रांगण में 72 फीट ऊंचे शिव मंदिर के अलावा अन्य 22 मंदिर स्थापित हैं। इसी प्रांगण में एक घंटा, एक चंद्रकूप और प्रवेश के लिए विशाल सिंह दरवाजा बना हुआ है।

महाआरती में घंटी, शंख, ढोल की आवाज और पूजा अर्चना में उपयोग होने वाले धूप, दीया, पुष्प और अगरबत्ती ऐसे माहौल को गढ़ती है, जिसे देख आप स्वत: प्राचीन परंपरा से जुड़ जाते हैं। शाम के वक्त महाआरती का आयोजन होता है।

बाबा बैद्यनाथ मंदिर देवघर में दर्शन – Baidyanath Temple Timings

सुबह: 4:00 से दुपहर 3:30 बजेशाम: 6:00 से 9:00 बजे तक।
बाबा बैद्यनाथ का मुख्य मंदिर द्वार सामान्य दिनों में रात 9: 00 बजे बंद हो जाता है, लेकिन बाबा मंदिर परिसर का द्वार पूरी रात खुला रहता है।श्रवण मेला और शिवरात्रि, सोमवारी आदि जैसे कई अन्य अवसरों के दौरान दर्शन समय आमतौर पर बढ़ाया जाता है।

प्रसाद में क्‍या चढ़ाया जाता है :

यहां महाप्रसाद में पेड़ा, चूड़ा, इलायची दाना, कच्चा सूत, सिंदूर सहित अन्य सामग्री चढ़ाई जाती है। यहां मिलने वाले पेड़े का स्‍वाद बहुत लजीज होता है।

पंचशूल यानी सुरक्षा कबच

वैद्यनाथ मंदिर के शीर्ष पर लगे पंचशूल के विषय में धर्म के जानकारों का अलग-अलग मत है। मान्यता है कि पंचशूल के दर्शन मात्र से ही भगवान शिव प्रसन्न हो जाते हैं।

मान्यता है कि यहां आने वाला श्रद्धालु अगर बाबा के दर्शन किसी कारणवश न कर पाए, तो मात्र पंचशूल के दर्शन से ही उसे समस्त पुण्यफलों की प्राप्ति हो जाती है।

धार्मिक ग्रंथों में कहा गया है कि भगवान शंकर ने अपने प्रिय शिष्य शुक्राचार्य को पंचवक्त्रम निर्माण की विधि बताई थी, जिनसे फिर लंकापति रावण ने इस विद्या को सिखा था। पंचशूल अजेय शक्ति प्रदान करता है।

धार्मिक ग्रंथों में कहा गया है कि त्रेता युग में रावण ने लंकापुरी के द्वार और चारों कोनों पर सुरक्षा कवच के रूप में पंचशूल का निर्माण करवाया था। जिसे भगवान राम को तोड़ना आसान नहीं हो रहा था। बाद में विभिषण द्वारा इस रहस्य की जानकारी भगवान राम को दी गई और तब जाकर अगस्त मुनि ने पंचशूल ध्वस्त करने का विधान बताया था। तभी राम और उनकी सेना लंका में प्रवेश कर सकी थी। रावण ने उसी पंचशूल को इस मंदिर पर लगाया था, जिससे इस मंदिर को कोई क्षति नही पहुंचा सके। सुरक्षा कवच के कारण ही इस मंदिर पर आज तक किसी भी प्राकृतिक आपदा का असर नहीं हुआ है।

"त्रिशूल' को भगवान का हथियार कहा जाता है, परंतु यहां पंचशूल है, जिसे सुरक्षा कवच के रूप में मान्यता है। ऐसी मान्यता है कि यहां आने से भक्तों के सारे कष्ट दूर होते हैं। भगवान भोलेनाथ को प्रिय मंत्र 'ओम नम: शिवाय' पंचाक्षर होता है। भगवान भोलेनाथ को रुद्र रूप पंचमुख है।" सभी ज्योतिर्पीठों के मंदिरों के शीर्ष पर 'त्रिशूल' है, परंतु बाबा बैद्यनाथ के मंदिर में ही पंचशूल स्थापित है।

धर्माचार्यो का कहना है कि पंचशूल का दूसरा कार्य मानव शरीर में मौजूद पांच विकार - काम, क्रोध, लोभ, मोह व ईर्ष्या का नाश करना है। पंचशूल को पंचतत्वों - क्षिति, जल, पावक, गगन तथा समीर से बने मानव शरीर का द्योतक है।

वैद्यनाथधाम में महाशिवरात्रि व पंचशूल की पूजा

भारत में झारखण्ड के देवघर जिले में स्थित वैद्यनाथ मन्दिर है। विश्व के सभी शिव मंदिरों के शीर्ष पर त्रिशूल लगा दीखता है मगर वैद्यनाथ धाम परिसर के शिव, पार्वती, लक्ष्मी-नारायण व अन्य सभी मंदिरों के शीर्ष पर पंचशूल लगे हैं। जिसे सुरक्षा कवच माना गया है।

वैद्यनाथ धाम परिसर में प्रतिवर्ष महाशिवरात्रि से 2 दिन पूर्व बाबा वैद्यनाथ मंदिर में स्वर्ण कलश के ऊपर लगे पंचशूल व माँ पार्वती, लक्ष्मी-नारायण मंदिर सहित यहां के सभी 22 मंदिरों से पंचशूल उतारे जाते हैं। इस दौरान पंचशूल को स्पर्श करने के लिए भक्तों की भीड़ उमड़ पड़ती है। कहते हैं इस पांचल का स्पर्श भी अपने आप में काफी अद्भुत है। सभी पंचशूलों को नीचे लाकर एक निश्चित स्थान पर रखकर विशेष रूप से उनकी पूजा पुरे विधि-विधान से की जाती है और तब सभी पंचशूलों को मंदिरों पर यथा स्थान स्थापित कर दिया जाता है।

ज्ञात हो कि पंचशूल को मंदिर से नीचे लाने और फिर ऊपर स्थापित करने का अधिकार एक ही परिवार को प्राप्त है।

इस दौरान शिव (बाबा) और पार्वती के मंदिरों के गठबंधन को भी हटा दिया जाता है। लाल कपड़े के दो टुकड़ों में दी गई गांठ खोल दी जाती है और महाशिवरात्रि के दिन फिर से नया गठबंधन किया जाता है। पुराने गठबंधन के कपड़े का एक छोटा-सा अंश प्राप्त करने के लिए भी भक्तों की भीड़ लगी रहती है। कहा जाता है कि इसे घर में रखने से सुख-शांति और समृद्धि बनी रहती है।

इतिहास

आठवीं शताब्दी में अंतिम गुप्त सम्राट आदित्यसेन गुप्त ने यहाँ शासन किया था। तभी से बाबा धाम मंदिर काफी प्रसिद्ध है।अकबर के शासनकाल में मान सिंह अकबर के दरबार से जुड़े हुए थे। मानसिंह लंबे समय तक गिधौर साम्राज्य से जुड़े हुए थे और बिहार के बहुत से शासको से भी उन्होंने संबंध बना रखे थे। मान सिंह को बाबाधाम में काफी रूचि थी, यहाँ उन्होंने एक ताल भी बनवाया, जिसे आज मानसरोवर के नाम से भी जाना जाता है। मंदिर में लगे शिलालेखो से यह भी ज्ञात होता है कि इस मंदिर का निर्माण पुजारी रघुनाथ ओझा की प्रार्थना पर किया गया था। पूरण मल ने मंदिर की मरम्मत करवाई थी। रघुनाथ ओझा इन शिलालेखो से नाराज थे लेकिन वे पूरण मल का विरोध नही कर पाए। जब पूरण मल चले गए तब उन्होंने वहाँ एक बरामदा बनवाया और खुद के शिलालेख स्थापित किये। बैद्यनाथ की तीर्थयात्रा मुस्लिम काल में भी प्रसिद्ध थी। 1695 और 1699 AD के बीच खुलासती-त-त्वारीख में भी हमें बैद्यनाथ की यात्रा का उल्लेख है। 18वीं शताब्दी में गिधौर के महाराजा को राज्य की उथल-पुथल का सामना करना पड़ा। इस समय उन्हें वीरभूमि के नबाब से लड़ना पड़ा। इसके बाद मंदिर के मुख्य पुजारी को वीरभूमि के नवाब को एक निश्चित राशी प्रतिमाह देनी पड़ती थी।
कुछ सालो तक नवाब ने बाबाधाम पर शासन किया। कुछ समय बाद गिधौर के महाराजा ने नवाब को पराजित कर ही दिया और जबतक ईस्ट इंडिया कंपनी भारत नही आयी, तब तक बाबाधाम की देखरेख उनके आधिपत्य में ही हुई। 1757 में प्लासी के युद्ध के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारियो का ध्यान इस मंदिर पर पड़ा। एक अंग्रेजी अधिकारी कीटिंग ने अपने कुछ आदमियों को मंदिर का शासन प्रबंध देखने के लिए भी भेजा। वीरभूमि के पहले अंग्रेजी कलेक्टर मिस्टर कीटिंग मंदिर के शासन प्रबंध में रुची लेने लगे थे। 1788 में मिस्टर कीटिंग स्वयं बाबाधाम आए और उन्होंने पुजारी के प्रत्यक्ष हस्तक्षेप की निति को जबरदस्ती बलपूर्वक बंद करवा दिया। इसके बाद उन्होंने मंदिर के सभी अधिकार और नियंत्रण की जिम्मेदारी सर्वोच्च पुजारी को सौप दी।

श्रद्धालुओं की कांवड़-यात्रा

गौरतलब है कि वर्ष भर शिवभक्तों की यहां भारी भीड़ लगी रहती है, परंतु महाशिवरात्रि के सावन महीने में यह पूरा क्षेत्र केसरिया पहने शिवभक्तों से पट जाता है। हर साल सावन के महीने में स्रावण मेला लगता है जिसमें लाखों श्रद्धालु "बोल-बम!" "बोल-बम!" का जयकारा लगाते हुए बाबा भोलेनाथ के दर्शन करने आते है। जो देश के विभिन्न हिस्सों सहित विदेशों से भी यहां आते हैं। इन भक्तों को कावरियां कहा जाता है।

बैद्यनाथ धाम की अत्यन्त कठिन पवित्र यात्रा श्रावण मास (जुलाई-अगस्त) में शुरु होती है। सबसे पहले तीर्थ यात्री बिहार के भागलपुर के सुल्तानगंज में एकत्र होते हैं जहाँ वे गंगा से दो पात्रों में पवित्र गंगाजल भरते हैं। इसके बाद वे गंगाजल को अपनी-अपनी काँवर में रखकर 105 किलोमीटर दूर बैद्यनाथ धाम और बासुकीनाथ की ओर बढ़ते हैं। एक पात्र का जल वैद्यनाथ धाम देवघर में चढ़ाया जाता है, जबकि दूसरे पात्र से बासुकीनाथ में भगवान नागेश को जलाभिषेक करते हैं।

पवित्र जल लेकर जाते समय इस बात का ध्यान रखा जाता है कि वह पात्र जिसमें जल है, वह कहीं भी भूमि से न सटे। भगवान भोलेनाथ के भक्त ‘बोल बम’ का जयघोष करते हुए यहां आते हैं और बाबा का जलाभिषेक करते हैं। यह सिलसिला पूरे एक महीना चलता है। इस दौरान श्रद्दालुओं के पांवों में छाले पड़ जाते हैं, लेकिन जलाभिषेक के बाद असीम शांति मिलती है और श्रद्धालु अपना दर्द भूल जाते हैं।

ऐसी आस्था है कि यहां मांगी हर मनोकामनाएं पूरी होती हैं। इसके लिए सावन का महीना खास होता है। इसलिए पूरे सावन में यहां श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है।

वैसे तो यहां सालभर श्रद्धालुओं की भीड़ लगती है लेकिन सावन के महीने में यहां प्रतिदिन करीब एक लाख शिवभक्त मनोकामना शिवलिंग पर जलार्पण करते हैं। सोमवार को आने वाले शिवभक्तों की संख्या और भी बढ़ जाती है।

सुल्तानगंज से जल क्‍यों भरा जाता है :

देवघर में बाबा वैद्यनाथ को जो जल अर्पित किया जाता है, उसे शिव भक्त भागलपुर जिले के सुल्तानगंज में बहने वाली उत्तर वाहिनी गंगा से भरकर 105 किलोमीटर की पैदल यात्रा कर बाबा वैद्यनाथ को अर्पित करते हैं। पौराणिक कथाओं के अनुसार सबसे पहले भगवान श्रीराम ने सुल्तानगंज से जल भरकर देवघर तक की यात्रा की थी, इसलिए यह परंपरा आज भी चली आ रही है।

'साधारण बम' और 'डाक बम' में क्‍या फर्क है :

जो लोग किसी समय सीमा में बंधकर जल नहीं चढ़ाते उन्‍हें 'साधारण बम' कहा जाता है। लेकिन जो लोग कावड़ की इस यात्रा को 24 घंटे में पूरा करते हैं उन्हें 'डाक बम' कहा जाता है। इन्हें प्रशासन की ओर से कुछ खास सुविधाएं दी जाती हैं। कुछ भक्त दंड प्रणाम करते हुए या दंडवत करते हुए सुल्तानगंज से बाबा के दरबार में आते हैं। यह यात्रा काफी कष्टकारी मानी जाती है।

कैदी सजाते हैं बाबा का "श्रृंगार", अंग्रेज जेलर था भक्त

कामना लिंग के नाम से विश्व प्रसिद्ध बाबा नागेश्वर के सिर पर श्रृंगार पूजा के समय प्रतिदिन फूलों और बेलपत्र से तैयार किया हुआ "नाग मुकुट" पहनाया जाता है। यह नाग मुकुट देवघर की जेल में कैदियों द्वारा तैयार किया जाता है। इस पुरानी परंपरा का निर्वहन आज भी कैदी बड़े उल्लास से करते हैं।

यह पुरानी परंपरा है। कहा जाता है कि आजादी के पहले एक अंग्रेज जेलर था। उसके पुत्र की तबीयत अचानक बहुत खराब हो गई। उसकी हालत बिगड़ती देख लोगों ने जेलर को बाबा के मंदिर में "नाग मुकुट" चढ़ाने की सलाह दी। जेलर ने लोगों के कहे अनुसार ऎसा ही किया और उनका पुत्र ठीक हो गया। तभी से यहां यह परंपरा बन गई।

इसके लिए जेल में भी पूरी शुद्धता और स्वच्छता से व्यवस्था की जाती है। जेल के अंदर इस मुकुट को तैयार करने के लिए एक विशेष कक्ष है, जिसे लोग "बाबा कक्ष" कहते हैं। यहां पर एक शिवालय भी है। देवघर के जेल अधीक्षक बताते हैं कि यहां मुकुट बनाने के लिए कैदियों की दिलचस्पी देखते बनती है।

मुकुट बनाने के लिए कैदियों को समूहों में बांट दिया जाता है। प्रतिदिन कैदियों को बाहर से फूल और बेलपत्र उपलब्ध करा दिया जाता है। कैदी उपवास रखकर बाबा कक्ष में नाग मुकुट का निर्माण करते हैं और वहां स्थित शिवालय में रख पूजा-अर्चना करते हैं।

शाम को यह मुकुट जेल से बाहर निकाला जाता है और फिर जेल के बाहर बने शिवालय में मुकुट की पूजा होती है। इसके बाद कोई जेलकर्मी इस नाग मुकुट को कंधे पर उठाकर "बम भोले, बम भोले", "बोलबम-बोलबम" बोलता हुआ इसे बाबा के मंदिर तक पहुंचाता है।

उधर, कैदी भी बाबा का कार्य खुशी-खुशी करते हैं। कैदियों का कहना है कि बाबा की इसी बहाने वह सेवा करते हैं, जिससे उन्हें काफी सुकून मिलता है।

शिवरात्रि को छोड़कर वर्ष के सभी दिन श्रृंगार पूजा के समय नाग मुकुट सजाया जाता है। शिवरात्रि के दिन भोले बाबा का विवाह होता है। इस कारण यह मुकुट बाबा बासुकीनाथ मंदिर भेज दिया जाता है।

वासुकिनाथ मन्दिर (Basukinath Temple)

वासुकिनाथ अपने शिव मन्दिर के लिये जाना जाता है। वैद्यनाथ मन्दिर की यात्रा तब तक अधूरी मानी जाती है जब तक वासुकिनाथ में दर्शन नहीं किये जाते। (यह मान्यता हाल फ़िलहाल में प्रचलित हुई है। पहले ऐसी मान्यता का प्रचलन नहीं था। न ही पुराणों में ऐसा वर्णन है।) यह मन्दिर देवघर से 45.20 किलोमीटर दूर दुमका जिले के जरमुण्डी गाँव के पास स्थित है। इस मंदिर तक पहुंचने के लिए बसें एवं चारपहिया वाहन की मदद से बासुकीनाथ बाबा के भव्य मंदिर तक पहुंचा जा सकता है। इस मंदिर की छटा भी काफी निराली है। यहां आकर चित्त को असीम शांति मिलती है। यहाँ पर स्थानीय कला के विभिन्न रूपों को देखा जा सकता है। इसके इतिहास का सम्बन्ध नोनीहाट के घाटवाल से जोड़ा जाता है। वासुकिनाथ मन्दिर परिसर में कई अन्य छोटे-छोटे मन्दिर भी हैं।

बैजू मन्दिर

बाबा बैद्यनाथ मन्दिर परिसर के पश्चिम में देवघर के मुख्य बाजार में तीन और मन्दिर भी हैं। इन्हें बैजू मन्दिर के नाम से जाना जाता है। इन मन्दिरों का निर्माण बाबा बैद्यनाथ मन्दिर के मुख्य पुजारी के वंशजों ने किसी जमाने में करवाया था। प्रत्येक मन्दिर में भगवान शिव का लिंग स्थापित है।

त्रिकुट पहाड़ियां

देवघर से दस किलोमीटर दूर स्थित है त्रिकुटाचल यानि त्रिकूट हिल्स। यह स्थान भी शिव मंदिर के लिए प्रसिद्ध है। यहां शिव का मंदिर 2470 फुट ऊपर त्रिकूट पर्वत पर है। यहां तीन मुख्य चोटियां हैं, यही वजह है कि इसका नाम त्रिकूट हिल्स पड़ा। यहां पहुंचकर नैसर्गिक आनंद प्राप्त कर सकते हैं आप। इस पहाड़ पर बहुत सारी गुफाएं और झरनें हैं। यह स्थल मयूराक्षी नदी के स्त्रोत के लिए प्रसिद्ध है।

पहाड़ियों के बीचों-बीच एक आश्रम भी है -त्रिकुटाचल आश्रम। इस आश्रम की स्थापना संपदानंद देव ने की थी। बाद में उनके अनुयायिओं ने इसकी देखभाल करनी शुरू की और आज भी सफलतापूर्वक इसका संचालन किया जा रहा है। यहां देवी त्रिशूली की एक वेदी भी है। पहाड़ियों पर चढ़ने के लिए ऑटोमैटिक झूले यानी रोप वे लगाए गए हैं। इस पर चढ़ना किसी रोमांच से काम नहीं है।

मंदार हिल

अन्य धार्मिक स्थलों के सैर के दौरान आप यहां के प्रसिद्ध तीर्थ स्थलों में से एक मंदार पर्वत की सैर जरूर करें। बाउंसी ब्लॉक के अंतर्गत मंदार हिल 700 फीट की ऊंचाई के साथ स्थित है। पौराणिक किंवदंतियों में इस स्थान को 'सुमेरू पर्वत' के रूप में वर्णित किया गया है। इस पर्वत का इस्तेमाल देवों और राक्षसों के द्वारा अमृत मंथन के दौरान मंथन पहाड़ी के रूप में किया जाता था।

इस पहाड़ी के ऊपर एक खूबसूरत मंदिर भी स्थित है जो 12वें जैन तीर्थंकर वासुपुज्य के सम्मान में बनाया गया है। यह मंदिर विशाल झील से घिरा हुआ है। यहां भगवान विष्णु और देवी लक्ष्मी का भी मंदिर स्थित है, जो मंदार हिल आने वाले श्रद्धालुओं द्वारा ज्यादा देखा जाता है।

देव संघ आश्रम

देव संघ आश्रम को नव दुर्गा मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। यह धार्मिक स्थल देवी दुर्गा के नौ अवतारों को समर्पित एक भव्य मंदिर है, जहां दर्शन के लिए दूर-दूर से श्रद्धालु आते हैं। मंदिर में देवी दुर्गा के अलावा भगवान शिव, देवी सरस्वती, और मां अन्नपूर्णा के प्रतिमाएं भी उपस्थित हैं।

नौलखा मंदिर

उपरोक्त धार्मिक स्थलों के अलावा आप बाबा बैद्यनाथ मंदिर से लगभग 2 किमी दूर स्थित नोलखा मंदिर के दर्शन के लिए भी आ सकते हैं। यह भव्य मंदिर राधा और कृष्ण को समर्पित है। मंदिर का कलेवर काफी आकर्षक है। उत्कृष्ट वास्तु एवम स्थापत्य कला का अद्भुत नमूना है यह मंदिर। यह मंदिर देवघर स्थित राज्य के प्रमुख हिन्दू तीर्थ स्थानों में गिना जाता है। मंदिर के दैवीय वातावरण में आप शांति का अनुभव कर सकते हैं। लगभग 146 फीट की ऊंचाई वाले इस मंदिर का निर्माण संत श्री बालानंद ब्रह्मचारी ने 1948 में करवाया था। मंदिर का कलेवर काफी आकर्षक है। उत्कृष्ट वास्तु एवम स्थापत्य कला का अद्भुत नमूना है यह मंदिर।

ऐसा माना जाता है कि पाथुरिया घाट शाही परिवार की रानी चरशीला ने मंदिर के निर्माण के लिए धन दान किया है। यह मंदिर तपोवन से 8 किमी की दूरी पर स्थित है, यहां वो गुफा भी मौजूद है जहां संत बालानंद ध्यान लगाया करते थे।

नंदन पहाड़

देवघर से पश्चिम दिशा की ओर यह एक मनोहारी पर्यटक-स्थल है। इस पर्वत की महत्ता यहां बने मंदिरों के झुंड के कारण है। जो विभिन्न भगवानों को समर्पित हैं। यहां पहाड़ पर है एक शिव और नंदी मंदिर। पहाड़ के ऊपर पहुंचकर इन दोनों मंदिरों के दर्शन किए जा सकते हैं। यहां भी भक्तों क़ी भीड़ लगी रहती है। नंदन हिल्स पर चढ़कर आप शहर का मनोरम दृश्य देख सकते हैं। बच्चों के लिए भी यह काफी आकर्षक स्थान है। यहां पर्यटन विभाग क़ी ओर से पार्क का निर्माण कराया गया है। साथ ही बूट घर, भूत घर और दर्पण घर भी है जिसका आनंद बच्चे उठा सकते हैं। नौकाविहार और झूले का आनंद भी लिया जा सकता है।

सत्संग आश्रम

देवघर के दक्षिण पश्चिम में स्थित सत्संग आश्रम झारखंड के प्रमुख तीर्थस्थलों में से एक है। इसकी स्थापना ठाकुर अनुकूलचंद्र द्वारा की गई थी। यह बहुत ही सौम्य और शांत वातावरण में स्थित है। सर्व धर्म मंदिर के अलावा यहां पर एक संग्रहालय और चिड़ियाघर भी है।

तपोवन

देवघर से 10 किमी दूरी पर स्थित तपोवन अपने प्रसिद्ध शिवमंदिर के लिए जाना जाता है। गुफाओं और पहाड़ी पर बने मंदिरों के लिए जाना जाने वाला तपोवन एक रमणीय स्थान है। मान्यता है कि यह ऋषि बाल्मीकी तपस्या करने आए थे। कहते हैं कि श्री बालानंद बह्माचारी ने यहां पर तप करके दिव्यता प्राप्त की।

रामकृष्ण मिशन विद्यापीठ

बाबा बैद्यनाथ मंदिर के अलावा आप अन्य धार्मिक स्थलों की सैर का भी प्लान बना सकते हैं। आप देवघर के ह्रदय स्थल स्थित रामकृष्ण मिशन विद्यापीठ के दिव्य वातावरण का अनुभव ले सकते हैं। इस विद्यापीठ की स्थापना सन् 1922 में की गई थी। यह राम-कृष्ण मिशन का सबसे पुराना शैक्षिक संस्थान है।

वर्तमान में अब यह लड़कों के लिए एक उच्च माध्यमिक विद्यालय है जहां स्वामी विवेकानंद के भाई शिष्यों ने दौरा किया था। यह संस्थान भिक्षुओं और ब्रह्मचारियों द्वारा चलाया जाता है जिसमें शिक्षक भारत के विभिन्न राज्यों और कुछ अन्य देशों के भी शामिल हैं।

यहां भारत के प्राचीन और जनजातीय विरासत को पदर्शित करता एक संग्रहालय भी है, इसके अलावा आप यहां एक ग्रीनहाउस और एक औषधीय बाग भी देख सकते हैं। यहां स्थित राम कृष्ण मंदिर भी मुख्य आकर्षण का केंद्र है।

कैसे पहुंचे

देवघर में प्रयटको के लिए बहुत से आकर्षण केंद्र है : नौलखा मंदिर, बासुकीनाथ, बैजू  मंदिर और माँ शीतला मंदिर है। देवघर हवाई, सड़क और रेल द्वारा देश के अन्य प्रमुख शहरों से अच्छी तरह से जुड़ा हुआ है।

एयर द्वारा देवघर तक कैसे पहुंचे

निकटतम घरेलू हवाई अड्डा लोक नायक जयप्रकाश हवाई अड्डे, पटना, देवघर से 274 किलोमीटर दूर स्थित है। पटना में बैंगलोर, चेन्नई, दिल्ली, कोलकाता, लखनऊ, हैदराबाद, मुंबई, रांची, भोपाल, अहमदाबाद, गोवा और विशाखापत्तनम जैसे कई शहरों की दैनिक उड़ानें हैं।

रेल द्वारा देवघर तक कैसे पहुंचे

रेलवे स्टेशन देवघर से 7 कि.मी. की दूरी पर बैद्यनाथ धाम में स्थित है और यह नई दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, वाराणसी और भुवनेश्वर जैसे कई बड़े शहरों से अच्छी तरह से जुड़ा हुआ है। यहाँ का मुख्य स्टेशन जसीडीह है जो की देवघर से 7 किलोमीटर की दूरी पर है।

रोड से देवघर तक कैसे पहुंचे

देवघर सारवा से 16 किलोमीटर, सारठ से 36 किलोमीटर, जरमुंडी से 41 किलोमीटर, चंदमारी से 52 किलोमीटर, 132 किलोमीटर से धनबाद, 148 किलोमीटर से कोडरमा, 278 किलोमीटर दूर है। झारखंड राज्य सड़क परिवहन निगम लिमिटेड, पश्चिम बंगाल राज्य सड़क परिवहन निगम लिमिटेड और कुछ निजी यात्रा सेवाओं के माध्यम से जुड़ा हुआ है।

ज्योतिर्लिंग :

शिव महापुराण के मुताबिक, एक बार ब्रह्मा (सृष्टि के हिंदू देवता) और विष्णु (मुक्ति के हिन्दू देवता) के मध्य सृष्टि के वर्चस्व को लेकर एक विवाद हो गया। उनकी परीक्षा लेने के लिए, शिव जी ने एक विशाल अंतहीन प्रकाश स्तम्भ, ज्योतिर्लिंग को सृष्टि के तीनो लोको से पार कर दिया। ब्रह्मा और विष्णु दोनों अपने अपने मार्ग चुनकर इस प्रकाश के अंत को खोजने के लिए ऊपर और नीचे की ओर चल दिए। ब्रह्मा ने झूठ कहा की उन्हें प्रकाश का अंत मिल गया जबकि विष्णु ने अपनी हार स्वीकार कर ली। उसके पश्चात शिव जी एक दूसरे प्रकाश स्तंभ के रूप में प्रकट हुए और ब्रह्मा को श्राप दिया की तुम्हे किसी भी समारोह में स्थान नहीं मिलेगा जबकि विष्णु अनंतकाल तक पूजे जायेंगे। ज्योतिर्लिंग एक महान वास्तविकता है जिसमे से शिव जी आंशिक रूप से प्रकट होते है। तब से ये माना जाता है की ज्योतिर्लिंग मंदिर वे स्थान है जहां से शिव जी प्रकाश के एक तेजस्वी स्तंभ के रूप में प्रकट हुए थे। मूल रूप से शिव जी के 64 ज्योतिर्लिंग है जिनमे से 12 को बहुत शुभ और पवित्र माना जाता है। इन बारह ज्योतिर्लिंग में प्रत्येक का नाम इनके इष्ट देव पर रखा गया है जो शिव के विभिन्न स्वरूपों का वर्णन करते है। इन सभी स्थलों पर, मुख्य छवि शिवलिंग की है जो अनादि और अनन्त के प्रकाश स्तंभ को दर्शाती है और शिव जी की अनंत प्रकृति का वर्णन करती है। इन बारह ज्योतिर्लिंगों में गुजरात के सोमनाथ, आंध्र प्रदेश के श्रीसैलम में स्थित मल्लिकार्जुन, मध्य प्रदेश के उज्जैन में स्थित महाकालेश्वर, मध्य प्रदेश के ओम्कारेश्वर, हिमालय के केदारनाथ, महारष्ट्र के भीमाशंकर, उत्तर प्रदेश की वाराणसी में स्थित विश्वनाथ, महाराष्ट्र के त्रयम्बकेश्वर, वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग, देवघर में देवगढ़, झारखण्ड, गुजरात के द्वारका में स्थित नागेश्वर, तमिलनाडु के रामेश्वरम में स्थित रामेश्वर और महाराष्ट्र के औरंगाबाद में स्थित गृष्णेश्वर शामिल है।

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