सोमवार, 13 अप्रैल 2020

शंकरी देवी मंदिर, श्रीलंका

शंकरी देवी मंदिर, श्रीलंका

श्रीलंका का शंकरी देवी मंदिर है हिंदुओं का खासकर तमिलभाषी हिंदुओं की आस्था का केंद्र रहा है। यह मंदिर कोलंबो से 250 किमी दूर त्रिकोणमाली नाम की जगह पर चट्टान पर बना है। त्रिकोणमाली आने वाले लोग इसे शांति का स्वर्ग भी कहते हैं। यह मंदिर त्रिकोणमाली जिले की 1 लाख हिंदू आबादी की आस्था का भी केंद्र है। साथ ही मंदिर से बहुत ही खूबसूरत इंडियन ओशन का नजारा दिखता है।

दोनों ही नवरात्र पर यहां कई विशेष आयोजन होते हैं, जिसमें श्रीलंका के अलावा भारत (खासकर तमिलनाडु) से श्रद्धालु भी आते हैं। नवरात्रि में यहां पहुंचने वालों की संख्या रोजाना 500 से 1000 के बीच है, लेकिन अष्टमी और नवमी पर भीड़ बढ़ जाती है। फिलहाल तेज बारिश के चलते यहां पहुंचने में श्रद्धालुओं को कुछ दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है।

शंकरी देवी मंदिर कोनेश्वर मंदिर के परिसर में ही स्थित है। आदिशक्ति यहाँ शंकरी के रूप में स्थित है जो शिव की अर्धांगिनी हैं। खड़ी मुद्रा में स्थित इस प्रतिमा के 4 हाथ हैं। उनके चरणों के समीप ताम्बे का दो आयामी श्री चक्र रखा हुआ है। वहीं उनकी प्रतिमा के समक्ष तीन आयामी श्री चक्र खड़ा है।

सती के शरीर का उसंधि हिस्सा गिरा था

ऐसा माना जाता है कि जब भगवान् शिव देवी सती की मृतदेह हाथों में उठाये तांडव कर रहे थे तथा भगवान् विष्णु ने चक्र द्वारा उसे छिन्न-भिन्न कर दिया था, तब देवी का एक पैर इस स्थान पर गिरा था।

यहां सती के शरीर का उसंधि (पेट और जांघ के बीच का भाग) हिस्सा गिरा था। इसलिए इस मंदिर को शक्तिपीठ माना गया। कुछ ग्रंथों में यहां सती का कंठ और नूपुर (पायल) गिरने का उल्लेख भी है। यहां की शक्ति इन्द्राक्षी तथा भैरव राक्षसेश्वर हैं।

मान्यता है कि शंकरी देवी मंदिर की स्थापना खुद रावण ने की थी। यहां शिव का मंदिर भी है, जिन्हें त्रिकोणेश्वर या कोणेश्वरम कहा जाता है। इसलिए इस स्थान का महत्व शिव और शक्ति, दोनों की पूजा में है।

आदि शंकराचार्य के 18 महाशक्तिपीठों में से एक यह स्थान

आदि शंकराचार्यजी ने भारतीय उपमहाद्वीप में स्थित 18 शक्तिपीठों का जो उल्लेख अपने स्तोत्र में किया है, उनमें सर्वप्रथम उन्होंने इसी मंदिर का उल्लेख किया है। अतः भगवान् शिव एवं विष्णु के अनुयायियों के लिए यह एक अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है।

इतिहास में इस मंदिर पर कई बार हमले हुए, जिनसे मंदिर का स्वरूप बदलता रहा, लेकिन प्रतिमा को हर बार बचा लिया गया। चोल और पल्लव राजाओं ने इस मंदिर में काफी काम कराया। दरअसल, इस भव्य मंदिर को 17वीं शताब्दी में पुर्तगाली आक्रमणकारियों ने ध्वस्त कर दिया था, जिसके बाद मंदिर के एकमात्र स्तंभ के अलावा यहां कुछ भी नहीं था। स्थानीय लोगों के मुताबिक, दक्षिण भारत के तमिल चोल राजा कुलाकोट्टन ने इस मंदिर का जीर्णोद्धार कराया, तो 1952 में श्रीलंका में रहने वाले तमिल हिंदुओं ने इसे वर्तमान स्वरूप दिया।

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