नीलकण्ठ मन्दिर बांदा ज़िला, कालिंजर, उत्तर प्रदेश (Kalinjar Kila Banda, Kalinjar Fort)
नीलकण्ठ मन्दिर बांदा ज़िला, उत्तर प्रदेश के कालिंजर में स्थित है। यह प्राचीन मंदिर भगवान शिव को समर्पित है। इस मंदिर की वास्तुकला खजुराहो की शैली जैसी ही है। हिन्दू धर्म में 'नीलकंठ' शब्द का प्रयोग भगवान शंकर के लिए किया जाता है। 'कांलिजर' शब्द का प्रयोग भगवान शिव का प्रतीक है।
कालिंजर उत्तर प्रदेश के बुंदेलखण्ड क्षेत्र में बांदा ज़िले में स्थित पौराणिक संदर्भ वाला एक ऐतिहासिक दुर्ग है। भारतीय इतिहास में सामरिक दृष्टि से यह क़िला काफ़ी महत्त्वपूर्ण रहा है। यह विश्व धरोहर स्थल प्राचीन नगरी खजुराहो के निकट ही स्थित है। इस क़िले के अंदर कई भवन और मंदिर हैं। इस विशाल क़िले में भव्य महल और छतरियाँ हैं, जिन पर बारीक डिज़ाइन और नक्काशी की गई है।
कालिंजर दुर्ग का स्थापत्य
कालिंजर दुर्ग विंध्याचल की पहाड़ी पर 700 फीट की ऊंचाई पर स्थित है। दुर्ग की कुल ऊंचाई 108 फ़ीट है। इसकी दीवारें चौड़ी और ऊंची हैं। इनकी तुलना चीन की दीवार से की जाये तो कोई अतिश्योक्ति न होगी।
कालिंजर दुर्ग को मध्यकालीन भारत का सर्वोत्तम दुर्ग माना जाता था। इस दुर्ग में स्थापत्य की कई शैलियाँ दिखाई देती हैं, जैसे गुप्त शैली, प्रतिहार शैली, पंचायतन नागर शैली आदि।
प्रतीत होता है कि इसकी संरचना वास्तुकार ने अग्निपुराण, बृहदसंहिता तथा अन्य वास्तु ग्रन्थों के अनुसार की है। क़िले के बीचों-बीच अजय पलका नामक एक झील है, जिसके आसपास कई प्राचीन काल के निर्मित मंदिर हैं।
यहाँ ऐसे तीन मंदिर हैं, जिन्हें अंकगणितीय विधि से बनाया गया है। दुर्ग में प्रवेश के लिए सात दरवाजे हैं और ये सभी दरवाजे आपस में एक-दूसरे से भिन्न शैलियों से अलंकृत हैं।
कलिंजर पर्वत पर बना कालिंजर दुर्ग
समुद्र तल से 1,203 फीट की ऊंचाई पर स्थित कलिंजर का किला कालिंजर पर्वत पर ही बसाया गया है। यह बुन्देलखण्ड क्षेत्र के बांदा जिले में कलिंजर नगरी में स्थित एक पौराणिक संदर्भ वाला ऐतिहासिक किला है। यहा किला भारत के सबसे विशाल और अपराजेय किलों में एक माना जाता है। यह किला देश के सबसे पुराने किलों में से एक है और चंदेल राजाओं (10वीं से 13वीं शताब्दी) द्वारा निर्मित आठ किलों में से एक है।
बुंदेलखंड के ऐतिहासिक किले कालिंजर को कालजयी कहा जाए, तो गलत नहीं होगा। प्रागैतिहासिक काल के पेबुल (ये एक पत्थर होता है) यहां मिल चुके हैं। इस किले का वेदों में भी जिक्र किया गया है। कई पौराणिक घटनाएं इस दुर्ग से जुड़ी हुई हैं। इस किले में नीलकंठ मंदिर स्थित है, जहां खजाने का रहस्य छिपा हुआ है। कहा जाता है कि महादेव ने यहीं पर विषपान कर काल की गति को मात दी थी।
सैकड़ों सालों से पहाड़ों से रिस रहा पानी
मंदिर के ठीक पीछे की तरफ पहाड़ काटकर पानी का कुंड बनाया गया है। इसमें बने मोटे-मोटे स्तंभों और दीवारों पर प्रतिलिपि लिखी हुई है। माना जाता है कि इस प्राचीनतम किले में मौजूद खजाने का रहस्य भी इसी प्रतिलिपि में है, लेकिन आज तक कोई इसका पता नहीं लगा सका है। इस मंदिर के ऊपर पहाड़ है, जहां से पानी रिसता रहता है। बुंदेलखंड सूखे के कारण जाना जाता है, लेकिन कितना भी सूखा पड़ जाए, इस पहाड़ से पानी रिसना बंद नहीं होता है। कहा जाता है कि सैकड़ों साल से पहाड़ से ऐसे पानी निकल रहा है, ये सभी इतिहासकारों के लिए अबूझ पहेली की तरह है।
शिव ने यहां काल की गति को दी थी मात
कालिंजर का पौराणिक महत्व महादेव के विषपान से है। समुद्र मंथन में मिले कालकूट विष को पीने के बाद शिव ने इसी दुर्ग में आराम करके काल की गति को मात दी थी। महाभारत के युद्ध के बाद युधिष्ठिर ने यहां कोटतीर्थ में स्नान किया था। वेदों में इसे सूर्य का निवास माना गया है। पद्म पुराण में इसकी गिनती सात पवित्र स्थलों में की गई है। मत्स्य पुराण में इसे उज्जैन और अमरकटंक के साथ अविमुक्त क्षेत्र कहा गया है। जैन ग्रंथों और बौद्ध जातकों में इसे कालगिरी कहा जाता था। वेदों में उल्लेख के आधार पर ही इसे दुनिया का सबसे प्राचीन किला माना गया है।
बताया गया कि वानम पुराण में कालिंजर को भगवान नीलकंठ का निवास स्थान बताया गया है। वायु पुराण के अनुसार समुद्र मंथन से निकले विष को पीने के कारण भगवान का कंठ नीला हो गया था। इसीलिए उन्हें नीलकंठ कहा जाता है। उन्होंने यहीं पर काल नामक दैत्य का वध किया था, जिससे इसका नाम कालिंजर पड़ गया।
नागों ने कराया था नीलकंठ मंदिर का निर्माण
नीलकंठ मंदिर को कालिंजर के प्रांगण में सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण और पूजनीय माना गया है। इसका निर्माण नागों ने कराया था। इस मंदिर का जिक्र पुराणों में है। नीलकण्ठ मंदिर में शिवलिंग स्थापित है, जिसे बेहद प्राचीनतम माना गया है।
मंदिर में 18 भुजा वाली विशालकाय प्रतिमा के अलावा रखा शिवलिंग गहरे नीले पत्थर का है। मंदिर के रास्ते पर भगवान शिव, काल भैरव, गणेश और हनुमान की प्रतिमाएं पत्थरों पर उकेरी गयीं हैं। शिवलिंग की ऊंचाई लगभग 1.15 मीटर है। इस पर शिव, देवी शक्ति, विष्णु, गणेश, भैरव और भैरवी के चित्र बने हुए हैं।
ऊपरी भाग स्थित जलस्रोत हेतु चट्टानों को काटकर दो कुंड बनाए गए हैं जिन्हें 'स्वर्गारोहण जलाशय' (कुंड) कहा जाता है। इसी के नीचे के भाग में चट्टानों को तराशकर बनायी गई काल-भैरव की एक प्रतिमा भी है। कहा जाता है कि इसी जलाशय में स्नान करने से कीर्तिवर्मन का कुष्ठ रोग खत्म हुआ था। ये जलाशय पहाड़ से पूरी तरह से ढका हुआ है।
इनके अलावा परिसर में सैकड़ों मूर्तियाँ चट्टानों पर उत्कीर्ण की गई हैं। शिवलिंग के समीप ही भगवती पार्वती एवं भैरव की मूर्तियाँ भी स्थापित हैं। प्रवेशद्वार के दोनों ही ओर ढेरों देवी-देवताओं की मूर्तियां दीवारों पर तराशी गयी हैं। कई टूटे स्तंभों के परस्पर आयताकार स्थित स्तंभों के अवशेष भी यहां देखने को मिलते हैं। इतिहासकारों के अनुसार कि इन पर छः मंजिला मन्दिर का निर्माण किया गया था। इसके अलावा भी यहाँ ढेरों पाषाण शिल्प के नमूने हैं, जो कालक्षय के कारण जीर्णावस्था में हैं।
सीता का विश्राम स्थल भी है यहां
कालिंजर फोर्ट के अंदर ही पाषाण द्वारा निर्मित एक शैय्या (बेड) और तकिया (पिलो) है। इसे सीता सेज कहते हैं। कथाओं के अनुसार, इसे सीता का विश्राम स्थल कहा जाता है। माना जाता है कि इसका उपयोग वनवास के समय किया जाता था।
यहां पर तीर्थ यात्रियों के आलेख हैं। एक जलकुंड है, जो सीताकुंड कहलाता है। इस दुर्ग में दो बड़े जलकुंड बने हुए हैं। इसका जल चर्म रोगों को दूर करने के लिए लाभकारी माना जाता है। यहां नहाने से कुष्टरोग दूर हो जाता है।
हर युग में इस किले के थे अलग नाम
बुंदेलखंड के बांदा जिले से करीब 55 किमी दूर कालिंजर में बना ये फोर्ट कई किलोमीटर तक फैला हुआ है। इस फोर्ट पर लंबे समय तक चंदेल शासकों का राज रहा। इसका निर्माण कब हुआ, इसके प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं मिलते हैं। कालिंजर को सतयुग का हिस्सा बताया जाता है। इसे अलग-अलग काल में कई नामों से पुकारा जाता रहा है। सतयुग में इसे कीर्तिनगर, त्रेतायुग में मध्यगढ़ और द्वापर युग में सिंहलगढ़ के नाम से जाना जाता था। वहीं, कलयुग में इसे कालिंजर के नाम से पुकारा जाता है।
भरत ने कराया था कालिंजर का निर्माण
कालिंजर के किले पर जिन राजवंशों ने शासन किया, उसमें दुष्यंत-शकुंतला के बेटे भरत का नाम सबसे पहले आता है। इतिहासकारों के मुताबिक, भरत ने चार किले बनवाए थे, जिसमें से कालिंजर का सबसे ज्यादा महत्व है। 249 ई. में यहां हैह्य (हैहय) वंशी कृष्णराज का शासन था तो चौथी सदी में ये नागों के अधीन रहा। इसके बाद सत्ता गुप्तों के हाथों में पहुंच गई। फिर यहां चंदेल राजाओं का शासन रहा। इसका अंत 1545 ई. में हुआ।
चंदेल राजाओं ने यहां 600 साल तक किया शासन
कालिंजर के मुख्य आकर्षणों में नीलकंठ मंदिर है। इसे चंदेल शासक परमादित्य देव (परमर्दिदेव) ने बनवाया था। इसके साथ ही अनेक पौराणिक और ऐतिहासिक प्रसंग कालिंजर फोर्ट से जुड़े हैं। 9वीं शताब्दी में ये किला चंदेल साम्राज्य के अधीन हो गया। यहीं से कालिंजर का ऐतिहासिक काल शुरू हुआ। 15वीं शताब्दी तक इस किले पर चंदेल राजाओं का शासन रहा। माना जाता है कि कालिंजर में चंदेल राजाओं ने सबसे ज्यादा 600 साल तक शासन किया।
इस दुर्ग के निर्माण का नाम तो ठीक-ठीक साक्ष्य कहीं नहीं मिलता पर जनश्रुति के मुताबिक चंदेल वंश के संस्थापक चंद्र वर्मा द्वारा इसका निर्माण कराया गया। कतिपय इतिहासकारों के मुताबिक इस दुर्ग का निर्माण केदार वर्मन द्वारा ईसा की दूसरी से सातवीं शताब्दी के मध्य कराया गया था। कुछ इतिहासकारों का मत है कि इसके द्वारों का निर्माण मुगल शासक औरंगजेब ने करवाया था।
चन्देल शासकों के समय से ही यहां की पूजा अर्चना में लीन चन्देल राजपूत जो यहां पण्डित का कार्य भी करते हैं, वे बताते हैं कि शिवलिंग पर उकेरे गये भगवान शिव की मूर्ति के कंठ का क्षेत्र स्पर्श करने पर सदा ही मुलायम प्रतीत होता है। यह भागवत पुराण के सागर मंथन के फलस्वरूप निकले हलाहल विष को पीकर, अपने कंठ में रोके रखने वाली कथा के समर्थन में साक्ष्य ही है। मान्यता है कि यहां शिवलिंग से पसीना भी निकलता रहता है।
800 फीट की ऊंचाई पर स्थित है किला
कालिंजर का अपराजेय क़िला प्राचीन काल में जेजाकभुक्ति साम्राज्य के अधीन था। जब चंदेल शासक आये तो इस पर महमूद ग़ज़नवी, शेर शाह सूरी, कुतुबुद्दीन ऐबक और हुमायूं ने आक्रमण कर इसे जीतना चाहा, पर कामयाब नहीं हो पाये। अंत में अकबर ने 1569 ई. में यह क़िला जीतकर बीरबल को उपहार स्वरूप दे दिया। बीरबल के बाद यह क़िला बुंदेल राजा छत्रसाल के अधीन हो गया। इनके बाद क़िले पर पन्ना के राजा हरदेव शाह का कब्जा हो गया। 1812 ई. में यह क़िला अंग्रेज़ों के अधीन हो गया।
विंध्याचल की पहाड़ी पर 800 फीट की ऊंचाई पर स्थित ये किला इतिहास के उतार-चढ़ावों का प्रत्यक्ष गवाह है। इस फोर्ट को घूमने में करीब दो दिन लग जाता है। बाहर से देखने पर ये किला एक पहाड़ लगता है, लेकिन ऊपर जाने पर इसकी विशालता हैरान कर देती है।
कभी इस किले में थे चार प्रवेश द्वार
कालिंजर दुर्ग में प्रवेश के लिए सात द्वार थे। इनमें आलमगीर दरवाजा, गणेश द्वार, चौबुरजी दरवाजा, बुद्धभद्र दरवाजा, हनुमान द्वार, लाल दरवाजा और बारा दरवाजा थे। अब हालत यह है कि समय के साथ सब कुछ बदलता गया। एक समय था, जब कालिंजर चारों ओर से ऊंची दीवार से घिरा था और इसमें चार प्रवेश द्वार थे। इस वक्त कामता द्वार, पन्ना द्वार और रीवा द्वार नाम के सिर्फ तीन गेट ही बचे हैं। पन्नाद्वार इस समय बंद है। किले के अंदर राजा और रानी के नाम से शानदार महल बने हुए हैं।
कुछ समय पहले मिले थे कई प्राचीन शिलालेख
कालिंजर विकास संस्थान के संयोजक बीडी गुप्ता ने बताया कि कुछ समय पहले यहां कई प्राचीन शिलालेख मिले थे। इन शिलालेखों के बारे में उन्होंने बताया कि मई, 1545 को शेर शाह की मृत्यु के बाद उनके बेटे इस्लाम शाह की दिल्ली के सिंहासन पर विधिवत ताजपोशी हुई थी। इसके बाद यहां किले के अंदर बने कोटि तीर्थ परिसर के मंदिरों को तोड़कर उनके सुंदर नक्काशीदार स्तंभों को मस्जिद बनाए जाने में इस्तेमाल किया गया था।
इसके अलावा सीता सेज, पाताल गंगा, पांडव कुंड, बुढ्डा-बुढ्डी ताल, भगवान सेज, भैरव कुंड, मृगधार, कोटितीर्थ, चौबे महल, जुझौतिया बस्ती, शाही मस्जिद, मूर्ति संग्रहालय, वाऊचोप मकबरा, रामकटोरा ताल, भरचाचर, मजार ताल, राठौर महल, रनिवास, ठा. मतोला सिंह संग्रहालय, बेलाताल, सगरा बांध, शेरशाह सूरी का मक़बरा व हुमायूं की छावनी आदि हैं।
व्यवसायिक क्षेत्र में महत्व
बांदा : कालिंजर दुर्ग व्यवसायिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। यहां पहाड़ी खेरा और बृहस्पतिकुंड में उत्तम कोटि की हीरा खदानें हैं। दुर्ग के समीप कुठला जवारी के जंगल में लाल रंग का चमकदार पत्थर से प्राचीनकाल में सोना बनाया जाता था। इस क्षेत्र में पर्तदार चट्टानें व ग्रेनाइट पत्थर काफी है जो भवन निर्माण में काम आता है। साखू, शीशम, सागौन के पेड़ बहुतायत में है। इनसे काष्ठ निर्मित वस्तुएं तैयार होती हैं।
वनौषधियों का भंडार
बांदा : कालिंजर दुर्ग में नाना प्रकार की औषधियां मिलती हैं। यहां मिलने वाले सीताफल की पत्तियां व बीज औषधि के काम आता है। गुमाय के बीज भी उपचार के काम आते हैं। हरर का उपयोग बुखार के लिए किया जाता है। मदनमस्त की पत्तियां एवं जड़ उबालकर पी जाती है। कंधी की पत्तियां भी उबाल कर पी जाती है। गोरख इमली का प्रयोग अस्थमा के लिए किया जाता है। मारोफली का प्रयोग उदर रोग के लिए किया जाता है। कुरियाबेल का इस्तेमाल आंव रोग के लिए किया जाता है। घुंचू की पत्तियां प्रदर रोग के लिए उपयोगी है। इसके अलावा फल्दू, कूटा, सिंदूरी, नरगुंडी, रूसो, सहसमूसली, लाल पथरचटा, गूमा, लटजीरा, दुधई व शिखा आदि औषधियां भी यहां उपलब्ध है।
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