शनिवार, 5 अक्तूबर 2024

33 कोटि हिन्दू देवी-देवता

33 करोड़ देवता हैं या कि 33 प्रकार के, जानिए दोनों ही मतों का विश्लेषण

क्या आप इस क्रम को मानते हैं :- जड़, वृक्ष, प्राणी, मानव, पितर, देवी-देवता, भगवान और ईश्वर। सबसे बड़ा ईश्वर, परमेश्वर या परमात्मा होता है। वेदों में जिसे ब्रह्म (ब्रह्मा नहीं) कहा गया है। ब्रह्म का अर्थ है विस्तार, फैलना, अनंत, महाप्रकाश। प्रत्येक धर्म में देवी और देवता होते हैं यह अलग बात है कि हिंदू अपने देवी-देवताओं को पूजते हैं जबकि दूसरे धर्म के लोग नहीं। अत: यह कहना की हिन्दू धर्म सर्वेश्वरदावी धर्म है गलत होगा। पहले धर्म को पढ़े, समझे फिर कुछ कहें।

कुछ विद्वान कहते हैं कि हिन्दू देवी या देवताओं को 33 कोटि अर्थात प्रकार में रखा गया है और कुछ कहते हैं कि यह सही नहीं है। दरअसल वेदों में 33 कोटि देवताओं का जिक्र किया है। धर्म गुरुओं और अनेक बौद्धिक वर्ग ने इस कोटि शब्द के दो प्रकार से अर्थ निकाले हैं। कोटि शब्द का एक अर्थ करोड़ है और दूसरा प्रकार अर्थात श्रेणी भी। तार्किक दृष्टि से देखा जाए तो कोटि का दूसरा अर्थ इस विषय में अधिक सत्य प्रतीत होता है अर्थात तैंतीस प्रकार की श्रेणी या प्रकार के देवी-देवता। परन्तु शब्द व्याख्या, अर्थ और सबसे ऊपर अपनी-अपनी समझ और बुद्धि के अनुरूप मान्यताए अलग-अलग हो गयीं।


शास्त्रों में 33 कोटि देवी-देवताओं का उल्लेख

ऋग्वेद - ऋग्वेद में 33 कोटि देवी-देवताओं का उल्लेख मिलता है। ऋग्वेद के अनुसार :

"त्रिंशतं त्रीणि शतं स ह सप्त सधा शतम्।"

(ऋग्वेद, 1.45.2)

यजुर्वेद - यजुर्वेद में भी 33 कोटि देवी-देवताओं का वर्णन है :

"त्रिंशतं त्रीणि शतं स ह सप्त सधा शतम्।"

(यजुर्वेद, 21.31)

अथर्ववेद - अथर्ववेद में भी 33 कोटि देवी-देवताओं का उल्लेख मिलता है :

"त्रिंशतं त्रीणि शतं स ह सप्त सधा शतम्।"

(अथर्ववेद, 10.23.4)

वैदिक विद्वानों अनुसार :-

वेदों में जिन देवताओं का उल्लेख किया गया है उनमें से अधिकतर प्राकृतिक शक्तियों के नाम है जिन्हें देव कहकर संबोधित किया गया है। दरअसल वे देव नहीं है। देव कहने से उनका महत्व प्रकट होता है। उक्त प्राकृतिक शक्तियों को मुख्‍यत: आदित्य समूह, वसु समूह, रुद्र समूह, मरुतगण समूह, प्रजापति समूह आदि समूहों में बांटा गया हैं।

यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि कुछ जगह पर वैदिक ऋषि इन प्रकृतिक शक्तियों की स्तुति करते हैं और कुछ जगह पर वे अपने ही किसी महान पुरुष की इन प्रकृतिक शक्तियों से तुलना करके उनकी स्तुति करते हैं। जैसे उदाहरण के तौर पर इंद्र नामक एक बिजली और एक बादल भी होता है। वहीं, इंद्र नाम से आर्यों का एक वीर राजा भी है जोकि बादलों के देश में रहता है और आकाशमार्ग से आता-जाता है। वह आर्यों की हर तरह से रक्षा करने के लिए हर समय उपस्थित हो जाता है। शक्तिशाली होने के कारण उसकी तुलना बिजली और बादल के समान की जाती है। अत: शब्दों का अर्थ देशकाल, परिस्थिति के अनुसार ग्रहण करना होता है। एक शब्द के कई-कई अर्थ होते हैं। वैदिक विद्वानों के अनुसार 33 प्रकार के अव्यय या पदार्थ होते हैं जिन्हें देवों की संज्ञा दी गई है। ये 33 प्रकार इसके अनुसार हैं :-

प्रारंभ में ऋषियों ने 33 प्रकार के अव्यय जाने थे। परमात्मा ने जो 33 अव्यय बनाए हैं वैदिक ऋषि उसी की बात कर रहे हैं। उक्त 33 अव्यवों से ही प्रकृति और जीवन का संचालन होता है। वेदों के अनुसार हमें इन 33 पदार्थों या अव्ययों को महत्व देना चाहिए। इनका ध्यान करना चाहिए तो ये पुष्ट हो जाते हैं।

1. इन 33 में से 8 वसु है। वसु अर्थात हमें वसाने वाले आत्मा का जहां वास होता है। ये आठ वसु हैं :- धरती, जल, अग्नि, वायु, आकाश, चंद्रमा, सूर्य और नक्षत्र। ये आठ वसु प्रजा को वसाने वाले अर्थात धारण या पालने वाले हैं। 

2. इसी तरह 11 रुद्र आते हैं। इन रुद्रों ने नाम हैं :- प्राण, अपान, व्यान, समान, उदान, नाग, कुर्म, किरकल, देवदत्त और धनंजय। प्रथम पांच प्राण और दूसरे पांच उपप्राण हैं अंत में 11वां जीवात्मा हैं। दरअसल यह रुद्र शरीर के अव्यय है। जब तक ये शरीर मे विद्यमान है, हमारा शरीर गतिमान है। जब यह अव्यय एक-एक करके शरीर से निकल जाते हैं तो यह रोदन कराने वाले होते हैं। अर्थात जब मनुष्य मर जाता है तो उसके भीतर के यह सभी 11 रुद्र निकल जाते हैं जिनके निकलने के बाद उसे मृत मान लिया जाता है। तब उसके सगे-संबंधी उसके समक्ष रोने लग जाते हैं। इसीलिए इन्हें कहते हैं रुद्र। रुद्र अर्थात रुलाने वाला।

ये सभी शरीर के अलग-अलग भागों में स्थित होते हैं तथा अलग-अलग अंगों व क्रियाओं को संचालित करते हैं। ये इस प्रकार है

1. प्राण :- प्राण गले से लेकर हृदय तक के अंगों एवं स्वर तंत्र, श्वसन तंत्र, भोजन नली, श्वास नली, फेफड़े-हृदय आदि को स्वस्थ रखता है। यह हृदय में स्थित होता है।

2. अपान :- अपान का कार्य मल-मूत्र त्याग, प्रसव आदि क्रियाओं को संचालित करता है। यह गुदा और मूत्रेन्द्रियों के बीच स्थित होता है।3. व्यान :- यह शरीर में रक्त संचार करता है। इसका स्थान मष्तिष्क का मध्य भाग है।

4. उदान :- उदान गले के ऊपर के अंगों मुंह, दांत, नाक, आंख, कान, माथा, मस्तिष्क आदि का संचालन करता है। उदान विविध वस्तुएँ बाहर से शरीर के भीतर ग्रहण करता है। यह कंठ में स्थित होता है।

5. समान :- इसका स्थान नाभि में होता है, पाचक रसों का उत्पादन और उनका स्तर उपयुक्त बनाये रहना इसी का काम है।

6. नाग :- नाग का कार्य वायु सञ्चार, डकार, हिचकी, गुदा वायु का उत्तसर्जन करना। यह “प्राण” का “उपप्राण” है तथा यह भी हृदय में स्थित होता है।

7. कूर्म्म :- कूर्म से पलक मारने और बन्द होने की क्रिया होती है। यह “अपान” का “उपप्राण” है तथा यह भी गुदा और मूत्रेन्द्रियों के बीच स्थित होता है।

8. कृकल :- कृकल का कार्य भूख-प्यास को संचारित करना है। यह “समान” का “उपप्राण” है यह भी नाभि में स्थित होता है।

9. देवदत्त :- यह छींक आने और अंगड़ाई आने की क्रिया है। यह “उदान” का “उपप्राण” है इसका स्थान भी कंठ में होता है।

10. धनञ्जय :- धनञ्जय जीवित अवस्था में शरीर का पोषण करता है और मरने पर देह सड़ा-गला कर शीघ्र नष्ट करने का प्रबन्ध करता है। इसका प्रधान केन्द्र मस्तिष्क का मध्य भाग है। यह “व्यान” का “उपप्राण” है इसका स्थान भी मष्तिष्क का मध्य भाग होता है।

11. जीवात्मा :- इसके निकलते ही शरीर क्रिया करना बंद कर देता है।

3. 12 आदित्य होते हैं। आदित्य का अर्थ यहाँ भगवान सूर्य से है। सूर्य भगवान प्रत्येक राशि मे एक माह के लिए विचरण करते है फिर दूसरी राशि मे प्रवेश करते है। इस प्रकार 12 माह मे 12 राषियो मे चक्कर लगाते है। समय के 12 माह को 12 आदित्य कहते हैं। इसी आधार पर हमारा हिन्दू कलैण्डर बनाया जाता है इसलिए इन्हे 12 प्रकार से व्यक्त किया जाता है इन्हें आदित्य इसलिए कहते हैं क्योंकि यह हमारी आयु को हरते हैं क्योकि जैसे-जैसे दिन बढ़ते है। हमारी आयु भी कम होती जाती है। 8 वसु, 11 रुद्र और 12 आदित्य को मिलाकर कुल हुए 31 अव्यय।

4. 32वां है इंद्र। इंद्र का अर्थ बिजली या ऊर्जा। 33वां है यज्ज। यज्ज अर्थात प्रजापति, जिससे वायु, दृष्टि, जल और शिल्प शास्त्र हमारा उन्नत होता है, औषधियां पैदा होती है।

ये 33 कोटी अर्थात 33 प्रकार के अव्यव हैं जिन्हें देव कहा गया। देव का अर्थ होता है दिव्य गुणों से युक्त। हमें ईश्वर ने जिस रूप में यह 33 पदार्थ दिए हैं उसी रूप में उन्हें शुद्ध, निर्मल और पवित्र बनाए रखना चाहिए।

उपरोक्त मत का खंडन :-

पहले तो कोटि शब्द को समझें। कोटि का अर्थ प्रकार लेने से कोई भी व्यक्ति 33 देवता नहीं गिना पाएगा। कारण, स्पष्ट है कि कोटि यानी प्रकार यानी श्रेणी। अब यदि हम कहें कि आदित्य एक श्रेणी यानी प्रकार यानी कोटि है, तो यह कह सकते हैं कि आदित्य की कोटि में 12 देवता आते हैं जिनके नाम अमुक-अमुक हैं। लेकिन आप ये कहें कि सभी 12 अलग-अलग कोटि हैं, तो जरा हमें बताएं कि पर्जन्य, इन्द्र और त्वष्टा की कोटि में कितने सदस्य हैं?

ऐसी गणना ही व्यर्थ है, क्योंकि यदि कोटि कोई हो सकता है तो वह आदित्य है। आदित्य की कोटि में 12 सदस्य, वसु की कोटि या प्रकार में 8 सदस्य, रुद्र की कोटी में 11 सदस्य, अन्य तो कोटी इंद्र और यज्ज। इस तरह देखा जाए तो कुल 5 कोटी ही हुई। तब 33 कोटी कहने का क्या तात्पर्य?

द्वितीय, उन्हें कैसे ज्ञात कि यहां कोटि का अर्थ प्रकार ही होगा, करोड़ नहीं? प्रत्यक्ष है कि देवता एक स्थिति है, योनि हैं जैसे मनुष्य आदि एक स्थिति है, योनि है। मनुष्य की योनि में भारतीय, अमेरिकी, अफ्रीकी, रूसी, जापानी आदि कई कोटि यानी श्रेणियां हैं जिसमें इतने-इतने कोटि यानी करोड़ सदस्य हैं। देव योनि में मात्र यही 33 देव नहीं आते। इनके अलावा मणिभद्र आदि अनेक यक्ष, चित्ररथ, तुम्बुरु, आदि गंधर्व, उर्वशी, रम्भा आदि अप्सराएं, अर्यमा आदि पितृगण, वशिष्ठ आदि सप्तर्षि, दक्ष, कश्यप आदि प्रजापति, वासुकि आदि नाग, इस प्रकार और भी कई जातियां देवों में होती हैं जिनमें से 2-3 हजार के नाम तो प्रत्यक्ष अंगुली पर गिनाए जा सकते हैं।

प्रमुख देवताओं के अलावा भी अन्य कई देवदूत हैं जिनके अलग-अलग कार्य हैं और जो मानव जीवन को किसी न किसी रूप में प्रभावित करते हैं। इनमें से कई ऐसे देवता हैं जो आधे पशु और आधे मानव रूप में हैं। आधे सर्प और आधे मानव रूप में हैं। माना जाता है कि सभी देवी और देवता धरती पर अपनी शक्ति से कहीं भी आया-जाया करते थे। यह भी मान्यता है कि संभवत: मानवों ने इन्हें प्रत्यक्ष रूप से देखा है और इन्हें देखकर ही इनके बारे में लिखा है। अज एकपाद' और 'अहितर्बुध्न्य' दोनों आधे पशु और आधे मानवरूप हैं। मरुतों की माता की 'चितकबरी गाय' है। एक इन्द्र की 'वृषभ' (बैल) के समान था।

पौराणिक मत :-

निश्चित ही प्राकृतिक शक्तियों के कई प्रकार हो सकते हैं लेकिन हमें यह नहीं भुलना चाहिए की इन प्राकृतिक शक्तियों के नाम हमारे देवताओं के नाम पर ही रखे गए हैं। जैसे चंद्र नामक एक देव है और चंद्र नामक एक ग्रह भी है। इस ग्रह का नामकरण चंद्र नामक देव के नाम पर ही रखा गया है। इस तरह के देवों का उनके नाम के ग्रहों पर आधिपत्य रहा है।

इसी तरह ये रहे प्रमुख 33 देवता :-

12 आदित्य :- 1. अंशुमान (यह प्राण वायु का प्रतिनिधित्व करते है), 2. अर्यमन (यह प्रातः और रात्रि के चक्र को दर्शाते है), 3. इन्द्र (यह देवो के राजा है समस्त इन्द्रियों पर इन्ही का अधिकार है), 4. त्वष्टा (यह वनस्पति और औषधियों का प्रतिनिधत्व करते है), 5. धातु (यह प्रजापति के रूप है इन्हे सृष्टिकर्ता भी कहाँ जाता है), 6. पर्जन्य (यह मेघों का प्रतिनिधित्व करते है जो वर्षा के कारक है), 7. पूषा (यह अन्न का प्रतीक है तथा उसमे उपस्थित ऊर्जा, स्वाद और रस को दर्शाते है), 8. भग (यह शरीर में चेतना, ऊर्जा शक्ति, काम शक्ति तथा जीवंतता की अभिव्यक्ति को दर्शाते है), 9. मित्र (यह सृष्टि के विकास के कर्म को दर्शाते है), 10. वरुण (यह जल का प्रतिनिधित्व करते है तथा भाग्य को भी दर्शाते है), 11. विवस्वान (यह तेज और ऊर्जा का प्रतिनिधित्व करते है) और 12. विष्णु (यह ब्रह्माण्डीय कानून और उसके संचालन का प्रतिनिधत्व करते है)। 

8 वसु :- 1. आप (जल), 2. ध्रुव (ध्रुव तारा), 3. सोम (चन्द्रमा), 4. धर (पृथ्वी), 5. अनिल (वायु), 6. अनल (अग्नि), 7. प्रत्यूष (अंतरिक्ष) और 8. प्रभाष (अरुणोदय या सूर्योदय)। 

11 रुद्र :- 1. शम्भु, 2. पिनाकी, 3. गिरीश, 4. स्थाणु, 5. भर्ग, 6. भव, 7. सदाशिव, 8. शिव, 9. हर, 10. शर्व और 11. कपाली।

2 अश्विनी कुमार :- 1. नासत्य और 2. द्स्त्र। कुछ विद्वान इन्द्र और प्रजापति की जगह 2 अश्विनी कुमारों को रखते हैं। प्रजापति ही ब्रह्मा हैं। अश्वनीकुमार त्वष्टा की पुत्री और सूर्य देव की संतान है जिन्हे आयूर्वेद का आदि आचार्य माना जाता है इनके नाम इस प्रकार है।

इस प्रकार हिन्दू धर्म में वर्णित 33 कोटि देवताओं का योग इस प्रकार है –   

33 कोटि देवता = 8 (वसु) + 12 (आदित्य) + 11 (रूद्र) + 2 (अश्वनीकुमार) = 33

इसके अलावा ये भी हैं देवता :-

49 मरुतगण : मरुतगण देवता नहीं हैं, लेकिन वे देवताओं के सैनिक हैं। वेदों में इन्हें रुद्र और वृश्नि का पुत्र कहा गया है तो पुराणों में कश्यप और दिति का पुत्र माना गया है। मरुतों का एक संघ है जिसमें कुल 180 से अधिक मरुतगण सदस्य हैं, लेकिन उनमें 49 प्रमुख हैं। उनमें भी 7 सैन्य प्रमुख हैं। मरुत देवों के सैनिक हैं और इन सभी के गणवेश समान हैं। वेदों में मरुतगण का स्थान अंतरिक्ष लिखा है। उनके घोड़े का नाम 'पृशित' बतलाया गया है तथा उन्हें इंद्र का सखा लिखा है।- (ऋ. 1.85.4)। पुराणों में इन्हें वायुकोण का दिक्पाल माना गया है। अस्त्र-शस्त्र से लैस मरुतों के पास विमान भी होते थे। ये फूलों और अंतरिक्ष में निवास करते हैं।

7 मरुतों के नाम निम्न हैं - 1. आवह, 2. प्रवह, 3. संवह, 4. उद्वह, 5. विवह, 6. परिवह और 7. परावह। यह वायु के नाम भी है। इनके 7-7 गण निम्न जगह विचरण करते हैं - ब्रह्मलोक, इन्द्रलोक, अंतरिक्ष, भूलोक की पूर्व दिशा, भूलोक की पश्चिम दिशा, भूलोक की उत्तर दिशा और भूलोक की दक्षिण दिशा। इस तरह से कुल 49 मरुत हो जाते हैं, जो देव रूप में देवों के लिए विचरण करते हैं।

12 साध्यदेव : अनुमन्ता, प्राण, नर, वीर्य्य, यान, चित्ति, हय, नय, हंस, नारायण, प्रभव और विभु ये 12 साध्य देव हैं, जो दक्षपुत्री और धर्म की पत्नी साध्या से उत्पन्न हुए हैं। इनके नाम कहीं कहीं इस तरह भी मिलते हैं :- मनस, अनुमन्ता, विष्णु, मनु, नारायण, तापस, निधि, निमि, हंस, धर्म, विभु और प्रभु।

64 अभास्वर : तमोलोक में 3 देवनिकाय हैं - अभास्वर, महाभास्वर और सत्यमहाभास्वर। ये देव भूत, इंद्रिय और अंत:करण को वश में रखने वाले होते हैं।

12 यामदेव : यदु ययाति देव तथा ऋतु, प्रजापति आदि यामदेव कहलाते हैं।

10 विश्वदेव : पुराणों में दस विश्‍वदेवों को उल्लेख मिलता है जिनका अंतरिक्ष में एक अलग ही लोक है।

220 महाराजिक :

30 तुषित : 30 देवताओं का एक ऐसा समूह है जिन्होंने अलग-अलग मन्वंतरों में जन्म लिया था। स्वारोचिष नामक द्वितीय मन्वंतर में देवतागण पर्वत और तुषित कहलाते थे। देवताओं का नरेश विपश्‍चित था और इस काल के सप्त ऋषि थे- उर्ज, स्तंभ, प्रज्ञ, दत्तोली, ऋषभ, निशाचर, अखरिवत, चैत्र, किम्पुरुष और दूसरे कई मनु के पुत्र थे।

पौराणिक संदर्भों के अनुसार चाक्षुष मन्वंतर में तुषित नामक 12 श्रेष्ठगणों ने 12 आदित्यों के रूप में महर्षि कश्यप की पत्नी अदिति के गर्भ से जन्म लिया। पुराणों में स्वारोचिष मन्वंतर में तुषिता से उत्पन्न तुषित देवगण के पूर्व व अपर मन्वंतरों में जन्मों का वृत्तांत मिलता है। स्वायम्भुव मन्वंतर में यज्ञपुरुष व दक्षिणा से उत्पन्न तोष, प्रतोष, संतोष, भद्र, शांति, इडस्पति, इध्म, कवि, विभु, स्वह्न, सुदेव व रोचन नामक 12 पुत्रों के तुषित नामक देव होने का उल्लेख मिलता है। बौद्ध धर्मग्रंथों में भी वसुबंधु बोधिसत्व तुषित के नाम का उल्लेख मिलता है। तुषित नामक एक स्वर्ग और एक ब्रह्मांड भी है।
 
अन्य देव - ब्रह्मा (प्रजापति), विष्णु (नारायण), शिव (रुद्र), गणाधिपति गणेश, कार्तिकेय, धर्मराज, चित्रगुप्त, अर्यमा, हनुमान, भैरव, वन, अग्निदेव, कामदेव, चंद्र, यम, हिरण्यगर्भ, शनि, सोम, ऋभुः, ऋत, द्यौः, सूर्य, बृहस्पति, वाक, काल, अन्न, वनस्पति, पर्वत, धेनु, इन्द्राग्नि, सनकादि, गरूड़, अनंत (शेष), वासुकी, तक्षक, कार्कोटक, पिंगला, जय, विजय, मातरिश्वन्, त्रिप्रआप्त्य, अज एकपाद, आप, अहितर्बुध्न्य, अपांनपात, त्रिप, वामदेव, कुबेर, मातृक, मित्रावरुण, ईशान, चंद्रदेव, बुध, शनि आदि।

अन्य देवी - दुर्गा, सती-पार्वती, लक्ष्मी, सरस्वती, भैरवी, यमी, पृथ्वी, पूषा, आपः सविता, उषा, औषधि, अरण्य, ऋतु त्वष्टा, सावित्री, गायत्री, श्री, भूदेवी, श्रद्धा, शचि, दिति, अदिति, दस महाविद्या, आदि।

निष्कर्ष : वेदों के कोटि शब्द को अधिकतर लोगों ने करोड़ समझा और यह मान लिया गया कि 33 करोड़ देवता होते हैं। लेकिन यह सच नहीं है। यह भी सच नहीं है कि देवता 33 प्रकार के होते हैं। पदार्थ अलग होते हैं और देवी या देवता अलग होते हैं। यह सही है कि देवी  और देवता 33 करोड़ नहीं होते हैं लेकिन 33 भी नहीं। देवी और देवताओं की संख्या करोड़ों में तो नहीं लेकिन हजारों में जरूर है और सभी का कार्य नियुक्त है।

इसके अलावा ये भी जानें -

दो पक्ष :- कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष

तीन ऋण :- देव ऋण, पितृ ऋण, ऋषि ऋण

चार युग :- सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग, कलियुग

चार धाम :- द्वारिका, बद्रीनाथ, जगन्नाथपुरी, रामेश्वरम धाम

चार पीठ :- शारदा पीठ (द्वारिका) ज्योतिष पीठ (जोशीमठ बद्रिधाम) गोवर्धन पीठ (जगन्नाथपुरी) शृंगेरी पीठ

चार वेद :- ऋग्वेद, अथर्वेद, यजुर्वेद, सामवेद

चार आश्रम :- ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास

चार अंत :- करण: मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार

पंच गव्य :- गाय का घी, दूध, दही, गो मूत्र, गोबर

पंच तत्त्व :- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश

छह दर्शन :- वैशेषिक, न्याय, सांख्य, योग, पूर्व मिसांसा, दक्षिण मिसांसा

सप्त ऋषि :- विश्वामित्र, जमदाग्नि, भरद्वाज, गौतम, अत्री, वशिष्ठ और कश्यप

सप्त पुरी :- अयोध्या पुरी, मथुरा पुरी, माया पुरी (हरिद्वार), काशी, कांची (शिन कांची - विष्णु कांची), अवंतिका और द्वारिकापुरी

आठ योग :- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान एवं समाधि

10 दिशाएं :- पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ईशान, नैऋत्य, वायव्य, अग्नि, आकाश एवं पाताल

12 मास :- चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, अषाढ़, श्रावण, भाद्रपद, अश्विन, कार्तिक, मार्गशीर्ष, पौष, माघ, फाल्गुन

15 तिथियां :- प्रतिपदा, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थी, पंचमी, षष्ठी, सप्तमी, अष्टमी, नवमी, दशमी, एकादशी, द्वादशी, त्रयोदशी, चतुर्दशी, पूर्णिमा, अमावास्या

समृतियां :- मनु, विष्णु, अत्री, हारीत, याज्ञवल्क्य, उशना, अंगीरा, यम, आपस्तम्ब, सर्वत, कात्यायन, ब्रहस्पति, पराशर, व्यास, शांख्य, लिखित, दक्ष, शातातप, वशिष्ठ।




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