शनिवार, 1 जून 2013

बर्लिन की दीवार (जर्मनी)


बर्लिन की दीवार

बर्लिन की दीवार (Berliner Mauer) पश्चिमी बर्लिन और जर्मन लोकतांत्रिक गणराज्य के बीच एक अवरोध थी जिसने 28 साल तक बर्लिन शहर को पूर्वी और पश्चिमी टुकड़ों में विभाजित करके रखा। इसका निर्माण 13 अगस्त 1961 को शुरु हुआ और 9 नवम्बर, 1989 के बाद के सप्ताहों में इसे तोड़ दिया गया। इसे जर्मन डेमोक्रेटिक रिपब्लिक द्वारा बनवाया गया था। बर्लिन की दीवार अन्दरुनी जर्मन सीमा का सबसे प्रमुख भाग थी और शीत युद्ध का प्रमुख प्रतीक थी। पश्चिमी हिस्से वाली दीवार को वॉल ऑफ सेम भी कहा जाता है। यह दीवार 155 किलोमीटर लंबी है।

द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद जब जर्मनी का विभाजन हो गया, तो सैंकड़ों कारीगर और व्यवसायी प्रतिदिन पूर्वी बर्लिन को छोड़कर पश्चिमी बर्लिन जाने लगे। बहुत से लोग राजनैतिक कारणों से भी समाजवादी पूर्वी जर्मनी को छोड़कर पूँजीवादी पश्चिमी जर्मनी जाने लगे (Republikflucht)। इससे पूर्वी जर्मनी को आर्थिक और राजनैतिक रूप से बहुत हानि होने लगी। बर्लिन दीवार का उद्देश्य इसी प्रवासन को रोकना था। इस दीवार के विचार की कल्पना वाल्टर उल्ब्रिख़्त के प्रशासन ने की और सोवियत नेता निकिता ख्रुश्चेव ने इसे मंजूरी दी।
बर्लिन की दीवार बनने से यह प्रवास बहुत कम हो गया - 1949 और 1962 के बीच में जहाँ 25 लाख लोगों ने प्रवास किया वहीं 1962 और 1989 के बीच केवल 5,000 लोगों ने। लेकिन इस दीवार का बनना समाजवादी गुट के प्रचार तंत्र के लिए बहुत बुरा साबित हुआ। पश्चिम के लोगों के लिए यह समाजवादी अत्याचार का प्रतीक बन गई, खास तौर पर जब बहुत से लोगों को सीमा पार करते हुए गोली मार दी गई। बहुत से लोगों ने सीमा पार करने के अनोखे तरीके खोजे - सुरंग बनाकर, गरम हवा के गुब्बारों से, दीवार के ऊपर गुजरती तारों पर खिसककर, या तेज रफ्तार गाड़ियों से सड़क अवरोधों को तोड़ते हुए।
1980 के दशक में सोवियत आधिपत्य के पतन होने से पूर्वी जर्मनी में राजनैतिक उदारीकरण शुरू हुआ और सीमा नियमों को ढीला किया गया। इससे पूर्वी जर्मनी में बहुत से प्रदर्शन हुए और अंततः सरकार का पतन हुआ। 9 नवम्बर 1989 को घोषणा की गई कि सीमा पर आवागमन पर से रोक हटा दी गई है। पूर्वी और पश्चिमा बर्लिन दोनों ओर से लोगों के बड़े बड़े समूह बर्लिन की दीवार को पारकर एक-दूसरे से मिले। अगले कुछ सप्ताहों में उल्लास का माहौल रहा और लोग धीरे-धीरे दीवार के टुकड़े तोड़कर यादगार के लिए ले गए। बाद में बड़े उपकरणों का प्रयोग करके इसे ढहा दिया गया।
बर्लिन दीवार के गिरने से पूरे जर्मनी में राष्ट्रवाद का उदय हुआ और पूर्वी जर्मनी के लोगों ने जर्मनी के पुनरेकीकरण के लिए मंजूरी दे दी। 3 अक्तूबर 1990 को जर्मनी फिर से एक हो गया।

बीच के "मृत्यु क्षेत्र" में बचकर भागने वाले प्रवासी सीमा रक्षकों के लिए सीधा निशाना बनते थे। दीवार के एक ओर भित्तिचित्र देखे जा सकते हैं। ये केवल पश्चिमी बर्लिन की तरफ बनाए जा सकते थे, पूर्वी बर्लिन की ओर ऐसा करना सख्त मना था।


बर्लिन दीवार की कहानी
पूर्वी जर्मनी ने अपने आर्थिक और राजनीतिक हितों की रक्षा के लिए बर्लिन में दीवार खड़ी की। फिर इसी दीवार ने लगभग 30 साल तक दुनिया की राजनीति और कूटनीति की धारा तय की।

इसकी शुरूआत हुई हिटलर की महत्वाकांक्षाओं से। हिटलर सम्पूर्ण विश्व पर नाजी शासन की स्थापना करना चाहता है और उसे शुरू में काफी सफलता भी मिली. नाज़ी सेनाएँ मित्र राष्ट्रों की सेनाओं के खिलाफ लड़ते लड़ते लगातार आगे बढती रही और रूस की पश्चिमी भाग तक जा पहुँची। हिटलर ने अप्रत्याशित कदम उठाते हुए सेंट पिट्सबर्ग पर हमला किया और यही उसकी सबसे बड़ी भूल थी।

जब मित्र राष्ट्रों और रूस ने हिटलर की जर्मनी को परास्त कर दिया तो उसका देश भी टूट गया। नाजी जर्मनी के आत्मसमर्पण के साथ खत्म हुए दूसरे विश्व युद्ध के बाद गठबंधन सेनाओं ने बर्लिन को चार हिस्सों में बांटा। सबसे बड़ा पूर्वी हिस्सा सोवियत सेक्टर था। पश्चिम हिस्से पर तीन ताकतों फ्रांस, ग्रेट ब्रिटेन और अमेरिका का नियंत्रण था। गठबंधन सहयोगियों ने पोट्सडैम समझौते पर हस्ताक्षर किए जिसके मुताबिक जर्मनी और बर्लिन की सीमाएं तय हुईं।

पूर्वी जर्मनी से भगदड़ : 1954 से 1960 के बीच पूर्वी जर्मनी ने प्रतिभाओं का बड़ा पलायन देखा। स्वीडिश लेखक फ्रिट्योफ लैगर की किताब 'बर्लिन की दीवार' के मुताबिक इस दौरान 4,600 डॉक्टर, 15,885 अध्यापक, 738 यूनिवर्सिटी प्रोफेसर, 15,536 इंजीनियर और तकनीकी विशेषज्ञ पूर्व से पश्चिमी जर्मनी चले गए। कुल मिला कर यह संख्या 36,759 बैठती है। लगभग 11 हजार छात्र भी पूर्वी जर्मनी छोड़ गए।

इन सभी काबिल लोगों को शिक्षा पूर्वी जर्मनी के खर्च पर मिली, लेकिन उनका फायदा पश्चिमी जर्मनी को मिलने लगा। इस दौरान कुल मिला कर 20 से 30 लाख लोगों ने पश्चिमी जर्मनी का रुख किया, जो पूर्वी जर्मनी की कुल आबादी का 15 से 20 प्रतिशत हिस्सा था। जाहिर है इस तरह की स्थिति पूर्वी जर्मनी को स्वीकार्य नहीं थी।

पूर्वी जर्मनी में शिक्षा मुफ्त थी, लेकिन पश्चिमी जर्मनी में शिक्षा पर खर्च होता था। ऐसे में जर्मन छात्र शिक्षा के लिए पूर्वी हिस्से में जाते और नौकरी के लिए पश्चिमी जर्मनी लौट आते।

वैसे भी पूर्वी और पश्चिम जर्मनी की सीमा बंद होने के बाद भी बर्लिन के एक हिस्से से दूसरे हिस्से में आना जाना मुमकिन था। ऐसे में पूर्वी जर्मनी छोड़ने की इच्छा रखने वाले लोगों के लिए पश्चिमी बर्लिन में आकर वहां से विमान लेकर पश्चिमी जर्मनी में जाना आसान था।

रातों रात विभाजन : 1950 और 1960 के दशक के शीत युद्ध में पश्चिमी देश बर्लिन को पूर्वी ब्लॉक की जासूसी के लिए भी इस्तेमाल करते थे। जब तक सीमा खुली थी तो वे रूसी सेक्टर में चले जाते थे। 1960 में लगभग 80 जासूसी सेंटर थे। इतने ही सेंटर पूर्वी ब्लॉक के खिलाफ भी काम कर रहे थे। इस तरह के जासूसी युद्ध को उस जमाने में 'खामोश युद्ध' कहा जाता था।

इन्हीं सब वजहों से परेशान हो कर 1961 में 12 और 13 अगस्त की रात पूर्वी और पश्चिमी बर्लिन की सीमा को बंद कर दिया गया। हजारों सैनिक सीमा पर तैनात किए गए और मजदूरों ने कंटीले तार लगाने शुरू किए। यह काम रात को एक बजे शुरू किया गया और सड़कों पर जलने वाली लाइटें भी बंद कर दीं ताकि पश्चिमी हिस्से के लोगों को पता न चले। सुबह तक शहर दो हिस्सों में बंट चुका था और लोगों को पता ही नहीं चल रहा था कि क्या हो रहा है। उस वक्त के अमेरिकी राष्ट्रपति जॉन एफ केनेडी भी बहुत हैरान थे।

बर्लिन के लोग दीवार बनने पर हैरान और परेशान थे। पूर्वी हिस्से में कम्युनिस्ट शासन में रहने वाले लोगों के पास गुस्सा जताने के भी ज्यादा रास्ते नहीं थे। ऊपर से सभी नागरिकों पर पूर्वी जर्मन खुफिया पुलिस स्टाजी की नजर रहती थी। उस सुबह तक दीवार सिर्फ कंटीले तारों वाली एक बाड़ थी, जो कई जगह अधूरी थी। कुछ पूर्वी जर्मन उसमें बचे गैप में से निकल भागने की कोशिश करने लगे। उन्हें लगा कि यही आखिरी मौका है पूर्वी जर्मनी को छोड़ने का। कहते हैं कुछ पूर्वी जर्मन सैनिक भी भागने की फिराक में थे।

लोगों का गुस्सा : पश्चिम हिस्से में लोगों ने खुल कर अपनी नाराजगी दिखाई। सीमा पर भीड़ जमा हो गई। अमेरिका से मांग की गई कि वह दखल दे और दीवार के निर्माण को रुकवाए। लेकिन परमाणु युद्ध के डर से अमेरिका और नाटो ने हस्तक्षेप करने से परहेज किया। हालांकि इसके लिए उन्हें आचोलना भी झेलनी पड़ी।

बर्लिन की दीवार शहर के पूर्वी और पश्चिमी हिस्से को बांटने वाली रेखा पर बनी। दीवार बनने से पहले सीमाएं खुली थीं। पश्चिम की तरफ 45 किलोमीटर लंबी सीमा पर 90 चौकियां थी। यानी प्रति किलोमीटर दो चौकियां। पूर्वी हिस्से की तरफ 78 चौकियां बताई जाती हैं। तभी रोज दोनों तरफ आने जाने वाले वाहनों की जांच संभव थी। 1968 में जब दीवार बन गई तो चौकियां की संख्या सिर्फ 19 रह गई।

13 अगस्त को जब बर्लिन दीवार बननी शुरू हुई तो सीमांकन रेखा को पहले सैनिकों से और फिर कंटीली तारों से रोका गया। जब दीवार बन गई तो पूर्वी जर्मनी ने उसके आसपास 100 मीटर चौड़ा मानव रहित क्षेत्र भी बनाया, ताकि सीमा की सुरक्षा के लिए पर्याप्त खुला क्षेत्र बना रहे। पूर्वी जर्मनी के गश्ती सैनिकों को सख्त हिदायत थी कि सीमा के पार कोई भी गोली न दागें। उन्हें किसी को देखने के बाद पहले चेतावनी देने का निर्देश था। इसके बाद वे चेतावनी के तौर पर हवा में गोली चलाते थे। गोली तभी चलाई जाती जब सीमा का उल्लंघन करने वाला व्यक्ति चेतावनी पर ध्यान नहीं दे रहा है। यह दीवार उस वक्त बर्लिन में दो देशों की सीमा थी।

इसके आगे की कहानी :-
7 अक्टूबर 1949 : देश के पश्चिमी भाग को फेडरल रीपब्लिक और जर्मनी ना मिला और सोवियत शासित पूर्वी भाग जर्मन डेमोक्रेटिक रीपब्लिक कहलाया।

1 अप्रैल 1952 : स्टालीन ने कहा पूर्वी और पश्चिमी जर्मनी को विभाजित करती रेखा मात्र एक सामान्य रेखा नहीं है। वह दो देशों को बाँट रही सीमा है। उसे उतनी ही गम्भीरता से लेना होगा।

18 जनवरी 1956 : पूर्वी जर्मनी की सेना का गठन हुआ।

12 अगस्त 1961 : वाल्टर अल्ब्रिच ने दिवार बनाने का आदेश जारी किया।

21 दिसम्बर 1972 : पूर्वी और पश्चिमी जर्मनी के बीच ऐतिहासिक बाल्टिक समझौता हुआ, जिसके तहत कुटनितिक संबंध फिर से स्थापित हुए। लेकिन पूर्वी जर्मनी की निरंकुश स्टासी सेना लाखों की संख्या में विद्रोही और गुप्तचर तैनात करती रही।

11 मार्च 1985 : मिखाइल गोर्बाचोव सोवियत संघ के राष्ट्रपति बने और उन्होनें कई सुधार लागु किए।

12 जून 1987 : तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन ने ब्रांडेनबर्ग दरवाजे के पास खड़े होकर ऐलान किया कि श्रीमान गोर्बाचोव को यह दिवार तुड़वा देनी चाहिए।

17 जनवरी 1988 : बर्लिन वॉल के खिलाफ प्रदर्शन उग्र हो गए. जीडीआर सरकार के खिलाफ जनाक्रोश भड़क उठा। लेकिन इससे अविचलित एरिक होनेकर ने घोषणा की कि बर्लिन वॉल अगले 100 साल तक यूँ ही बनी रहेगी।

सितम्बर 1989 : पूर्वी जर्मनी में आंदोलन और भी तेज हो गए। लोग कहने लगे – हमे बाहर जाने दो।

18 अक्टूबर 1989 : भारी दबाव के बीच एरिक होनेकर ने त्यागपत्र दे दिया।

9 नवम्बर 1989 : पूर्वी जर्मनी के नए नेता इगोन क्रेंज़ ने कहा कि पूर्वी जर्मनी के लोग एक्ज़िट विज़ा लेकर पश्चिम जर्मनी जा सकते हैं। लेकिन लोगों ने उनके बयान को अलग तरीके से लिया। लाखों की संख्या में लोग पश्चिम जर्मनी की तरफ उमड़ पड़े, जिन्हें रोक पाना वस्तुत: असम्भव हो गया। लोग बर्लिन वॉल पर चढ गए, हथौड़े बरसाए जाने लगे, और दिवार टूट गई।

3 अक्टूबर, 1990 : जर्मनी एक हुआ. इस घटना का व्यापक असर हुआ। इस घटना से पूर्वी यूरोप में वामपंथी विचारधारा को झटका लगा और वामदल शासित देशों की सरकारें कमजोर हुई। भारत में भी वामदलों के हौसले टूट गए और चीन के वामदलों ने महसूस किया कि अब और अधिक कड़ाई लागू करनी होगी।


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