शजर पत्थर
भारत वर्ष में कटनी जिले के रीठी कस्बे के पास से निकली केन नदी के आंचल में कुदरत की कारीगरी का अनूठा भंडार है जो खास किस्म के शजर पत्थरों के रूप में है। इन पत्थरों की खासियत यह है कि इनमें प्राकृतिक रूप से बने अनेकों प्रकार के चित्र छिपे रहते हैं जो पत्थरों को तराशने के बाद अपनी छटा बिखेरते हैं। ये दुर्लभ पत्थर अपने देश में जहां ऊंची कीमतोंं पर बिकते हैं वहीं ईरान में इनकी मुंह मांगी कीमत मिलती है।
शजर पत्थर पर कुदरत खुद चित्रकारी करती हैं और कोई भी दो शजर पत्थर एक से नहीं होते। ये पत्थर आज भी अपनी खूबसूरती के लिए दुनिया भर में मशहूर हैं। ये पत्थर आभूषणों, कलाकृति जैसे ताज महल, सजावटी सामान और कुछ अन्य वस्तुएं जैसे वाल हैंगिंग में लगाने के काम में प्रयोग होता हैं। कुछ लोग इसको बीमारी में फायदा पहुचाने वाला पत्थर भी मानते हैं।
महारानी विक्टोरिया के समय :-
सन् 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम के दौरान शजर पहली मर्तबा अंग्रेजी हुकूमत की नजर में आया था। भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी से शासन जब ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया को दिया गया तो उसे समय इसे काफी तरजी दी गयी थी। सन् 1911 मे दिल्ली दरबार में विक्टोरिया कोरोसन प्रदर्षनी में महारानी इस अद्भुत पत्थर की बनावट पर इतनी मोहित हो गयी थी कि उसे अपने साथ ब्रिटिश संग्रालय की शोभा बढ़ाने वास्ते लेकर गयी थी, जो आज भी ब्रिटिश संग्रालय में शोभायमान है।
मशीन से तराशने पर उभरती हैं आकृतियां :-
रीठी से होकर पन्ना, छतरपुर और बांदा तक बहने वाली केन नदी में यह शजर पत्थर पाया जाता है। रीठी क्षेत्र के अलावा पन्ना के अजयगढ़ कस्बे से लेकर उत्तर प्रदेश में बांदा के कनवारा गांव तक शजर का भंडार है। ऊपर से बदरंग दिखने वाले शजर को जब मशीन से तराशते हैं तो उसमें, झाडिय़ों, पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों, मानव और नदी की जलधारा के चमकदार रंगीन चित्र उभरते हैं। जानकारों का मानना है कि पूरे विश्व में अन्य कहीं भी इस तरह का पत्थर नहीं पाया जाता।
ईरान से आते हैं व्यापारी :-
शजर पत्थर का कारोबार करने वाले बताते हैं कि इस शजर की कीमत उसमें उभरने वाली कलाकृतियों के हिसाब से तय होती है। कई बार कुछ ऐसे दुर्लभ चित्र उभरते हैं जिनकी मुंहमांगी कीमत मिलती है। यह पत्थर एक्सपोर्ट के लिए दिल्ली भेजा जाता है वहीं ईरान से भी कुछ व्यापारी आते हैं जो अच्छी कीमत देते हैं। नदी के आसपास रहने वाले लोग और खासतौर पर मछुवारे इन पत्थरों का संग्रह कर काफी रुपए कमाते हैं।
400 साल पहले हुई थी खोज :-
इस दुर्लभ पत्थर की कहानी भी दिलचस्प है। केन नदी में ये हमेशा से मौजूद था। लेकिन कहते हैं इसकी खोज लगभग 400 साल पहले अरब देशों से आये व्यापारियों ने की थी। वो इसको देख कर दंग रह गए। शजर पत्थर पर कुदरती रूप से उकेरी हुई पेड़, पत्ती की आकृति के कारण इसका नाम उन्होंने शजर दिया जिसका मतलब पर्शियन में पेड़ होता हैं। उसके बाद मुगलों के राज में शजर की पूछ बढ़ गयी। एक से एक कारीगर हुए जिन्होंने बेजोड़ कलाकृतियां बनायीं।
धार्मिक महत्व का पत्थर :-
कई रंगों में मिलने वाले इस पत्थर का धार्मिक महत्व भी है अरब देशों में इसे लोग हकीक के नाम से धारण करते हैं जो बुरी नजर और बलाओं से बचाता है। हरे रंग के हकीक की सबसे ज्यादा कीमत मिलती है। अपने देश में इसे स्फटिक कहते हैं।
शजर पत्थर का महत्त्व मुसलमानों में बहुत हैं। वो इसे हकीक भी कहते हैं। इस पत्थर पर वो कुरान की आयते लिखवाते हैं और ये काफी सम्मानजनक स्थान रखता हैं। आज भी मक्का हज के लिए जाने पर वो इस पत्थर को ले कर जाते है।
ज्वैलरी बनाने में होता है उपयोग :-
अपनी रंगबिरंगी आकृतियों और चमकदार होने के कारण इसका उपयोग ज्वैलरी में भी किया जाता है। शजर पत्थर से बने आभूषणों का बड़ा कारोबार बांदा और लखनऊ में होता है।
शजर पत्थर पर आकृतियां :-
स्थानीय लोगों की मानें तो शजर पत्थर पर ये आकृतियां तब उभरती हैं जब शरद पूर्णिमा की चांदनी रात को किरण उस पत्थर पर पड़ती हैं। उस समय जो भी चीज बीच में आती हैं उसकी आकृति उस पर उभर आती है। हालांकि विज्ञान के अनुसार शजर पत्थर डेन्ड्रिटिक एगेट पत्थर है और ये कुदरती आकृति जो इस पर अंकित होती है वो दरअसल फंगस ग्रोथ होती हैं।
शजर पत्थर का कारोबार :-
धीरे धीरे बांदा शजर पत्थर का केंद्र बन गया। सैकड़ो कारखाने खुल गए और तमाम लोग इसमें रोज़गार पा गए। बांदा से ये पत्थर आज भी पूरे विश्व में और ज्यादातर खाड़ी देशों में जाता हैं। इसकी मांग ईरान में बहुत ज्यादा हैं और उसी की वजह से बंदी की कगार पर पहुच चुके शजर को दुबारा बाजार मिल गया है।
कभी इस पत्थर को निकालने के लिए कारीगर बरसात में केन नदी के किनारे कैंप लगाते थे। नदी से पत्थर को पहले निकालना फिर उसको तराशना और फिर उसको मनचाही रूप में ढालना ये सब छोटे छोटे कारखानों में होता था। पीढियों से ये हुनर चला आ रहा था। राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त हस्तशिल्पी द्वारका प्रसाद सोनी के अनुसार पहले पत्थर की कटाई और घिसाई होती हैं। उसके बाद इसको मनचाहे आकर में ढाल दिया जाता है। फिर पॉलिश कर के चमक लायी जाती हैं। शजर को नया रूप देने में अभी भी कोई बहुत विकास नयी हुआ हैं। काम हाथ से और मात्र एक घिसाई मशीन से होता है। ऐसे यूनिट्स को बांदा में कारखाना कहते हैं। तैयार शजर पत्थर को क्वालिटी के हिसाब से 1,2,3 ग्रेड में रखा जाता है और फिर उसकी कीमत लगायी जाती हैं। कीमत सोने चांदी में जड़ने के बाद और बढ़ जाती हैं।
लेकिन आज अपने ही घर बांदा में शजर पत्थर बेघर सा हो गया हैं। कद्रदान बहुत हैं लेकिन सीधे बेचने का कोई तरीका नहीं हैं इसीलिए मुनाफा घटता गया और लोग ये काम छोड़ते गए। द्वारका प्रसाद सोनी जो बांदा में आज भी शजर पत्थर को तराशने का काम करते हैं बताते हैं कि ज्यादा मुनाफा तो बिचौलिए ले जाते हैं। यहां से सौ रुपये की चीज वो विदेशी मार्किट में सौ डालर में बेचते हैं। कुछ साल पहले तक बांदा में 34 ऐसे कारखाने थे जहां शजर पत्थर को तराशा जाता था, लेकिन अब कुल चार बचे हैं। सोनी बताते हैं की जब मार्केट ही नहीं है तो अच्छा दाम कैसे मिले। कारीगर धीरे धीरे काम छोड़ रहे हैं। खुद सोनी को कई पुरस्कार राज्य और केंद्र सरकार से मिल चुके हैं और वो विदेशो में भी भारत का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं, लेकिन उनकी नजर में भी जब तक माल बेचने की व्यवस्था नहीं ठीक होगी, शजर जैसे बेशकीमती पत्थर को संवारने वालो का हाल नहीं सुधरेगा। सोनी के घर की दीवारों पर पुरस्कार टंगे हैं लेकिन शजर पत्थर की तरह उसके व्यवसायी गुम होते जा रहे हैं।
-------------
प्रकृति ने जिसे कभी कुदरत का तोहफा समझकर लोगों को पहली नजर मे चमत्कृत कर देने वाले बेमिसाल पत्थर- शजर को अपनी किस्मत मान लिया था। तमाम बेशकीमती नगीनों और बुन्देलखण्ड की शान के अनुरूप इसकी ऐतिहासिक किवदन्तियों मे शामिल बुन्देलखण्डी कहानी की रफ्तार मे अध्याय बनकर दर्ज होने वालों में सबसे अनोखा प्रकृतिदत्त उपहार शजर ही है।
बांदा गजेटियर के अनुसार लगभग 300 वर्ष पूर्व मुगलकाल में शजर उद्योग को जबरजस्त सम्मान प्राप्त हुआ करता था। बुजुर्ग शजर व्यवसायी हामिद हुसैन जो कि अब इसे पार्ट टाइम तराशने का काम करते हैं, बताते हैं कि - नवाब, राजाओं के आकर्षण का केन्द्र ही शजर और उसकी खूबियां थी किन्तु नवाबी खत्म हो जाने के कारण शजर की कद्र धूमिल होती चली गयी।
शजर की उत्पत्ति के विषय में अनेक तरह के मन्तव्य सामने आते हैं, मगर वैज्ञानिक दृष्टिकोण में दो प्रमुख कारण स्पष्ट हैं। जिनमें प्रथम बात यह है कि धरती के अन्दर धधकते हुए ज्वालामुखी का लावा सिलिका रूप में जब ऊपर आता है, तो पहुंचते पहुंचते ठण्डा होने लगता है। तत्पष्चात् जब वह द्रव्य रूप में एकत्र होता है, उसी संयोग वष वनस्पतियों के बीच उसके अन्दर अंकुरित होकर प्राकृतिक रूप से पत्थर की आकृति में एकाकार हो जाते हैं फिर क्रमषः परत दर परत जमकर चित्र के रूप मे उभर आते हैं। अन्ततः ठोस परिवर्तित रूप की शजर की शक्ल एख्तियार कर लेता है।
बांदा की केन में पूरे भू-भाग पर पहाड़ हैं, इन्ही पहाड़ों के बीच अन्तर्मुखी ज्वालामुखी विद्यमान हैं, किन्तु नदी के शीतल जल के कारण वे ठण्डे रहते हैं। शजर एगेट की परतों के बीच मैंगनीज व लौह खनिज का आकृति विषेष जमा हुआ द्रव्य पदार्थ ही है। बांदा के कुशल, सिद्धहस्त, शिल्पकार-कारीगर जो कि पिछले चालीस वर्षों से इसे व्यवसाय के रूप में अपनायें हैं, वे बताते हैं कि शजर की कोई भी पत्थर किसी दूसरे पत्थर के समानुपाती नहीं होता है। अर्थात प्रत्येक शजर दूसरे से भिन्न ही होगा।
इसकी उत्पत्ति का दूसरा कारण यह है कि धरती के नीचे से लावा द्वारा ऊपर फेंका गया पदार्थ, जो प्राकृतिक रूप से रासायनिक क्रिया द्वारा ठोस पदार्थ मे जमने लगता है, उसमें अन्य तमाम धातुओं के साथ चांदी की बहुतायत मात्रा होती है। उस अवस्था में चांदी कैमरे के निगेटिव की तरह कार्य करती है। इसे वैज्ञानिक भाषा में कार्बनइफेक्ट कहते हैं। सूर्य की किरणों के माध्यम से पत्थरों की सतह के आसपास वनस्पतियों, पौधों, झाड़ियों, आदि का चित्र प्रायः इसके ऊपरी भाग मे फोटो की तरह अंकित हो जाता है इस प्रक्रिया के बीच यदि कोई पशु पक्षी अथवा मनुष्य स्वयं में गुजर जाये तो उसकी आकृति भी पत्थर के ऊपर उभर आती है।
शजर एक फारसी शब्द है। जिसका अर्थ है कि - शाख, टहनी या छोटा सा पौधा। इसे आम बोलचाल की भाषा में हकीक ए- शजरी भी कहते हैं।
बांदा शजर व्यवसायी डा. सतीष चन्द्र भट्ट की माने तो - कार्तिक पूर्णिमा की रात मे शजर पत्थर प्राकृतिक रूप से जल की सतह पर आ जाते हैं। प्रायः जब उगते हुए सूरज की पहली किरण शजर के ऊपर पड़ती है तो उसके सामने आने वाली प्रत्येक वस्तु इसके ऊपरी भाग में चित्र स्वरूप प्रकाषित हो जाती है।
नगर के ही एक अन्य व्यवसायी जिन्हे शजर की नक्काषी करने, ताजमहल, कालींजर का किला शजर से ही बनाने के लिए राज्य स्तरीय पुरूस्कार प्राप्त हो चुका है। द्वारिका प्रसाद सोनी (सचिन ज्वैलर्स) के मुताबिक ढाई दशक पूर्व ईरान, सउदी अरब, दोहा- कतर, अफगानिस्तान की सरहद पार भी शजर के सौदागर बांदा आकर मुंह मांगी कीमत मे इसे ले जाते थे। ज्योतिषियों के अनुसार जिन राशियों में हीरा, ओपल, हकीक, पुखराज पहनने की सलाह दी जाती है उनके लिए भी शजर पहनना लाभदायक होता है। किन्तु आज वक्त की धुन्ध एवं सामन्त शाही व्यवस्था, एकाधिकार का बाजारीकरण शजर उद्योग को बांदा नगर से लगभग खत्म करने के अन्तिम सोपान तक पहुंच चुका है। मषीनीकरण की समृद्वि में जो कच्चा माल पहले एक माह में तैयार होता था आज वही पांच दिनों मे तैयार हो जाता है।
तैयार माल की खपत न होने से ही व्यवसायी, कारीगर इससे विमुख होते जा रहे है। स्वयं सेवी संगठन प्रवास ने अपने सर्वेक्षण में संकलित आंकड़ों से यह पाया है कि एक अच्छा शजर जो पहले मुंह मांगी कीमत में बिकता था अब वही मात्र 25 रूपये में मिल जाता है जबकि साधारण पत्थर की कीमत 10 से 15 रूपये है। कारीगरों को एक दिन की दिहाड़ी मजदूरी 100 से 150 रूपये ही मिलती हैं, वहीं कारखाना मालिकों को 2500 से 3000 के बीच ही इस उद्योग से आमदनी है। यदि वे पूरी तरह शजर पर ही निर्भर हों तो घर खर्च चलाना भी दूभर होगा। आज आवश्यकता है कि सरकार इसे संरक्षण प्रदान कर बुन्देलखण्ड के प्रमुख कुटीर उद्योग में शामिल करें जिससे टूटते शजर की पहचान को बरकरार रखा जा सके। प्रस्तुत आंकड़ों से खुद बखुद हालात ए- शजर बयान हो जाते हैं।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें