शनिवार, 12 मई 2018

मलाणा गाँव (Malana Village), हिमाचल प्रदेश

मलाणा गाँव - रहस्यमयी व सबसे पुराना गणतंत्र

हिमाचल प्रदेश अपनी खूबसूरती और पहाड़ी व बर्फीली वादियों के देश और दुनियाभर में जाना जाता है। यहां की ख़ूबसूरती बस देखते ही बनती है। हम में से अधिकतर लोग कभी न कभी हिमाचल की इन हसीन वादियों में जरूर गए होंगे लेकिन फिर भी शायद यहाँ के एक गांव की सच्चाई बहुत कम ही लोगों को पता हो। जी हां! हम हिमाचल के एक ऐसे गांव के बारे में बात कर रहे हैं जिस गांव में घुसने से पहले प्रवेश गेट पर लगे अंग्रेजी और हिंदी में लिखे नियम व कानून को पढ़ना बेहद जरूरी होता है क्योंकि इस गांव के नियम व कानून उनके खुद के बनाए हुए हैं जिन्हें तोड़ने पर भारी जुर्माना देना पड़ सकता है।

हिमाचल प्रदेश के कुल्लू जिले के अति दुर्गम इलाके में स्थित है मलाणा गाँव। इसे आप भारत का सबसे रहस्यमयी/अद्भुत गाँव कह सकते है। कुल्लू जिले में स्थित इस गांव को करीब डेढ़ दशक पहले खोजा गया था, तो सभी हैरान रह गए। इस गांव में जमकर बर्फबारी होती है। और तो और वर्ष 1999 तक इस गांव के बारे में बाहरी दुनिया के लोगों को पता भी नहीं था।

मलाणा- एक प्राचीन गांव

मलाणा गांव, समुद्र तल से 9500 (8640) फीट ऊपर हिमाचल प्रदेश की कुल्लू घाटी के उत्तर पूर्व में स्थित पहाड़ों की गोद में बसा एक प्राचीन गांव है। यह गांव पार्वती घाटी में चंद्रखानी (Chandrakhani) और देओटिब्बा (Deotibba) नाम की पहाडियों से घिरा हुआ मलाणा नदी (नाले) के किनारे (मुहाने) स्थित है। मलाणा गांव आधुनिक दुनिया से अप्रभावित है और इस गांव में रहने वाले लोगों की अपनी जीवन शैली और सामाजिक सरंचना है। यहां के लोग अपने रीति-रिवाजों का बड़ी सख्ती से पालन करते हैं। इस गाँव पर बहुत सी डाक्यूमेंट्रीज, जैसे कि Malana: Globalization of a Himalayan Village, और Malana, A Lost Identity बनी हुई हैं।

करीब 12 हजार फुट की ऊंचाई पर बसे मलाणा गांव में महज 4700 लोग निवास करते हैं। ऐसा कहा जाता है कि इस पावन स्थल पर जाकर हर मनोकामना पूरी हो जाती है। इस बजह से भी लोग यहाँ आते रहते हैं।

यहां बना था दुनिया का पहला लोकतंत्र - जमलू ऋषि ने बनाए थे नियम

मलाणा गांव का इतिहास बहुत पुराना है। मलाणा के प्रमुख देवता का नाम जमलू है जो ऋषि जमदग्नि का ही अपभ्रंश है। बहुत समय पहले इस गांव में परशुराम के पिता जमदग्नि (जमलू) ऋषि रहा करते थे। यह गाँव ऋषि जमदग्नि की तपोभूमि है। उन्होंने ही इस गांव के नियम-क़ानून बनाये थे। इस गांव का लोकतंत्र दुनिया का सबसे प्राचीन लोकतंत्र है। कहते हैं दुनिया को सबसे पहले इस गांव ने ही लोकतंत्र का पाठ पढ़ाया। इस गांव में प्राचीन काल में कुछ नियम बनाए गए। जिसे बाद में संसदीय प्रणाली में बदल दिया गया। ऐसा माना जाता है कि जमलू ऋषि को आर्यों के समय से भी पहले से पूजा जाता है। जमलू ऋषि का उल्लेख पुराणों में भी आता है। वे अपने आप में बहुत अद्भुद व्यक्ति थे। उनके बारे में कई प्रकार की दंत कथाएं भी मौजूद हैं। एक अंग्रेज लेखक ने एक हिंदू पंडित के बारे में लिखा है कि एक पंडित मलाणा गांव में जाकर वहां के लोगों को ईश्वर के बारे में उपदेश दिया करता था। मलाणा में रहने वाले निवासी आर्यों के वंशज माने जाते हैं।

मलाणा वासी जमदग्नि (जमलू) देवता की पूजा करते हैं और उसके कोप से बहुत डरते हैं। 

मुग़ल सम्राट अकबर की पूजा

मलाणा भारत का इकलौता गांंव है जहाँ मुग़ल सम्राट अकबर की पूजा की जाती है। साल में एक बार होने वाले ‘फागली’ उत्सव में ये लोग अकबर की मूर्ति की पूजा करते हैं। लोगों की मान्यता है कि बादशाह अकबर ने जमलू ऋषि की परीक्षा लेनी चाही थी, जिसके बाद मुग़ल बादशाह अकबर के अभिमान को तोड़ने के लिए जमलू ऋषि ने दिल्ली में बर्फबारी करा दी थी, इसके बाद अकबर ने खुद यहां आकर जमलू देवता से माफी मांगी थी। यही वजह है ये लोग अकबर की पूजा करते हैं।

इस गांव के लोग हिन्दू धर्म को मानते हैं और उन्हीं की तरह ही पूजा-पाठ करते हैं। अकबर की पूजा के बारे में कहा जाता है कि ये बहुत ही गुप्त ढंग से की जाती है और बाहरी आदमियों को इससे दूर रखा जाता है।

एक किस्सा सम्राट अकबर के बारे में भी है। सुनते हैं कि किसी रोग से निजात पाने के लिए एक फकीर के कहने पर खुद अकबर पैदल चलकर मलाना के मंदिर गया और वहां अपनी तस्वीर वाली स्वर्ण मुद्राएं चढ़ाई। लोगों ने बताया कि वे मुद्राएं अभी भी मंदिर में सुरक्षित हैं। जब अकबर पूरी तरह से ठीक हो गया तो उसने यहां पर रहने वाले लोगों को कर से मुक्त करवा दिया था।

सिकंदर महान के वंशज

जबकि अन्य परंपरा के अनुसार मलाणा गांव के मूल निवासी खुद को यूनानी शासक सिकन्दर की फौज (आर्मी) के यहां बच गए सैनिकोंं (योद्धाओं) का वंशज मानते हैं। मलाणा गांव के ग्रामीण आज भी अपने आप को रोम का निवासी मानते है। ग्रामीणों की भाषा आज भी रोम की भाषा से मिलती है।

महान शासक सिकंदर अपनी फौज के साथ खुद मलाणा गांव आया था। भारत के कई क्षेत्रों पर जीत हासिल करने और राजा पोरस को हराने के बाद सिंकदर के कई वफादार सैनिक जख्मी हो गए थे। सिकंदर खुद भी बहुत थक गया था और वह घर वापस जाना चाहता था। ब्यास तट के बाद जब सिकंदर इस गांव में पहुंचा तो यहां का शांत वातावरण उसे बेहद पसंद आया। वह काफी दिन तक यहां ठहरा। कहा जाता है कि बाद में कुछ यौद्घा और सैनिक ऐसे थे जो वापस नहीं जा सकते थे। सिकंदर ने उन्हें यही रुकने को कह दिया। सिकंदर के भारत छोड़ने के बाद ये लोग यहीं पर बस गए थे। इन्होंने यहां अपने परिवार बना लिए और वंश को आगे बढ़ाया। उसके बाद से ये गांव अपनी अलग पहचान बनाने लगा।

ग्रीक देश जैसे लोगों की तरह दिखते हैं लोग 

यह लोग अपने सुबूत के तौर पर जमलू देवता के मंदिर के बाहर लकड़ी की दीवारों पर की गई प्राचीन नक्काशी को दिखाते हैं। जिसमें राजा और उसके सैनिकों की तस्वीरे हैं। युद्ध करते सैनिकों को एक विशेष तरह की वेश-भूषा और हथियारों के साथ दिखाया गया है। और मंदिरों में जो उकेरी हुई आकृतियां हैं, उनमें घुड़सवार सैनिक, हाथी, शराब पीते हुए सैनिक हैं, जिन्होंने फ्राकनुमा एक वस्त्र पहन रखा है। यह मूलतः उस युग के ग्रीक सैनिकों की पोशाक हुआ करती थी। कहा तो यह भी जाता है कि सिकंदर के सैनिकों के अस्त्र-शस्त्र भी एक शस्त्रागार में सुरक्षित हैं, लेकिन अभी तक किसी ने देखा नहीं। यहां के लोगों की शक्ल-सूरत भी ग्रीक देश के लोगों की तरह ही है।

मलाणा गांव वासियों के रहन-सहन, जीवनशैली और यहां के बच्चों को चेहरे की चमक, शरीर की बनावट, चेहरे-मोहरों में और गतिविधियों में भारतीयता का अभाव है। इसके अलावा कई लोगों और बच्चों की आंखे नीली हैं। कहा जाता है कि इन सैनिकों ने आसपास के गांवों की लड़कियों से शादी-विवाह किये और वे भेड़ें चराकर और गेहूं की खेती करके गुजर-बसर करने लगे। 

एचपी यूनिवर्सिटी समेत बाकी सस्‍थाओं की ओर से किए गए ताजा शोध के बाद ये कहानी पुख्ता भी हो गई। यहां के लोगों की भाषा, उनका खानपान व शारीरिक लक्ष्‍ण काफी हद तक ग्रीस के लोगों से मिलता जुलता पाया गया।

भाषा व बोली

यहां के लोगों की भाषा भारतीय भाषाओँ से अलग और ग्रीक भाषा से मिलता जुलता है। मलाणा के निवासी एक रहस्यमयी भाषा बोलते हैं जो Kanashi (कणाशी) / Raksh (रक्ष) के नाम से जानी जाती है। कुछ लोग इसे राक्षस बोली मानते हैं। मलाणा की भाषा, संस्कृत और कई तिब्बती बोलियों का एक मिश्रण लगती है लेकिन यह आस पास बोली जाने वाली किसी भाषा या बोली से मेल नहीं खाती। यहां कि भाषा में कुछ शब्द ग्रीक के भी हैं। इसलिये यहां के रीति-रिवाज भी अलग हैं।

गांव मंदिर के दोनों ओर बसा हुआ है। मंदिर के दांई ओर के निवासी बांई ओर के निवासियों से ही विवाह कर सकते हैं। यदि किसी लड़के को लडकी पसंद आ जाए तो वह लडकी के मां-बाप से सीधे प्रस्ताव कर सकता है और लड़का जंच जाने पर अपनी हैसियत के अनुसार पांच-सात सौ रुपये देकर लड़की ले जा सकता है। वहां की महिलाएं बहुत मेहनती और सुंदर होती हैं। उनके चेहरों पर एक अजीब-सी चमक होती है। महिलाओं की तुलना में आदमी अधिक आलसी और कामचोर होते हैं। वे बैठकर ताश खेलते हैं, जो उनका प्रिय शगल है। अमूमन वे एक-दूसरे की बीवी को फुसलाकर अपने घर ले आते हैं। वह औरत भी बिना किसी औपचारिकता के अपने बच्चों को पहले वाले पति के जिम्मे छोड़ आती हैं। यह बात इतनी सहज और साधारण मानी जाती है कि लोग दस-पंद्रह पत्नियां तक बदल लेते हैं।

गांव में नाम रखने की परम्परा बड़ी अजीब है। सोमवार को पैदा होने वाला सोमू, मंगलवार को मंगलू और शुक्र को शुक्रू के नाम से जाना जाता है। पढ़ने-लिखने के नाम पर सब कुछ शून्य है।

सामाजिक सरंचना

मलाणा गांव की सामाजिक सरंचना यहां के ऋषि जमलू देवता के अविचलित विश्वास व् श्रद्धा पर टिकी हुई है। पूरे गांव के प्रशासन को एक ग्राम परिषद के माध्यम से ऋषि जमलू के नियमों द्वारा नियंत्रित किया जाता है। इस ग्राम परिषद में 11 सदस्य होते हैं जिनको ऋषि जमलू के प्रतिनिधियों के रूप में जाना जाता है। इस परिषद द्वारा लिया गया फैसला अंतिम होता है और यहां पर गांव के बाहर वालों के कोई नियम लागू नहीं होते। इस गांव की राजनीतिक व्यवस्था प्राचीन “ग्रीस” की राजनीतिक व्यवस्था से मिलती है। इस वजह से मलाणा गांव को “हिमालय का एथेंस” भी कहा जाता है। सूत्रों के अनुसार दो हजार वर्ष पुरानी विश्व की पहली लोकतांत्रिक व्यवस्था यहां आज भी कायम है।

अपना राजा, अपनी सरकार और अपनी संसद, अपने कानून

यहां पर भारतीय क़ानून नहीं चलते है यहाँ की अपनी संसद है जो सारे फैसले करती है। यहां पर लागू कानून भी अपने आप में अजीब हैं। यहां सरकार और पुलिस का अधिकार नहीं चलता। गांव के लोगों की अपनी ही सरकार। अपना ससंद है। अपना राजा है। अपना अलग कानून है। यहां सभी फैसले देव नीति से होते हैं। यहां गुनाहगार को सजा देने का भी अपना ही प्रावधान है। इस संसद में घरेलु झगडे, ज़मीन-जायदाद के विवाद, हत्या, चोरी और बलात्कार जैसे मामलों पर सुनवाई होती है।

भारतीय प्रदेश का अंग होने बावजूद भी मलाणा की अपनी न्याय और कार्यपालिका है। यहां की अपनी अलग संसद है, जिसके दो सदन हैं पहली राज्यसभा की तरह ज्येष्टांग (ऊपरी/उच्च/बड़ा सदन) और दूसरा लोकसभा की तरह कनिष्टांग (निचला/निम्न/छोटा सदन)। यहां की लोकतांत्रिक व्यवस्था की विशेषता यह है कि सदस्य ठीक से काम न करे, तो उसे र्निधारित अवधि से पहले भी हटाया जा सकता है। चुनाव देवता जमदग्रि ऋषि के आदेशानुसार कराए जाते हैं।

ज्येष्ठांग में कुल 11 सदस्य हैं। जिनमें तीन सदस्य कारदार, गुर व पुजारी स्थायी सदस्य होते हैं। बाकी आठ सदस्यों को गांववासी मतदान द्वारा चुनते हैं, इसी तरह कनिष्ठांग सदन में गांव के प्रत्येक घर से एक सदस्य को प्रतिनिधित्व दिया जाता है। यह सदस्य घर के बड़े-बुजुर्ग होते हैं। अगर ऊपरी सदन के किसी सदस्य की मृत्यु हो जाये तो पूरे ऊपरी (ज्येष्ठांग) सदन को पुनर्गठित किया जाता है।

गांव में किसी भी तरह के विवाद या अन्य किसी भी अहम मसले पर चर्चा के लिए परिषद की बैठक बुलाई जाती है। यह बैठक गांव के बीचों-बीच पत्थरों से बने चबूतरे पर होती है। गांव के लोग परिषद के फैसलों को मानते हैं।

संसद में फौजदारी से लेकर दीवानी जैसे मसलों का हल निकाला जाता है। यहां दोषियों को सजा भी सुनाई जाती है। यहां भले ही दिल्ली जैसी संसद भवन नहीं है परन्तु यहां कार्य वैसा ही होता है। संसद भवन के रूप में यहां एक ऐतिहासिक चौपाल है। ऊपरी सदन के 11 सदस्य ऊपर बैठते हैं, जबकि निचली सदन के लोग नीचे बैठते हैं। वैसे तो संसद ही यहां फैसले का निपटारा कर देती है। लेकिन अगर किसी वजह से संसद किसी विवाद का हल खोजने में विफल होती है, तो मामला स्थानीय देवता जमलू के सुपुर्द कर दिया जाता है।

बकरे से होता है फ़ैसला

दो  की  को चीरकर उसमें जहर  दिया जाता है। 

जमलू देवता के हवाले करने के बाद अजीबो ग़रीब तरीके से फैसला होता है। यदि किसी अपराध के पीछे दो आदमी शक के दायरे में हैं तो दोनों को नहलाकर देवदार के दो विशाल वृक्षों के नीचे चेहरा ढक कर खड़ा कर देते हैं। यहां वादी और प्रतिवादी दोनों ही पक्षों से एक-एक बकरा मंगाया जाता है। इसके बाद दोनों के सामने बंधी दोनों बकरों/भेड़ों की जांघों/टांग चीरकर उसमे तय मात्रा में जहर भरकर सिल दिया जाता है। जिस व्यक्ति के सामने वाली भेड़ पहले मर जाए, वही दोषी करार दिया जाता है। इसके बाद उस पक्ष को सजा भुगतनी पड़ती है। दोनों भेड़ों के मर जाने पर उनका मांस निकालकर पूरे गांव में बांट दिया जाता है। बकरा मरने के बाद इसको जमलू देवता का फैसला माना जाता है। एक बार जमलू देवता का फैसला आ जाने के बाद कोई उस पर सवाल नहीं खड़े कर सकता। अगर किसी ने इस देवता के फैसले को चुनौती देने की कोशिश भी की तो उसे समाज से बाहर निकाल दिया जाता है। देवता के फैसले के समय बकरों को चीरने और जहर भरने का काम चार लोग करते हैं। इन्हें कठियाला कहा जाता है। ऐसी सभ्यताएं भी भारतभूमि में पल रही हैं, ऐसे ही थोड़ी अपना देश अतुल्य है।

हालांकि, अब स्थितियां बदल रही हैं। पिछले कुछ सालों में नाखुश होकर गांव के लोग फैसलों के खिलाफ कुल्लू डिस्ट्रिक कोर्ट जा चुके हैं, जिसके बाद से काउंसिल ने विवादों पर फैसले सुनाना बंद कर दिया है।

हालांकि साल 2012 के बाद से यहां काफ़ी चीज़े बदली भी हैं, जैसे पहले यहां चुनाव भी नहीं होता था, लेकिन साल 2012 के बाद से यहां चुनाव होने लगा।

यहां का सिस्टम कुछ अलग है

देवता जमलू का आदेश है कि स्थानीय संस्कृति और परंपराओं को बचाए रखने के लिए सभी गेस्ट हाउस बंद किए जाएं। बाहर के लोगों को हैरानी हो सकती है कि देवता का आदेश कैसे आ सकता है। दरअसल स्थानीय संस्कृति ऐसी है कि यहां पर एक तरह की संसद बनी हुई है। अपर हाउस को ज्येष्ठांग कहा जाता है और निचले सदन को कनिष्ठांग। तो हुआ यह कि गांव वालों ने संसद का आयोजन किया था। फिर लोगों ने एक माध्यम के जरिए देवता का आह्वान किया जिसने देवता के आदेश को सुनाया। यानी माध्यम बने व्यक्ति को जो महसूस होगा, वही देवता का आदेश होगा वह लोग मानते हैं कि देव जमलू इसी तरह से उनके सवालों के जवाब देते हैं। ऐसा सदियों से यहां चला आ रहा है और देवता के आदेश को माना भी जाता है।

ग्राम प्रधान का कहना है कि हमने गांव की सांस्कृतिक विरासत की सुरक्षा के लिए नए और कठोर निमय-कानून बनाए हैं। इन नियमों में गांव के निवासी हैं। नियमों के तहत गांव के निवासी अपना घर सैलानियों को किराए पर नहीं सकते और न ही अपने घरों का इस्तेमाल गेस्ट हाउस के रूप में कर सकते हैं। कोई गांव का वासी भी इन नियमों उल्लंघन करता हुआ पाया जाता है तो उसे कठोर सजा देने का प्रावधान है।

बता दें कि कुछ महीने पहले गांव ने बाहरी लोगों द्वारा फोटोग्राफी पर रोक लगा दी थी क्योंकि गांववालों को लगता है कि वे लोग यहां की तस्वीरें खींचते हैं और फिर मलाणा को नशे के लिए प्रसिद्ध टूरिस्ट डेस्टिनेशन बताते हैं।

लकड़ी के बने होते हैं घर

कुल्लू के अन्य गांवों की तरह यहां भी घर लकड़ी के बनाये जाते हैं। गांव के बीच में जमलू का मन्दिर है। और भी कई दूसरे मन्दिर हैं। यहां गैर-मलाणियों को अछूत माना जाता है। उन्हें गांव में केवल निर्धारित पथ पर ही चलना होता है। यदि आपने किसी देवस्थान या घर को स्पर्श कर लिया तो आपकी खैर नहीं।

मलाना मंदिर में गूर, पुजारी और कारदार के अलावा किसी भी गांव-वासी को प्रवेश की अनुमति नहीं है। बाहरी व्यक्ति तो मंदिर की दीवारों और पत्थरों तक को छू नहीं सकता। मंदिर में प्रवेश के लिए गूर बनना जरूरी है। कहा जाता है कि पूरे हिमाचल प्रदेश में जिस किसी भी व्यक्ति को सपने में जमलू देवता का आदेश मिले तो वह मलाना आकर वहां की पंचायत को बताए। यदि वह पंचायत के गूढ़ प्रश्नों का जवाब देकर पंचायत को संतुष्ट कर दे, तभी वह गूर बन सकता है।

कुछ भी छुआ तो जुर्माना

मलाणा के निवासी अपने आप को हर हाल में श्रेष्ठ मानते हैं और बाहर से आने वाले किसी भी व्यक्ति को घर, पूजा-स्थलों, स्मारकों, कलाकृतियों या दीवारों को छूने की इजाजत नहीं देते। गांव का कानून इतना सख्त है कि बाहरी लोगों को गांव के बनाए गए एक खास रास्ते पर ही चलना पड़ता है। अपनी विचित्र परंपराओं लोकतांत्रिक व्यवस्था के कारण पहचाने जाने वाले इस गांव में हर साल हजारों की संख्या में पर्यटक पहुंचते हैं। इनके रुकने की व्यवस्था इस गांव में नहीं है। पर्यटक गांव के बाहर टेंट में रहते हैं।

अगर इस गांव में किसी ने मकान-दुकान या यहां के किसी निवासी को छू (टच) लिया तो यहां के लोग उस व्यक्ति से एक हजार से दो हज़ार तक रुपए वसूलते हैं।

ऐसा नहीं हैं कि यहां के निवासी यहां आने वाले लोगों से जबरिया वसूली करते हों। मलाणा के लोगों ने यहां हर जगह हिंदी और अंग्रेजी में लिखे नोटिस बोर्ड लगा रखे हैं। इन नोटिस बोर्ड पर साफ-साफ चेतावनी लिखी गई है। गांव के लोग बाहरी लोगों पर हर पल निगाह रखते हैं, जरा सी लापरवाही भी यहां आने वालों पर भारी पड़ जाती है।

मलाणा गांव में कुछ दुकानें भी हैं। इन पर गांव के लोग तो आसानी से सामान खरीद सकते हैं, पर बाहरी लोग दुकान में न जा सकते हैं न दुकान छू सकते हैं। बाहरी ग्राहकों के दुकान के बाहर से ही खड़े होकर सामान मांगना पड़ता है। दुकानदार पहले सामान की कीमत बताते हैं। रुपए दुकान के बाहर रखवाने के बाद सामन भी बाहर रख देते हैं।

यहाँ के कानून तोड़ने पर अगर कोई टूरिस्ट जुर्माना अदा नहीं करता है तो उसे कुछ दिनों के यहां के राजा का नौकर बनना पड़ सकता है। इस गांव में करीब 6 स्थल ऐसे हैं जिन्हें छूने की सख्त मनाही है। कुछ स्थलों को तो गांव के लोग तक नहीं छूते।

देवता हो जाते हैं नाराज

स्थानीय निवासियों ने बताया कि इन स्थलों को अगर कोई व्यक्ति बिना इजाजत हाथ लगाता है तो उससे देवता नाराज हो जायेंगे। गांव के लोगों का कहना है कि अगर देवता नाराज हुए तो पूरे गांव में तबाही आ जायेगी। ऐसे ही नियम तोड़ने पर पूरा गांव तबाह हो गया था। बताया जाता है कि साल 2006 और 2008 में लगी आग की वजह से पूरा गांव तबाह हो गया था। इस घटना के बाद पूरे गांव में अब देव नियम और सख्त कर दिए हैं।

कुख्यात “मलाणा क्रीम”

गांव के आसपास उगाई जाने वाली मारिजुआना (गांजा) को 'मलाणा क्रीम' कहा जाता है। मलाणा विश्व में सबसे अच्छा चरस की खेती के लिए प्रसिद्ध है। यहां के लोग मादक पदार्थ चरस को काला सोना कहते हैं। हैरानी की बात यह है कि यहां चरस के अलावा दूसरी फसल नहीं होती। मलाना वासी शराब नहीं पीते लेकिन मलाना के आस पास बीसियां मीलों दूर तक अफीम के और भांग के पौधे देखे जा सकते हैं। कुछ अधिक ऊचांई पर बेशकीमती जड़ी बूटियां भी मिलती हैं। गाँव के आस पास बहुत ही उँचे उँचे पहाड़ हैं कई कई किलोमीटर का बीराना और बेतहाशा बर्फ। बीच बीच मे जंगल भी हैं। यहाँ उगने बाली चरस इतनी तेज होती है कि साधारण चरस से यहाँ की चरस कई सौ गुना तीखी और तेज होती है। उसको विशेष तरीके से बनाया जाता है एक आंकलन के मुताबिक मलाना मे काले सोने का ये ब्यापार प्रतिवर्ष लगभग 500 लाख करोड़ का है। लेकिन ऐसा नही है की यहाँ के लोग अमीर हो गये हैं। लोग आज भी खानावदोस हैं और अधिकतर लोग तो मज़दूरी ही करने लगे हैं। यहाँ का सारा धंधा नेपानी मूल के लोग और विदेशी लोग ही चलाते हैं। दूर दराज के पहाड़ों मे बर्फ हटने के साथ ही विदेशों से आया विशेष किस्म का बीज फैला दिया जाता है। जहाँ तक पहुँचने के लिए 3 से 4 दिन पैदल चलना पड़ता है। विदेशों से आया विशेष किस्म का बीज और यहाँ की मिट्टी के कारण मात्र 15 से 20 दिनों मे चरस के पेड़ 30 फुट तक बढ़ जाते हैं जबकि आमतौर पर चरस का पौधा 7-8 फुट से बड़ा नही होता।

मलाणा क्रीम “भांग/चरस मार्किट” में सबसे महंगी और सबसे अच्छी चरस मानी जाती है। इसका कारण यहाँ की चरस में पाया जाने वाला उच्च-गुणवता का तेल है। इसे यहां मलाणा क्रीम कहते हैं। यहां पर आपको कदम-कदम पर टोका जायेगा कि क्रीम चाहिये क्या। यहां चरस उगाने, बेचने और इस्तेमाल करने पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है। हालांकि मलाणा से बाहर ले जाने पर प्रतिबन्ध है। लेकिन मलाणा क्रीम आसानी से अन्तर्राष्ट्रीय बाजारों में पहुंच जाती है।

देश और दुनिया भर के लोग इस मलाणा क्रीम को पाने के लिए खिंचे हुए यहां आते हैं और इसके सुरूर में ऐसा खोते हैं कि महीनों यहीं रुक जाते हैं। इन लोगों में सबसे ज्यादा संख्या इज़रायली और रशियन पर्यटकों की होती है। ये मलाणा क्रीम कितनी कीमती है, इसका अंदाज़ा सिर्फ इस बात से लगा लीजिए कि यहां आने वाले लोगों को ये मलाणा क्रीम 8 हजार रुपए प्रति तोला के रेट से मिलती है। अपनी विशेष किश्म के लिए पश्चिमी देशों मे बहुत जल्द अपनी पहचान बना गया “मलाना क्रीम”। आज न्यूयार्क जैसे शहर मे अधिकतर रेस्तराँओं मे चरस के मेनू मे मलाना क्रीम सबसे महंगी बिकती है।

आप सोच रहे होंगे कि आखिर हिंदुस्तान के इस गांव में ड्रग्स का खुला खेल क्यों चल रहा है? तो आपको बता दें कि जिसे मलाणा क्रीम कहते हैं। वो यहां के जंगलों में उगने वाले मारिजुआना यानी गांजा से बनाई जाती है और ये गांजा मलाणा गांव से कुछ दूर पार्वती वैली के जंगलों में अपने आप यानी नैचुरल तरीके से उगती है।

स्थानीय पुलिस और प्रशासन कई बार मलाणा के पार्वती वैली में समय समय पर जाकर एक ऑपरेशन के तहत गांजे की फसल बर्बाद कर आती है लेकिन ये फसल ऐसी ऊंचाई पर होती है। जहां जा पाना पुलिस के लिए भी आसान नहीं होती और इसलिए इस पर लगाम लगाना पुलिस के लिए मुश्किल होता है। इसलिए काफी मात्रा में यहाँ से भांग और अफ़ीम की तस्करी बाहरी देशों में की जाती है।

मलाणा क्रीम की बदनामी को छोड़ देें तो पहाड़ों की गोद में बसा यह गांव आज भी बरसों पुरानी अपनी समृद्ध संस्कृति को समेटे हुए है। मलाणा गाँव सदा से ही इतिहासकारों के लिए शोध का विषय रहा है और आगे भी रहेगा।

गांव वालों को विदेशियों ने सिखाया चरस का कारोबार

पारंपरिक रूप से मलाणा के बांशिंदे भांग के रेशों से टोकरियां, रस्सियां और चप्पलें (पूलें) बनाया करते थे। मगर 80 के दशक के आखिर में विदेशियों ने गांव के लोगों को भांग के पौधों से चरस निकालना सिखा दिया। तब से लेकर आज तक सरकारों ने ग्रामीणों को चरस के कारोबार से दूर ले जाने की लाख कोशिशें की मगर मलाणा के लोगों के लिए यही चोखी कमाई है। मक्की और आलू उगाने से लोगों को इतना पैसा नहीं मिलत पाता जिसने भांग के उत्पादों से मिलता है।

आधुनिकता की ओर बढ़ रहा है गांव

हालांकि मलाणा गांव भी अब आधूनिकता के रंग में रंगने लगा है। गांव के नीचे की ओर बने होटलों और गैस्ट हाउस में विदेशी सहित अन्य राज्यों से पर्यटक भी यहां आते है। ग्रामीण भी अब अपने बच्चों को उच्च शिक्षा के लिए शहरों में बने बड़े स्कूलों में भेज रहे हैं। हालांकि कुछ समय पहले बाहरी राज्यों से आने वाले पर्यटकों के लिए गांव के भीतर फोटोग्राफी और वीडियोग्राफी करने पर रोक लगा दी गई है। अगर कोई उल्लंघन करता पाया जाता है तो उस पर दो हजार रुपये जुर्माना वसूला जाता है। अब गांव में होने वाली मारपीट सहित अन्य कुछ मामले भी पुलिस और प्रशासन के पास पहुंच रहे हैं।

कैसे पहुंचे

बड़े-बड़े पहाड़, दुर्गम रास्ता और संकरी सड़कों के बीच से गुजरते हुए हम मलाणा गांव की सीमा तक पहुंचे तो कार छोड़ देनी पड़ती है, क्योंकि मलाणा गांव तक जाने के लिए पक्का रास्ता नहीं है। करीब 2 से 3 किलोमीटर पैदल चलकर मलाणा गांव पहुंच जाते हैं। वहां की रंगत बिल्कुल अलग है। कई विदेशी यहां घूमते हुए मिल जाते हैं, इस गांव में सब अपनी धुन में हो जाते हैं लेकिन गांव के लोग हर किसी को घूरते रहते हैं लगातार और हमेशा।

कुल्लू से मलाणा की दूरी 45 किलोमीटर है। यह गाँव मणीकर्ण से तकरीबन 20 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। कुल्लू से मणीकर्ण रूट पर कसोल से 8 किमी पहले जरी नाम की जगह आती है। यहां से मलाणा हाइड्रो इलेक्ट्रिक प्लांट की ओर जाने वाले रास्ते पर जाएं। जरी से मलाणा तक की दूरी 16 किमी है। हिमाचल रोडवेज की सिर्फ एक ही बस मलाणा जाती है, जो कुल्लू से शाम 3 बजे चलती है। अगले दिन सुबह यही बस कुल्लू जाती है। दिल्ली, अमृतसर, चंडीगढ़, शिमला, जालंधर, लुधियाना और पठानकोट से कुल्लू के लिए रेगुलर बसें हैं।

घूमने के लिए बेस्ट टाइम

नवम्बर से अप्रैल 

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