रविवार, 14 जुलाई 2019

बन्दा सिंह बहादुर

बन्दा सिंह बहादुर

बन्दा सिंह बहादुर बैरागी एक सिख सेनानायक थे। उन्हें बन्दा बहादुर, लक्ष्मण दास और माधो दास भी कहते हैं। वे पहले ऐसे सिख सेनापति हुए, जिन्होंने मुग़लों के अजेय होने के भ्रम को तोड़ा; छोटे साहबज़ादों की शहादत का बदला लिया और गुरु गोबिन्द सिंह द्वारा संकल्पित प्रभुसत्तासम्पन्न लोक राज्य की राजधानी लोहगढ़ में ख़ालसा राज की नींव रखी। यही नहीं, उन्होंने गुरु नानक देव और गुरू गोबिन्द सिंह के नाम से सिक्का और मोहरे जारी करके, निम्न वर्ग के लोगों की उच्च पद दिलाया और हल वाहक किसान-मज़दूरों को ज़मीन का मालिक बनाया।

आरम्भिक जीवन

बाबा बन्दा सिंह बहादुर का जन्म कश्मीर स्थित पुंछ जिले के तहसील राजौरी क्षेत्र के ग्राम तच्छल किला में विक्रम संवत् 1727, कार्तिक शुक्ल 13 (27 अक्तूबर, 1670 ई.) को श्री रामदेव के घर में हुआ था। बंदा बहादुर सिंह मोहियाल जाति से थे और उनका वास्तविक नाम लक्ष्मण देव था। लक्ष्मण देव के भाग्य में विद्या नहीं थी, लेकिन छोटी सी उम्र में पहाड़ी जवानों की भांति कुश्ती और शिकार आदि का बहुत शौक़ था।

वह अभी 15 वर्ष की उम्र के ही थे कि शिकार खेलते समय उन्होंने एक गर्भवती हिरणी पर तीर चला दिया। इससे उसके पेट से एक शिशु निकला और तड़पकर वहीं मर गया। इस घटना का उनके मन में गहरा प्रभाव पड़ा। वह अपना घर-बार छोड़कर एक बेरागी बन गये।

वह जानकी दास नाम के एक बैरागी के शिष्य हो गए और उनका नाम माधोदास बैरागी पड़ा। तदन्तर उन्होंने एक अन्य बाबा रामदास बैरागी का शिष्यत्व ग्रहण किया और कुछ समय तक पंचवटी (नासिक) में रहे। वहाँ एक औघड़नाथ से योग की शिक्षा प्राप्त कर वह पूर्व की ओर दक्षिण के नान्देड क्षेत्र को चला गए जहाँ गोदावरी के तट पर उन्होंने एक आश्रम की स्थापना की।

गुरु गोबिन्द सिंह से प्रेरणा

उधर दूसरी तरफ इस समयकाल में मुगलों के जुल्म बढ़ते जा रहे थे। किन्तु माधोदास को इसकी कोई खबर नहीं थी। वह तो ज्यादातर समय अपनी योगसाधना में लगे रहते थे। इसी बीच अपने दो पुत्रों की शहादत और सिख कौम की सुरक्षा की चिंता से विचलित गुरु गोविंद सिंह जी का नांदेड़ आना हुआ. स्थानीय लोगों द्वारा ने गुरु जी को माधो दास के बारे में बताया। चूंकि, स्थानीय लोग माधोदास से बहुत प्रभावित थे इसलिए गुरु जी ने उससे मिलने की इच्छा जताई।

माधोदस को देखते ही गुरु जी समझ गए कि यह एक योद्धा है तथा इसका जन्म वैराग के लिए नहीं अपितु मजलूमों की रक्षा के लिए हुआ है। गुरु जी ने माधो दास को समझाते हुए कहा कि “राजपूत अगर वैराग धारण कर लेंगे फिर असहाय लोगों की रक्षा कौन करेगा ?”

गुरु जी के ज्ञान और उनके मासूम पुत्रों द्वारा जनहित में अपने प्राणों का बलिदान देने की कथा सुन कर माधोदास विचलित हो उठे तथा उन्होंने गुरु जी की बात मान कर शस्त्र उठाने का मन बना लिया।

3 सितंबर 1708 ई को गुरु गोविन्द सिंह जी ने माधोदास को अमृतपान कराने के बाद तथा उन्हें सिक्ख बनाकर एक नया नाम दिया, जो था बंदा सिंह बहादुर।

फिर पांच तीर, एक निशान साहिब, एक नगाड़ा और एक हुक्मनामा देकर पंजाब और बाक़ी अन्य राज्यो के हिन्दुओं के प्रति दारुण यातना झेल रहे तथा गुरु गोबिन्द सिंह के सात और नौ वर्ष के उन महान बच्चों की सरहिंद के नवाब वज़ीर ख़ान के द्वारा दीवार में चिनवाने और निर्मम हत्या का प्रतिशोध लेने के लिए रवाना किया। इसके अतिरिक्त गुरु के 21 अनुयायियों की कमान भी उसे सौंप दी।

सिख साम्राज्य के विस्तार में भूमिका

गुरु गोबिन्द सिंह के आदेश से ही वे पंजाब आये और सिक्खों के सहयोग से मुग़ल अधिकारियों को पराजित करने में सफल हुए। बन्दा हजारों सिख सैनिकों को साथ लेकर पंजाब की ओर चल दिये। बंदा तूफान की तरह दक्षिण से उत्तर प्रदेश पहुंचा। बन्दा का पहला निशाना सोनीपत बना। इसके बाद बन्दा ने कैथल, समाना को भी जीत लिया। समाना के युद्ध में बंदा सिंह के नेतृत्व में सिख सेना ने मुग़लों के लगभग दस हज़ार सैनिकों को मार कर यह युद्ध जीत लिया।

उन्होंने सबसे पहले श्री गुरु तेगबहादुर जी का शीश काटने वाले जल्लाद जलालुद्दीन का सिर काटा। फिर 12 मई 1710 को चपरसिरी के युद्ध में सिखों ने सरहिन्द के नवाब वजीर खां और उसके दीवान सुच्चानंद का वध करके उन्होंने सरहिंद को जीत लिया और सतलुज नदी के दक्षिण में सिक्ख राज्य की स्थापना की। जिन हिन्दू राजाओं ने मुगलों का साथ दिया था, बन्दा बहादुर ने उन्हें भी नहीं छोड़ा। इससे चारों ओर उनके नाम की धूम मच गयी। उन्होंने ख़ालसा के नाम से शासन भी किया और गुरुओं के नाम के सिक्के चलवाये।

बन्दा सिंह ने अपने राज्य के एक बड़े भाग पर फिर से अधिकार कर लिया और इसे उत्तर-पूर्व तथा पहाड़ी क्षेत्रों की ओर लाहौर और अमृतसर की सीमा तक विस्तृत किया।

बंदा सिंह ने मुखलिसगढ़ नामक एक गाँव बसाया और इसे अपनी राजधानी बना दिया। यहीं पर उन्होंने लोहगढ़ नामक किला भी बनवाया, जिसके कारण मुखलिसगढ़ को लौहगढ़ के नाम से जाना जाने लगा।

बंदा सिंह ने मुग़लों की मुद्रा के स्थान पर सिख धर्म के सिक्के जारी करवा दिए। बंदा सिंह द्वारा सिख धर्म के नाम से पहली बार सिक्के चलाए गए थे। देखते ही देखते कुछ ही समय में बंदा सिंह ने पंजाब में अपना राज्य स्थापित कर लिया। अगली कड़ी में उन्होंने अपने साथियों को उत्तर प्रदेश के लिए रवाना कर दिया।

यहाँ सिखों ने सहारनपुर, जलालाबाद, मुजफ्फरनगर और अन्य आस-पास के इलाकों पर कब्जा करने के साथ मुग़लों द्वारा पीड़ित जनता को राहत पहुंचाई। इधर जालंधर और अमृतसर में सिखों ने असहाय लोगों के अधिकारों के लिए युद्ध शुरू कर दिए।

राज्य-स्थापना हेतु आत्मबलिदान

निरंतर हार से बौखलाए मुगल सम्राट फरुखसियर ने एक कुटिल चाल चली। उन दिनों दिल्ली में गुरु गोबिन्द सिंह की दो पत्नियां बीबी साहिब कौर और माता सुंदरी मुगलों के संरक्षण में रह रही थीं। बन्दा के सैनिकों में विभाजन करने के लिए मुगल सम्राट ने इनमें से माता सुंदरी का सहारा लिया। माता सुंदरी ने बन्दा को यह निर्देश दिया कि वह मुगलों के सामने आत्मसमर्पण कर दें। बन्दा ने इसे मानने से इंकार कर दिया। उसका कहना था कि गुरु महाराज के सामने मुगलों का नामोनिशान मिटाने का जो संकल्प लिया है उसे वह भंग नहीं कर सकता।

इससे चिढ़कर माता सुंदरी ने सिखों का यह निर्देश दिया कि वह बन्दा का साथ छोड़ दें। गुरु माता के आदेश पर बन्दा के सैनिकों में भारी विभाजन हुआ। तत खालसा नामक एक बड़ा गुट बन्दा का साथ छोड़कर मुगल सेना में शामिल हो गया जबकि हिन्दू सैनिक जो बंदई खालसा कहलाते थे, उन्होंने अंत तक बन्दा का साथ दिया। अपने पुराने साथियों की हत्या करना बन्दा के लिए कठिन कार्य था।

1715 ई. के प्रारम्भ में तत खालसा और मुगलों की संयुक्त शक्ति (बादशाह फ़र्रुख़सियर की शाही फ़ौज ने अब्दुल समद ख़ाँ के नेतृत्व में) के कारण बन्दा को लौहगढ़ के किले में शरण लेनी पड़ी। चार महीने के घेरे के बाद वह विवश होकर अपने दुश्मनों के सामने 7 दिसम्बर को आत्मसमर्पण करना पड़ा। मुगलों ने गुरदास नंगल के किले में रहने वाले 40 हजार से अधिक बेगुनाह मर्द, औरतों और बच्चों की निर्मम हत्या कर दी।

फ़रवरी 1716 को मुगल सम्राट के आदेश पर पंजाब के गर्वनर अब्दुल समन्द खां ने अपने पुत्र जाकरिया खां और 21 हजार सशस्त्र सैनिकों की निगरानी में बाबा बन्दा बहादुर को दिल्ली भेजा। बन्दा को एक पिंजरे में बंद किया गया था और उनके गले और हाथ-पांव की जंजीरों को इस पिंजरे के चारो ओर नंगी तलवारें लिए मुगल सेनापतियों ने थाम रखा था। इस जुलुस में 101 बैलगाड़ियों पर सात हजार सिखों के कटे हुए सिर रखे हुए थे जबकि 11 सौ सिख बन्दा के सैनिक कैदियों के रुप में इस जुलूस में शामिल थे।

मुगल इतिहासकार मिर्जा मोहम्मद हर्सी ने अपनी पुस्तक इबरतनामा में लिखा है कि हर शुक्रवार को नमाज के बाद 101 कैदियों को जत्थों के रुप में दिल्ली की कोतवाली के बाहर कत्लगाह के मैदान में लाया जाता था। काजी उन्हें इस्लाम कबूल करने या हत्या का फतवा सुनाते। इसके बाद उन्हें जल्लाद तलवारों से निर्ममतापूर्वक कत्ल कर देते। यह सिलसिला डेढ़ महीने तक चलता रहा। अपने सहयोगियों की हत्याओं को देखने के लिए बन्दा को एक पिंजरे में बंद करके कत्लगाह तक लाया जाता ताकि वह अपनी आंखों से इस दर्दनाक दृश्य को देख सकें।

बादशाह के आदेश पर तीन महीने तक बंदा और उसके 27 सेनापतियों को लालकिला में कैद रखा गया। इस्लाम कबूल करवाने के लिए कई हथकंडे का इस्तेमाल किया गया। जब सभी प्रयास विफल रहे तो जून माह में बन्दा की आंखों के सामने उसके एक-एक सेनापति की हत्या की जाने लगी। जब यह प्रयास भी विफल रहा तो 19 जून 1716 को बन्दा बहादुर को पिंजरे में बंद करके महरौली ले जाया गया। काजी ने इस्लाम कबूल करने का फतवा जारी किया जिसे बन्दा ने ठुकरा दिया।

एक दरबारी मुहम्मद अमीन ने पूछा - तुमने ऐसे बुरे काम क्यों किये, जिससे तुम्हारी यह दुर्दशा हो रही है? बन्दा ने सीना फुलाकर सगर्व उत्तर दिया - मैं तो प्रजा के पीड़ितों को दण्ड देने के लिए परमपिता परमेश्वर के हाथ का शस्त्र था। क्या तुमने सुना नहीं कि जब संसार में दुष्टों की संख्या बढ़ जाती है, तो वह मेरे जैसे किसी सेवक को धरती पर भेजता है। बन्दा से पूछा गया कि वे कैसी मौत मरना चाहते हैं? बन्दा ने उत्तर दिया, मैं अब मौत से नहीं डरता, क्योंकि यह शरीर ही दुःख का मूल है। यह सुनकर सब ओर सन्नाटा छा गया।

बन्दा के मनोबल को तोड़ने के लिए उसके चार वर्षीय अबोध पुत्र अजय सिंह को उसके पास लाया गया और काजी ने बन्दा को निर्देश दिया कि वह अपने पुत्र को अपने हाथों से हत्या करे। जब बन्दा इसके लिए तैयार नहीं हुआ तो जल्लादों ने इस अबोध बालक का एक-एक अंग निर्ममतापूर्वक बन्दा की आंखों के सामने काट डाला। इस मासूम के धड़कते हुए दिल को सीना चीरकर बाहर निकाला गया और बन्दा के मुंह में जबरन ठूंस दिया गया। वीर बन्दा तब भी निर्विकार और शांत बने रहे। अगले दिन जल्लाद ने उनकी दोनों आंखों को तलवार से बाहर निकाल दिया। जब बन्दा टस से मस न हुआ तो उनका एक-एक अंग हर रोज काटा जाने लगा। अंत में 24 जून को उनका सिर काट कर उनकी हत्या कर दी गई। बन्दा न तो गिड़गिड़ाया और न उसने चीख पुकार मचाई। मुगलों की हर प्रताड़ना और जुल्म का उसने शांति से सामना किया और धर्म की रक्षा के लिए बलिदान हो गया।

सुशासन

मरने से पूर्व बन्दा सिंह बहादुर जी ने अति प्राचीन ज़मींदारी प्रथा का अन्त कर दिया था तथा कृषकों को बड़े-बड़े जागीरदारों और ज़मींदारों की दासता से मुक्त कर दिया था।

बंदा सिंह ने शासन सँभालते ही ज़मीदारी प्रथा को हटा कर किसानों को उनके हिस्से की ज़मीन लौटा दी। उनका मानना था कि इससे किसान सम्मान सहित अपना जीवन निर्वाह कर पायेंगे। यही नहीं बंदा सिंह के शासन से पूर्व सभी वर्गों के अधिकारी जबरन वसूली तथा घुसखोरी के आदी हो चुके थे। साथ ही व्यवस्था के नियम और तरीक़े भी पूरी तरह से टूट चुके थे। सिखों ने अपनी ताक़त का सही प्रयोग करते हुए सभी भ्रष्ट अधिकारीयों को हटा कर उनके स्थान पर ईमानदारों को पदभार सौंप दिया। इस शासन व्यवस्था से आम जनता को बहुत राहत मिली।

एक किंवदंति के अनुसार एक बार सदौरा से कुछ पीड़ित लोग अपने जमीदारों के खिलाफ़ शिकायत ले कर बंदा सिंह के पास आए। पीड़ितों से उनकी फरियाद सुनने के बाद बंदा सिंह ने अपने सैनिक बाज़ सिंह को उन पर गोली चलाने का आदेश दे दिया। पीड़ित लोग अपनी फरियाद के बदले बंदा सिंह के ऐसे उत्तर से स्तब्ध रह गए, क्योंकि उन्होंने सुना था कि बंदा सिंह मजलूमों की रक्षा करते हैं। उन्होंने बंदा सिंह से ऐसी प्रतिक्रिया का कारण पूछा तब बंदा सिंह ने उत्तर दिया कि “आप सब हजारों की संख्या में होकर भी उन मुट्ठी भर ज़मीदारों के ज़ुल्मों से बचने का उपाए नहीं ढूँढ पाए।” उसके बाद बंदा सिंह ने सदौरा के युद्ध में सैय्यदों और शेखों को पराजित किया तथा पीड़ितों को उनका अधिकार दिलवाया।

वह साम्प्रदायिकता की संकीर्ण भावनाओं से परे थे। मुसलमानों को राज्य में पूर्ण धार्मिक स्वातन्त्र्य दिया गया था। पाँच हज़ार मुसलमान भी उनकी सेना में थे। बन्दा सिंह ने पूरे राज्य में यह घोषणा कर दी थी कि वह किसी प्रकार भी मुसलमानों को क्षति नहीं पहुँचायेगे और वे सिक्ख सेना में अपनी नमाज़ पढ़ने और खुतवा करवाने में स्वतन्त्र होंगे।

युद्ध स्मारक

सिख सैनिकों की वीरता और नायकत्व को याद रखने के उद्देश्य से एक युद्ध स्मारक बनाया गया है। यह उसी स्थान पर बना है जहाँ छप्पर चीरी का युद्ध हुआ था। इस परियोजना का आरम्भ 30 नवम्बर 2011 को पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल ने किया था।

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