रविवार, 24 नवंबर 2019

दत्तात्रेय मंदिर, गुजरात


हैरान कर देगा ये सियारों का झुंड, हर शाम इस मंदिर पर आता है खिचड़ी खाने

भारत के गुजरात में स्थित एक जगह है रण ऑफ कच्‍छ। काला डूंगर या फिर ब्लैक हिल कहे जाने वाले गुजरात के कच्छ जिले का एक पर्यटन स्थल है।

गुजरात में जहां आज रण ऑफ कच्छ स्थित है वहां हजारों साल पहले एक विशाल समुंदर लहराया करता था। लेकिन एक भूकंप में कच्छ की जमीन ऊपर आ गई और समुद्र पीछे हट गया।

अक्सर लोग गुजरात में कच्छ का रेगिस्तान ही घूमने जाते हैं, लेकिन यदि आप इस बार कच्छ घूमने जा रहे हैं तो यहां से 25 किमी दूर काला डुंगर पहाड़ पर स्थित दत्तात्रेय मंदिर पर जरुर जाएं। यहां आपको एक ऐसा नज़ारा दिखाई देगा जिसे देखकर आप हैरान रह जाएंगे।

जानिए आखिर क्या है ऐसा यहां...
- काला डुंगर के पहाड़ पर विख्यात दत्तात्रेय मंदिर पर हर दिन 70-80 की संख्या में सियार भी रहते हैं, जो रोजाना शाम को मंदिर में मिलने वाला खिचड़ी का प्रसाद खाते हैं।
- यह सिलसिला कुछ समय से नहीं, बल्कि 500 सालों से निरंतर चला आ रहा है।
- मंदिर में आए भक्‍तों द्वारा लाल चावल और दूध की खीर को एक निर्धारित स्थान पर रख दिया जाता है और इसके बाद जैसे ही 'ले अंग' की आवाज लगाई जाती है वैसे ही मिनटों बड़ी संख्‍या में सियार लाल चावल खाने वहां एकत्रित हो जाते हैं।
- आपको जानकर आश्चर्य होगा कि सियार की टोली का यह नियम रोजाना का है। वे रोजाना शाम मंदिर के पास ही बने और ‘लोंग प्रसाद ओटलो’ नाम से पहचाने जाने वाले चबूतरे पर पहुंच जाते हैं।
- वे मंदिर के पुजारियों से लेकर सारे कर्मचारियों को भी भली-भांति पहचानते हैं। खाने के लिए सियार कभी आपस में झगड़ते नहीं और पूरे इम्तिनान से चबूतरे पर खिचड़ी परोसे जाने का इंतजार करते रहते हैं और खिचड़ी खाने के बाद वापस जंगल की ओर कूच कर जाते हैं।

खाना खाते ही जंगल में ओझल हो जाते हैं
मंदिर प्रशासन के नियमानुसार जब सियारों को खाना दिया जाता है, तब इनके पास लोगों को नहीं जाने दिया जाता। हां, उन्हें मंदिर के पास से देखा जा सकता है। सियार लगभग 10-15 मिनट में खाना खत्म कर वापस जंगल में ओझल हो जाते हैं। इतना ही नहीं, खिचड़ी खाने के लिए यहां कई पक्षी व कुत्ते भी पहुंचते हैं, लेकिन वे सभी सियारों के जाने का इंतजार करते हैं। यानी की उन्हें यह अच्छी तरह से पता है कि मंदिर के इस प्रसाद पर पहला हक सियारों का है।

सियारों से जुड़ी दंतकथा :
मान्यता है कि अबसे लगभग 500 साल पहले महापुरूष प्रभु दत्तात्रेय ने काला डुंगर की पहाड़ियों पर अपना आश्रम बनाया था। एक दिन जब वे ध्यानमग्न थे, तभी सियारों का एक झुंड उनके पास आया। प्रभु दत्तात्रेय जानते थे कि सियार भूखे हैं और जल्द ही उन्हें कुछ खाने को नहीं मिला तो वे भूखे मर जाएंगे। सियारों की ऐसी हालत देखकर प्रभु भावुक हो गए और अपने शरीर को ही सियारों के सामने परोस दिया। प्रभु दत्तात्रेय ने तलवार से अपने अंग काट-काटकर सियारों के सामने डालने लगे। इस दौरान वे कहते जाते.. ‘लो अंग’ यानी की मेरे अंग खाओ। इसी के चलते मंदिर के पास बने इस चबूतरे का नाम ‘लोंग प्रसाद ओटलो’ पड़ा। प्रभु दत्तात्रेय जैसे-जैसे अपने अंग काटते जाते, उसकी जगह नया अंग आ जाता। इस तरह सभी सियारों का पेट भर गया वे जंगल में लौट गए। लेकिन, सियारों का यह नित्यक्रम बन गया। वे रोजाना शाम को आश्रम आ पहुंचते और प्रभु दत्तात्रेय की ओर देखने लगते। तब दत्तात्रेय ने सोचा कि जिस दिन वे नहीं रहेंगे, तब इन्हें भोजन कौन करवाएगा। इसी के चलते उन्होंने आश्रम में दाल-चावल की खिचड़ी पकवाई और सियारों को खाने को दी। इसी के बाद से सियार रोजाना खिचड़ी खाने आश्रम आ जाते और आश्रम के लोग उन्हें खिचड़ी परोसते। तभी से यह क्रम आज तक जारी है। मंदिर में रोजाना शाम को दाल-चावल की खिचड़ी पकाई जाती है, जिससे अब सियारों सहित जंगली कुत्तों और पक्षियों का पेट भरता है।

सियारों की वजह से हुआ मंदिर विश्व विख्यात :
दत्तात्रेय मंदिर काला डुंगर के पहाड़ पर स्थित है। यह कच्छ जिले में आता है। कच्छ में टूरिस्ट की हमेशा भीड़ जमा रहती है और कच्छ आने वाला हरेक टूरिस्ट एक बार अपनी आंखों से सियारों को खिचड़ी खाते हुए देखने की इच्छा रखता है। इसी वजह से अब यह मंदिर विश्व विख्यात हो चुका है। प्रतिवर्ष दिसंबर से दो महीने तक होने वाले ‘कच्छ रणोत्सव’ में आने वाले हजारों विदेशी टूरिस्ट यहां जरूर आते हैं। इतना ही नहीं, कई टूरिस्ट तो यहां कई दिनों तक रुककर आसपास के खूबसूरत स्थलों की जमकर फोटोग्राफी भी करते हैं।

पहाड़ी से कच्छ के सफेद रण का खूबसूरत नजारा भी देख सकते हैं :
कच्छ में ‘काला डुंगर’ यानी की काली पहाड़ियां खावड़ा के उत्तर में 25 किमी दूर स्थित हैं। यह कच्छा का सबसे ऊंचा स्थान भी है। यहां से आप कच्छ के सफेद रण के मनमोहक नजारों का भी आनंद ले सकते हैं। यहां से कुछ ही दूरी पर आर्मी पोस्ट भी है, जिसके आगे केवल सैन्य कर्मियों को ही जाने की अनुमति है।

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