बूढा नीलकंठ : जहां शिव नहीं विष्णु का है वास
मंदिर भगवान विष्णु का पर नाम है बूढा नीलकंठ (BUDHANILKANTHA MANDIR, NEPAL)
काठमांडू के मध्य से 10 किलोमीटर की दूरी पर शिवपुरी हिल के समीप बूढा नीलकंठ मंदिर स्थित है। नेपाल के शिवपुरी में स्थित विष्णु जी का मंदिर बहुत ही सुंदर व सबसे बड़ा मंदिर है। मंदिर अपनी नक्काशियों के लिए बहुत प्रसिद्ध है।
मंदिर के प्रवेश द्वार की चंद्रशिला के ऊपर पद्मांकन है। उसके पश्चात पैड़ियों के बीच में चतुर्भुजी विष्णु की प्रतिमा स्थानक मुद्रा (सोती हुई) में स्थापित है। जो लोगों को अपनी ओर आकर्षित करती है। मुख्य द्वार के दरवाजों पर पीतल का पत्रा चढ़ा हुआ है और एक दरवाजे पर भगवान् कार्तिकेय और दुसरे दरवाजे पर भगवान गणेश विराजमान है।
इस मंदिर में केवल हिंदुओं को ही प्रवेश की अनुमति है। अन्य धर्म के लोग यहां प्रवेश नहीं कर सकते।
मंदिर में विराजमान है विष्णु की शयन प्रतिमा
प्रवेश द्वार के सामने ही विशाल जलकुंड बना हुआ है जिसमें शेष शैय्या पर भगवान् विष्णु की चतुर्भुजी प्रतिमा विराजमान है। प्रतिमा का निर्माण काले बेसाल्ट पत्थर की एक ही शिला से हुआ है। प्रतिमा का शिल्प मनमोहक एवं नयनाभिराम है।
मंदिर में विराजमान शेष शैया पर शयन कर रहे विष्णु की प्रतिमा की लम्बाई लगभग 5 मीटर है और जलकुंड (तालाब) की लंबाई लगभग 13 मीटर है, जो कि ब्रह्मांडीय समुद्र का प्रतिनिधत्व करता है। भगवान विष्णु की इस प्रतिमा को बहुत ही अच्छे से बनाया व दर्शाया गया है। शेष नाग के 11 फ़नों के विष्णु के शीष पर छत्र बना हुआ है। विष्णु के विग्रह का अलंकरण चांदी के किरीट एवं बाजुबंद से किया गया है। प्रतिमा के पैर विश्रामानंद की मुद्रा में जुड़े हुए हैं। शेष नाग भी हृष्टपुष्ट दिखाई देते हैं। तालाब में स्थित विष्णु जी की मूर्ति शेषनाग की कुंडली में विराजित है, मूर्ति में विष्णु जी के पैर पार हो गए हैं और बाकी के ग्यारह सिर उनके सिर से टकराते हुए दिखाए गए हैं। विष्णु जी की इस प्रतिमा में चार हाथ उनके दिव्य गुणों को बता रहे हैं। पहला चक्र मन का प्रतिनिधित्व करना, एक शंख चार तत्त्व, एक कमल का फूल चलती ब्रह्मांड और गदा प्रधान ज्ञान को दिखा रही है।
बूढा नीलकंठ महादेव कहीं नहीं है
मंदिर का नाम बूढ़ा नीलंकठ है तथा शेष शैया पर भगवान विष्णु विराजे हैं, द्वार पर जय विजय की तरह शिव परिवार के उत्तराधिकरी कार्तिकेय एवं गणेश पहरा दे रहे हैं और भगवान विष्णु क्षीर सागर में मजे से आनंद ले रहे हैं। बूढ़ा नीलकंठ महादेव तो कहीं नहीं है। जब बूढा नीलकंठ ही इस स्थान पर नहीं है तो यह नाम इस स्थान के लिए रुढ कैसे हो गया?
पौराणिक कथा
एक पौराणिक कथा के अनुसार समुद्र मंथन के समय समुद्र से विष निकला था, तो सृष्टि को विनाश से बचाने के लिए शिव जी ने इस विष को अपने कंठ यानी गले में धारण किया था। जिस कारण उनका गला नीला हो गया था। इस कारण ही भगवान शिव को नीलकंठ कहा जाने लगा। जब जहर के कारण उनका गला जलने लगा, तब उन्होने विष के प्रभाव शांत करने के लिए जल की आवश्यकता की पूर्ति के लिए वे काठमांडू के उत्तर की सीमा की ओर गए और झील बनाने के लिए त्रिशूल से एक पहाड़ पर वार किया, जिससे एक झील बनी। कहते हैं इसी झील के पानी से उन्होंने अपनी प्यास बुझाई। कलियुग में नेपाल की झील को गोसाईकुंड के नाम से जाना जाता है।
सर्वाधिक प्रसिद्ध तीर्थ स्थलों में से एक है गोसाईंकुंड झील जो 436 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। काठमांडू से 132 उत्तर पूर्व की ओर स्थित गोसाईंकुंड पवित्र स्थल माना जाता है। मान्यता है कि बूढा नीलकंठ में उसी गोसाईन कुंड का जल आता है, जिसका निर्माण भगवान शिव ने किया था। इसलिए इसका नाम बूढ़ा नीलकंठ पड़ा।
मंदिर में अप्रत्यक्ष रूप से विराजमान हैं शिव
इस मंदिर में भगवान विष्णुजी प्रत्यक्ष मूर्ति के रूप में विराजमान हैं, वहीं भगवान शिव पानी में अप्रत्यक्ष रूप से विराजित हैं। माना जाता है कि बुढ़ा नीलकंठ मंदिर का पानी गोसाईकुंड में उत्पन्न हुआ था। श्रद्धालुओं का मानना है कि सावन के महीने में (अगस्त में होने वाले वार्षिक शिव उत्सव के दौरान) विष्णु प्रतिमा के साथ भगवान शिव के विग्रह का प्रतिबिंब जल में दिखाई देता है। इसके दर्शन एक मात्र श्रावण माह में होते हैं।
क्या हैं किवदंतियां
बूढ़ा नीलकंठ प्रतिमा की स्थापना के विषय में स्थानीय स्तर पर दो किंवदंतिया प्रचलित हैं,
पहली प्रचलित किंवदंती है कि लिच्छवियों के अधीनस्थ विष्णु गुप्त ने इस प्रतिमा का निर्माण अन्यत्र करवा कर 7वीं शताब्दी में इस स्थान पर स्थापित किया।
अन्य किवदन्ती के अनुसार एक किसान खेत की जुताई कर रहा था तभी उसके हल का फ़ाल एक पत्थर से टकराया तो वहाँ से रक्त निकलने लगा। जब उस भूमि को खोदा गया तो इस प्रतिमा का अनावरण हुआ। जिससे बूढ़ा नीलकंठ की प्रतिमा प्राप्त हुई तथा उसे यथास्थान पर स्थापित कर दिया गया। तभी से नेपाल के निवासी बूढ़ा नीलकंठ का अर्चन पूजन कर रहे हैं।
एक मंदिर जहां वहीं के राजा का प्रवेश वर्जित है
एक मान्यता यह भी है कि नेपाल के राजा वैष्णव धर्म का पालन करते थे, 12वीं 13वीं शताब्दी में मल्ल साम्राज्य के दौरान शिव की उपासना का चलन प्रारंभ हुआ। लेकिन 14वी शताब्दी के आसपास मल्ल राजा जय ने विष्णु की आराधना प्रारंभ की एवं स्वयं को विष्णु का अवतार घोषित कर दिया। 16वीं-17वीं शताब्दी में नेपाल के तत्कालीन नरेश राजा प्रताप मल्ल रोज भगवान के दर्शन करने हनुमान ढोका स्थित अपने महल से यहां आया करते थे। पर मतिभ्रम के चलते उन्होंने खुद को ही विष्णु का अवतार घोषित कर दिया। धीरे-धीरे उन्हें रोज इतनी दूर आना-जाना अखरने लगा तो उन्होंने नीलकंठ भगवान की एक मूर्ति राजमहल में ही स्थापित करवा ली। इससे भगवान नाराज हो गये और उन्होंने स्वप्न में आ राजा को श्राप दिया कि अब से तुम या तुम्हारा कोई भी उत्तराधिकारी यदि बूढा नीलकंठ हमारे दर्शन करने आएगा तो वह मृत्यु को प्राप्त होगा। और इसके पश्चात किसी राजा ने बूढ़ा नीलकंठ के दर्शन नहीं किए। तब से आज तक राजपरिवार का कोई भी सदस्य वहां जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाया है।
काठमांडू में इसके अतिरिक भगवान विष्णु के इसी स्वरूप की एक और मूर्ती राजधानी के निकट बालाजू उद्यान में भी स्थित है जो असली मूर्ति से कुछ छोटी है। राजपरिवार के सदस्य यहीं प्रभू के दर्शन करने जाते हैं। जिसका दर्शन आम जनता कर सकती है तथा दूसरी प्रतिमा राज भवन में स्थापित है, जिसके दर्शन आम आदमी के लिए प्रतिबंधित हैं। बौद्ध धर्मी नेवारी समुदाय इसे बुद्ध मान कर पूजा करता है तथा हिन्दुओं के द्वारा मना करने पर उनकी पूजा करने की परम्परा चली आ रही है।
नवम्बर माह में मुख्य मंदिर के साथ ही देव उठनी एकादशी को यहां भी बड़ा भारी मेला लगता है, तथा श्रद्धालु भगवान विष्णु के जागरण का उत्साह पूर्वक आशीर्वाद लेकर जश्न मनाते हैं। दूर-दूर से लोग अपनी मनौतियां ले कर आते हैं। इस मंदिर की भी काफी मान्यता है।
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