वल्लभी विश्वविद्यालय (Vallabhi university) -
वल्लभीपुर भारत के प्राचीन नगरों में से था, जो पश्चिमी भारत के सौराष्ट्र में और बाद में गुजरात राज्य, भावनगर के बंदरगाह के पश्चिमोत्तर में खम्भात की खाड़ी के मुहाने पर स्थित था। यह पाँचवीं से आठवीं शताब्दी तक मैत्रक वंश की राजधानी रहा। वर्तमान समय में इसका नाम वल नामक भूतपूर्व रियासत तथा उसके मुख्य स्थान वलभी के नाम में सुरक्षित रह गया है।
बुंदेलों के परम्परागत इतिहास से सूचित होता है कि वल्लभीपुर की स्थापना उनके पूर्वपुरुष कनकसेन ने की थी जो श्री रामचन्द्र के पुत्र लव के वंशज थे। इसका समय 144 ई. कहा जाता है। इतिहासकारों के अनुसार वलभी नगर की स्थापना लगभग 470-500 ई. में मैत्रक वंश के संस्थापक भट्टारक ने की थी। ‘वल’ नामक गाँव से मैत्रकों के ताँबे के अभिलेख और मुद्राएँ पाई गई हैं। वल्लभीपुर या वलभि से यहाँ के शासकों के उत्तरगुप्तकालीन अनेक अभिलेख प्राप्त हुए हैं।
वल्लभी के शिक्षा केन्द्र में विहार का निर्माण सर्वप्रथम राजकुमारी टुड्डा ने कराया था। उसके बाद राजा धरसेन ने 580 ई. में दूसरा विहार बनवाया जिसका नाम श्री बप्पपाद था।
770 ई० के पहले यह नगर भारत में बहुत ही प्रसिद्ध था। प्राचीन समय में यहाँ वल्लभी विश्वविद्यालय था। वल्लभी विश्वविद्यालय ज्ञान का महत्त्वपूर्ण केन्द्र था। यह विश्वविद्यालय धर्म निरपेक्ष विषयों की शिक्षा के लिए भी जाना जाता था।
इस विहार का निर्देशन और प्रशासन आचार्य स्थिरमति द्वारा किया जाता था। वल्लभी का शिक्षा केन्द्र तक्षशिला और नालन्दा विश्वविद्यालय की परम्परा में ही विकसित हुआ था। वल्लभी लगभग 780 ई. तक मैत्रकों की राजधानी बना रहा। ऐसा प्रतीत होता है कि लगभग 725-735 ई. में सौराष्ट्र पर हुए अरब आक्रमणों से यह बच गया था।
नालंदा से आए हुए यहाँ दो प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान ‘गुनमति’ और ‘स्थिरमति’ को इस विश्वविधालय का संस्थापक माना जाता है। चूँकि वे नालन्दा से आये थे, इसलिए वल्लभी विश्वविद्यालय की अधिकांश गतिविधियां नालंदा की परम्परा पर ही आधारित थीं। विक्रमशिला विश्वविद्यालय की भांति यहां भी विख्यात विद्वानों के नाम विश्वविद्यालय के मुख्य द्वार पर श्वेत अक्षरों में लिखे जाते थे।
वल्लभीपुर गुजरात में जैन धर्म के प्रमुख तीर्थ स्थलों में गिना जाता था। जैन अनुश्रुति के अनुसार जैन धर्म की तीसरी परिषद् छठी शती ई. में वल्लभीपुर में हुई थी, जिसके अध्यक्ष देवर्धिगणि नामक आचार्य थे। इस परिषद् के द्वारा प्राचीन जैन आगमों का सम्पादन किया गया था। जो संग्रह सम्पादित हुआ उसकी अनेक प्रतियाँ बनाकर भारत के बड़े-बड़े नगरों में सुरक्षित कर दी गई थी। जैन ग्रन्थ ‘विविध तीर्थ कल्प’ के अनुसार वलभि गुजरात की परम वैभवशाली नगरी थी।
वलभि नरेश शिलादित्य ने ‘रंकज नाम’ के एक धनी व्यापारी का बड़ा अपमान किया था। इसी अपमान का बदला लेने के लिए उसने अफगानिस्तान के अमीर या हम्मीरय को शिलादित्य के विरुद्ध भड़काकर आक्रमण करने के लिए निमंत्रित किया था। इसी युद्ध में शिलादित्य मारा गया।
वल्लभी बौद्धधर्म की हीनयान शाखा का महत्त्वपूर्ण शिक्षा केन्द्र था। यहाँ पाठशालाएँ और कई बौद्ध मठ भी थे। इस विश्वविधालय के संरक्षण के लिये ‘मैत्रक’ राजाओं ने बहुत अधिक धन व्यय किया था। सातवीं सदी में वलभी उतना ही प्रसिद्ध और समृद्ध था जितना कि नालन्दा विश्वविद्यालय।
यहाँ सातवीं शदी के मध्य में चीनी यात्री ह्वेनसांग और सातवीं शदी के अन्त में इत्सिंग आए थे, जिन्होंने इसकी तुलना बिहार के नालन्दा विश्वविद्यालय से की थी। इन्होंने अपने विवरणों में इस विश्वविद्यालय के बारे में कहा है कि भारत की संस्कृति के सभी आयाम यहाँ प्रकाशित हैं। यहाँ के स्नातक होना ही योग्यता का पर्याय है। ह्वेनसांग ने यहां के 100 विहारों और 6,000 भिक्षुओं का उल्लेख किया है, जिनमें से अधिकांश सम्मितिय मत के थे। वे ‘अन्तर्भाव’ सिद्धान्त में विश्वास करते थे और 'पुग्गलवाद' के प्रचारक थे जिसके अनुसार ‘अभिधर्म’ की शिक्षाओं को नकार दिया गया था क्योंकि वे ‘सूत्र’ शिक्षाओं की विरोधी थीं। ह्वेनसांग ने वलभी नगर में बहुत से हिन्दू मन्दिर और बड़ी संख्या में हिन्दुओं के निवास करने का भी उल्लेख किया है।
महात्मा बुद्ध ने भी इस स्थान का भ्रमण किया था। वलभी में जिन जिन स्थानों पर महात्मा बुद्ध गये थे, उन स्थानों पर सम्राट अशोक द्वारा स्तूप निर्मित कराये जाने का उल्लेख भी ह्वेनसांग ने किया है। इत्सिंग के अनुसार वलभी विश्वविद्यालय में विदेशों से आये छात्र भी अध्ययन करते थे। इससे पता चलता है कि वलभी की पहचान अन्तराष्ट्रीय स्तर पर भी थी।
यहां एक विशाल पुस्तकालय था जिसका अनुरक्षण राजा द्वारा स्थापित कोष से किया जाता था। राजा गणेश के अभिलेख से इसकी पुष्टि होती है। वलभी में सौ करोड़पति रहते थे जिनका आर्थिक सहयोग इस महाविहार को मिलता रहता था। अनेक राजाओं द्वारा भी इस महाविहार को दान दिया गया था। गन्थों के लिए भी यहॉं दान प्राप्त होते रहते थे।
गंगा की तलहटी से अनेक ब्राह्मण अपने पुत्रों को शिक्षा प्राप्त करने के लिए यहां भेजते थे। इससे इस विश्वविद्यालय का महत्व पता चल जाता है। इतिहासवेता अल्तेकर महोदय ने भी अपने अध्ययन में वल्लभी विश्वविधालय को ‘देव संस्कृति का कीर्ति स्तम्भ’ कहा है।
इस प्रकार वल्लभी विश्वविधालय की प्रसिद्धी 475 ई० से 1200 ई० तक रही। 12वीं शदी के अंत में जब मुसलमानों के आक्रमण होने लगे तब अन्य विश्वविद्यालयों की तरह वल्लभी विश्वविद्यालयों भी नष्ट होकर इतिहास के पन्नों में ही रह गया।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें