मंगलवार, 28 अप्रैल 2020

बर्ड लैंग्वेज, तुर्की (टर्की)

'बर्ड लैंग्वेज' / 'पक्षी भाषा संवाद'

यह है दुनिया की सबसे सुरीली भाषा, जिसमें परिंदों की तरह लोग करते हैं बात

अपनी बात कहने के लिए दुनियाभर में लोग तरह-तरह की भाषाओं और बोलियों का इस्तेमाल करते हैं। पशु, पक्षी और परिंदे भी अलग-अलग तरह की आवाजें निकालकर आपस में संवाद करते हैं, लेकिन दुनिया का एक हिस्सा ऐसा है, जहां लोग सीटी बजाकर अपनी बात कहते हैं।

संयुक्त राष्ट्र की सांस्कृतिक एजेंसी ने पिछले बरस तुर्की के एक हिस्से (गिरेसुन प्रांत) में बोली जाने वाली 'बर्ड लैंग्वेज को अपनी धरोहर सूची में शामिल किया और इसके संरक्षण की जरूरत बताई, जिसके बाद पूरी दुनिया का ध्यान इस अनोखी भाषा की ओर आकर्षित हुआ। 

उत्तरी तुर्की में बोली जाती है ये भाषा

उत्तरी तुर्की के गिरेसुन प्रांत के गांवों (टर्की के ब्लैक सी इलाके) में रहने वाले करीब दस हजार लोग आज भी इस बेहद खूबसूरत भाषा को जीवित रखे हुए हैं। जिनके ग्रामीण पक्षियों की भाषा समझते हैं। आम बोलचाल में उसका उपयोग भी करते हैं। गांव की हर पीढ़ी, चाहे वह बुजुर्ग हो, या कोई बच्चा, सब पक्षियों की भाषा में संवाद करने का हुनर रखते हैं।

यूनेस्को ने इस बेहद सुरीली भाषा को अपनी कल्चर हेरिटेज सूची में शामिल करने के मौके पर जारी एक विज्ञप्ति में बताया कि ऊंची-ऊंची दुर्गम पहाड़ियों वाले इन इलाकों में रहने वाले लोग अपनी बात को दूर तक पहुंचाने के लिए सीटी के जरिए संवाद करते हैं। एक जमाने में ढोल बजाकर अपनी आवाज पहुंचाने का चलन हुआ करता था।
    
मोबाइल फोन के बढ़ते इस्तेमाल से इस बोली को खतरा

एक जमाने में ढोल बजाकर अपनी आवाज पहुंचाने का चलन हुआ करता था। लेकिन आज संचार के आधुनिकतम माध्यमों के बीच काला सागर के तट पर बसे पर्वतीय इलाके में सीटी बजाकर छोटे-छोटे संदेश दूर तक पहुंचाने की इस खूबसूरत बोली को बचाने की कोशिश हो रही है। यूनेस्को का कहना है कि मोबाइल फोन का बढ़ता इस्तेमाल पहाड़ी इलाकों में तीन से पांच किलोमीटर से अधिक दूर से भी सुनाई देने वाली हवा में गूंजती इस बोली का सबसे बड़ा दुश्मन है, लेकिन तरह-तरह के उपाय करके इस धरोहर के संरक्षण का प्रयास किया जा रहा है।
     
चरवाहों ने इस बोली को जिंदा रखा

तुर्की के हुर्रियत डेली न्यूज का कहना है कि 50 बरस पहले तक आसपास के कई इलाकों में परिंदों की तरह बोली जाने वाली इस बोली का खासा प्रचलन था, लेकिन मोबाइल के बढ़ते प्रसार के कारण अब यह बहुत छोटे इलाके में सिमटकर रह गई है। यहां भी मुख्यत: चरवाहों ने इस बोली को जिंदा रखा। हालांकि अब आधुनिक संचार माध्यमों के बीच भी लोग इस बोली के जरिए बात करते दिखाई देते हैं।

बोली को जिंदा रखने के लिए किए जा रहे हैं कई प्रयास

स्थानीय लोग इस बोली को विश्व धरोहर सूची में शामिल किए जाने से बहुत उत्साहित हैं और बर्ड लैंग्वेज सांस्कृतिक एसोसिएशन के जरिए तरह-तरह के उपायों से इसे संरक्षित रखने की कोशिश की जा रही है। हालांकि बोली को संरक्षित रखने के प्रयास पिछले काफी समय से किए जा रहे हैं। जिला प्रशासन ने 2014 से स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों को यह बोली सिखाने की व्यवस्था की है। समय-समय पर बर्ल्ड लैंग्वेज उत्सवों का आयोजन करके ज्यादा से ज्यादा लोगों को यह भाषा सीखने के लिए प्रेरित किया जाता है। 

सरकार ने स्कूलों में बर्ड लैंग्वेज की शिक्षा अनिवार्य कर दी है। अब प्रांत का हर बच्चा न केवल बर्ड लैंग्वेज समझेगा, बल्कि बोल भी पा रहा है। स्कूलों में कोर्स खत्म होने पर बर्ड लैंग्वेज की परीक्षा भी होती है, जिसके प्रेक्टिकल एग्जाम को पास करने वाले बच्चे को सरकार द्वारा स्कॉलरशिप दी जाती है।

इसलिए पैदा हुई थी इस भाषा की जरूरत

एक समय में पर्वतीय इलाकों में रहने वालों के लिए संवाद करना मुश्किल होता होगा। किसी काम से घर से निकले व्यक्ति को अगर किसी कारणवश देर हो जाए तो वह कैसे बताए कि वह सुरक्षित है, पहाड़ी के दूसरी तरफ रहने वालों को कोई संदेश देना हो तो क्या करें, कहीं कोई भटक गया हो तो अपनी मंजिल तक कैसे पहुंचे, कोई आपदा हो तो बचाव के लिए कैसे पुकारें? इन तमाम सवालों का एक आसान सा जवाब था सीटी बजाकर बोली जाने वाली यह अनोखी भाषा।

400 से ज्यादा शब्द और वाक्यांश

विशेषज्ञों का कहना है कि दुनिया के कई हिस्सों में सदियों से सीटी की भाषा बोलने का चलन रहा है। तुर्की के अलावा स्पेन के कैनेरी आयलैंड से लेकर मैक्सिको और ग्रीस के गांवों तक मेंं भी यह बोली प्रचलित रही, लेकिन तुर्की की बर्ल्ड लैग्वेज सबसे समृद्ध है। इसमें 400 से ज्यादा शब्द और वाक्यांश हैं।

यहां बोले जाने वाली बर्ड लैंग्वेज की खास बात यह है कि इस भाषा में एक भी शब्द नहीं है, बल्कि केवल तरह-तरह की सीटियां हैं। ये सीटियां आमतौर पर पहाड़ी इलाकों में रहने वाले पक्षियों की आवाज का रूपांतरण है।

पक्षियों को देख सुनकर इलाक़े के लोगों ने अपनी एक ख़ास भाषा ईजाद की, जिसमें शब्द नहीं हैं, सिर्फ तरह-तरह की सीटियां हैं। बर्ड लैंग्वेज की हर सीटी का एक अलग मतलब है। हाई-पिच की वजह से ये सीटियां बहुत दूर तक सुनाई देती हैं। इसलिए लोगों को किसी तक कोई संदेश पहुंचाने के लिए मीलों चलकर नहीं जाना पड़ता था, या चिल्ला-चिल्लाकर नहीं बोलना पड़ता था, बस कुछ सीटियां उनका संदेश सामने वाले तक पहुंचा देती थीं।

आदिमानव इस्तेमाल करते थे 'बर्ड लैंग्वेज'

कहा जाता है कि बर्थ लैंग्वेज का इस्तेमाल तब किया जाता था, जब मनुष्यों में भाषा का विस्तार नहीं हुआ था। भाषा विज्ञान के अंर्तगत कहा जाता है कि आदिमानवों को जब एक दूसरे से संवाद की जरूरत हुई। बस तब उनके पास आवाज तो थी, लेकिन शब्द नहीं थे। इसलिए वे अपने आसपास के पक्षियों और पशुओं के जैसी आवाजे संकेत के रूप में इस्तेमाल करने लगे। इससे बहुत ज्यादा तो नहीं, पर वे कुछ हद तक अपनी भावनाएं एक-दूसरे तक पहुंचाने में सफल हुए।

टर्की के ओट्टोमेन एम्पायर के इतिहासकार बताते हैं कि प्रांत में करीब 500 साल से बर्थ लैंग्वेज का उपयोग किया जा रहा है। नई पीढ़ियों ने अंग्रेजी और तुर्की भाषा के अलावा बर्थ लैंग्वेज को भी सीखा है, जिससे यह एक प्रथा की तरह सालों से संरक्षित है।

यूनेस्को के अनुसार यहां हर साल 600 से ज्यादा विदेशी पर्यटक बर्ड लैंग्वेज समझने और सुनने के लिए आते हैं। सरकार प्रयास कर रही है कि अपने देश के इस विरासत को एक शिक्षण संस्थान का नाम दे दिया जाए, जहां पक्षी विज्ञानी आकर सबसे पहले उनकी भाषा को समझ सकें।

ऐसा नहीं है कि केवल टर्की बर्ड लैंग्वेज में महारत हासिल किए हुए है बल्कि भारत का पौराणिक इतिहास भी पक्षियों से संवाद की कई घटनाओं की पुष्टि करता है। जैसे रामायण की कथा काकभुशुण्डि नाम के कौवे ने ऋषी-मुनियों को सुनाई थी। ऐसे ही महाभारत की कथा शुकदेव (तोते) ने राजा परीक्षित को सुनाई। रामायण में राम-गरुण संवाद को कौन भूल सकता है! इन सबका अर्थ यही है कि हमारे यहां भी पक्षियों से संवाद करना और उनकी भाषा को समझा जाता रहा है।

मेघालय के इस गाँव में सीटी बजाकर लोग एक दूसरे से संवाद करते हैं

कॉन्गथॉन्ग भारत के उत्तर-पूर्वी राज्य मेघालय का एक गांव है, जहां के जंगलों में आपको अलग-अलग प्रकार की सीटियां और चहचहाहट की गूंज सुनाई देगी। इन आवाजों को अक्सर लोग पक्षियों की आवाज समझ लेते हैं, लेकिन इस गांव के लोग एक दूसरे को बुला रहे होते हैं। लोगों की यह आदत आपको अलग और असाधारण जरूर लग सकती है, लेकिन यह यहां की परंपरा हैं। उत्तर-पूर्वी राज्य मेघालय की हसीन वादियों में बसे हुए इस अद्भुत गांव का नाम ‘कॉन्गथॉन्ग’ है।

एक-दूसरे को किसी खास धुन या आवाज से संबोधित करना ही इस गांव के लोगों की खासियत है। कॉन्गथॉन्ग और आसपास के कुछ अन्य गांवों में मां अपने बच्चे के लिए एक खास संगीत या धुन बनाती हैं, जिसके बाद हर कोई उस व्यक्ति को पूरी जिंदगी उसी धुन से बुलाता है। इन गांवों में ज्यादातर खासी जनजाति के लोग रहते हैं। यहां लोगों के परंपरागत ‘वास्तविक’ नाम भी होते हैं, लेकिन इनका प्रयोग शायद ही कभी किया जाता है। इस गांव के ज्यादातर घर लकड़ी से बने हैं, जिनके छत टिन के हैं।

दोस्तों के साथ खेल रहे बेटे को एक महिला रात के खाने के लिएएक खास आवाज में बुलाती हैं, जो थोड़ा असामान्य जरूर लगता है। तीन बच्चों की मां पेंडप्लिन शबांग कहती हैं, ‘अपने बच्चे के लिए एक खास संगीत दिल की गहराइयों से निकलता है। यह आवाज अपने बच्चे के लिए मेरी खुशी और प्यार को व्यक्त करता है।’ लेकिन समुदाय के एक नेता रोथल खांगसित का कहना है कि अगर उनका बेटा कुछ गलत करता है या वह उससे नाराज होते हैं, तब वह उसे उसके वास्तविक नाम से ही बुलाते हैं।

कॉन्गथॉन्ग, लंबे समय तक बाकी दुनिया से कटा हुआ था। यहां से पास के शहर तक पहुंचने के लिए कई घंटों की कठिन यात्रा करनी पड़ती है। वहीं मुलभूत सुविधाओं को भी यहां पहुंचने में लंबा वक्त लगा है। इस गांव में बिजली साल 2000 में पहुंची, जबकि एक कच्ची सड़क साल 2013 में ही बनी है। गांव के बच्चों को छोड़कर यहां के ज्यादातर लोगों का समय जंगल में ‘बांस’ की खोज में बीतता है, जो यहां के लोगों की कमाई का मुख्य स्रोत हैं।

खांगसित कहते हैं, ‘जंगल में रहते हुए बात करने के लिए ग्रामीण एक-दूसरे के संगीत ‘नाम’ के लंबे संस्करण का उपयोग करते हैं, जो 30 सेकंड तक लंबा होता है और प्रकृति से प्रेरित होता। हम काफी विस्तृत और घने जंगल से घिरी हुई जगह में रहते हैं, जिसके चारों पहाड़ियां हैं, इसलिए हम प्रकृति जुड़े हुए हैं। हम ईश्वर के हुए अनमोल जीवों के बीच रहते हैं।’

खासी समुदाय की मूल पौराणिक मां से जुड़ी हुई इस परंपरा को ‘जींगरवई लॉवई’ या ‘कबीले की पहली महिला का गीत’ के नाम से जाना जाता है। इस परंपरा की उत्पत्ति कैसे हुई इसके बारे में लोगों को ज्यादा पता नहीं है, लेकिन स्थानीय लोगों का मानना हैं कि यह परंपरा गांव जितना ही पुराना है और लगभग पांच शताब्दियों से बची हुई है।

भले ही इस परंपरा की उत्पत्ति के बारे में लोगों को ज्यादा पता नहीं है, लेकिन आज भी यहां के लोग इस परंपरा को संजोए हुए हैं। आधुनिकता ने टीवी और फोन की मदद से यहां अपनी जगह बना ली है। कॉन्गथॉन्ग गांव में कुछ नए लोगों के नाम बॉलिवुड के गीतों से प्रेरित होकर रखे गए हैं। लेकिन यहां के युवा अपने दोस्तों फोन करने के बजाय आज भी उनको उनके सुंदर संगीतमय नाम से ही बुलाना पसंद करते हैं।

ऐसी ही परंपरा दुनिया के कुछ अन्य देशों में भी देखी गई है। टर्की के गिरेसुन प्रांत में बर्ड लैंग्वेज, यानी पक्षियों की भाषा में बात करते हैं। इस पहाड़ी इलाके में करीब 10 हजार लोग रहते हैं, जो एक-दूसरे से बर्ड लैंग्वेज में बात करते हैं। यूनेस्को ने इस अनोखी भाषा को पिछले साल ही अपनी कल्चरल हेरिटज की सूची में शामिल किया था। वहीं, स्वीडन और नार्वे के कुछ हिस्सों में लोग पहाड़ों पर चर रहे अपने पालतू जानवारों को बुलाने के लिए भी एक खास तरह की आवाज निकालते हैं। इस आवाज को ‘कुनिंग’ के नाम से जाना जाता है।

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