केसरिया बौद्ध स्तूप
भारत में बिहार प्रांत की राजधानी पटना से लगभग 110 किलोमीटर दूर पूर्वी चंपारण जिला मुख्यालय से 35 किलोमीटर दक्षिण, साहेबगंज-चकिया मार्ग पर लाल-छपरा चौक के पास अवस्थित है प्राचीन ऐतिहासिक स्थल केसरिया। बुद्ध काल में केसरिया, केस्सापुट्टा नाम से जाना जाता था। यहाँ एक वृहत बौद्धकालीन स्तूप है। जो कि शताब्दियों से मिट्टी से ढका था। जिसे स्थानीय लोग पुराण-प्रसिद्ध एक उदत्त सम्राट राजावेन का गढ़ मानते थे। राजा बेन कोई काल्पनिक नाम नहीं है। उसकी चर्चा श्री मद्यभागवत महापुराण के प्रथम खंड के चतुर्थ स्कंध के तेरहवें तथा चौदहवें में किया गया है।
पूर्वी चम्पारण जिला की भौगोलिक, ऐतिहासिक एवं पुरानत्विक विरासत युगों से रही है। 1998 में इस प्राचीन केसरिया स्थल में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण पटना अंचल के अधीक्षण पुरातत्वविद मोहम्मद के.के. के नेतृत्व में उत्खनन कार्य प्रारंभ किया गया। वर्ष 2001 में पुरातात्विक मो.के के साहब ने इस दुनिया का सबसे ऊँचा स्तूप घोषित किया था। इसके बाद बिहार ने अपने अतीत का गौरव फिर से प्राप्त कर लिया और सांची स्तूप ऊंचाई (77.50 फीट) के मामले में दूसरे नंबर पर आ गया। खुदाई के दौरान यहां प्राचीन काल की कई अन्य चीजों प्राप्त की गई हैं, जिनमें बुद्ध की मूर्तियां, तांबे की वस्तुएं, इस्लामिक सिक्के आदि। उत्खनन के उपरांत जो साक्ष्य सामने आए हैं, उससे प्रमाणित हो गया है कि किसी राजा का गढ़ नहीं बल्कि बुद्ध स्तूप है। जिसके संबंध में चीनी यात्री फाहियान तथा ह्वेनसांग ने अपने यात्रा-वृत्तांत में उल्लेख किया था।
सर्वेक्षण से पहले इस स्थल को प्राचीन शिव मंदिर माना जा रहा था। स्थानीय लोग इस स्तूप को ‘देवला’ (राजा बेन का देवरा) कहते हैं, जिसका अर्थ है ‘भगवान का घर’। इस की खुदाई से पहले, वे मानते थे कि इसके अंदर राजा भेमा द्वारा निर्मित शिव का मंदिर है।
गंडक नदी के किनारे स्थित केसरिया बौद्ध स्तूप की ऊँचाई आज भी 104 फुट 5 इंच है जबकि इंडोनेसिया स्थित विश्व प्रसिद्ध बोरोबदुर (जावा) बौ़द्ध स्तूप की ऊँचाई 103 फीट है। ये दोनों स्तूप छह तल्ले वाला है जिसके प्रत्येक दिवाक खण्ड में बुौद्ध की मूर्तिया स्थापित है। स्तूप में लगी ईटे मौर्य कालिन है। सभी मूर्तियां विभिन्न मुद्राओं में है। वर्तमान में यह स्तूप 1400 फीट के क्षेत्र में फैला हुआ है।
जावा (इंडोनेशिया) में स्थित विश्वविद्यालय बोरो-बुदुर का स्तूप जो 8वीं शताब्दी का है, केसरिया स्तूप का विस्तृत रूप प्रतीत होता है। उल्लेखनीय यह है कि केसरिया स्तूप का निर्माण 6वीं शताब्दी में किया गया था, जबकि बोरोबुदुर स्तूप का निर्माण 8वीं शताब्दी के आसपास हुआ है।
जब शुरुआत में इसे बनाया गया तब यह मिट्टी या कच्चा था। जो समय के साथ बनता गया और आज के स्तूप के रूप में मौजूद है। यह अद्भुत स्तूप 30 एकड़ में फैला हुआ है।
सर्वप्रथम कर्नल मैंकेजी ने 1814 ईं में इस स्तूप का पता लगाया था। उसके बाद होडसन ने 1835 ईं में एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी और केसरिया की यात्रा कर रेखा चित्र बनाया था। सन 1861-62 में जनरल कनिंघम ने कहा था कि केसरिया स्तूप के निर्माण में दस से पन्द्रह करोड़ ईंट लगी थी। उस समय यह लगभग 62 फुट ऊँचा एवं परिधि लगभग 1400 फुट में फैली थी। जिसका व्यास 68 फुट 5 इंच एवं स्तूप की ऊँचाई लगभग 51 फुट थी। कनिंघम के अनुसार स्तूप का यह भाग अपने मूल रूप में संभवतः 90 से 98 फुट तक रहा होगा। अतः स्तूप एवं नीचे टीले की ऊँचाई जोड़ने पर यह स्तूप अपनी मूल अवस्था में लगभग 150 फुट तक था।
इस स्तूप के सम्बन्ध में जनील कर्निंधम ने लिखा हैं कि केसरिया का यह स्तूप 200 ई. से 700 ई. के मध्य (तीसरी शताब्दी) कभी बना होगा। मूलरूप से 150 फीट ऊंचे इस स्तूप की ऊंचाई सन् 1934 में आये भयानक भूकम्प से पहले 123 फीट थी, किन्तु वर्तमान समय में केसरिया बौद्ध स्तूप की ऊँचाई 104 फीट है।
बंगाल लिस्ट एवं कुरैशी लिस्ट में भी इस स्थान का विस्तृत उल्लेख किया गया है। इसके अलावा ब्लॉक ने भी केसरिया जा कर इस स्तूप को देखा था। स्तूप के बगल के ईंट भट्टे में निकला एक प्राचीन छोटे व्यास का कुआँ भी कम महत्वपूर्ण नहीं है जो प्रमाणित करता है कि यहाँ कभी नगर था।
ऐसी मान्यता है कि गौतम बुद्ध के जीवन की कई महत्वपूर्ण घटनाएं केसरिया में घटी। केसरिया में ही उन्होंने राजसी वस्त्र का त्याग किया। इसी धरती पर ज्ञान की खोज के क्रम में अलार-कलाम नामक सन्यासी से गौतम बुद्ध ने प्रथम शिक्षा ली थी। यहीं से वैशाली होकर वे बोधगया पहुंचे जहां उन्हें बोधिवृक्ष के नीचे मूल ज्ञान की प्राप्ति हुई।
केसरिया में ठहरे थे बुद्ध
बौद्ध ग्रंथों के अनुसार बुद्ध ने वैशाली के चापाल चैत्य में तीन माह के अंदर ही अपनी मृत्यु (महापरिनिर्वाण) होने की भविष्यवाणी की थी। कुटागारशाला में अपना अंतिम उपदेश देने के बाद वे कुशीनगर को रवाना हुए, जहाँ उन्होंने अंतिम साँस ली। यात्रा प्रारंभ करने से पहले वैशाली नगर की ओर मुड़कर देखते हुए उन्होंने आनंद को संबोधित करते हुए कहा, 'इदं पश्चिम भागं आनंद वैशाली पश्चिनम भविष्यवादि', यानी मैं वैशाली के पश्चिम में हूँ और इसे अंतिम बार देख रहा हूँ।
चीनी यात्री फाहियान के अनुसार केसरिया के देउरा स्थल पर भगवान बुद्ध अपने महापरिनिर्वाण के ठीक पहले वैशाली से कुशीनगर जातेे वक्त एक रात का विश्राम किया था। जहां उन्होंने कथित तौर पर कुछ ऐतिहासिक रहस्योद्घाटन किए, जो बाद में एक बौद्ध जातक कथा में दर्ज किए गए थे, जिसमें लिखा गया था कि उनके पिछले जन्मों में चक्रवर्ती राजा के रूप में शासन किया था। तथा साथ आये वैशाली के भिझुकों को अपना भिक्षा पात्र (बेगिंग बाउल/BOWGING BOWL) प्रदान कर कुशीनगर के लिए प्रस्थान किया।
बुद्ध के मना करने एवं वैशाली लौट जाने की सलाह के बावजूद उनके शिष्य अगाध श्रद्धा और प्रेम से वशीभूत उनके पीछे-पीछे चलते रहे। अंत में अपने पीछे आने वाले वैशालीवासियों को रोकने के उद्देश्य से उन्होंने केसरिया में उन लोगों को अपना भिक्षा-पात्र, स्मृति-चिन्ह के रूप में भेंट किया और लौटने पर राजी किया।
केसरिया वह जगह थी जहां बुद्ध के सबसे प्रसिद्ध प्रवचनों में से एक, 'कलाम सुत्त' दिया गया था जिसमें उन्होंने यह सीख दी थी कि उनकी शिक्षाओं को जांच परखने के बाद ही स्वीकार किया जाए।
जब भगवान ने नदी में कृत्रिम बाढ़ से रास्ता रोका
कहा जाता है कि गौतम बुद्ध ने कुशीनगर में अपने अंतिम समय बिताने के लिए वैशाली छोड़ दिया था। जब वह अपनी इस यात्रा पर थे, लिच्छवी लोगों के समूह ने भी उनके साथ चलने को कहा। भगवान बुद्ध के मना करने के बावजूद उन लोगों ने उनका साथ नहीं छोड़ा। लिच्छवी जब बहुत प्रयास करने के बावजूद भी नहीं माने तो, भगवान बुद्ध ने नदी में कृत्रिम बाढ़ उत्पन्न कर दी। इस तरह उन्होंने उन लोगों का रास्ता रोक दिया। लिच्छवी लोगों का समूह इससे बहुत निराश था। उन लोगों के निराश चेहरे को देखते हुए भगवान ने उन्हें अपना भिक्षा मांगने वाला कटोरा दे दिया।
इस किवदंती के अनुसार ही यह कहा जाता है कि लिच्छवी लोगों ने बुद्ध के प्रति अपनी श्रद्धा प्रकट करते हुए इस स्तूप का निर्माण किया। इस जगह पर उनके अंतिम दिनों में यहाँ कदम पड़े थे।
केसरिया स्तूप के निर्माण को लेकर कई सारे मत हैं। एक मत के अनुसार जिस स्थान पर वह ठहरें थे उसी जगह पर कुछ समय बाद अजातशत्रु ने उल्टे कमल स्वरूप इस स्तूप का निर्माण कराया था, जिसे सम्राट अशोक सहित कई शासकों ने सजाया-संवारा था। जबकि कुछ लोगों का मानना है कि यह गुप्तकाल से ही यहाँ मौजूद है। कालांतर में यह ऐतिहासिक परिसर विस्मृति के गर्त में समा गया था।
फाह्यान और ह्यून त्सांग ने भी यहाँ की है यात्रा
इस जगह का महत्व इतना ज्यादा है कि फाह्यान और ह्यून त्सांग भी इस जगह पर आकर बुद्ध भगवान के दर्शन कर चुके हैं। उन्होंने यहाँ आने के बाद इस स्तूप के बारे में एक नोट भी छोड़ा था।
पांचवी शताब्दी में एक बौध भिक्षु फाह्यान ने भगवान बुद्ध के कटोरे के ऊपर बने इस जगह के बारे में जिक्र किया था। माना जाता है कि यह कोई और नहीं बल्कि केसरिया स्तूप ही था, जिसका जिक्र उन्होंने किया था।
फाहियान (450 ई.) तथा ह्वेनसांग (635 ई.) के यात्रा वृत्तांत के अनुसार बुद्ध से जुड़े स्थानों को देखने भारत आए थे। इन लोगों ने इस स्थान को खंडहर के रूप में देखा था। उनके अनुसार यह स्थान वैशाली से उत्तर-पश्चिम के कोण पर 200 ली यानी 30 मील और अब लगभग 55 किलोमीटर पर एक अति प्राचीन बौद्ध स्तूप है। भौगोलिक दृष्टि से यह स्तूप का स्थान वर्तमान केसरिया में आता है। यहाँ अति प्राचीन बौद्ध स्तूप का होना प्रमाणित भी हो गया है। साथ ही साथ यह भी प्रमाणित हो गया है कि भगवान बुद्ध के प्रिय स्थल वैशाली से उनके जन्म स्थान कपिलवस्तु (लुंबिनी) जाने के मार्ग पर ही अवस्थित है। इस प्राचीन मार्ग पर छह अशोक स्तंभ तथा तीन बौद्ध स्तूप केसरिया, लौरिया नंदनगढ़ तथा जानकीगढ़ है।
खंडित प्रतिमाओं के मिले हैं अवशेष
केसरिया स्तूप की ऊंचाई 104 फीट है। यह दुनिया के सबसे बड़ा बौध स्तूप है। इसकी खुदाई आज भी जारी ही है। ऐसा माना जाता है कि अभी वहां कई सड़कें और स्थल जमींदोज हैं।
यहाँ खुदाई के दौरान दीवारों पर खंडित मूर्तियों के अवशेष मिले। मूर्तियों की हालत कुछ ऐसी बुरी हो गयी है, जिसे देखकर लगता है कि इनका जानबूझ कर विध्वंस किया गया हो।
माना जाता है कि आक्रांताओं से बचाने के लिए इस स्तूप को छिपाने की कोशिश की गयी थी, जिसकी वजह से लोगों को इसके विषय में कम पता चल पाया। इसी प्रकार कई स्थलों को उनसे छिपाने की कोशिश की गयी थी। इतिहासकारों का मानना है कि दिलवाड़े के जैन मंदिर को भी इसी तरह छिपाया गया था।
इसमें सीढ़ी नुमा कई परत में दीवारें मिली हुई हैं। इसके अलावा, इन दीवारों में सेल भी मिले, जिनमें भगवन बुद्ध की क्षतिग्रस्त मूर्तियाँ मिलीं। माना जाता है काले पत्थर से निर्मित स्तंभ और उनपर बनी कलाकृतियाँ लगभग 2000-5000 ई. पूर्व की हैं।
पूर्व भाग में अब तक के उत्खनन के बाद जो अवशेष प्राप्त हुए हैं, उससे प्रमाणित होता है कि यह स्तूप गोलाकार है, जो प्रदक्षिणा पथ के साथ-साथ सीढ़ीनुमा चार सतहों वाला है। ईंटों से निर्मित साढ़ी ऊपर की ओर क्रमशः कम होती हुई एवं कई सतहों वाली वृत्ताकार बनावट की है। प्रदक्षिणा पथ के साथ चार सतह की बनावट जो सभी ओर से पथ से घिरी हुई है। इसकी दीवारों मे कहीं-कहीं ताखें मिले हैं जो कम पत के आकार वाली बाहर की ओर निकली दीवाल के बीच है। प्रत्येक वृत्ताकार सतह में कई सेल मिले हैं। जिनमें भगवान बुद्ध की सुरखी-चूने से बनी विशाल मूर्तियाँ पुरातत्वविदों को चौंकानेवाली हैं। मूर्ति की बनावट से तत्कालीन कला की निपुणता का आभास होता है। ये मूर्तियाँ ध्यानस्थ तथा भूमि स्पर्श मुद्रा में हैं।
प्रयोग की गई ईंट
स्तूप में प्रयोग की गई ईंटों के आकार कई प्रकार के हैं। प्रारंभ में बनने वाली मिट्टी के स्तूप मौर्यकाल के हैं, जिसमें ईंटों का आकार 50 सेंटीमीटर लंबा 25 सेंटीमीटर चौड़ा तथा 8 सेंटीमीटर मोटा है, शुंग तथा कुषाण काल की ईंट 40 सें.मीं लंबी, 20 सें.मी. चौड़ी तथा 5 सें.मी. मोटी है। स्तूप में प्रयोग की गई घुमावदार एवं नक्काशीदार ईंटें गुप्त काल की हैं।
खुदाई के दौरान स्तूप में मौर्यकाल, शुंग, कुषाण काल तथा गुप्तकाल की वास्तुकला के नमूने मिले हैं, वे सभी गुप्तकालीन हैं और इन पर 5वीं शताब्दी की सारनाथ शैली का अस्पष्ट प्रभाव है। भूमि स्पर्श मुद्रा वाली बुद्ध मूर्ति सारनाथ शैली के अलावा गंधार शैली की भी हैं। प्रदक्षिणा पथ के बाहर भी तीन कमरों के आधार मिले हैं, जिनमें भगवान बुद्ध की मूर्तियाँ स्थापित किए जाने के प्रमाण मिले हैं। एक मूर्ति के नीचे बैठा हुआ शेर है। पुराविद मोहम्मद के.के. का मानना है कि मूर्तियों को स्तूप के चारों ओर वृत्ताकार सतहों में बनाए गए छोटे-छोटे पूजा गृहों में गुप्तकाल में स्थापित किया गया था। इसे देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे पर्वत पर बुद्ध की जीती-जागती मूर्तियाँ बैठी हों।
आसपास के आकर्षण
आज केसरिया बौद्ध स्तूप देखने विदेशों से हजारो हजार पर्यटक एवं बौद्ध भिक्षुक रोज आते है। इस स्तूप के आसपास रानीवास, केसर बाबा का मंदिर आदि प्रमुख दर्शनीय स्थल भी मौजूद हैं।
केसरिया स्तूप के अलावा आप यहां आसपास बसे पर्यटन स्थलों की सैर का आनंद ले सकते हैं। आप यहां से सीतामढ़ी स्थल की सैर कर सकते हैं, यह एक पौराणिक स्थल है, और माना जाता है कि यहां सीता का जन्म हुआ था। आप पूर्वी चंपारण के मोतिहरी का भ्रमण कर सकते हैं, जो एक ऐतिहासिक स्थल है, जिसकी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान अहम भूमिका निभाई।
आप यहां से अरेराज स्थल की और रूख कर सकते हैं। यह स्थल अपने प्राचीन शिव मंदिर के लिए जाना जाता है, जहां रोजाना श्रद्धालुओं का आगमन लगा रहता है। आप अरेराज के लौरिया गांव में स्थित 11.5 मीटर लंबे अशोक पत्थर स्तंभ को देख सकते हैं, जो 249 ईसा पूर्व में बनाया गया था। इसके अलावा आप यहां से सीताकुंड गांव की सैर का प्लान बना सकते हैं, जो सीता को समर्पित एक प्राचीन कुंड के लिए जाना जाता है।
आने का सही समय
केसरिया स्तूप को देखने का सबसे आदर्श समय अक्टूबर से लेकर फरवरी तक का है, इस दौरान यहां का मौसम अनकून बना रहता है। हालांकि स्तूप को देखने के लिए सालभर इतिहास प्रेमियों और पर्यटकों का आगमन लगा रहता है।
कैसे करें प्रवेश
केसरिया, बिहार के पूर्वी चंपारण जिले में स्थित है, जहां आप परिवहन के तीनों साधनों की मदद से पहुंच सकते हैं। यहां का निकटवर्ती हवाईअड्डा 120 कि.मी की दूरी पर स्थित पटना एयरपोर्ट है। रेल मार्ग के लिए आप पटना रेलवे स्टेशन का सहारा ले सकते हैं, जहां से आपको देश के अन्य स्थानों के लिए रेल सेवा मिल जाएगी। अगर आप चाहें तो यहां सड़क मार्ग के जरिए भी पहुंच सकते हैं, बेहतर सड़क मार्गों के द्वारा केसरिया राज्य के बड़े शहरों से अच्छी तरह जुड़ा हुआ है।
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