Achleshwar Mahadev, Achalgarh, Mount Abu
राजस्थान की पहाड़ी पर बसा माउंट आबू राज्य का एकमात्र पर्वतीय गंतव्य माना जाता है। माउंट आबू अरावली पहाड़ियों का सबसे ऊंचा शिखर है, जो हिन्दुओं के साथ-साथ जैन समुदाय के लोगों का भी तीर्थस्थान है। इसके अलावा ग्रीष्णकाल के दौरान यह एकमात्र हिल स्टेशन शहरवासियों के लिए मुख्य स्थल बना बन जाता है। जंगली वनस्पतियों के बीच यह पहाड़ी क्षेत्र राजस्थान की तपती गर्मी के बीच आराम देने का काम करता है।
अचलेश्वर महादेव, माउंट आबू
अचलेश्वर महादेव मंदिर धौलपुर, राजस्थान के माउण्ट आबू में स्थित है। यह विश्व का ऐसा एकमात्र मंदिर है, जहाँ भगवान शिव तथा उनके शिवलिंग की नहीं, अपितु उनके पैर के अंगूठे की पूजा की जाती है। यहाँ भगवान शिव अंगूठे के रूप में विराजते हैं और वैसे तो पूरे वर्ष मंदिर के गर्भगृह के कपाट भगवान शिव के इस पवित्र पांव के अंगूठे के निशान के दर्शन करने के लिए खुले रहते हैं परन्तु लोक मान्यताओं के आधार पर सावन के महीने में इस रूप के दर्शन का विशेष महत्त्व है।
स्थिति
पहाड़ी के तल पर 15वीं शताब्दी में बना अचलेश्वर महदेव मंदिर माउण्ट आबू से लगभग 11 किलोमीटर दूर उत्तर दिशा में अचलगढ़ की पहाड़ियों पर अचलगढ़ के क़िले के पास स्थित है। अचलेश्वर महादेव के नाम से भारत में कई मंदिर है, जिसमें से एक धौलपुर का 'अचलेश्वर महादेव मंदिर' है।
राजस्थान के एक मात्र हिल स्टेशन माउण्ट आबू को "अर्धकाशी" के नाम से भी जाना जाता है, क्योंकि यहाँ पर भगवान शिव के कई प्राचीन मंदिर हैं। बता दें कि यहां भोलेनाथ के 108 छोटे-बड़े मंदिर मौजूद हैं। 'स्कंद पुराण' के अनुसार "वाराणसी शिव की नगरी है तो माउण्ट आबू भगवान शंकर की उपनगरी।"
मान्यता
मंदिर में प्रवेश करते ही पंच धातु की बनी नंदी की एक विशाल प्रतिमा है, जिसका वज़न चार टन है। नंदी भगवान शिव की सवारी थी, जिसे शिव की अराधना के समय पूजना आवश्यक माना जाता है।
मंदिर के अंदर गर्भगृह में शिवलिंग पाताल खंड के रूप में दृष्टिगोचर होता है, जिसके ऊपर एक तरफ़ पैर के अंगूठे का निशान उभरा हुआ है, जिसे स्वयंभू शिवलिंग के रूप में पूजा जाता है। यह देवाधिदेव शिव का दाहिना अंगूठा माना जाता है। पारम्परिक मान्यता है कि इसी अंगूठे ने पूरे माउण्ट आबू के पहाड़ को थाम रखा है, जिस दिन अंगूठे का निशान गायब हो जाएगा, माउण्ट आबू का पहाड़ ख़त्म हो जाएगा।
मंदिर परिसर
अचलेश्वर महादेव मंदिर परिसर के विशाल चौक में चंपा का विशाल पेड़ अपनी प्राचीनता को दर्शाता है।
मंदिर की बायीं बाजू की तरफ़ दो कलात्मक खंभों का धर्मकांटा बना हुआ है, जिसकी शिल्पकला अद्भुत है। कहते हैं कि इस क्षेत्र के शासक राजसिंहासन पर बैठने के समय अचलेश्वर महादेव से आशीर्वाद प्राप्त कर धर्मकांटे के नीचे प्रजा के साथ न्याय की शपथ लेते थे। यह परम्परा इस क्षेत्र में काफी वर्षों तक यूं ही चलती रही थी, जब तक राजाओं ने यहां राज किया।
मंदिर परिसर में द्वारिकाधीश मंदिर भी बना हुआ है। गर्भगृह के बाहर वराह, नृसिंह, वामन, कच्छप, मत्स्य, कृष्ण, राम, परशुराम, बुद्ध व कलंगी अवतारों की काले पत्थर की भव्य मूर्तियां स्थापित हैं। यह मूर्तियां मंदिर की खूबसूरती को और भी बढ़ाती हैं।
अंगूठे के नीचे बने गड्ढे में कभी नहीं भरता पानी
भगवान शिव के अंगूठे के नीचे ही एक गड्ढा है। ये गड्ढा बनाया नहीं गया बल्कि ये प्राकृतिक रूप से निर्मित है। मान्यता है कि इसमें चाहे कितना भी पानी भरा जाए वह नहीं भरता। शिव जी पर चढ़ने वाला जल भी कभी यहां नजर नहीं आता। पानी कहां जाता है किसी को आज तक पता नहीं चल सका।
भगवान शिव देते हैं दर्शन
स्कंद पुराण (अर्बुद खंड) के अनुसार भगवान शिव और विष्णु अर्बुद पर्वत की सैर करते हैं। इसलिए आपकों यहां भोलेनाथ की पूजा करने वाले साधु-संत इन पहाड़ियों में जरूर दिख जाएंगे। माना जाता है कि भगवान शिव माउंट आबू की गुफाओं में आज भी निवास करते हैं। और जिस भक्त की प्रभुभक्ति से भोलेनाथ प्रसन्न हो जाते हैं उन्हें साक्षात दर्शन देते हैं।
इसके अलावा यहां भगवान शिव को विशेष जलाभिषेक भी किया जाता है। स्थानीय निवासियों के अनुसार यह जल बहुत ही खास होता है जो भगवान शिव को चढ़ाया जाता है।
भगवान शिव को समर्पित अचलेश्वर महादेव मंदिर से हिन्दू लोगों की गहरी आस्था जुड़ी है। इसलिए यहां सोमवार और खास मौको पर श्रद्धालुओं का भारी जमावड़ा लगता है। माना जाता है कि शिवरात्रि और सोमवार जैसे खास अवसरों पर सच्चे मन से मांगी गई मुराद अवश्य पूरी होती है।
मंदिर की पौराणिक कथा (Mythological Story of Achleshwar Temple)
पौराणिक काल में जहाँ आज आबू पर्वत स्थित है, वहाँ नीचे विराट ब्रह्म खाई थी। इसके तट पर वशिष्ठ मुनि रहते थे। उनकी गाय कामधेनु एक बार हरी घास चरते हुए ब्रह्म खाई में गिर गई तो उसे बचाने के लिए मुनि ने सरस्वती, गंगा का आह्वान किया तो ब्रह्म खाई पानी से जमीन की सतह तक भर गई और कामधेनु गाय गोमुख पर बाहर जमीन पर आ गई।
एक बार दोबारा ऐसा ही हुआ। इसे देखते हुए बार-बार के हादसे को टालने के लिए वशिष्ठ मुनि ने हिमालय जाकर उससे ब्रह्म खाई को पाटने का अनुरोध किया। हिमालय ने मुनि का अनुरोध स्वीकार कर अपने प्रिय पुत्र नंदी वद्रधन को जाने का आदेश दिया। अर्बुद नाग नंदी वद्रधन को उड़ाकर ब्रह्म खाई के पास वशिष्ठ आश्रम लाया। आश्रम में नंदी वद्रधन ने वरदान मांगा कि उसके ऊपर सप्त ऋषियों का आश्रम होना चाहिए एवं पहाड़ सबसे सुंदर व विभिन्न वनस्पतियों वाला होना चाहिए। वशिष्ठ ने वांछित वरदान दिए। उसी प्रकार अर्बुद नाग ने वर मांगा कि इस पर्वत का नामकरण उसके नाम से हो। इसके बाद से नंदी वद्रधन आबू पर्वत के नाम से विख्यात हुआ। वरदान प्राप्त कर नंदी वद्रधन खाई में उतरा तो धंसता ही चला गया, केवल नंदी वद्रधन की नाक एवं ऊपर का हिस्सा जमीन से ऊपर रहा, जो आज आबू पर्वत है। इसके बाद भी वह अचल नहीं रह पा रहा था, तब वशिष्ठ के विनम्र अनुरोध पर महादेव ने अपने दाहिने पैर के अंगूठे को पसार कर इसे स्थिर किया यानी अचल कर दिया तभी यह अचलगढ़ कहलाया। तभी से यहां अचलेश्वर महादेव के रूप में महादेव के अंगूठे की पूजा-अर्चना की जाती है। इस अंगूठे के नीचे बने प्राकृतिक पाताल खड्डे में कितना भी पानी डालने पर खाई पानी से नहीं भरती। इसमें चढ़ाया जाने वाला जल कहाँ जाता है, यह आज भी एक रहस्य है।
मंदिर से पास है अचलगढ़ का किला (Achalgarh Fort)
अचलेश्वर महादेव मंदिर अचलगढ़ की पहाड़ियों पर अचलगढ़ के किले के पास ही है। अगले कई वर्षों तक यहां यात्रियों का आना-जाना भी लगा रहा, परन्तु अब यहां कोई नहीं आता। अचलगढ़ का किला अब खंडहर में तब्दील हो चुका है। कहते हैं कि इसका निर्माण परमार राजवंश द्वारा करवाया गया था। बाद में 1452 में महाराणा कुम्भा ने इसका पुनर्निर्माण करवाया और इसे अचलगढ़ नाम दिया था। महाराणा कुम्भा ने अपने जीवन काल में अनेकों किलों का निर्माण करवाया जिसमे सबसे प्रमुख है कुम्भलगढ़ का दुर्ग, जिसकी दीवार को विशव की दूसरी सबसे लम्बी दीवार होने का गौरव प्राप्त है।
कैसे करें प्रवेश
अचलेश्वर महादेव मंदिर माउंट आबू पर स्थित है, जिसके लिए आपको पहले माउंट आबू पहुंचना होगा। यहां आप तीनों मार्गों से पहुंच सकते हैं, यहां का नजदीकी हवाईअड्डा उदयपुर (डाबोक एयरपोर्ट) में स्थित है। रेल मार्ग के लिए आप मोरथला रेलवे स्टेशन का सहारा ले सकते हैं।
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