बुधवार, 24 सितंबर 2025

तुम्बुरु गंधर्व

देवताओं के संगीतकार व गायक तुम्बुरु

हिन्दू पौराणिक कथाओं में तुम्बुरु गायकों में सर्वश्रेष्ठ और गंधर्वों के महान संगीतकार हैं। उन्होंने दिव्य देवताओं के दरबार के लिए संगीत और गीतों की रचना की थी। पुराणों में तुम्बरू या तुम्बुरु को ऋषि कश्यप और उनकी पत्नी प्रभा के पुत्र के रूप में वर्णित किया गया है।

तुम्बरू को अक्सर गंधर्वों में सर्वश्रेष्ठ बताया जाता है। वह देवताओं की उपस्थिति में गाता है। नारद के समान, उन्हें गीतों का राजा भी माना जाता है। प्राचीन पुराणों के अनुसार, नारद को तुम्बुरु का शिक्षक माना जाता है। कहा जाता है कि नारद और तुम्बुरु भगवान विष्णु की महिमा गाते हैं।

अदभुत रामायण में उल्लेख है कि तुम्बरू सभी गायकों में सर्वश्रेष्ठ थे और भगवान विष्णु द्वारा उन्हें पुरस्कृत किया गया था। नारद, एक बार तुम्बरू से ईर्ष्या करने लगे तो विष्णु नारद से कहते हैं कि तुम्बुरु तुम्हारी तुलना में अपने संगीत को अच्छी तरह से निभाते हैं, और तब फिर विष्‍णुीजी नारद को संगीत सीखने के लिए गणबंधु नामक उल्लू के पास भेजते हैं।

उल्लू से सीखने के बाद, नारद तुंबुरु के घर गए, वहां उन्होंने देखा कि तुंबुरू घायल पुरुषों और महिलाओं से घिरा हुआ है, और तब उन्हें पता चलता है कि वे संगीत राग और रागिनियां हैं, जो उनके बुरे गायन से बुरी तरह घायल हो गए थे। नारद शर्मिंदा होकर उस स्थान को छोड़ देते हैं और वे भगवान कृष्ण की पत्नियों से उचित गायन सीखते हैं।

तुंबुरू को कुबेर का अनुयायी बताया गया है और उनके गीत आमतौर पर कुबेर के दरबार में सुने जाते हैं। तुंबुरू या थम्बुरु गंधर्वों को संगीत और गायन सिखाता है और उसे अपने संगीत के लिए "गंधर्वों का स्वामी" कहा जाता है। तुंबुरू को कभी-कभी एक गंधर्व के बजाय एक ऋषि के रूप में भी वर्णित किया गया है।

तुम्बरू को अक्सर घोड़े के मुंह वाले ऋषि के रूप में दर्शाया गया। वे वीणा धारण करते और गाते हैं। अपनी तपस्या से शिव को प्रसन्न करने के बाद, तुम्बुरु ने शिव से कहा कि वे उन्हें एक घोड़ा जैसा चेहरा और अमरता प्रदान करें। शिव ने उसे आशीर्वाद दिया और वह वरदान दिया जो उसने मांगा था।

तिरुमला में तुम्बुरु तीर्थम

एक बार ऋषि तुम्बुरु ने अपनी आलसी पत्नी को एक ताड़ बनने और इस झील में रहने के लिए शाप दिया। कुछ समय बाद, ऋषि अगस्त्य इस तीर्थ में पहुंचे और अपने शिष्यों को इस तीर्थ के गुणों का वर्णन किया। उनकी बातें सुनकर उसने फिर से अपने गंधर्व स्वरूप को प्राप्त कर लिया।

निष्कर्ष:

तुम्बुरु जो एक दिव्य ऋषि और एक महान संगीतकार हैं और वे भगवान शिव एवं भगवान विष्णु के बड़े भक्त हैं। वह हमारी और आपकी इच्छाओं को पूरा करेंगे। वह हमें एक स्वस्थ और खुशहाल जीवन प्रदान करते हैं। आइए हम उसकी निरंतर पूजा करें, और उसके नाम “ओम श्रीं थुंबुरुवे नमः” का जाप करें।



बुधवार, 13 अगस्त 2025

आठ पहर

हिन्दू धर्म में समय की बहुत ही वृहत्तर धारणा है। आमतौर पर वर्तमान में सेकंड, मिनट, घंटे, दिन-रात, माह, वर्ष, दशक और शताब्दी तक की ही प्रचलित धारणा है, लेकिन हिन्दू धर्म में एक अणु, तृसरेणु, त्रुटि, वेध, लावा, निमेष, क्षण, काष्‍ठा, लघु, दंड, मुहूर्त, प्रहर या याम, दिवस, पक्ष, माह, ऋतु, अयन, वर्ष (वर्ष के पांच भेद - संवत्सर, परिवत्सर, इद्वत्सर, अनुवत्सर, युगवत्सर), दिव्य वर्ष, युग, महायुग, मन्वंतर, कल्प, अंत में दो कल्प मिलाकर ब्रह्मा का एक दिन और रात, तक की वृहत्तर समय पद्धति निर्धारित है।

हिन्दू धर्म अनुसार सभी लोकों का समय अलग-अलग है। सूर्य और तारों से रहित दिन-रात की संधि को तत्वदर्शी मुनियों ने संध्याकाल माना है। हम यहां जानकारी दे रहे हैं प्रहर की।

आठ प्रहर

सनातन धर्म के अनुसार (हिन्दू धर्मानुसार), 24 घंटे में दिन और रात मिलाकर आठ प्रहर होते हैं। प्रत्येक प्रहर तीन घंटे या फिर साढ़े सात घंटे का होता है, जिसमें दो मुहूर्त होते हैं। एक प्रहर एक घटी 24 मिनट की होती है। दिन के चार और रात के चार मिलाकर कुल आठ प्रहर। प्रत्येक प्रहर में गायन, पूजन, जप और प्रार्थना का महत्व है। हिंदू धर्म में प्रहर का विशेष महत्व होता है। हर एक प्रहर में पूजा, उपासना और शिशु के जन्म लेने के संबंध में कई बातों के बारे में विस्तार से बताया गया है।

इसी के आधार पर भारतीय शास्त्रीय संगीत में प्रत्येक राग के गाने का समय निश्चित है। प्रत्येक राग प्रहर अनुसार निर्मित है।

संध्यावंदन :

संध्यावंदन मुख्‍यत: दो प्रकार के प्रहर में की जाती है:- पूर्वान्ह और उषा काल। संध्या उसे कहते हैं जहां दिन और रात का मिलन होता हो। संध्यकाल में ही प्रार्थना या पूजा-आरती की जाती है, यही नियम है। दिन और रात के 12 से 4 बजे के बीच प्रार्थना या आरती वर्जित मानी गई है।

हर एक प्रहर का अपना एक खास महत्व है। इस दौरान विशेष पूजा विधियां भी की जाती हैं। इन आठ प्रहरों में चार दिन और चार रातें शामिल होती हैं, तो आइए इनके बारे में विस्तार से जानते हैं।

ये हैं आठ प्रहरों के नाम

दिन के चार प्रहर - 1. पूर्वान्ह, 2. मध्यान्ह, 3. अपरान्ह और 4. सायंकाल।
रात के चार प्रहर - 5. प्रदोष, 6. निशिथ, 7. त्रियामा एवं 8. उषा।

आठ प्रहर :- 

एक प्रहर तीन घंटे का होता है। सूर्योदय के समय दिन का पहला प्रहर प्रारंभ होता है जिसे पूर्वान्ह कहा जाता है। दिन का दूसरा प्रहर जब सूरज सिर पर आ जाता है तब तक रहता है जिसे मध्याह्न कहते हैं। इसके बाद अपरान्ह (दोपहर बाद) का समय शुरू होता है, जो लगभग 4 बजे तक चलता है। 4 बजे बाद दिन अस्त तक सायंकाल चलता है। फिर क्रमश: प्रदोष, निशिथ एवं उषा काल। सायंकाल के बाद ही प्रार्थना करना चाहिए।

पहला प्रहर

शाम के 6:00 बजे से लेकर रात्रि के 9:00 बजे तक का समय पहला प्रहर होता है, जिसे लोग प्रदोष काल के नाम से भी जानते हैं। इसको रात का प्रथम पहर भी कहा जाता है। इस पहर को सतोगुणी पहर भी कहते हैं। इस पहर में पूजा उपासना का विशेष महत्व होता है। इस प्रहर में देवी-देवताओं की पूजा करना बेहद ही शुभ माना जाता है। भगवान शिव की आराधना और दीपदान करने से नकारात्मक ऊर्जा का नाश होता है। ऐसा कहा जाता है कि इस दौरान सोना, खाना, पीना, लड़ाई-झगड़ा आदि से बचना चाहिए। इस समय घर में पूजा के स्थान पर घी या तिल के तेल का दीपक जलाना चाहिए। इस समय संध्या वंदन, मंत्र जाप और हवन करना अत्यंत फलदायी होता है। इस समय का उपयोग आत्मचिंतन और सत्संग में करना चाहिए।

इस प्रहर में अगर किसी बच्चे का जन्म होता है, तो वे शारीरिक समस्याओं से घिरे रहते हैं। इस पहर में जन्म लेने वालों को आमतौर पर आंखों और हड्डियों की समस्या होती है।

दूसरा प्रहर

रात्रि के 9:00 बजे से लेकर रात्रि 12:00 बजे तक का समय दूसरा प्रहर कहलाता है। ये पहर तामसिक और राजसिक होता है। यानि पूरी तरह से नकारात्मक नहीं होता है। यह समय नई चीजें नहीं खरीदनी चाहिए। ऐसी मान्यता है कि इस दौरान पेड़-पौधों को छूने (फूल-पत्ते तोड़ने) से बचना चाहिए, क्योंकि इस समय वे अपनी ऊर्जा संचित करते हैं। इस पहर में घर में बने खाने का कुछ हिस्सा किसी पशु को खिलाना चाहिए। ऐसा करने से आर्थिक स्थिति मजबूत हो सकती है।

वहीं जिन बच्चों का जन्म इस प्रहर में होता वे कलात्मक चीजों परिपूर्ण होते हैं। साथ ही ये लोग कला के क्षेत्र में अपनी एक अलग पहचान बनाते हैं। लेकिन उनकी शिक्षा में बाधा के योग बनते हैं।

तीसरा प्रहर

रात्रि के 12:00 बजे से 3:00 बजे तक के समय को तीसरा प्रहर कहा जाता है, जिसे लोग निशिथकाल के नाम से भी जानते हैं। इसे मध्यरात्रि भी कहा जाता है। ये पहर शुद्ध रूप से तामसिक है लेकिन इस पहर का कुछ विशेष लाभ भी है।इस समय को गुप्त साधनाओं, तांत्रिक क्रियाओं और सिद्धियों की प्राप्ति के लिए उपयुक्त माना गया है। इस पहर में स्नान बिल्कुल ना करें और आवश्यक ना हो तो भोजन भी ना करें। इस पहर में या तो विश्वास करें या ईश्वर की प्रार्थना करें, इस समय में की गई प्रार्थना जरूर पूरी होती है।

ऐसे में जिन लोगों का जन्म इस तीसरे प्रहर में होता है, वे सदैव अपने घर से दूर रहते हैं और सफल होते हैं। और इनके परिवार से संबंध अच्छे नहीं होते हैं।

चौथा प्रहर

प्रात: 3:00 बजे से लेकर 6:00 बजे तक का समय चौथा प्रहर कहलाता है। यह रात्रि का अंतिम प्रहर होता है। इस प्रहर में ब्रह्म मुहूर्त प्रारंभ होता है। इसलिए इसका खास महत्व होता है। यह प्रहर दिन का सबसे पवित्र समय होता है, जिसे ऊषा काल भी कहते हैं। इस दौरान की गई साधना और पूजा हजार गुना फलदायी होती है। ये पहर शुद्ध रूप से सात्विक होता है, आध्यात्मिक कामों (ध्यान, योग और मंत्र जप) के लिए अच्छा होता है। इस पहर में खाने-पीने से बचें, अगर सोकर में उठ सकें तो अच्छा होगा। ऐसा कहा जाता है कि इस दौरान पूजा-अर्चना और शुभ काम करना अच्छा माना जाता है, जो लोग इस प्रहर में भगवान शंकर की विशेष पूजा करते हैं उनकी सभी इच्छाएं पूरी होती हैं। इस समय वायुमंडल में ऑक्सीजन की मात्रा अधिक होती है, जो स्वास्थ्य के लिए लाभदायक होती है। ध्यान, योग, प्राणायाम और वेदपाठ करने से मानसिक शांति प्राप्त होती है।

इस समय में जन्मे बच्चे बहुत ही तेजस्वी और आध्यात्मिक होते हैं।

पांचवा प्रहर

सुबह 6:00 बजे से लेकर 9:00 बजे तक के समय को पांचवा प्रहर कहा जाता है। यह दिन का पहला प्रहर होता है। ये पहर आंशिक सात्विक और आंशिक राजसिक होता है, नकरात्मक बिल्कुल नहीं होता है। इस पहर में सोना नहीं चाहिए। क्रोध नहीं करना चाहिए और घर में गंदगी बिल्कुल नहीं रखनी चाहिए। इस समय सूर्य की किरणें पूरे वातावरण को ऊर्जावान बनाती हैं। पूजा-पाठ और सकारात्मक कार्यों के लिए यह समय उत्तम है। ऐसे में प्रतिदिन की पूजा इसी समय करनी चाहिए। इस पहर में घर के हर कोने में चंदन या गुलाब की सुंगध वाली अगरबत्ती जलाएं, ऐसा करने से घर में सुख-समृद्धि आती है। सूर्योदय के समय गायत्री मंत्र और हनुमान चालीसा का पाठ विशेष फलदायी होता है। इस समय नकारात्मक ऊर्जा का नाश होता है और दिन की अच्छी शुरुआत होती है।

वहीं जिन बच्चों का जन्म इस प्रहर में होता है वे नाम और प्रतिष्ठा खूब कमाते हैं। हालांकि इनके जीवन में स्वास्थ्य संबंधित समस्याएं बनी रहती हैं।

छठा प्रहर

प्रात: 9:00 बजे से लेकर दोपहर 12:00 बजे तक का समय छठा प्रहर कहलाता है। इस दिन का दूसरा पहर कहते हैं। इसमें कार्य शक्ति बढ़ जाती है, यह समय कर्मयोग का होता है। शिक्षा, व्यापार और श्रम करने का यह सबसे उपयुक्त समय है। इस पहर में मांगलिक कार्य करने से बचना चाहिए। इस पहर में अगर हनुमान जी को लाल फूल चढ़ाएं तो संपत्ति का लाभ मिलता है। कर्जे से राहत मिलती है। विद्या-अध्ययन, सत्संग और सेवा कार्य करना लाभदायी होता है।

इस प्रहर में जन्मे बच्चे प्रशासनिक सेवा और राजनीति क्षेत्र में जाते हैं, जहां इन्हें जबरदस्त सफलता मिलती है।

सातवां प्रहर

दोपहर 12:00 बजे से लेकर शाम 3:00 बजे तक का समय सातवां प्रहर कहलाता है। इसको दिन का तीसरा पहर भी कहते हैं, ये तमोगुणी पहर होता है। इस समय यज्ञ, दान-पुण्य और शुभ कार्य करना श्रेष्ठ माना गया है। इसमें कार्यक्षमता कम होती है। इस समय किए गए कार्यों में सफलता प्राप्त होती है। इसे देवताओं का काल भी कहा जाता है। इस दौरान हल्का भोजन करने की परंपरा है, जिससे शरीर स्वस्थ रहता है। लेकिन इस दौरान सोना नहीं चाहिए। साथ ही स्नान करने से बचना चाहिए।

इस पहर में जन्म लेने वाले बच्चों को शुरुआत में शिक्षा में बाधा आती है साथ ही उनका स्वभाव जिद्दी होता है।

आठवां प्रहर

शाम 3:00 बजे से लेकर 6:00 बजे तक का समय दिन का आखिरी और आठवां प्रहर होता है। ये दिन का चौथा पहर होता है। ये पहर सात्विक है पर इसमें तमोगुण की प्रधानता होती है। इस दौरान अधिक परिश्रम और नींद से बचना चाहिए। लेकिन भोजन नहीं करना चाहिए। इस पहर के दौरान नए कार्य शुरू करना अशुभ माना जाता है। इस समय सोने से आलस्य बढ़ता है और स्वास्थ्य प्रभावित होता है। देवी-देवताओं की आराधना और ध्यान करने से आत्मिक शांति प्राप्त होती है।

इस समय में जन्म लेने वाले बच्चे फिल्म, मीडिया और गलैमर के क्षेत्र में नाम-यश कमाते हैं, प्रेम विवाह की संभावना ज्यादा होती है।

8 प्रहर का धार्मिक महत्व

हर एक प्रहर का धार्मिक महत्व है, जिसमें किए जानें वाले अलग-अलग कार्य बनाए गए हैं। ऐसा कहा जाता है कि जो लोग प्रहर का ध्यान रखते हुए अपना कार्य करते हैं उनके कार्यों में कभी किसी प्रकार का विघ्न नहीं पड़ता है।

निष्कर्ष :-
प्रहर केवल समय के अंश नहीं हैं, बल्कि ये प्रकृति और ब्रह्मांड के साथ हमारे सामंजस्य को दर्शाते हैं। यदि हम इन प्रहरों का सही उपयोग करें, तो हम जीवन में संतुलन, ऊर्जा और आध्यात्मिक विकास सुनिश्चित कर सकते हैं।

अष्टयाम :-

वैष्णव मंदिरों में आठ प्रहर की सेवा-पूजा का विधान होती है, जिसे 'अष्टयाम' के नाम से जाना जाता है। इसलिए जो जातक अपने कार्यों का शुभ परिणाम चाहते हैं, उन्हें इन प्रहरों के बारे में अवश्य जान लेना चाहिए। वल्लभ सम्प्रदाय में मंगला, श्रृंगार, ग्वाल, राजभोग, उत्थापन, भोग, संध्या-आरती तथा शयन के नाम से ये कीर्तन-सेवाएं हैं। अष्टयाम हिन्दी का अपना विशिष्ट काव्य-रूप जो रीतिकाल में विशेष विकसित हुआ। इसमें कथा-प्रबंध नहीं होता परंतु कृष्ण या नायक की दिन-रात की चर्या-विधि का सरस वर्णन होता है। यह नियम मध्यकाल में विकसित हुआ जिसका शास्त्र से कोई संबंध नहीं।



रविवार, 8 जून 2025

"जुग सहस्त्र जोजन पर भानु, लील्यो ताहि मधुर फल जानू" का अर्थ

हनुमान चालीसा (Hanuman Chalisa) का दोहा "जुग सहस्त्र जोजन पर भानु, लील्यो ताहि मधुर फल जानू"

Distance Between Sun and Earth
सैंकड़ों साल पहले गोस्वामी तुलसीदास ने हनुमान चालीसा की रचना की थी। हनुमान चालीसा का एक दोहा है, इस दोहे में सूरज और पृथ्वी के बीच की दूरी बताई गई है। आश्चर्य की बात यह है कि इस वक्त विज्ञान ने इतनी तरक्की नहीं की थी और तब भी शास्त्रों में इसकी जानकारी पहले से ही लिखी थी। हनुमान चालीसा में एक दोहा है -
"जुग सहस्त्र जोजन पर भानु,
लील्यो ताहि मधुर फल जानू"
इसी दोहे में सूरज और धरती के बीच की दूरी बताई गई है। आइए जानते हैं इसका क्या अर्थ है और कैसे इससे सूरज और पृथ्वी के बीच की दूरी पता चलती है।

कितनी है सूरज और धरती के बीच की दूरी
हनुमान चालीसा के इस 18वीं चौपाई में ही सूरज और धरती के बीच की दूरी का गणित छिपा है। यह दोहा अवधी भाषा में है इस दोहे का हिंदी भाषा में अर्थ यह है कि हनुमान जी ने एक युग सहस्त्र योजन की दूरी पर स्थित भानु (सूर्य) को मीठा फल (आम) समझकर खा लिया था। बता दें कि योजन पहले दूरी के लिए इस्तेमाल की जाने वाली ईकाई थी। इसमें एक युग का मतलब 12000 वर्ष, एक सहस्त्र का मतलब 1000 और एक योजन यानी 8 मील होता है। अब देखा जाए तो युग x सहस्त्र x योजन = 12000x1000x8 मील। इस प्रकार यह दूरी 96000000 मील है। किलोमीटर में अगर इस दूरी को देखें तो एक मील में 1.6 किमी होते हैं तो इस हिसाब से 96000000x1.6= 153600000 किमी। इस गणित के आधार गोस्वामी तुलसीदास ने प्राचीन समय में ही बता दिया था कि सूर्य और पृथ्वी के बीच की दूरी करीब 15 करोड़ किलोमीटर है।

यह ठीक वही दूरी है जो नासा ने पृथ्वी से सूर्य तक पहुंचने के लिए गणना की है। यह जानना वाकई अविश्वसनीय है कि प्राचीन भारतीय इतने प्रतिभाशाली थे कि वे किसी भी आधुनिक उपकरण या कैलकुलेटर के बिना पृथ्वी और सूर्य के बीच की दूरी की गणना कर सकते थे।

सूरज को मुंह में रख लिया था
शास्त्रों के मुताबिक हनुमानजी भगवान शिव के ही अवतार हैं और उन्हें जन्म से ही कई दिव्य शक्तियां प्राप्त थीं। हनुमान चालीसा के अनुसार बचपन में बाल हनुमान को खेलते हुए सूर्य ऐसे दिखाई दिया जैसे वह कोई मीठा फल हो। वे उसे खाने की चाह में तुरंत ही सूर्य तक उड़कर पहुंच गए।

हनुमान जी ने स्वयं का आकार इतना विशाल बनाया कि उन्होंने सूर्य को ही अपने मुख में रख लिया। उनके ऐसा करने से पूरी सृष्टि में अंधकार फैल गया और सभी देवी-देवता डर गए। जब इंद्र देव को यह पता चला कि किसी वानर बालक ने सूर्य को खा लिया है तो वे क्रोधित हो गए। इंद्र हनुमान जी के पास पहुंचे और उन्होंने बाल हनुमान की ठोड़ी पर अपने शस्त्र वज्र से प्रहार कर दिया। इस प्रहार से केसरी नंदन की ठुड्डी कट गई। इसी वजह से वो हनुमान कहलाए। ठुड्डी को संस्कृत में हनु कहा जाता है।

सीखने को है बहुत कुछ
हनुमान का एक अर्थ है निरहंकारी या अभिमानरहित भी होता है। हनु का अर्थ हनन करना और मान का अर्थ होता है अहंकार, यानी जिसने अपने अहंकार का हनन कर दिया हो। हनुमानजी को कोई अभिमान नहीं था। हमें हनुमान जी से सीखना चाहिए और समृद्ध जीवन जीने के लिए अपने अहंकार को त्यागना चाहिए।

भगवान हनुमान भारतीय महाकाव्य रामायण के महान केंद्रीय पात्र हैं। हनुमान अपनी शक्ति के लिए प्रसिद्ध हैं और वे सभी प्रकार के हथियारों से अछूते हैं। उनके पास अत्यधिक गति (मनोजवम, मरुथा तुल्य वेगम) तेज, बुद्धि, मृत्यु का भय न होना (चिरंजीवी) है, उन्होंने मोहक इंद्रियों पर विजय प्राप्त कर ली है। उन्हें आठ सिद्धियों और नौ भक्तियों का ज्ञान है। दुनिया का सबसे खतरनाक हथियार ब्रह्मास्त्र भी उन्हें कभी नुकसान नहीं पहुंचा सकता। वे श्री राम के सबसे शक्तिशाली लेकिन बहुत आज्ञाकारी भक्त हैं।

तुलसीदास या गोस्वामी तुलसीदास, जिन्होंने रामचरितमानस लिखा था, वे ही हनुमान चालीसा के रचयिता हैं। ऐसा कहा जाता है कि उन्होंने वाराणसी में हनुमान जी के दर्शन भी किए थे, जहाँ वे रहते थे और उन्होंने वाराणसी में संकटमोचन हनुमान मंदिर नामक एक मंदिर बनवाया था, जहाँ उन्हें भगवान हनुमान के दर्शन हुए थे।



शनिवार, 7 जून 2025

भारत के नक्शे में क्यों दिखाई देता हैं श्रीलंका?

भारत के नक्शे में श्रीलंका को दिखाना क्यों है जरूरी?

जब हम भारत देश का जिक्र करते हैं तो इसे विविधताओं का देश कहा जाता है। भारत की अनूठी परंपराएं, संस्कृति और भाषाएं, खान-पान, वेशभूषा और यहां की कलाएं इसे अन्य देशों से अलग बनाती हैं। भारत की सीमा 7 देशों से लगती है। इन देशों में अफगानिस्तान, पाकिस्तान, चीन, नेपाल, भूटान, बांग्लादेश और म्यांमार शामिल है।

हम बचपन से ही भूगोल के विषय में भारत का नक्शा देखते आ रहे हैं। मानचित्र में दिखाया जाता है कि कौन सा राज्य देश के किस भाग में स्थित है। यह चित्र भारतीय सीमा को खूबसूरती से दर्शाता है, लेकिन इसमें पाकिस्तान या नेपाल की सीमाएं नहीं दिखाई गई हैं।

हालांकि जब हम भारत (India) के नक्शे को देखते हैं तो हमें श्रीलंका (Sri Lanka) जरूर नजर आता है। लेकिन हम अन्य देश नहीं देखते हैं। जबकि श्रीलंका एक अलग देश है। अब बड़ा सवाल यह है कि अगर भारत की सीमा श्रीलंका से नहीं लगती है तो भारत के नक्शे में श्रीलंका क्यों दिखाई देता है? अब आपके मन में सवाल उठ रहा होगा कि क्या ऐसा पडोसी देश होने की वजह से है? लेकिन पाकिस्तान और चीन भी तो भारत के पडोसी देश हैं। बावजूद इसके भारत के मैप श्रीलंका को ही क्यों दिखाया जाता है पाकिस्तान और चीन को क्यों नहीं?

ऐसा नहीं है कि श्रीलंका से हमारे अच्छे संबंध है तो इसे भारत के नक्शे में दिखाए जाने से कुछ दिक्कत नहीं होती है जबकि इसके पीछे एक अहम वजह है।

जानें भारत के समुद्री सीमा की लंबाई

अगर हम भारत की समुद्री सीमा की बात करें तो इसकी कुल लंबाई 7516.6 किलोमीटर है। भारत की समुद्री सीमा गुजरात, गोवा, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, ओडिशा, दादर और नगर हवेली, दमन एवं दीव, लक्षद्वीप, पुडुचेरी, अंडमान और निकोबार दीप समूह से होकर गुजरती है। लेकिन इसमें भी श्रीलंका नहीं आता है। श्रीलंका एक अलग देश है लेकिन हम उसे भारत के मानचित्र पर हमेशा नीचे की तरफ देखते ही देखते हैं। हम सभी जानते हैं कि श्रीलंका पर भारत का कोई अधिकार नहीं है।

समुद्री क़ानून (ओसियन लॉ /Law of the Sea) क्या है?

भारत के नक्शे में श्रीलंका दिखाए जाने का मतलब ये नहीं है कि भारत का उस पर कोई अधिकार है या फिर दोनों देश के बीच ऐसा कोई करार है। दरअसल भारत के नक्शे में श्रीलंका को दिखाए जाने का मुख्य कारण समुद्री कानून है। इसे ओसियन लॉ भी कहा जाता है। अगर भारतीय नक्शे में श्रीलंका को नहीं दिखाया जाता तो यह कानूनन अपराध माना जाएगा। यही वजह है कि हर भारतीय नक्शे में श्रीलंका को जरूर दिखाया जाता है। और इसमें हिंद महासागर का कितना अहम रोल है।

दुनिया के कई देश ऐसे हैं जो समुद्री सीमा से लगते हैं। वर्ष 1956 में संयुक्त राष्ट्र (United Nations /यूनाइटेड नेशंस) ने ‘कन्वेंशन ऑफ द लॉ ऑफ द सी’ (Convention of the law of the Sea) (UNCLOS-1) का सम्मेलन आयोजित किया गया और इसके बाद 1958 में इस सम्मेलन का रिजल्ट घोषित किया गया। इस सम्मेलन में अलग-अलग देशों की समुद्री सीमा और उनसे जुड़ी संधियों व समझौतों पर गहन चर्चा की गई। ऐसे में अलग-अलग कानून बनाए गए। वहीं, इसके बाद भी बैठकों का दौर जारी रहा और साल 1973 से 1982 तक तीन बैठकों (तीसरा सम्मेलन (UNCLOS-III)) का आयोजन किया गया। बैठकों में अलग-अलग समुद्री सीमाओं को लेकर कानून बनाए गए और उन्हें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता देने के लिए प्रक्रिया हुई। इसी में ‘लॉ ऑफ द सी’ शामिल था। इस कानून के तहत किसी भी देश के नक्शे में उस देश की आधार रेखा यानी बेसलाइन से 200 नॉटिकल माइल यानि कि 370.4 किलोमीटर की सीमा को दिखाना अनिवार्य कर दिया गया। सीधे शब्दों में समझें तो अगर कोई देश समुद्र के किनारे बसा हुआ है या फिर उसका एक हिस्सा समुद्र से जुड़ा है तो इस स्थिति में उस देश के नक्शे में देश की सीमा से आस-पास का क्षेत्र भी नक्शे में दिखाया जाएगा।

लॉ ऑफ द सी के मुताबिक, अगर किसी देश की सीमा समुद्र से लगती है तो लगभग 200 नॉटिकल माइल यानी करीब 370 किलोमीटर तक का समुद्री इलाका उस देश का समुद्री इलाका माना जाएगा। संबंधित देश की नौसेनाएं भी इस 370 किलोमीटर की दूरी पर तैनात की जा सकती हैं। (एक नॉटिकल माइल्स (nmi) में 1.824 किलोमीटर (km) होते हैं।)

भारत के नक्शे में श्रीलंका क्यों?

अब हम आते हैं श्रीलंका पर। दरअसल श्रीलंका से भारत की दूरी 18 नॉटिकल मील यानि कि 33.33 किलोमीटर है। भारत का धनुषकोडी इलाका और श्रीलंका के थलाईमन्नार की दूरी 30 किलोमीटर है। अब अंतरराष्ट्रीय कानून के अनुसार 370 किलोमीटर तक के एरिया को भारत को अपने नशे में दिखाना होगा। ऐसे में इसी कारण श्रीलंका को भी भारत के नक्शे में दिखाना जरूरी होता है। इसी तरह श्रीलंका भी भारत के कुछ हिस्सों को अपने मानचित्र में दिखाएगा।

इससे साफ हो जाता है कि भारत के नक्शे में इस वजह से श्रीलंका अहम स्थान रखता है और ये ही कारण है इसपर कोई विवाद भी नहीं होता है। इसी नियम का पालन अन्य समुद्री भी करते हैं।

हालांकि, पाकिस्तान, चीन, नेपाल, भुटान, बांग्लादेश और म्यांमार को इसलिए मैप पर दिखाया जाता है क्योंकि इन्हें शामिल किए बगैर पूरे भारत के नक्शे को दिखा पाना संभव नहीं है।

भूमि सीमा को लेकर भी जान लें सबकुछ

वहीं अगर हम भारत की भूमि सीमा की बात करें तो यह करीब 15,200 किलोमीटर है। भारत की भूमि सीमा 17 प्रदेशों के 82 जिलों से होकर गुजरती है। यानी भारत के 82 जिले चीन, पाकिस्तान, भूटान, अफगानिस्तान, म्यांमार, बांग्लादेश और नेपाल से सीमा साझा करते हैं। भारत, बांग्लादेश के साथ सबसे अधिक सीमा साझा करता है। भारत, बांग्लादेश के साथ 4096.7 किलोमीटर की सीमा साझा करता है। वहीं आप अक्सर चीन के साथ सीमा विवाद की खबरें सुनते होंगे। भारत, चीन के साथ 3488 किलोमीटर की सीमा साझा करता है। वहीं पाकिस्तान के साथ भारत की सीमा की लंबाई 3323 किलोमीटर है। भारत, नेपाल का भी पड़ोसी देश है और नेपाल के साथ 1751 किलोमीटर की सीमा साझा करता है। वहीं भारत, म्यांमार के साथ 1643 किलोमीटर लंबी सीमा साझा करता है। भारत, भूटान के साथ 699 किलोमीटर की सीमा साझा करता है। वहीं भारत के साथ अफगानिस्तान की भी सीमा लगती है। भारत के साथ अफगानिस्तान की सीमा की लंबाई 106 किलोमीटर है।


रविवार, 13 अप्रैल 2025

यज़ीदी धर्म और हिन्दू धर्म

यज़ीदी धर्म और हिन्दू धर्म

यज़ीदी धर्म क्या है? यज़ीदी शब्द, कुर्द से निकला है। जिसका अर्थ होता है "जिसने मुझे बनाया" अर्थात निर्माता और ईश्वर। यज़ीदीवाद एक ईश्वर यानी एकेश्वरवाद में विश्वास रखते हैं। यज़ीदी ईश्वर को खुदा कहते हैं। प्रत्येक यज़ीदी को, नैतिकता, सही - गलत, न्याय, सच्चाई, वफादारी, दया और प्रेम जैसे सिद्धांतों पर आधारित है। यज़ीदी खुद को सबसे पुराने धर्मों में से एक का सदस्य होने दावा करते हैं और मिथ्रावाद, यार्सन और ज़ारथ्रिस्ट्रा के साथ अपने संबंधों का विवरण देते हैं। यज़ीदियों का इतिहास एक मौखिक इतिहास है। यज़ीदी के बारे में बहुत ही कम दस्तावेज मिले हैं। यज़ीदी आमतौर पर मानते हैं कि, उनकी उत्पत्ति मिथरिक धर्म से 14वीं शताब्दी ई.पू. से है। 7वीं शताब्दी तक, यज़ीदी शब्द के ऐतिहासिक स्रोत के बारे में कोई उल्लेख नहीं मिलता है। ऐसा अनुमान है कि, सदी के अंत में मोस्लेम के मौलवियों और इतिहासकारों ने यज़ीदी शब्द का इस्तेमाल किया था। करीब पिछले 50 वर्षों में यज़ीदी वास्तविक संपर्क में आने लगे थे। जब उस्मान सम्राज्य का पतन हुआ था। तो कई यज़ीदी भाग गए और आकार अर्मेनियाई लोगों के साथ और सोवियत संघ के कारकेस क्षेत्रों में रहने लगे थे। प्रथम विश्व युद्ध के अंत में 1923 में जब तुर्की की नींव रखी गई तब इन यज़ीदीयों का विभाजन हो गया था। तब से यह यज़ीदी तुर्की, इराक, सीरिया और पूर्व सोवियत संघ में रह रहे हैं।
यज़ीदी समुदाय यज़ीदी कैलेण्डर के अनुसार, उनका नव वर्ष अप्रैल के पहले बुधवार को होता है और पैतृक कब्रों पर विलाप द्वारा इसे चिन्हित किया जाता है। वसंत के मौसम में ग्राम त्योहारों, जिसमें स्थानीय धार्मिक स्थलों पर दावत, संगीत और मन्नत शामिल है। प्रत्येक गांव का अपना - अपना अभियान होता है। जिन्हें अक्सर बड़ी बस्तियों में आयोजित किया जाता है। वर्ष का सबसे बड़ा त्यौहार "शरद जमुनिया" जिसे अक्टूबर के महीने में आयोजित किया जाता है। जब सभी "लालिश" तीर्थ यात्रा करने में सक्षम होते है। जहां सभी की उपस्थिति एक धार्मिक कर्तव्य माना जाता है। 
दुनिया में सबसे लुप्तप्राय धार्मिक अल्पसंख्यक में एक यज़ीदी मुख्यतः हालहिं के वर्षों में सब की नजर में चढ़ गए हैं। 2014 में इस्लामिक स्टेट ने माउंट सिंजर के यज़ीदियों के प्राचीन समुदाय पर निर्ममता पूर्वक हमला किया। सैकड़ों पुरुषों का नरसंहार किया, महिलाओं और बच्चों को या तो मार डाला या उन्हें अपना गुलाम बना लिया और यह चौंका देने वाला नरसंहार हाल के वर्षों में चर्चा का विषय रहा है। 
लेकिन क्या आप जानते हैं, हिन्दुओं और यज़ीदियों के बीच सांस्कृतिक रूप से कई समानताएं देखने को मिलते हैं। जैसे कि हम जानते हैं कि, हिन्दू धर्म में पुनर्जन्म का विशेष महत्व होता है। हमारे ग्रंथों - शास्त्रों में पुनर्जन्म की अवधारणाओं को स्पष्ट उल्लेख किया गया है। महत्वपूर्ण बात यह है कि, पारगमन या पुनर्जन्म की यह अवधारणा यज़ीदी मान्यताओं में भी देखने को मिलती है। जीवन और मृत्यु के बाद का यह विचार दोनों धर्मों में एक समानता प्रकट करता है।
इसके अलावा हिन्दू धर्म में भौहों के मध्य तिलक करने का विशेष महत्व होता है। हिन्दू संस्कृति में इसे "टीका" भी कहते हैं। माथे के बीच में पवित्र चिन्ह के रूप में टीका लगाते हैं। यज़ीदी भी पवित्रता को विशेष महत्व देते हैं और वह भी भौहों के बीच तिलक करने के लिए जाने जाते है
यज़ीदियों और हिंदुओं के बीच एक प्रमुख समानता यह है कि, हिन्दू संस्कृति में भगवान शिव ने अपनी ऊर्जा की शक्ति से अपने पुत्र कार्तिकेय को बनाया है। वहीं यज़ीदी देवता तवसी मेलेक को भी उनके पिता ने ही बनाया है। जो यज़ीदियों के प्रमुख देव माने जाते हैं।
हमारे हिन्दू धर्म में भगवान के मंदिरों को एक प्रमुख स्थल माना जाता है। मंदिरों की कला, वहां उत्कीर्ण भित्ति चित्र का भी विशेष महत्व है। यज़ीदियों में भी मंदिरों का विशेष महत्व है। "लालिश" को यज़ीदियों का सबसे पवित्र मंदिर माना जाता है। इसके अतिरिक्त पारंपरिक हिन्दू तरीके, यहां की आरती और पूजा के कई धार्मिक तरीके भी 
यज़ीदी रिवाजों में देखने को मिलते हैं। हिंदू संस्कृति में इस्तेमाल किए जाने वाले, आरती के थाल उनके लैंप भी काफी मिलते जुलते है। यज़ीदियों में इसे "संजकस" कहा जाता है। इस प्रकार आरती के रूप में अग्नि का प्रयोग, दोनों संस्कृतियों में समानताएं प्रकट करता है।
इस प्रकार कई धरातल पर, यज़ीदी संस्कृति हिन्दू संस्कृति में समानताएं देखने को मिलती है। भौगोलिक रूप से अलग - अलग होने के उपरांत भी, इन दोनों संस्कृति में महत्वपूर्ण समानताएं जुड़ी हुई है।
आद्य हिन्द-ईरानी धर्म  से तात्पर्य हिन्द-ईरानी लोगों के उस धर्म से है जो वैदिक एवं जरुस्थ्र धर्मग्रन्थों की रचना के पहले विद्यमान था।
दोनों में अनेक मामलों में साम्य है। जैसे, सार्वत्रिक बल 'ऋक्' (वैदिक) तथा अवेस्ता का 'आशा', पवित्र वृक्ष तथा पेय 'सोम' (वैदिक) एवं अवेस्ता में 'हाओम', मित्र (वैदिक), अवेस्तन और प्राचीन पारसी भाषा में 'मिथ्र'भग (वैदिक), अव्स्तन एवं प्राचीन पारसी में 'बग'
ईरानी भाषा की गणना आर्य भाषाओं में ही की जाती है। भाषा-विज्ञान के आधार पर कुछ यूरोपीय विद्वानों का मत है कि आर्यों का आदि स्थान दक्षिण-पूर्वी यूरोप में कहीं था। इसी मत के अनुसार जब आर्य अपने-अपने अन्य बन्धुओँ का साथ छोड़कर आगे बढ़े तो कुछ लोग ईरान में बस गये तथा कुछ लोग और आगे बढ़कर भरत में आ बसे।
भारत और ईरान-दोनों की ही शाखा होने के कारण, दोनों देशों की भाषाओं में पर्याप्त साम्य पाया जाता है। इन देशों के प्राचीनतम ग्रन्थ क्रमश: 'ऋग्वेद' तथा 'जेन्द अवेस्ता' हैं। 'जेन्द अवेस्ता' का निर्माण-काल लगभग शती ई.पु. है, जबकि ऋग्वेद इससे सहस्रों वर्ष पूर्व रचा जा चुका था। 'जेन्द' की भाषा पूर्णत: वैदिक संस्कृत की अपभ्रंश प्रतीत होती है तथा इसके अनेक शब्द या तो संस्कृत शब्दों से मिलते-जुलते है अथवा पूर्णँत: संस्कृत के ही हैं। इसके अतिरिक्त 'अवेस्ता' में अनेक वाक्य ऐसे हैं, जो साधारण परिवर्तन से संस्कृत के बन सकते हैं, संस्कृत और जिन्द में इसी प्रकार का साम्य देखकर प्रो॰ हीरेन ने कहा है कि जिन्द भाषा का उद्भव संस्कृत से हुआ है।
भाषा के अतिरिक्त वेद और अवेस्ता के धार्मिक तथ्यों में भी पार्याप्त समानता पाई जाती है। दोनों में ही एक ईश्वर की घोषणा की गई है। उनमें मन्दिरों और मूर्तियों के लिए कोई स्थान नहीं है। इन दोनों में वरुण को देवताओं का अधिराज माना गया है। वैदिक 'असुर' ही अवेस्ता का 'अहर' है। ईरानी `मज्दा' का वही अर्थ है, जो वैदिक संस्कृत में 'मेधा' का। वैदिक `मित्र' देवता ही 'अवेस्ता' का `मिथ्र' है। वेदों का यज्ञ 'अवेस्ता' का `यस्न' है। वस्तुत: यज्ञ, होम, सोम की प्रथाएं दोनों देशों में थीं। अवेस्ता में 'हफ्त हिन्दु' और ऋग्वेद में 'आर्याना' का वर्णन मिलता है
पहलवी और वौदिक संस्कृत लगभग समान `मित्र' और 'मिथ्र' की स्तुतियां एक -से शब्दों में हैं। प्राचीन काल में दोनों देशों के धर्मो और भाषाओँ की भी एक-सी ही भूमिका रही है। ईरान में अखमनी साम्राज्य का वैभव प्रथम दरियस के समय में चरमोत्कर्ष पर रहा। उसने अपना साम्राज्य सिन्धु घाटी तक फैलाया। तब भारत-ईरान में परस्पर व्यापार होता था। भारत से वहां सूती कपड़े, इत्र, मसालों का निर्यात और ईरान से भारत में घोड़े तथा जवाहरात का आयात होता था। दरियस ने अपने सूसा के राजप्रासादों में भारतीय सागौन और हाथीदांत का प्रयोग किया तथा भारतीय शैली के मेराबनुमा राजमहलों का निर्माण करवाया।