रविवार, 8 जून 2025

"जुग सहस्त्र जोजन पर भानु, लील्यो ताहि मधुर फल जानू" का अर्थ

हनुमान चालीसा (Hanuman Chalisa) का दोहा "जुग सहस्त्र जोजन पर भानु, लील्यो ताहि मधुर फल जानू"

Distance Between Sun and Earth
सैंकड़ों साल पहले गोस्वामी तुलसीदास ने हनुमान चालीसा की रचना की थी। हनुमान चालीसा का एक दोहा है, इस दोहे में सूरज और पृथ्वी के बीच की दूरी बताई गई है। आश्चर्य की बात यह है कि इस वक्त विज्ञान ने इतनी तरक्की नहीं की थी और तब भी शास्त्रों में इसकी जानकारी पहले से ही लिखी थी। हनुमान चालीसा में एक दोहा है -
"जुग सहस्त्र जोजन पर भानु,
लील्यो ताहि मधुर फल जानू"
इसी दोहे में सूरज और धरती के बीच की दूरी बताई गई है। आइए जानते हैं इसका क्या अर्थ है और कैसे इससे सूरज और पृथ्वी के बीच की दूरी पता चलती है।

कितनी है सूरज और धरती के बीच की दूरी
हनुमान चालीसा के इस 18वीं चौपाई में ही सूरज और धरती के बीच की दूरी का गणित छिपा है। यह दोहा अवधी भाषा में है इस दोहे का हिंदी भाषा में अर्थ यह है कि हनुमान जी ने एक युग सहस्त्र योजन की दूरी पर स्थित भानु (सूर्य) को मीठा फल (आम) समझकर खा लिया था। बता दें कि योजन पहले दूरी के लिए इस्तेमाल की जाने वाली ईकाई थी। इसमें एक युग का मतलब 12000 वर्ष, एक सहस्त्र का मतलब 1000 और एक योजन यानी 8 मील होता है। अब देखा जाए तो युग x सहस्त्र x योजन = 12000x1000x8 मील। इस प्रकार यह दूरी 96000000 मील है। किलोमीटर में अगर इस दूरी को देखें तो एक मील में 1.6 किमी होते हैं तो इस हिसाब से 96000000x1.6= 153600000 किमी। इस गणित के आधार गोस्वामी तुलसीदास ने प्राचीन समय में ही बता दिया था कि सूर्य और पृथ्वी के बीच की दूरी करीब 15 करोड़ किलोमीटर है।

यह ठीक वही दूरी है जो नासा ने पृथ्वी से सूर्य तक पहुंचने के लिए गणना की है। यह जानना वाकई अविश्वसनीय है कि प्राचीन भारतीय इतने प्रतिभाशाली थे कि वे किसी भी आधुनिक उपकरण या कैलकुलेटर के बिना पृथ्वी और सूर्य के बीच की दूरी की गणना कर सकते थे।

सूरज को मुंह में रख लिया था
शास्त्रों के मुताबिक हनुमानजी भगवान शिव के ही अवतार हैं और उन्हें जन्म से ही कई दिव्य शक्तियां प्राप्त थीं। हनुमान चालीसा के अनुसार बचपन में बाल हनुमान को खेलते हुए सूर्य ऐसे दिखाई दिया जैसे वह कोई मीठा फल हो। वे उसे खाने की चाह में तुरंत ही सूर्य तक उड़कर पहुंच गए।

हनुमान जी ने स्वयं का आकार इतना विशाल बनाया कि उन्होंने सूर्य को ही अपने मुख में रख लिया। उनके ऐसा करने से पूरी सृष्टि में अंधकार फैल गया और सभी देवी-देवता डर गए। जब इंद्र देव को यह पता चला कि किसी वानर बालक ने सूर्य को खा लिया है तो वे क्रोधित हो गए। इंद्र हनुमान जी के पास पहुंचे और उन्होंने बाल हनुमान की ठोड़ी पर अपने शस्त्र वज्र से प्रहार कर दिया। इस प्रहार से केसरी नंदन की ठुड्डी कट गई। इसी वजह से वो हनुमान कहलाए। ठुड्डी को संस्कृत में हनु कहा जाता है।

सीखने को है बहुत कुछ
हनुमान का एक अर्थ है निरहंकारी या अभिमानरहित भी होता है। हनु का अर्थ हनन करना और मान का अर्थ होता है अहंकार, यानी जिसने अपने अहंकार का हनन कर दिया हो। हनुमानजी को कोई अभिमान नहीं था। हमें हनुमान जी से सीखना चाहिए और समृद्ध जीवन जीने के लिए अपने अहंकार को त्यागना चाहिए।

भगवान हनुमान भारतीय महाकाव्य रामायण के महान केंद्रीय पात्र हैं। हनुमान अपनी शक्ति के लिए प्रसिद्ध हैं और वे सभी प्रकार के हथियारों से अछूते हैं। उनके पास अत्यधिक गति (मनोजवम, मरुथा तुल्य वेगम) तेज, बुद्धि, मृत्यु का भय न होना (चिरंजीवी) है, उन्होंने मोहक इंद्रियों पर विजय प्राप्त कर ली है। उन्हें आठ सिद्धियों और नौ भक्तियों का ज्ञान है। दुनिया का सबसे खतरनाक हथियार ब्रह्मास्त्र भी उन्हें कभी नुकसान नहीं पहुंचा सकता। वे श्री राम के सबसे शक्तिशाली लेकिन बहुत आज्ञाकारी भक्त हैं।

तुलसीदास या गोस्वामी तुलसीदास, जिन्होंने रामचरितमानस लिखा था, वे ही हनुमान चालीसा के रचयिता हैं। ऐसा कहा जाता है कि उन्होंने वाराणसी में हनुमान जी के दर्शन भी किए थे, जहाँ वे रहते थे और उन्होंने वाराणसी में संकटमोचन हनुमान मंदिर नामक एक मंदिर बनवाया था, जहाँ उन्हें भगवान हनुमान के दर्शन हुए थे।



शनिवार, 7 जून 2025

भारत के नक्शे में क्यों दिखाई देता हैं श्रीलंका?

भारत के नक्शे में श्रीलंका को दिखाना क्यों है जरूरी?

जब हम भारत देश का जिक्र करते हैं तो इसे विविधताओं का देश कहा जाता है। भारत की अनूठी परंपराएं, संस्कृति और भाषाएं, खान-पान, वेशभूषा और यहां की कलाएं इसे अन्य देशों से अलग बनाती हैं। भारत की सीमा 7 देशों से लगती है। इन देशों में अफगानिस्तान, पाकिस्तान, चीन, नेपाल, भूटान, बांग्लादेश और म्यांमार शामिल है।

हम बचपन से ही भूगोल के विषय में भारत का नक्शा देखते आ रहे हैं। मानचित्र में दिखाया जाता है कि कौन सा राज्य देश के किस भाग में स्थित है। यह चित्र भारतीय सीमा को खूबसूरती से दर्शाता है, लेकिन इसमें पाकिस्तान या नेपाल की सीमाएं नहीं दिखाई गई हैं।

हालांकि जब हम भारत (India) के नक्शे को देखते हैं तो हमें श्रीलंका (Sri Lanka) जरूर नजर आता है। लेकिन हम अन्य देश नहीं देखते हैं। जबकि श्रीलंका एक अलग देश है। अब बड़ा सवाल यह है कि अगर भारत की सीमा श्रीलंका से नहीं लगती है तो भारत के नक्शे में श्रीलंका क्यों दिखाई देता है? अब आपके मन में सवाल उठ रहा होगा कि क्या ऐसा पडोसी देश होने की वजह से है? लेकिन पाकिस्तान और चीन भी तो भारत के पडोसी देश हैं। बावजूद इसके भारत के मैप श्रीलंका को ही क्यों दिखाया जाता है पाकिस्तान और चीन को क्यों नहीं?

ऐसा नहीं है कि श्रीलंका से हमारे अच्छे संबंध है तो इसे भारत के नक्शे में दिखाए जाने से कुछ दिक्कत नहीं होती है जबकि इसके पीछे एक अहम वजह है।

जानें भारत के समुद्री सीमा की लंबाई

अगर हम भारत की समुद्री सीमा की बात करें तो इसकी कुल लंबाई 7516.6 किलोमीटर है। भारत की समुद्री सीमा गुजरात, गोवा, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, ओडिशा, दादर और नगर हवेली, दमन एवं दीव, लक्षद्वीप, पुडुचेरी, अंडमान और निकोबार दीप समूह से होकर गुजरती है। लेकिन इसमें भी श्रीलंका नहीं आता है। श्रीलंका एक अलग देश है लेकिन हम उसे भारत के मानचित्र पर हमेशा नीचे की तरफ देखते ही देखते हैं। हम सभी जानते हैं कि श्रीलंका पर भारत का कोई अधिकार नहीं है।

समुद्री क़ानून (ओसियन लॉ /Law of the Sea) क्या है?

भारत के नक्शे में श्रीलंका दिखाए जाने का मतलब ये नहीं है कि भारत का उस पर कोई अधिकार है या फिर दोनों देश के बीच ऐसा कोई करार है। दरअसल भारत के नक्शे में श्रीलंका को दिखाए जाने का मुख्य कारण समुद्री कानून है। इसे ओसियन लॉ भी कहा जाता है। अगर भारतीय नक्शे में श्रीलंका को नहीं दिखाया जाता तो यह कानूनन अपराध माना जाएगा। यही वजह है कि हर भारतीय नक्शे में श्रीलंका को जरूर दिखाया जाता है। और इसमें हिंद महासागर का कितना अहम रोल है।

दुनिया के कई देश ऐसे हैं जो समुद्री सीमा से लगते हैं। वर्ष 1956 में संयुक्त राष्ट्र (United Nations /यूनाइटेड नेशंस) ने ‘कन्वेंशन ऑफ द लॉ ऑफ द सी’ (Convention of the law of the Sea) (UNCLOS-1) का सम्मेलन आयोजित किया गया और इसके बाद 1958 में इस सम्मेलन का रिजल्ट घोषित किया गया। इस सम्मेलन में अलग-अलग देशों की समुद्री सीमा और उनसे जुड़ी संधियों व समझौतों पर गहन चर्चा की गई। ऐसे में अलग-अलग कानून बनाए गए। वहीं, इसके बाद भी बैठकों का दौर जारी रहा और साल 1973 से 1982 तक तीन बैठकों (तीसरा सम्मेलन (UNCLOS-III)) का आयोजन किया गया। बैठकों में अलग-अलग समुद्री सीमाओं को लेकर कानून बनाए गए और उन्हें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता देने के लिए प्रक्रिया हुई। इसी में ‘लॉ ऑफ द सी’ शामिल था। इस कानून के तहत किसी भी देश के नक्शे में उस देश की आधार रेखा यानी बेसलाइन से 200 नॉटिकल माइल यानि कि 370.4 किलोमीटर की सीमा को दिखाना अनिवार्य कर दिया गया। सीधे शब्दों में समझें तो अगर कोई देश समुद्र के किनारे बसा हुआ है या फिर उसका एक हिस्सा समुद्र से जुड़ा है तो इस स्थिति में उस देश के नक्शे में देश की सीमा से आस-पास का क्षेत्र भी नक्शे में दिखाया जाएगा।

लॉ ऑफ द सी के मुताबिक, अगर किसी देश की सीमा समुद्र से लगती है तो लगभग 200 नॉटिकल माइल यानी करीब 370 किलोमीटर तक का समुद्री इलाका उस देश का समुद्री इलाका माना जाएगा। संबंधित देश की नौसेनाएं भी इस 370 किलोमीटर की दूरी पर तैनात की जा सकती हैं। (एक नॉटिकल माइल्स (nmi) में 1.824 किलोमीटर (km) होते हैं।)

भारत के नक्शे में श्रीलंका क्यों?

अब हम आते हैं श्रीलंका पर। दरअसल श्रीलंका से भारत की दूरी 18 नॉटिकल मील यानि कि 33.33 किलोमीटर है। भारत का धनुषकोडी इलाका और श्रीलंका के थलाईमन्नार की दूरी 30 किलोमीटर है। अब अंतरराष्ट्रीय कानून के अनुसार 370 किलोमीटर तक के एरिया को भारत को अपने नशे में दिखाना होगा। ऐसे में इसी कारण श्रीलंका को भी भारत के नक्शे में दिखाना जरूरी होता है। इसी तरह श्रीलंका भी भारत के कुछ हिस्सों को अपने मानचित्र में दिखाएगा।

इससे साफ हो जाता है कि भारत के नक्शे में इस वजह से श्रीलंका अहम स्थान रखता है और ये ही कारण है इसपर कोई विवाद भी नहीं होता है। इसी नियम का पालन अन्य समुद्री भी करते हैं।

हालांकि, पाकिस्तान, चीन, नेपाल, भुटान, बांग्लादेश और म्यांमार को इसलिए मैप पर दिखाया जाता है क्योंकि इन्हें शामिल किए बगैर पूरे भारत के नक्शे को दिखा पाना संभव नहीं है।

भूमि सीमा को लेकर भी जान लें सबकुछ

वहीं अगर हम भारत की भूमि सीमा की बात करें तो यह करीब 15,200 किलोमीटर है। भारत की भूमि सीमा 17 प्रदेशों के 82 जिलों से होकर गुजरती है। यानी भारत के 82 जिले चीन, पाकिस्तान, भूटान, अफगानिस्तान, म्यांमार, बांग्लादेश और नेपाल से सीमा साझा करते हैं। भारत, बांग्लादेश के साथ सबसे अधिक सीमा साझा करता है। भारत, बांग्लादेश के साथ 4096.7 किलोमीटर की सीमा साझा करता है। वहीं आप अक्सर चीन के साथ सीमा विवाद की खबरें सुनते होंगे। भारत, चीन के साथ 3488 किलोमीटर की सीमा साझा करता है। वहीं पाकिस्तान के साथ भारत की सीमा की लंबाई 3323 किलोमीटर है। भारत, नेपाल का भी पड़ोसी देश है और नेपाल के साथ 1751 किलोमीटर की सीमा साझा करता है। वहीं भारत, म्यांमार के साथ 1643 किलोमीटर लंबी सीमा साझा करता है। भारत, भूटान के साथ 699 किलोमीटर की सीमा साझा करता है। वहीं भारत के साथ अफगानिस्तान की भी सीमा लगती है। भारत के साथ अफगानिस्तान की सीमा की लंबाई 106 किलोमीटर है।


रविवार, 13 अप्रैल 2025

यज़ीदी धर्म और हिन्दू धर्म

यज़ीदी धर्म और हिन्दू धर्म

यज़ीदी धर्म क्या है? यज़ीदी शब्द, कुर्द से निकला है। जिसका अर्थ होता है "जिसने मुझे बनाया" अर्थात निर्माता और ईश्वर। यज़ीदीवाद एक ईश्वर यानी एकेश्वरवाद में विश्वास रखते हैं। यज़ीदी ईश्वर को खुदा कहते हैं। प्रत्येक यज़ीदी को, नैतिकता, सही - गलत, न्याय, सच्चाई, वफादारी, दया और प्रेम जैसे सिद्धांतों पर आधारित है। यज़ीदी खुद को सबसे पुराने धर्मों में से एक का सदस्य होने दावा करते हैं और मिथ्रावाद, यार्सन और ज़ारथ्रिस्ट्रा के साथ अपने संबंधों का विवरण देते हैं। यज़ीदियों का इतिहास एक मौखिक इतिहास है। यज़ीदी के बारे में बहुत ही कम दस्तावेज मिले हैं। यज़ीदी आमतौर पर मानते हैं कि, उनकी उत्पत्ति मिथरिक धर्म से 14वीं शताब्दी ई.पू. से है। 7वीं शताब्दी तक, यज़ीदी शब्द के ऐतिहासिक स्रोत के बारे में कोई उल्लेख नहीं मिलता है। ऐसा अनुमान है कि, सदी के अंत में मोस्लेम के मौलवियों और इतिहासकारों ने यज़ीदी शब्द का इस्तेमाल किया था। करीब पिछले 50 वर्षों में यज़ीदी वास्तविक संपर्क में आने लगे थे। जब उस्मान सम्राज्य का पतन हुआ था। तो कई यज़ीदी भाग गए और आकार अर्मेनियाई लोगों के साथ और सोवियत संघ के कारकेस क्षेत्रों में रहने लगे थे। प्रथम विश्व युद्ध के अंत में 1923 में जब तुर्की की नींव रखी गई तब इन यज़ीदीयों का विभाजन हो गया था। तब से यह यज़ीदी तुर्की, इराक, सीरिया और पूर्व सोवियत संघ में रह रहे हैं।
यज़ीदी समुदाय यज़ीदी कैलेण्डर के अनुसार, उनका नव वर्ष अप्रैल के पहले बुधवार को होता है और पैतृक कब्रों पर विलाप द्वारा इसे चिन्हित किया जाता है। वसंत के मौसम में ग्राम त्योहारों, जिसमें स्थानीय धार्मिक स्थलों पर दावत, संगीत और मन्नत शामिल है। प्रत्येक गांव का अपना - अपना अभियान होता है। जिन्हें अक्सर बड़ी बस्तियों में आयोजित किया जाता है। वर्ष का सबसे बड़ा त्यौहार "शरद जमुनिया" जिसे अक्टूबर के महीने में आयोजित किया जाता है। जब सभी "लालिश" तीर्थ यात्रा करने में सक्षम होते है। जहां सभी की उपस्थिति एक धार्मिक कर्तव्य माना जाता है। 
दुनिया में सबसे लुप्तप्राय धार्मिक अल्पसंख्यक में एक यज़ीदी मुख्यतः हालहिं के वर्षों में सब की नजर में चढ़ गए हैं। 2014 में इस्लामिक स्टेट ने माउंट सिंजर के यज़ीदियों के प्राचीन समुदाय पर निर्ममता पूर्वक हमला किया। सैकड़ों पुरुषों का नरसंहार किया, महिलाओं और बच्चों को या तो मार डाला या उन्हें अपना गुलाम बना लिया और यह चौंका देने वाला नरसंहार हाल के वर्षों में चर्चा का विषय रहा है। 
लेकिन क्या आप जानते हैं, हिन्दुओं और यज़ीदियों के बीच सांस्कृतिक रूप से कई समानताएं देखने को मिलते हैं। जैसे कि हम जानते हैं कि, हिन्दू धर्म में पुनर्जन्म का विशेष महत्व होता है। हमारे ग्रंथों - शास्त्रों में पुनर्जन्म की अवधारणाओं को स्पष्ट उल्लेख किया गया है। महत्वपूर्ण बात यह है कि, पारगमन या पुनर्जन्म की यह अवधारणा यज़ीदी मान्यताओं में भी देखने को मिलती है। जीवन और मृत्यु के बाद का यह विचार दोनों धर्मों में एक समानता प्रकट करता है।
इसके अलावा हिन्दू धर्म में भौहों के मध्य तिलक करने का विशेष महत्व होता है। हिन्दू संस्कृति में इसे "टीका" भी कहते हैं। माथे के बीच में पवित्र चिन्ह के रूप में टीका लगाते हैं। यज़ीदी भी पवित्रता को विशेष महत्व देते हैं और वह भी भौहों के बीच तिलक करने के लिए जाने जाते है
यज़ीदियों और हिंदुओं के बीच एक प्रमुख समानता यह है कि, हिन्दू संस्कृति में भगवान शिव ने अपनी ऊर्जा की शक्ति से अपने पुत्र कार्तिकेय को बनाया है। वहीं यज़ीदी देवता तवसी मेलेक को भी उनके पिता ने ही बनाया है। जो यज़ीदियों के प्रमुख देव माने जाते हैं।
हमारे हिन्दू धर्म में भगवान के मंदिरों को एक प्रमुख स्थल माना जाता है। मंदिरों की कला, वहां उत्कीर्ण भित्ति चित्र का भी विशेष महत्व है। यज़ीदियों में भी मंदिरों का विशेष महत्व है। "लालिश" को यज़ीदियों का सबसे पवित्र मंदिर माना जाता है। इसके अतिरिक्त पारंपरिक हिन्दू तरीके, यहां की आरती और पूजा के कई धार्मिक तरीके भी 
यज़ीदी रिवाजों में देखने को मिलते हैं। हिंदू संस्कृति में इस्तेमाल किए जाने वाले, आरती के थाल उनके लैंप भी काफी मिलते जुलते है। यज़ीदियों में इसे "संजकस" कहा जाता है। इस प्रकार आरती के रूप में अग्नि का प्रयोग, दोनों संस्कृतियों में समानताएं प्रकट करता है।
इस प्रकार कई धरातल पर, यज़ीदी संस्कृति हिन्दू संस्कृति में समानताएं देखने को मिलती है। भौगोलिक रूप से अलग - अलग होने के उपरांत भी, इन दोनों संस्कृति में महत्वपूर्ण समानताएं जुड़ी हुई है।
आद्य हिन्द-ईरानी धर्म  से तात्पर्य हिन्द-ईरानी लोगों के उस धर्म से है जो वैदिक एवं जरुस्थ्र धर्मग्रन्थों की रचना के पहले विद्यमान था।
दोनों में अनेक मामलों में साम्य है। जैसे, सार्वत्रिक बल 'ऋक्' (वैदिक) तथा अवेस्ता का 'आशा', पवित्र वृक्ष तथा पेय 'सोम' (वैदिक) एवं अवेस्ता में 'हाओम', मित्र (वैदिक), अवेस्तन और प्राचीन पारसी भाषा में 'मिथ्र'भग (वैदिक), अव्स्तन एवं प्राचीन पारसी में 'बग'
ईरानी भाषा की गणना आर्य भाषाओं में ही की जाती है। भाषा-विज्ञान के आधार पर कुछ यूरोपीय विद्वानों का मत है कि आर्यों का आदि स्थान दक्षिण-पूर्वी यूरोप में कहीं था। इसी मत के अनुसार जब आर्य अपने-अपने अन्य बन्धुओँ का साथ छोड़कर आगे बढ़े तो कुछ लोग ईरान में बस गये तथा कुछ लोग और आगे बढ़कर भरत में आ बसे।
भारत और ईरान-दोनों की ही शाखा होने के कारण, दोनों देशों की भाषाओं में पर्याप्त साम्य पाया जाता है। इन देशों के प्राचीनतम ग्रन्थ क्रमश: 'ऋग्वेद' तथा 'जेन्द अवेस्ता' हैं। 'जेन्द अवेस्ता' का निर्माण-काल लगभग शती ई.पु. है, जबकि ऋग्वेद इससे सहस्रों वर्ष पूर्व रचा जा चुका था। 'जेन्द' की भाषा पूर्णत: वैदिक संस्कृत की अपभ्रंश प्रतीत होती है तथा इसके अनेक शब्द या तो संस्कृत शब्दों से मिलते-जुलते है अथवा पूर्णँत: संस्कृत के ही हैं। इसके अतिरिक्त 'अवेस्ता' में अनेक वाक्य ऐसे हैं, जो साधारण परिवर्तन से संस्कृत के बन सकते हैं, संस्कृत और जिन्द में इसी प्रकार का साम्य देखकर प्रो॰ हीरेन ने कहा है कि जिन्द भाषा का उद्भव संस्कृत से हुआ है।
भाषा के अतिरिक्त वेद और अवेस्ता के धार्मिक तथ्यों में भी पार्याप्त समानता पाई जाती है। दोनों में ही एक ईश्वर की घोषणा की गई है। उनमें मन्दिरों और मूर्तियों के लिए कोई स्थान नहीं है। इन दोनों में वरुण को देवताओं का अधिराज माना गया है। वैदिक 'असुर' ही अवेस्ता का 'अहर' है। ईरानी `मज्दा' का वही अर्थ है, जो वैदिक संस्कृत में 'मेधा' का। वैदिक `मित्र' देवता ही 'अवेस्ता' का `मिथ्र' है। वेदों का यज्ञ 'अवेस्ता' का `यस्न' है। वस्तुत: यज्ञ, होम, सोम की प्रथाएं दोनों देशों में थीं। अवेस्ता में 'हफ्त हिन्दु' और ऋग्वेद में 'आर्याना' का वर्णन मिलता है
पहलवी और वौदिक संस्कृत लगभग समान `मित्र' और 'मिथ्र' की स्तुतियां एक -से शब्दों में हैं। प्राचीन काल में दोनों देशों के धर्मो और भाषाओँ की भी एक-सी ही भूमिका रही है। ईरान में अखमनी साम्राज्य का वैभव प्रथम दरियस के समय में चरमोत्कर्ष पर रहा। उसने अपना साम्राज्य सिन्धु घाटी तक फैलाया। तब भारत-ईरान में परस्पर व्यापार होता था। भारत से वहां सूती कपड़े, इत्र, मसालों का निर्यात और ईरान से भारत में घोड़े तथा जवाहरात का आयात होता था। दरियस ने अपने सूसा के राजप्रासादों में भारतीय सागौन और हाथीदांत का प्रयोग किया तथा भारतीय शैली के मेराबनुमा राजमहलों का निर्माण करवाया।

शनिवार, 12 अक्टूबर 2024

राम नाम सत्य है

शव यात्रा के दौरान क्यों बोलते हैं ‘राम नाम सत्य है’ (Ram Naam Satya Hai)

कलियुग एक ऐसा युग है जहां धर्म समाप्ति की ओर है और अधर्म अपनी चरम सीमा पर है। कहते हैं इस युग में केवल ‘राम नाम’ लेना ही आपका बेड़ा पार लगा देगा। कई लोग आजीवन ‘राम नाम’ का रट लगाते हैं, ताकि उनका उद्धार हो जाये लेकिन जब मृत्यु के बाद उनकी शवयात्रा निकलती है, तो वहां भी परिजन 'राम नाम सत्य है, सत्य बोलो गत है' का ही उद्घोष करते हैं।

कहते हैं कि ‘इस संसार खाली हाथ आये थे और खाली हाथ जाओगे’। लेकिन यह छोटी सी बात भी लोगों को समझ नहीं आती और लोग इस संसार की मोह-माया से इस कदर बंध जाते हैं कि वो न केवल जीवन कष्टमय बना लेते हैं बल्कि मृत्यु का भय भी उत्पन्न कर लेते हैं। मरते समय किसी मनुष्य को इस संसार में बिताये अपने जीवन और संबंधियों से इतना मोह हो जाता है कि वह मृत्यु को अपनाना ही नहीं चाहता। लेकिन मृत्यु जितना सच है, उतना ही सच यह बात है कि ये सब आपका इसी संसार में छूट जाने वाला है।

यह बात हमारे मानस में बार बार उतारी गई है कि जो जन्म लेता है उसकी मृत्यु तो अटल सत्य है। कुछ मृत्यु को लेकर स्वीकृति का भाव अपनाते हैं, कुछ उसके बारे में सोचना नहीं चाहते, तो कुछ उसके आने की कल्पना से भी भयभीत हो जाते हैं।

हिंदु धार्मिक मान्यताओं के अनुसार भी व्यक्ति जब अपने जीवन की आखिरी पल जी रहा होता है तो वह राम का नाम जप करता है। कहा जाता है कि सिर्फ राम का नाम लेने से ही जीवन में मोक्ष की प्राप्ति होती है। रामायण में भी राजा दशरथ ने भी अपने अंतिम समय में राम-राम बोलकर ही मोक्ष प्राप्ति की थी। शास्त्रों के अनुसार भी यदि आप राम के नाम का जाप करते हैं तो आपके कष्ट कम होते हैं।

'राम नाम सत्य है, सत्य बोलो गत है' :-
प्रत्येक संस्कृति और धर्म में मनुष्य की अंतिम क्रिया के अलग-अलग विधान हैं। हिंदू धर्म से जुड़ी कई परंपराएं सदियों से चली आ रही है और सभी परंपराओं से विशेष कारण और महत्व जुड़े होते हैं। हिंदू धर्म में किसी व्यक्ति की मृत्यु के बाद उसकी अंतिम क्रिया या अंतिम संस्कार का विधान है। अंतिम क्रिया में मृतक की शवयात्रा निकाली जाती है और शव को दाह संस्कार के लिए श्मशान ले जाया जाता है।

धर्मराज युधिष्ठिर ने बताया ‘राम नाम सत्य है’ का अर्थ
महाभारत के मुख्य पात्र और पांडवों में सबसे बड़े धर्मराज युधिष्ठिर ने एक श्लोक के बारे में बताया है। इस श्लोक के माध्यम से इसके सही अर्थ का पता चलता है।

'अहन्यहनि भूतानि गच्छंति यमममन्दिरम्।
शेषा विभूतिमिच्छंति किमाश्चर्य मत: परम्।।'

अर्थ है -
मृतक को जब श्मशान ले जाया जाता है तब सब कहते हैं ‘राम नाम सत्य है’ लेकिन अंतिम संस्कार के बाद जब सब घर लौट जाते हैं तो राम नाम को भूलकर मोह माया और मृतक की संपत्ति में लिप्त हो जाते हैं। ‘राम नाम सत्य है, सत्य बोलो गत है’। राम नाम सत्य है मृतक को सुनाने के लिए नहीं कहा जाता है बल्कि यह मृतक के साथ चल रहे परिजन और लोगों को सुनाया जाता है कि, राम का नाम ही सत्य है। जब राम बोलोगे तब ही गति होगी।

क्या है उद्देश्य?
'राम नाम सत्य है, सत्य बोलो मुक्ति है' बोलने का मतलब मृतक को सुनाना नहीं होता है बल्कि शव यात्रा में साथ में चल रहे परिजन, मित्रों और रास्ते से गुजर रहे लोगों को केवल यह समझाना होता है कि जिंदगी में और जिंदगी के बाद भी केवल राम नाम ही सत्य है बाकी सब व्यर्थ है। एक दिन मृत्यु के बाद संसार में सबकुछ छोड़कर जाना है। साथ में सिर्फ हमारा कर्म ही जाता है। क्योंकि कर्म श्रीराम की तरह अमर हैं। इसलिए जीवन में रहते हुए अच्छे कर्म करें। आत्मा को गति सिर्फ और सिर्फ राम नाम से ही मिलेगी।

किसी की मृत्यु होने पर राम का नाम लिया जाता है। इसका अर्थ होता है कि जीव को मुक्ति मिल गई है। आत्मा संसार चक्र से आजाद हो गई है। एक अर्थ ये भी कि आत्मा सब कुछ छोड़ भगवान के पास चली गई है। ये परम सत्य है। हिंदू शास्त्रों के अनुसार 'राम नाम सत्य है' एक बीज अक्षर है। राम नाम जपने से बुरे कर्मों से मुक्ति मिल जाती है। कुछ लोगों का मानना है कि इसको जपने से मृतक के परिजनों को मानसिक शांति मिलती है। इस दौरान राम नाम सत्य है सुनने से उन्हें ये अहसास होता है कि यह संसार व्यर्थ है।

शवयात्रा में ‘राम नाम सत्य है’ कहने के मुख्य कारण
राम नाम सत्य है कहे जाने के अन्य कारण यह भी है, यह शब्द सुनने के बाद मार्ग पर चल रहे लोगों का ध्यानाकर्षण हो और वे समझ जाए कि शवयात्रा जा रही है, जिससे शवयात्रा के लिए मार्ग खाली छोड़ दे। क्योंकि शवयात्रा को कहीं भी रोकना अशुभ माना गया है और इसलिए शवयात्रा घर से निकलने के बाद श्मशान तक लगातार चलती रहती है।

राम नाम सत्य है कहने का एक कारण यह भी है कि, मान्यता है कि मृत्यु के बाद भी हमारे कुछ अंग सक्रिय होते हैं, जिनमें कान भी एक है। इसलिए अंतिम समय में अमृतरूपी राम का नाम लिया जाता है। जिससे यह शब्द मृतक के कान में जाए और उसे मोक्ष की प्राप्ति हो।

'राम नाम सत्य है' का उद्घोष शस्त्रों में वर्णित है?
हमारे तंत्रों में इसका वर्णन मिलता है।

'रुद्रयामल तन्त्र’ में एक श्लोक है -

शिवे शिवे न संचारों भवत प्रेतस्य कस्यचित।
अतसिद्दाहपर्यंतम राम नाम जपो वरम।।
अर्थ :- मृत व्यक्ति के शव में कोई प्रेत आत्मा का प्रवेश ना हो, इसलिए अग्नि देने तक ‘राम’ नाम का उच्चारण करना चाहिए।

‘प्रेतसाधन-तन्त्र’ में भी कहा है -

'शवसाधनवेलायां रामनाम विवर्जयेत्।'
अर्थ :- शवसाधन करने के समय ‘राम’ नाम नहीं लिया जाता है, क्योंकि इस नाम को सुनकर प्रेत, भूत, पिशाच, डाकिनी, शाकिनी, ब्रह्मराक्षस आदि भाग जाते हैं। निकृष्ट योनि जीव भाग जाते हैं, इसी कारण से लोग शव को ले जाते अथवा दाह करते समय 'राम नाम सत्य है' ऐसा बोलते हैं। इसलिए विवाह आदि जैसे शुभ कार्यों में “राम नाम सत्य है” को अमंगल-सूचक माना जाता है। लेकिन वास्तव में राम-नाम सदा सत्य एवं पवित्र है, इसमें कोई भी सन्देह नहीं है। भगवान के नाम में जो कोई आक्षेप करेगा उसको अवश्य नरक की प्राप्ति होगी। 

आनंद रामायण के अनुसार :-

श्रीशब्धमाद्य जयशब्दमध्यंजयद्वेयेनापि पुनःप्रयुक्तम्। अनेनैव च मन्त्रेण जपः कार्यः सुमेधसा।
अर्थ :- बुद्धिमान लोग श्री राम जय राम जय जय राम मंत्र का जाप करतें हैं।

हम ऐसे समय यमराज जी की भी वंदना कर सकतें हैं। गरुड़ पुराण प्रेत कल्प अध्याय क्रमांक 4 के अनुसार, शव-यात्रा के समय पुत्रादिक परिजन तिल, कुश, घृत और ईंधन लेकर ‘यम-गाथा’ अथवा वेद के ‘यम-सूक्त' का पाठ करते हुए श्मशानभूमि की ओर जाएं। यम-सूक्त यजुर्वेद के पैतीसवें अध्याय में मिलेगा।

हमें वेदों में इसके कई मंत्र मिलेंगे, जब भी कभी किसी की मृत्यु का समाचार आता है उस समय भी हम “ॐ शांति शांति शांति” बोलते हैं। कई लोग तो आजकल पश्चिमी परंपरा से ग्रसित होने के कारण RIP बोलते हैं। हमारे वेद मंत्रों में ही वर्णन हैं कि मृत्यु का समाचार सुनने के पश्चात क्या बोलें। यजुर्वेद 40.14 के अनुसार :-

वा॒युरनि॑लम॒मृत॒मथे॒दं भस्मा॑न्त॒ꣳ शरी॑रम्। ओ३म् क्रतो॑ स्मर। क्लि॒बे स्म॑र। कृ॒तꣳ स्म॑र।
अर्थ :- इस समय गमन करता हुआ प्राण वायु अमृत (अमरता) रूप वायु को प्राप्त हो. यह देह अग्नि में हुत होकर भस्म रूप हो। हे प्रणव रूप ॐ / ब्रह्म (ब्रह्म स्वरूप आत्मा) बाल्यावस्थादि मे किए कर्मों के स्मरण पूर्वक मैं लोकादि की कामना करता हूं। इसलिए सनातनी किसी कि मृत्यु की खबर सुनकर ॐ शान्ति शान्ति शान्ति बोलते हैं
वेद मंत्र बोलना सबके बस की बात नहीं हैं इसलिए "राम नाम सत्य हैं" बोलना अधिक श्रेयस्कर है। क्योंकि राम तो सत्यस्वरूप, मर्यादा पुरुषोत्तम देवता ही हैं। उनके नाम से बढ़कर और क्या हो सकता है. उसके उच्चारण मात्र से ही हम भव सागर तर जाते हैं। तो मृत शरीर के दुर्गुणों को निरस्त करने के लिए राम नाम ही एक मात्र साधन है। उसका जाप हमें तो क्या समस्त वातावरण उससे पवित्र हो जाता है।

राम नाम सत्य है ये बोलना कब से शुरू हुआ मुरदे के पिछे राम नाम सत्य है ऐसा क्यों बोला जाता है।

एक समय कि बात जब तुलसीदास अपने गांव में रहते थे। वो हमेशा राम कि भक्ति मे लीन रहते थे उनको घरवाले ने और गांव वाले ने ढोंगी कह कर घर से बाहर निकाल दिया तो तुलसीदास गंगा जी के घाट पर रहने लगे वही प्रभु की भक्ति करने लगे।

जब तुलसीदास रामचरितमानस की रचना शुरू कर रहे थे। उसी दिन उसके गांव में एक लडके की शादी हुई और वो लडका अपनी दुल्हन को लेकर घर अपने घर आया और रात को किसी कारण वश उस लडके कि मृत्यु हो गई लडके के घर वाले रोने लगे सुबह होने पर सब लोग लडके को अर्थी पर सजाकर शमशान घाट ले जाने लगे तो उस लडके कि दुलहन भी सती होने कि इच्छा से अपने पति के अर्थी के पीछे पीछे जाने लगे लोग उसी रास्ते से जा रहे थे।

जिस रास्ते में तुलसीदास जी रहते थे, लोग जा रहे थे तो जो लडके की दुल्हन की नजर तुलसीदास पर पडी तो उस दुल्हन ने सोची अपने पति के साथ सती होने जा रही हुँ एक बार इस ब्राह्मण देवता को प्रणाम कर लेती हुँ।

वो दुल्हन नहीं जानती थी कि ये तुलसीदास है उसने तुरंत तुलसीदास को पैर छुकर प्रणाम किया तो तुलसीदास ने उसे अखण्ड सौभाग्यवती होने का आशीर्वाद दिया। तो सब लोग हँसने लगे और बोला रे तुलसीदास हम तो सोचते थे तुम पाखंडी हो लेकिन तुम तो बहुत बडे मूर्ख भी हो इस लडकी की पति मर चुका है|

ये अखण्ड सौभाग्यवती कैसे हो सकती है। सब बोलने लगे तुम भी झुठा तेरा राम भी झुठा तुलसीदास जी बोले-हम झुठे हो सकते हैं लेकिन मेरे राम कभी भी नहीं झूठे हो सकते है। तो सबने बोला परिणाम दो तो तुलसीदास जी ने अर्थी को रखवाया और उस मरे हुये लडके के पास जाकर उसके कान में बोला “राम नाम सत्य है”।

ऐसा एक बार बोला तो लडका हिलने लगा दुसरा बार फिर तुलसीदास ने लडके के कान में बोला राम नाम सत्य है। लडका को थोडा अचेत और आया तुलसीदास फिर तीसरी बार उस लडके के कान में बोला राम नाम सत्य है, और वो लडका अर्थी से निचे उठ कर बैठ गया सभी को बहुत आश्चर्य हुआ कि मरा हुआ कैसे जीवित हो सकता है।

सबने मान लिया और तुलसीदास के चरणों में दण्डवत प्रणाम करके माफी मांगने लगा तो तुलसीदास जी बोले अगर आपलोग यहाँ इस रास्ते से नहीं जाते तो मेरे राम के नाम को सत्य होने का प्रमाण कैसे मिलता ये तो सब हमारे राम कि लीला है उसी दिन से ये प्रथा चालु हो गई की मुर्दे के पिछे राम नाम सत्य है बोला जाता हैं।


शनिवार, 5 अक्टूबर 2024

33 कोटि हिन्दू देवी-देवता

33 करोड़ देवता हैं या कि 33 प्रकार के, जानिए दोनों ही मतों का विश्लेषण

क्या आप इस क्रम को मानते हैं :- जड़, वृक्ष, प्राणी, मानव, पितर, देवी-देवता, भगवान और ईश्वर। सबसे बड़ा ईश्वर, परमेश्वर या परमात्मा होता है। वेदों में जिसे ब्रह्म (ब्रह्मा नहीं) कहा गया है। ब्रह्म का अर्थ है विस्तार, फैलना, अनंत, महाप्रकाश। प्रत्येक धर्म में देवी और देवता होते हैं यह अलग बात है कि हिंदू अपने देवी-देवताओं को पूजते हैं जबकि दूसरे धर्म के लोग नहीं। अत: यह कहना की हिन्दू धर्म सर्वेश्वरदावी धर्म है गलत होगा। पहले धर्म को पढ़े, समझे फिर कुछ कहें।

कुछ विद्वान कहते हैं कि हिन्दू देवी या देवताओं को 33 कोटि अर्थात प्रकार में रखा गया है और कुछ कहते हैं कि यह सही नहीं है। दरअसल वेदों में 33 कोटि देवताओं का जिक्र किया है। धर्म गुरुओं और अनेक बौद्धिक वर्ग ने इस कोटि शब्द के दो प्रकार से अर्थ निकाले हैं। कोटि शब्द का एक अर्थ करोड़ है और दूसरा प्रकार अर्थात श्रेणी भी। तार्किक दृष्टि से देखा जाए तो कोटि का दूसरा अर्थ इस विषय में अधिक सत्य प्रतीत होता है अर्थात तैंतीस प्रकार की श्रेणी या प्रकार के देवी-देवता। परन्तु शब्द व्याख्या, अर्थ और सबसे ऊपर अपनी-अपनी समझ और बुद्धि के अनुरूप मान्यताए अलग-अलग हो गयीं।


शास्त्रों में 33 कोटि देवी-देवताओं का उल्लेख

ऋग्वेद - ऋग्वेद में 33 कोटि देवी-देवताओं का उल्लेख मिलता है। ऋग्वेद के अनुसार :

"त्रिंशतं त्रीणि शतं स ह सप्त सधा शतम्।"

(ऋग्वेद, 1.45.2)

यजुर्वेद - यजुर्वेद में भी 33 कोटि देवी-देवताओं का वर्णन है :

"त्रिंशतं त्रीणि शतं स ह सप्त सधा शतम्।"

(यजुर्वेद, 21.31)

अथर्ववेद - अथर्ववेद में भी 33 कोटि देवी-देवताओं का उल्लेख मिलता है :

"त्रिंशतं त्रीणि शतं स ह सप्त सधा शतम्।"

(अथर्ववेद, 10.23.4)

वैदिक विद्वानों अनुसार :-

वेदों में जिन देवताओं का उल्लेख किया गया है उनमें से अधिकतर प्राकृतिक शक्तियों के नाम है जिन्हें देव कहकर संबोधित किया गया है। दरअसल वे देव नहीं है। देव कहने से उनका महत्व प्रकट होता है। उक्त प्राकृतिक शक्तियों को मुख्‍यत: आदित्य समूह, वसु समूह, रुद्र समूह, मरुतगण समूह, प्रजापति समूह आदि समूहों में बांटा गया हैं।

यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि कुछ जगह पर वैदिक ऋषि इन प्रकृतिक शक्तियों की स्तुति करते हैं और कुछ जगह पर वे अपने ही किसी महान पुरुष की इन प्रकृतिक शक्तियों से तुलना करके उनकी स्तुति करते हैं। जैसे उदाहरण के तौर पर इंद्र नामक एक बिजली और एक बादल भी होता है। वहीं, इंद्र नाम से आर्यों का एक वीर राजा भी है जोकि बादलों के देश में रहता है और आकाशमार्ग से आता-जाता है। वह आर्यों की हर तरह से रक्षा करने के लिए हर समय उपस्थित हो जाता है। शक्तिशाली होने के कारण उसकी तुलना बिजली और बादल के समान की जाती है। अत: शब्दों का अर्थ देशकाल, परिस्थिति के अनुसार ग्रहण करना होता है। एक शब्द के कई-कई अर्थ होते हैं। वैदिक विद्वानों के अनुसार 33 प्रकार के अव्यय या पदार्थ होते हैं जिन्हें देवों की संज्ञा दी गई है। ये 33 प्रकार इसके अनुसार हैं :-

प्रारंभ में ऋषियों ने 33 प्रकार के अव्यय जाने थे। परमात्मा ने जो 33 अव्यय बनाए हैं वैदिक ऋषि उसी की बात कर रहे हैं। उक्त 33 अव्यवों से ही प्रकृति और जीवन का संचालन होता है। वेदों के अनुसार हमें इन 33 पदार्थों या अव्ययों को महत्व देना चाहिए। इनका ध्यान करना चाहिए तो ये पुष्ट हो जाते हैं।

1. इन 33 में से 8 वसु है। वसु अर्थात हमें वसाने वाले आत्मा का जहां वास होता है। ये आठ वसु हैं :- धरती, जल, अग्नि, वायु, आकाश, चंद्रमा, सूर्य और नक्षत्र। ये आठ वसु प्रजा को वसाने वाले अर्थात धारण या पालने वाले हैं। 

2. इसी तरह 11 रुद्र आते हैं। इन रुद्रों ने नाम हैं :- प्राण, अपान, व्यान, समान, उदान, नाग, कुर्म, किरकल, देवदत्त और धनंजय। प्रथम पांच प्राण और दूसरे पांच उपप्राण हैं अंत में 11वां जीवात्मा हैं। दरअसल यह रुद्र शरीर के अव्यय है। जब तक ये शरीर मे विद्यमान है, हमारा शरीर गतिमान है। जब यह अव्यय एक-एक करके शरीर से निकल जाते हैं तो यह रोदन कराने वाले होते हैं। अर्थात जब मनुष्य मर जाता है तो उसके भीतर के यह सभी 11 रुद्र निकल जाते हैं जिनके निकलने के बाद उसे मृत मान लिया जाता है। तब उसके सगे-संबंधी उसके समक्ष रोने लग जाते हैं। इसीलिए इन्हें कहते हैं रुद्र। रुद्र अर्थात रुलाने वाला।

ये सभी शरीर के अलग-अलग भागों में स्थित होते हैं तथा अलग-अलग अंगों व क्रियाओं को संचालित करते हैं। ये इस प्रकार है

1. प्राण :- प्राण गले से लेकर हृदय तक के अंगों एवं स्वर तंत्र, श्वसन तंत्र, भोजन नली, श्वास नली, फेफड़े-हृदय आदि को स्वस्थ रखता है। यह हृदय में स्थित होता है।

2. अपान :- अपान का कार्य मल-मूत्र त्याग, प्रसव आदि क्रियाओं को संचालित करता है। यह गुदा और मूत्रेन्द्रियों के बीच स्थित होता है।3. व्यान :- यह शरीर में रक्त संचार करता है। इसका स्थान मष्तिष्क का मध्य भाग है।

4. उदान :- उदान गले के ऊपर के अंगों मुंह, दांत, नाक, आंख, कान, माथा, मस्तिष्क आदि का संचालन करता है। उदान विविध वस्तुएँ बाहर से शरीर के भीतर ग्रहण करता है। यह कंठ में स्थित होता है।

5. समान :- इसका स्थान नाभि में होता है, पाचक रसों का उत्पादन और उनका स्तर उपयुक्त बनाये रहना इसी का काम है।

6. नाग :- नाग का कार्य वायु सञ्चार, डकार, हिचकी, गुदा वायु का उत्तसर्जन करना। यह “प्राण” का “उपप्राण” है तथा यह भी हृदय में स्थित होता है।

7. कूर्म्म :- कूर्म से पलक मारने और बन्द होने की क्रिया होती है। यह “अपान” का “उपप्राण” है तथा यह भी गुदा और मूत्रेन्द्रियों के बीच स्थित होता है।

8. कृकल :- कृकल का कार्य भूख-प्यास को संचारित करना है। यह “समान” का “उपप्राण” है यह भी नाभि में स्थित होता है।

9. देवदत्त :- यह छींक आने और अंगड़ाई आने की क्रिया है। यह “उदान” का “उपप्राण” है इसका स्थान भी कंठ में होता है।

10. धनञ्जय :- धनञ्जय जीवित अवस्था में शरीर का पोषण करता है और मरने पर देह सड़ा-गला कर शीघ्र नष्ट करने का प्रबन्ध करता है। इसका प्रधान केन्द्र मस्तिष्क का मध्य भाग है। यह “व्यान” का “उपप्राण” है इसका स्थान भी मष्तिष्क का मध्य भाग होता है।

11. जीवात्मा :- इसके निकलते ही शरीर क्रिया करना बंद कर देता है।

3. 12 आदित्य होते हैं। आदित्य का अर्थ यहाँ भगवान सूर्य से है। सूर्य भगवान प्रत्येक राशि मे एक माह के लिए विचरण करते है फिर दूसरी राशि मे प्रवेश करते है। इस प्रकार 12 माह मे 12 राषियो मे चक्कर लगाते है। समय के 12 माह को 12 आदित्य कहते हैं। इसी आधार पर हमारा हिन्दू कलैण्डर बनाया जाता है इसलिए इन्हे 12 प्रकार से व्यक्त किया जाता है इन्हें आदित्य इसलिए कहते हैं क्योंकि यह हमारी आयु को हरते हैं क्योकि जैसे-जैसे दिन बढ़ते है। हमारी आयु भी कम होती जाती है। 8 वसु, 11 रुद्र और 12 आदित्य को मिलाकर कुल हुए 31 अव्यय।

4. 32वां है इंद्र। इंद्र का अर्थ बिजली या ऊर्जा। 33वां है यज्ज। यज्ज अर्थात प्रजापति, जिससे वायु, दृष्टि, जल और शिल्प शास्त्र हमारा उन्नत होता है, औषधियां पैदा होती है।

ये 33 कोटी अर्थात 33 प्रकार के अव्यव हैं जिन्हें देव कहा गया। देव का अर्थ होता है दिव्य गुणों से युक्त। हमें ईश्वर ने जिस रूप में यह 33 पदार्थ दिए हैं उसी रूप में उन्हें शुद्ध, निर्मल और पवित्र बनाए रखना चाहिए।

उपरोक्त मत का खंडन :-

पहले तो कोटि शब्द को समझें। कोटि का अर्थ प्रकार लेने से कोई भी व्यक्ति 33 देवता नहीं गिना पाएगा। कारण, स्पष्ट है कि कोटि यानी प्रकार यानी श्रेणी। अब यदि हम कहें कि आदित्य एक श्रेणी यानी प्रकार यानी कोटि है, तो यह कह सकते हैं कि आदित्य की कोटि में 12 देवता आते हैं जिनके नाम अमुक-अमुक हैं। लेकिन आप ये कहें कि सभी 12 अलग-अलग कोटि हैं, तो जरा हमें बताएं कि पर्जन्य, इन्द्र और त्वष्टा की कोटि में कितने सदस्य हैं?

ऐसी गणना ही व्यर्थ है, क्योंकि यदि कोटि कोई हो सकता है तो वह आदित्य है। आदित्य की कोटि में 12 सदस्य, वसु की कोटि या प्रकार में 8 सदस्य, रुद्र की कोटी में 11 सदस्य, अन्य तो कोटी इंद्र और यज्ज। इस तरह देखा जाए तो कुल 5 कोटी ही हुई। तब 33 कोटी कहने का क्या तात्पर्य?

द्वितीय, उन्हें कैसे ज्ञात कि यहां कोटि का अर्थ प्रकार ही होगा, करोड़ नहीं? प्रत्यक्ष है कि देवता एक स्थिति है, योनि हैं जैसे मनुष्य आदि एक स्थिति है, योनि है। मनुष्य की योनि में भारतीय, अमेरिकी, अफ्रीकी, रूसी, जापानी आदि कई कोटि यानी श्रेणियां हैं जिसमें इतने-इतने कोटि यानी करोड़ सदस्य हैं। देव योनि में मात्र यही 33 देव नहीं आते। इनके अलावा मणिभद्र आदि अनेक यक्ष, चित्ररथ, तुम्बुरु, आदि गंधर्व, उर्वशी, रम्भा आदि अप्सराएं, अर्यमा आदि पितृगण, वशिष्ठ आदि सप्तर्षि, दक्ष, कश्यप आदि प्रजापति, वासुकि आदि नाग, इस प्रकार और भी कई जातियां देवों में होती हैं जिनमें से 2-3 हजार के नाम तो प्रत्यक्ष अंगुली पर गिनाए जा सकते हैं।

प्रमुख देवताओं के अलावा भी अन्य कई देवदूत हैं जिनके अलग-अलग कार्य हैं और जो मानव जीवन को किसी न किसी रूप में प्रभावित करते हैं। इनमें से कई ऐसे देवता हैं जो आधे पशु और आधे मानव रूप में हैं। आधे सर्प और आधे मानव रूप में हैं। माना जाता है कि सभी देवी और देवता धरती पर अपनी शक्ति से कहीं भी आया-जाया करते थे। यह भी मान्यता है कि संभवत: मानवों ने इन्हें प्रत्यक्ष रूप से देखा है और इन्हें देखकर ही इनके बारे में लिखा है। अज एकपाद' और 'अहितर्बुध्न्य' दोनों आधे पशु और आधे मानवरूप हैं। मरुतों की माता की 'चितकबरी गाय' है। एक इन्द्र की 'वृषभ' (बैल) के समान था।

पौराणिक मत :-

निश्चित ही प्राकृतिक शक्तियों के कई प्रकार हो सकते हैं लेकिन हमें यह नहीं भुलना चाहिए की इन प्राकृतिक शक्तियों के नाम हमारे देवताओं के नाम पर ही रखे गए हैं। जैसे चंद्र नामक एक देव है और चंद्र नामक एक ग्रह भी है। इस ग्रह का नामकरण चंद्र नामक देव के नाम पर ही रखा गया है। इस तरह के देवों का उनके नाम के ग्रहों पर आधिपत्य रहा है।

इसी तरह ये रहे प्रमुख 33 देवता :-

12 आदित्य :- 1. अंशुमान (यह प्राण वायु का प्रतिनिधित्व करते है), 2. अर्यमन (यह प्रातः और रात्रि के चक्र को दर्शाते है), 3. इन्द्र (यह देवो के राजा है समस्त इन्द्रियों पर इन्ही का अधिकार है), 4. त्वष्टा (यह वनस्पति और औषधियों का प्रतिनिधत्व करते है), 5. धातु (यह प्रजापति के रूप है इन्हे सृष्टिकर्ता भी कहाँ जाता है), 6. पर्जन्य (यह मेघों का प्रतिनिधित्व करते है जो वर्षा के कारक है), 7. पूषा (यह अन्न का प्रतीक है तथा उसमे उपस्थित ऊर्जा, स्वाद और रस को दर्शाते है), 8. भग (यह शरीर में चेतना, ऊर्जा शक्ति, काम शक्ति तथा जीवंतता की अभिव्यक्ति को दर्शाते है), 9. मित्र (यह सृष्टि के विकास के कर्म को दर्शाते है), 10. वरुण (यह जल का प्रतिनिधित्व करते है तथा भाग्य को भी दर्शाते है), 11. विवस्वान (यह तेज और ऊर्जा का प्रतिनिधित्व करते है) और 12. विष्णु (यह ब्रह्माण्डीय कानून और उसके संचालन का प्रतिनिधत्व करते है)। 

8 वसु :- 1. आप (जल), 2. ध्रुव (ध्रुव तारा), 3. सोम (चन्द्रमा), 4. धर (पृथ्वी), 5. अनिल (वायु), 6. अनल (अग्नि), 7. प्रत्यूष (अंतरिक्ष) और 8. प्रभाष (अरुणोदय या सूर्योदय)। 

11 रुद्र :- 1. शम्भु, 2. पिनाकी, 3. गिरीश, 4. स्थाणु, 5. भर्ग, 6. भव, 7. सदाशिव, 8. शिव, 9. हर, 10. शर्व और 11. कपाली।

2 अश्विनी कुमार :- 1. नासत्य और 2. द्स्त्र। कुछ विद्वान इन्द्र और प्रजापति की जगह 2 अश्विनी कुमारों को रखते हैं। प्रजापति ही ब्रह्मा हैं। अश्वनीकुमार त्वष्टा की पुत्री और सूर्य देव की संतान है जिन्हे आयूर्वेद का आदि आचार्य माना जाता है इनके नाम इस प्रकार है।

इस प्रकार हिन्दू धर्म में वर्णित 33 कोटि देवताओं का योग इस प्रकार है –   

33 कोटि देवता = 8 (वसु) + 12 (आदित्य) + 11 (रूद्र) + 2 (अश्वनीकुमार) = 33

इसके अलावा ये भी हैं देवता :-

49 मरुतगण : मरुतगण देवता नहीं हैं, लेकिन वे देवताओं के सैनिक हैं। वेदों में इन्हें रुद्र और वृश्नि का पुत्र कहा गया है तो पुराणों में कश्यप और दिति का पुत्र माना गया है। मरुतों का एक संघ है जिसमें कुल 180 से अधिक मरुतगण सदस्य हैं, लेकिन उनमें 49 प्रमुख हैं। उनमें भी 7 सैन्य प्रमुख हैं। मरुत देवों के सैनिक हैं और इन सभी के गणवेश समान हैं। वेदों में मरुतगण का स्थान अंतरिक्ष लिखा है। उनके घोड़े का नाम 'पृशित' बतलाया गया है तथा उन्हें इंद्र का सखा लिखा है।- (ऋ. 1.85.4)। पुराणों में इन्हें वायुकोण का दिक्पाल माना गया है। अस्त्र-शस्त्र से लैस मरुतों के पास विमान भी होते थे। ये फूलों और अंतरिक्ष में निवास करते हैं।

7 मरुतों के नाम निम्न हैं - 1. आवह, 2. प्रवह, 3. संवह, 4. उद्वह, 5. विवह, 6. परिवह और 7. परावह। यह वायु के नाम भी है। इनके 7-7 गण निम्न जगह विचरण करते हैं - ब्रह्मलोक, इन्द्रलोक, अंतरिक्ष, भूलोक की पूर्व दिशा, भूलोक की पश्चिम दिशा, भूलोक की उत्तर दिशा और भूलोक की दक्षिण दिशा। इस तरह से कुल 49 मरुत हो जाते हैं, जो देव रूप में देवों के लिए विचरण करते हैं।

12 साध्यदेव : अनुमन्ता, प्राण, नर, वीर्य्य, यान, चित्ति, हय, नय, हंस, नारायण, प्रभव और विभु ये 12 साध्य देव हैं, जो दक्षपुत्री और धर्म की पत्नी साध्या से उत्पन्न हुए हैं। इनके नाम कहीं कहीं इस तरह भी मिलते हैं :- मनस, अनुमन्ता, विष्णु, मनु, नारायण, तापस, निधि, निमि, हंस, धर्म, विभु और प्रभु।

64 अभास्वर : तमोलोक में 3 देवनिकाय हैं - अभास्वर, महाभास्वर और सत्यमहाभास्वर। ये देव भूत, इंद्रिय और अंत:करण को वश में रखने वाले होते हैं।

12 यामदेव : यदु ययाति देव तथा ऋतु, प्रजापति आदि यामदेव कहलाते हैं।

10 विश्वदेव : पुराणों में दस विश्‍वदेवों को उल्लेख मिलता है जिनका अंतरिक्ष में एक अलग ही लोक है।

220 महाराजिक :

30 तुषित : 30 देवताओं का एक ऐसा समूह है जिन्होंने अलग-अलग मन्वंतरों में जन्म लिया था। स्वारोचिष नामक द्वितीय मन्वंतर में देवतागण पर्वत और तुषित कहलाते थे। देवताओं का नरेश विपश्‍चित था और इस काल के सप्त ऋषि थे- उर्ज, स्तंभ, प्रज्ञ, दत्तोली, ऋषभ, निशाचर, अखरिवत, चैत्र, किम्पुरुष और दूसरे कई मनु के पुत्र थे।

पौराणिक संदर्भों के अनुसार चाक्षुष मन्वंतर में तुषित नामक 12 श्रेष्ठगणों ने 12 आदित्यों के रूप में महर्षि कश्यप की पत्नी अदिति के गर्भ से जन्म लिया। पुराणों में स्वारोचिष मन्वंतर में तुषिता से उत्पन्न तुषित देवगण के पूर्व व अपर मन्वंतरों में जन्मों का वृत्तांत मिलता है। स्वायम्भुव मन्वंतर में यज्ञपुरुष व दक्षिणा से उत्पन्न तोष, प्रतोष, संतोष, भद्र, शांति, इडस्पति, इध्म, कवि, विभु, स्वह्न, सुदेव व रोचन नामक 12 पुत्रों के तुषित नामक देव होने का उल्लेख मिलता है। बौद्ध धर्मग्रंथों में भी वसुबंधु बोधिसत्व तुषित के नाम का उल्लेख मिलता है। तुषित नामक एक स्वर्ग और एक ब्रह्मांड भी है।
 
अन्य देव - ब्रह्मा (प्रजापति), विष्णु (नारायण), शिव (रुद्र), गणाधिपति गणेश, कार्तिकेय, धर्मराज, चित्रगुप्त, अर्यमा, हनुमान, भैरव, वन, अग्निदेव, कामदेव, चंद्र, यम, हिरण्यगर्भ, शनि, सोम, ऋभुः, ऋत, द्यौः, सूर्य, बृहस्पति, वाक, काल, अन्न, वनस्पति, पर्वत, धेनु, इन्द्राग्नि, सनकादि, गरूड़, अनंत (शेष), वासुकी, तक्षक, कार्कोटक, पिंगला, जय, विजय, मातरिश्वन्, त्रिप्रआप्त्य, अज एकपाद, आप, अहितर्बुध्न्य, अपांनपात, त्रिप, वामदेव, कुबेर, मातृक, मित्रावरुण, ईशान, चंद्रदेव, बुध, शनि आदि।

अन्य देवी - दुर्गा, सती-पार्वती, लक्ष्मी, सरस्वती, भैरवी, यमी, पृथ्वी, पूषा, आपः सविता, उषा, औषधि, अरण्य, ऋतु त्वष्टा, सावित्री, गायत्री, श्री, भूदेवी, श्रद्धा, शचि, दिति, अदिति, दस महाविद्या, आदि।

निष्कर्ष : वेदों के कोटि शब्द को अधिकतर लोगों ने करोड़ समझा और यह मान लिया गया कि 33 करोड़ देवता होते हैं। लेकिन यह सच नहीं है। यह भी सच नहीं है कि देवता 33 प्रकार के होते हैं। पदार्थ अलग होते हैं और देवी या देवता अलग होते हैं। यह सही है कि देवी  और देवता 33 करोड़ नहीं होते हैं लेकिन 33 भी नहीं। देवी और देवताओं की संख्या करोड़ों में तो नहीं लेकिन हजारों में जरूर है और सभी का कार्य नियुक्त है।

इसके अलावा ये भी जानें -

दो पक्ष :- कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष

तीन ऋण :- देव ऋण, पितृ ऋण, ऋषि ऋण

चार युग :- सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग, कलियुग

चार धाम :- द्वारिका, बद्रीनाथ, जगन्नाथपुरी, रामेश्वरम धाम

चार पीठ :- शारदा पीठ (द्वारिका) ज्योतिष पीठ (जोशीमठ बद्रिधाम) गोवर्धन पीठ (जगन्नाथपुरी) शृंगेरी पीठ

चार वेद :- ऋग्वेद, अथर्वेद, यजुर्वेद, सामवेद

चार आश्रम :- ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास

चार अंत :- करण: मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार

पंच गव्य :- गाय का घी, दूध, दही, गो मूत्र, गोबर

पंच तत्त्व :- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश

छह दर्शन :- वैशेषिक, न्याय, सांख्य, योग, पूर्व मिसांसा, दक्षिण मिसांसा

सप्त ऋषि :- विश्वामित्र, जमदाग्नि, भरद्वाज, गौतम, अत्री, वशिष्ठ और कश्यप

सप्त पुरी :- अयोध्या पुरी, मथुरा पुरी, माया पुरी (हरिद्वार), काशी, कांची (शिन कांची - विष्णु कांची), अवंतिका और द्वारिकापुरी

आठ योग :- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान एवं समाधि

10 दिशाएं :- पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ईशान, नैऋत्य, वायव्य, अग्नि, आकाश एवं पाताल

12 मास :- चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, अषाढ़, श्रावण, भाद्रपद, अश्विन, कार्तिक, मार्गशीर्ष, पौष, माघ, फाल्गुन

15 तिथियां :- प्रतिपदा, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थी, पंचमी, षष्ठी, सप्तमी, अष्टमी, नवमी, दशमी, एकादशी, द्वादशी, त्रयोदशी, चतुर्दशी, पूर्णिमा, अमावास्या

समृतियां :- मनु, विष्णु, अत्री, हारीत, याज्ञवल्क्य, उशना, अंगीरा, यम, आपस्तम्ब, सर्वत, कात्यायन, ब्रहस्पति, पराशर, व्यास, शांख्य, लिखित, दक्ष, शातातप, वशिष्ठ।