गुरुवार, 4 दिसंबर 2025

देवव्रत महेश रेखे

देवव्रत महेश रेखे : 19 साल का वो तपस्वी, जिसने 200 साल बाद काशी में दोहराया इतिहास, पीएम-सीएम भी मुरीद

Devvrat Mahesh Rekhe : काशी में 19 वर्षीय देवव्रत महेश रेखे ने 200 साल बाद 'दंडक्रम पारायण' कर इतिहास रचा। 50 दिनों की इस कठिन साधना पर पीएम मोदी और सीएम योगी ने भी दी बधाई।

बिना किसी किताब को देखे, बिना रुके, लगातार 50 दिनों तक हजारों कठिन संस्कृत मंत्रों का शुद्ध उच्चारण करना आज के दौरान में किसी के लिए असंभव सा लगता है, पर 19 वर्ष के एक युवक ने इसे सच कर दिखाया। महाराष्ट्र के एक 19 वर्षीय युवा देवव्रत महेश रेखे ने वह कर दिखाया है जो पिछले 200 वर्षों में किसी ने नहीं किया। उनकी इस कठिन 'साधना' ने न केवल काशी के विद्वानों को चौंका दिया, बल्कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को भी उनका मुरीद बना दिया।

कौन हैं देवव्रत महेश रेखे?

देवव्रत महेश रेखे मूल रूप से महाराष्ट्र के अहिल्या नगर के रहने वाले हैं। महज 19 वर्ष की आयु में उन्होंने वेदों के प्रति वह समर्पण दिखाया है जो बड़े-बड़े विद्वानों के लिए भी दुर्लभ है। देवव्रत वर्तमान में वाराणसी (काशी) के रामघाट स्थित वल्लभराम शालिग्राम सांगवेद विद्यालय के छात्र हैं। देवव्रत एक वैदिक परिवार से आते हैं। उनके पिता वेदब्रह्मश्री महेश चंद्रकांत रेखे स्वयं एक प्रतिष्ठित वैदिक विद्वान हैं और उन्होंने ही देवव्रत को इस कठिन मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित और प्रशिक्षित किया है।

क्या है 'दंडक्रम पारायण साधना' जिसकी हर तरफ चर्चा?

देवव्रत ने जिस उपलब्धि को हासिल किया है, उसे वैदिक शब्दावली में 'दंडक्रम पारायण' कहा जाता है। यह वेदों के पाठ की सबसे जटिल विधियों में से एक है। यह पाठ शुक्ल यजुर्वेद की माध्यन्दिन शाखा से संबंधित है। इसमें करीब 2,000 मंत्र शामिल हैं। इसके पाठ के नियम भी कठिन हैं। देवव्रत को बिना किसी ग्रंथ को देखे (कंठस्थ), पूरी शुद्धता और लय के साथ इन मंत्रों का उच्चारण करना था, और उन्होंने इसे कर दिखाया। यह अनुष्ठान लगातार 50 दिनों तक चला। उन्होंने 2 अक्तूबर से 30 नवंबर तक बिना किसी बाधा के इस उपलब्धि हो हासिल किया।  30 नवंबर को दंडक्रम पारायण की पूर्णाहुति के बाद उन्हें शृंगेरी शंकराचार्य ने सम्मान स्वरूप सोने का कंगन और 1,01,116 रुपये दिया गया। दंडक्रम पारायणकर्ता अभिनंदन समिति के पदाधिकारियों चल्ला अन्नपूर्णा प्रसाद, चल्ला सुब्बाराव, अनिल किंजवडेकर, चंद्रशेखर द्रविड़ घनपाठी, प्रो. माधव जर्नादन रटाटे व पांडुरंग पुराणिक ने बताया कि नित्य साढ़े तीन से चार घंटे पाठ कर देवव्रत ने इसे पूरा किया।

देवव्रत महेश रेखे की उपलब्धि क्यों 'ऐतिहासिक'?

देवव्रत की उपलब्धि का सबसे महत्वपूर्ण पहलू इसका इतिहास है।  ऐसा माना जाता है कि 'दंडक्रम पारायण' का यह कठिन स्वरूप पिछले 200 वर्षों में किसी ने पूर्ण नहीं किया था। इससे पहले, लगभग दो सदी पूर्व नासिक के वेदमूर्ति नारायण शास्त्री देव ने यह उपलब्धि हासिल की थी। आज के डिजिटल दौर में, जब याददाश्त पर तकनीक हावी है, एक 19 साल के युवा द्वारा हजारों मंत्रों को कंठस्थ करना और उन्हें त्रुटिहीन सुनाना एक चमत्कार जैसा है। देवव्रत की इस सिद्धि ने देश के शीर्ष नेतृत्व का ध्यान अपनी ओर खींचा।

पीएम मोदी और सीएम योगी ने क्या दी प्रतिक्रिया?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म 'एक्स' पर देवव्रत की प्रशंसा करते हुए लिखा, "19 वर्ष के देवव्रत महेश रेखे जी ने जो उपलब्धि हासिल की है, वो जानकर मन प्रफुल्लित हो गया है। उनकी ये सफलता हमारी आने वाली पीढ़ियों की प्रेरणा बनने वाली है... काशी से सांसद होने के नाते मैं विशेष रूप से आनंदित हूं।"

उनकी उपलब्धि पर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा कि शुक्ल यजुर्वेद की माध्यन्दिन शाखा के 'दंडक्रम पारायणम्' का 50 दिनों तक अखंड, शुद्ध और पूर्ण अनुशासन के साथ पाठ करना हमारी प्राचीन गुरू-परंपरा के गौरव का पुनर्जागरण है। उन्होंने इसे भारतीय वैदिक परंपरा की शक्ति और अनुशासन का जीवंत उदाहरण बताया। मुख्यमंत्री ने यह भी कहा कि यह महत्वपूर्ण वैदिक अनुष्ठान पवित्र काशी की धरती पर सम्पन्न हुआ। सीएम ने देवव्रत रेखे के परिवार, आचार्यों, संत-मनीषियों और उन सभी संस्थाओं का अभिनंदन भी किया, जिनके सहयोग से यह महान तपस्या सफल हो सकी।


शनिवार, 8 नवंबर 2025

पंजुर्ली देव और गुलिगा देव

पंजुरली और गुलिगा देव और भूटा कोला के बारे में जानें

पंजुरली देव दक्षिण भारत में, खासकर कर्नाटक और केरल के कुछ हिस्सों में पूजे जाते हैं। उनकी किंवदंतियाँ वहाँ बहुत प्रचलित हैं, लेकिन देश के अन्य हिस्सों में उनके बारे में बहुत कम लोग जानते हैं। तो आइए जानते हैं इसके बारे में कुछ।

भगवान विष्णु का वराह अवतार

पंजुरली शब्द तुलु शब्द "पंजिदा कुर्ले" का अपभ्रंश है। तुलु भाषा में इसका अर्थ है "युवा सूअर"। यह कुछ हद तक भगवान विष्णु के वराह अवतार जैसा है। तुलु लोगों में, जिन्हें तुलुनाडु भी कहा जाता है, पंजुरली देव सबसे प्राचीन देवताओं में से एक हैं। ऐसी मान्यता है कि पंजुरली देव उसी समय पृथ्वी पर आए थे जब पृथ्वी पर पहली बार भोजन की उत्पत्ति हुई थी, अर्थात मानव सभ्यता के आरंभ में।

कुछ विद्वानों का यह भी मानना ​​है कि जब मानव ने खेती करना सीखा, उस समय जंगली सूअर (वराह) उनकी फसलों को खाकर अपना पेट भरते थे। उन्होंने इसे कोई दैवीय शक्ति समझकर अपनी फसलों की रक्षा के लिए वराह रूप में पंजुरली देव की पूजा शुरू कर दी। तब से पंजुरली देव की पूजा की जाती है।

आज भी, पंजुरली देव की पूजा करते समय, लोग " बार्ने-कोरपुनी " नामक एक अनुष्ठान करते हैं जिसमें देवता को भोग लगाया जाता है। इस अनुष्ठान में, एक बाँस के बर्तन में चावल रखे जाते हैं और नारियल के दो टुकड़ों में एक दीपक जलाकर पंजुरली देवता के सामने रखा जाता है।

इसके बाद पंजुरली देव के सामने "भूत कोला" नामक एक अत्यंत प्राचीन नृत्य किया जाता है। तुलु भाषा में कोला का अर्थ नृत्य होता है और भूत इसी नृत्य का एक रूप है। भूत कोला की तरह कई अन्य प्रकार के नृत्य भी हैं। यह नृत्य काफी देर तक चलता है और जब नृत्य करने वाला थक जाता है, तो लोग उस भोजन को पंजुरली देव को समर्पित करते हैं। यह एक प्रकार से उनसे अपनी फसलों की रक्षा के लिए की गई प्रार्थना है।

पंजुर्ली देव के जन्म की कथा

पौराणिक कथा के अनुसार, एक सूअर के पाँच पुत्र थे, लेकिन उनमें से एक नवजात शिशु के रूप में पीछे छूट गया। वह भूख-प्यास से तड़पने लगा और मृत्यु के कगार पर खड़ा था। उसी समय माता पार्वती भ्रमण करती हुई वहाँ पहुँचीं और उन्होंने एक नवजात वराह शिशु को देखा। उन्हें उस पर दया आ गई और वे उसे कैलाश ले गईं। वहाँ वे अपने पुत्र की तरह उसका पालन करने लगीं।

समय बीतता गया और उस बालक ने एक क्रूर सूअर का रूप धारण कर लिया। समय के साथ उसकी दाढ़ें (दांत) निकल आईं, जिससे उसे बहुत कष्ट होने लगा। उस खुजली से बचने के लिए उसने धरती की सारी फसलों को नष्ट करना शुरू कर दिया। इससे संसार में अन्न की कमी हो गई और लोग भूख से तड़पने लगे। जब भगवान शंकर ने यह देखा, तो उन्होंने सृष्टि के कल्याण के लिए उस सूअर का वध करने का निश्चय किया।

शिव का श्राप था सूअर के लिए वरदान

जब माता पार्वती को यह बात पता चली तो उन्होंने महादेव से उसके प्राण न लेने की प्रार्थना की। माता की प्रार्थना पर महादेव ने उसका वध तो नहीं किया लेकिन उसे कैलाश से निकालकर पृथ्वी पर जाने का श्राप दे दिया। अपनी जान बचाने के बाद उस सूअर ने महादेव और माता पार्वती से प्रार्थना की और तब भोलेनाथ ने उसे दिव्य शक्ति के रूप में पृथ्वी पर जाकर वहां मनुष्यों और उनकी फसलों की रक्षा करने का आदेश दिया।

तभी से वे वराह "पंजुर्लि" देव के रूप में पृथ्वी पर निवास करने लगे और पृथ्वी पर फसलों की रक्षा करने लगे। इसीलिए लोग उन्हें देवता की तरह पूजने लगे। दक्षिण भारत में अलग-अलग जगहों पर उन्हें अलग-अलग नामों से जाना जाता है। उनके नामों के साथ-साथ उनकी पूजा विधि और रूप भी भिन्न हैं। अधिकांश स्थानों पर उन्हें वराह रूप में ही दिखाया गया है, लेकिन कुछ स्थानों पर उन्हें मुखौटा पहने हुए मनुष्य के रूप में भी दिखाया गया है।

पंजुर्ली देव की बहन

उनकी एक बहन भी मानी गई है जिसका नाम "कल्लूर्ती" है। मंगलौर के बंटवाल तालुका में इन दोनों का एक प्रसिद्ध मंदिर है। ऐसा माना जाता है कि यहीं पर कल्लूर्ती की पंजुरली देव से मुलाकात होती है और दोनों भाई-बहन के रूप में पूजे जाते हैं, जिन्हें "कल्लूर्ती-पंजुरली" देवताओं के रूप में एक साथ पूजा जाता है। तुलुनाडु में शायद ही कोई परिवार हो जो कल्लूर्ती पंजुरली देव की पूजा न करता हो।

कल्लूर्ती पंजुर्ली को सभी अपने परिवार का मुखिया मानते हैं। परिवार में जो भी समस्या होती है, उसे इन दोनों के सामने लाना होता है और ये दोनों उस समस्या का समाधान बताते हैं। समाधान जो भी हो, परिवार के सभी सदस्यों को उस पर सहमत होना होता है। ऐसा माना जाता है कि कल्लूर्ती माँ समस्या का समाधान खोजने के लिए सुझाव देती हैं और अंतिम निर्णय पंजुर्ली देव द्वारा लिया जाता है।

गुलिगा देव का जन्म भगवान शिव द्वारा हुआ

पंजुरली देव के साथ एक और देवता “ गुलिगा” का भी वर्णन मिलता है जो देवता का एक उग्र रूप है। एक प्राचीन कथा के अनुसार एक बार माता पार्वती महादेव के लिए राख लेकर आईं। राख में एक कंकड़ था जिसे भोलेनाथ ने धरती पर फेंक दिया। उसी कंकड़ से गुलिगा देव अपने उग्र रूप में उत्पन्न हुए। उन्होंने महादेव से पूछा कि मैं कहां जाऊं। इस पर भोलेनाथ ने उन्हें भगवान विष्णु के पास भेज दिया। भगवान विष्णु ने उन्हें “नेनुल्ला संके” के गर्भ में धरती पर भेज दिया।

नौ महीने बाद, गुलिगा देव ने अपनी माँ से पूछा कि वह किस रास्ते से बाहर आए। उसकी माँ ने उसे उसी रास्ते से आने को कहा जिससे सभी बच्चे आते हैं, लेकिन गुलिगा देव ने ऐसा नहीं किया। वह अपनी माँ का पेट फाड़कर बाहर आ गया। वे बहुत भूखे थे इसलिए वे कुछ खाने की तलाश में निकल पड़े। वह इतना भूखा था कि उसने सूर्यदेव को खाने की कोशिश की। फिर उसने मछलियाँ खाईं और जानवरों का खून पिया, लेकिन इससे भी उनकी भूख नहीं मिटी। अंत में, भगवान विष्णु ने उसे अपनी छोटी उंगली खाने को दी जिससे उसकी भूख शांत हुई।

गुलिगा देव शिवगण हैं

गुलिगा देव को भी शिवगणों में से एक माना जाता है और इन्हें क्षेत्रपाल भी कहा जाता है। एक पौराणिक कथा के अनुसार, एक बार पंजुरली देव और गुलिगा देव के बीच कई दिनों तक युद्ध चला। तब माँ दुर्गा ने उस युद्ध को रुकवाकर दोनों को साथ रहने का आदेश दिया। इसी कारण आज भी पंजुरली देव और गुलिगा देव की पूजा एक साथ की जाती है। पंजुरली देव जहाँ सौम्य हैं, वहीं गुलिगा देव उग्र हैं, लेकिन फिर भी दोनों शांतिपूर्वक एक साथ रहते हैं।

भूटा कोला

तुलु भाषा में, भूत का अर्थ है दिव्य शक्ति और कोला का अर्थ है नृत्य। इसे दैव कोला भी कहा जाता है। भूत कोला के साथ "दैव नेमा" शब्द का भी प्रयोग होता है। ऐसा माना जाता है कि भूत कोला में जब नर्तक कई आत्माओं (देवों) से ग्रस्त होता है और उस नृत्य को करने वाले व्यक्ति में कोई आत्मा (भूत) प्रवेश करती है, तो उसे दैव नेमा कहते हैं।

भूत कोला नृत्य पारंपरिक माना जाता है। यानी यह कला पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती रहती है। भूत-कोला नृत्य में निपुण व्यक्ति इसे अपने सबसे योग्य बच्चे को सिखाता है और फिर उसका बेटा भूत-कोला नृत्य करता है। इसके लिए उसे कठोर प्रशिक्षण से गुजरना पड़ता है। भूत कोला नृत्य करने के लिए केवल वही व्यक्ति योग्य माना जाता है जिसका मन शुद्ध हो और जिसके शरीर में नृत्य के दौरान कोई देवता या भूत प्रवेश कर सके।


बुधवार, 24 सितंबर 2025

तुम्बुरु गंधर्व

देवताओं के संगीतकार व गायक तुम्बुरु

हिन्दू पौराणिक कथाओं में तुम्बुरु गायकों में सर्वश्रेष्ठ और गंधर्वों के महान संगीतकार हैं। उन्होंने दिव्य देवताओं के दरबार के लिए संगीत और गीतों की रचना की थी। पुराणों में तुम्बरू या तुम्बुरु को ऋषि कश्यप और उनकी पत्नी प्रभा के पुत्र के रूप में वर्णित किया गया है।

तुम्बरू को अक्सर गंधर्वों में सर्वश्रेष्ठ बताया जाता है। वह देवताओं की उपस्थिति में गाता है। नारद के समान, उन्हें गीतों का राजा भी माना जाता है। प्राचीन पुराणों के अनुसार, नारद को तुम्बुरु का शिक्षक माना जाता है। कहा जाता है कि नारद और तुम्बुरु भगवान विष्णु की महिमा गाते हैं।

अदभुत रामायण में उल्लेख है कि तुम्बरू सभी गायकों में सर्वश्रेष्ठ थे और भगवान विष्णु द्वारा उन्हें पुरस्कृत किया गया था। नारद, एक बार तुम्बरू से ईर्ष्या करने लगे तो विष्णु नारद से कहते हैं कि तुम्बुरु तुम्हारी तुलना में अपने संगीत को अच्छी तरह से निभाते हैं, और तब फिर विष्‍णुीजी नारद को संगीत सीखने के लिए गणबंधु नामक उल्लू के पास भेजते हैं।

उल्लू से सीखने के बाद, नारद तुंबुरु के घर गए, वहां उन्होंने देखा कि तुंबुरू घायल पुरुषों और महिलाओं से घिरा हुआ है, और तब उन्हें पता चलता है कि वे संगीत राग और रागिनियां हैं, जो उनके बुरे गायन से बुरी तरह घायल हो गए थे। नारद शर्मिंदा होकर उस स्थान को छोड़ देते हैं और वे भगवान कृष्ण की पत्नियों से उचित गायन सीखते हैं।

तुंबुरू को कुबेर का अनुयायी बताया गया है और उनके गीत आमतौर पर कुबेर के दरबार में सुने जाते हैं। तुंबुरू या थम्बुरु गंधर्वों को संगीत और गायन सिखाता है और उसे अपने संगीत के लिए "गंधर्वों का स्वामी" कहा जाता है। तुंबुरू को कभी-कभी एक गंधर्व के बजाय एक ऋषि के रूप में भी वर्णित किया गया है।

तुम्बरू को अक्सर घोड़े के मुंह वाले ऋषि के रूप में दर्शाया गया। वे वीणा धारण करते और गाते हैं। अपनी तपस्या से शिव को प्रसन्न करने के बाद, तुम्बुरु ने शिव से कहा कि वे उन्हें एक घोड़ा जैसा चेहरा और अमरता प्रदान करें। शिव ने उसे आशीर्वाद दिया और वह वरदान दिया जो उसने मांगा था।

तिरुमला में तुम्बुरु तीर्थम

एक बार ऋषि तुम्बुरु ने अपनी आलसी पत्नी को एक ताड़ बनने और इस झील में रहने के लिए शाप दिया। कुछ समय बाद, ऋषि अगस्त्य इस तीर्थ में पहुंचे और अपने शिष्यों को इस तीर्थ के गुणों का वर्णन किया। उनकी बातें सुनकर उसने फिर से अपने गंधर्व स्वरूप को प्राप्त कर लिया।

निष्कर्ष:

तुम्बुरु जो एक दिव्य ऋषि और एक महान संगीतकार हैं और वे भगवान शिव एवं भगवान विष्णु के बड़े भक्त हैं। वह हमारी और आपकी इच्छाओं को पूरा करेंगे। वह हमें एक स्वस्थ और खुशहाल जीवन प्रदान करते हैं। आइए हम उसकी निरंतर पूजा करें, और उसके नाम “ओम श्रीं थुंबुरुवे नमः” का जाप करें।



बुधवार, 13 अगस्त 2025

आठ पहर

हिन्दू धर्म में समय की बहुत ही वृहत्तर धारणा है। आमतौर पर वर्तमान में सेकंड, मिनट, घंटे, दिन-रात, माह, वर्ष, दशक और शताब्दी तक की ही प्रचलित धारणा है, लेकिन हिन्दू धर्म में एक अणु, तृसरेणु, त्रुटि, वेध, लावा, निमेष, क्षण, काष्‍ठा, लघु, दंड, मुहूर्त, प्रहर या याम, दिवस, पक्ष, माह, ऋतु, अयन, वर्ष (वर्ष के पांच भेद - संवत्सर, परिवत्सर, इद्वत्सर, अनुवत्सर, युगवत्सर), दिव्य वर्ष, युग, महायुग, मन्वंतर, कल्प, अंत में दो कल्प मिलाकर ब्रह्मा का एक दिन और रात, तक की वृहत्तर समय पद्धति निर्धारित है।

हिन्दू धर्म अनुसार सभी लोकों का समय अलग-अलग है। सूर्य और तारों से रहित दिन-रात की संधि को तत्वदर्शी मुनियों ने संध्याकाल माना है। हम यहां जानकारी दे रहे हैं प्रहर की।

आठ प्रहर

सनातन धर्म के अनुसार (हिन्दू धर्मानुसार), 24 घंटे में दिन और रात मिलाकर आठ प्रहर होते हैं। प्रत्येक प्रहर तीन घंटे या फिर साढ़े सात घंटे का होता है, जिसमें दो मुहूर्त होते हैं। एक प्रहर एक घटी 24 मिनट की होती है। दिन के चार और रात के चार मिलाकर कुल आठ प्रहर। प्रत्येक प्रहर में गायन, पूजन, जप और प्रार्थना का महत्व है। हिंदू धर्म में प्रहर का विशेष महत्व होता है। हर एक प्रहर में पूजा, उपासना और शिशु के जन्म लेने के संबंध में कई बातों के बारे में विस्तार से बताया गया है।

इसी के आधार पर भारतीय शास्त्रीय संगीत में प्रत्येक राग के गाने का समय निश्चित है। प्रत्येक राग प्रहर अनुसार निर्मित है।

संध्यावंदन :

संध्यावंदन मुख्‍यत: दो प्रकार के प्रहर में की जाती है:- पूर्वान्ह और उषा काल। संध्या उसे कहते हैं जहां दिन और रात का मिलन होता हो। संध्यकाल में ही प्रार्थना या पूजा-आरती की जाती है, यही नियम है। दिन और रात के 12 से 4 बजे के बीच प्रार्थना या आरती वर्जित मानी गई है।

हर एक प्रहर का अपना एक खास महत्व है। इस दौरान विशेष पूजा विधियां भी की जाती हैं। इन आठ प्रहरों में चार दिन और चार रातें शामिल होती हैं, तो आइए इनके बारे में विस्तार से जानते हैं।

ये हैं आठ प्रहरों के नाम

दिन के चार प्रहर - 1. पूर्वान्ह, 2. मध्यान्ह, 3. अपरान्ह और 4. सायंकाल।
रात के चार प्रहर - 5. प्रदोष, 6. निशिथ, 7. त्रियामा एवं 8. उषा।

आठ प्रहर :- 

एक प्रहर तीन घंटे का होता है। सूर्योदय के समय दिन का पहला प्रहर प्रारंभ होता है जिसे पूर्वान्ह कहा जाता है। दिन का दूसरा प्रहर जब सूरज सिर पर आ जाता है तब तक रहता है जिसे मध्याह्न कहते हैं। इसके बाद अपरान्ह (दोपहर बाद) का समय शुरू होता है, जो लगभग 4 बजे तक चलता है। 4 बजे बाद दिन अस्त तक सायंकाल चलता है। फिर क्रमश: प्रदोष, निशिथ एवं उषा काल। सायंकाल के बाद ही प्रार्थना करना चाहिए।

पहला प्रहर

शाम के 6:00 बजे से लेकर रात्रि के 9:00 बजे तक का समय पहला प्रहर होता है, जिसे लोग प्रदोष काल के नाम से भी जानते हैं। इसको रात का प्रथम पहर भी कहा जाता है। इस पहर को सतोगुणी पहर भी कहते हैं। इस पहर में पूजा उपासना का विशेष महत्व होता है। इस प्रहर में देवी-देवताओं की पूजा करना बेहद ही शुभ माना जाता है। भगवान शिव की आराधना और दीपदान करने से नकारात्मक ऊर्जा का नाश होता है। ऐसा कहा जाता है कि इस दौरान सोना, खाना, पीना, लड़ाई-झगड़ा आदि से बचना चाहिए। इस समय घर में पूजा के स्थान पर घी या तिल के तेल का दीपक जलाना चाहिए। इस समय संध्या वंदन, मंत्र जाप और हवन करना अत्यंत फलदायी होता है। इस समय का उपयोग आत्मचिंतन और सत्संग में करना चाहिए।

इस प्रहर में अगर किसी बच्चे का जन्म होता है, तो वे शारीरिक समस्याओं से घिरे रहते हैं। इस पहर में जन्म लेने वालों को आमतौर पर आंखों और हड्डियों की समस्या होती है।

दूसरा प्रहर

रात्रि के 9:00 बजे से लेकर रात्रि 12:00 बजे तक का समय दूसरा प्रहर कहलाता है। ये पहर तामसिक और राजसिक होता है। यानि पूरी तरह से नकारात्मक नहीं होता है। यह समय नई चीजें नहीं खरीदनी चाहिए। ऐसी मान्यता है कि इस दौरान पेड़-पौधों को छूने (फूल-पत्ते तोड़ने) से बचना चाहिए, क्योंकि इस समय वे अपनी ऊर्जा संचित करते हैं। इस पहर में घर में बने खाने का कुछ हिस्सा किसी पशु को खिलाना चाहिए। ऐसा करने से आर्थिक स्थिति मजबूत हो सकती है।

वहीं जिन बच्चों का जन्म इस प्रहर में होता वे कलात्मक चीजों परिपूर्ण होते हैं। साथ ही ये लोग कला के क्षेत्र में अपनी एक अलग पहचान बनाते हैं। लेकिन उनकी शिक्षा में बाधा के योग बनते हैं।

तीसरा प्रहर

रात्रि के 12:00 बजे से 3:00 बजे तक के समय को तीसरा प्रहर कहा जाता है, जिसे लोग निशिथकाल के नाम से भी जानते हैं। इसे मध्यरात्रि भी कहा जाता है। ये पहर शुद्ध रूप से तामसिक है लेकिन इस पहर का कुछ विशेष लाभ भी है।इस समय को गुप्त साधनाओं, तांत्रिक क्रियाओं और सिद्धियों की प्राप्ति के लिए उपयुक्त माना गया है। इस पहर में स्नान बिल्कुल ना करें और आवश्यक ना हो तो भोजन भी ना करें। इस पहर में या तो विश्वास करें या ईश्वर की प्रार्थना करें, इस समय में की गई प्रार्थना जरूर पूरी होती है।

ऐसे में जिन लोगों का जन्म इस तीसरे प्रहर में होता है, वे सदैव अपने घर से दूर रहते हैं और सफल होते हैं। और इनके परिवार से संबंध अच्छे नहीं होते हैं।

चौथा प्रहर

प्रात: 3:00 बजे से लेकर 6:00 बजे तक का समय चौथा प्रहर कहलाता है। यह रात्रि का अंतिम प्रहर होता है। इस प्रहर में ब्रह्म मुहूर्त प्रारंभ होता है। इसलिए इसका खास महत्व होता है। यह प्रहर दिन का सबसे पवित्र समय होता है, जिसे ऊषा काल भी कहते हैं। इस दौरान की गई साधना और पूजा हजार गुना फलदायी होती है। ये पहर शुद्ध रूप से सात्विक होता है, आध्यात्मिक कामों (ध्यान, योग और मंत्र जप) के लिए अच्छा होता है। इस पहर में खाने-पीने से बचें, अगर सोकर में उठ सकें तो अच्छा होगा। ऐसा कहा जाता है कि इस दौरान पूजा-अर्चना और शुभ काम करना अच्छा माना जाता है, जो लोग इस प्रहर में भगवान शंकर की विशेष पूजा करते हैं उनकी सभी इच्छाएं पूरी होती हैं। इस समय वायुमंडल में ऑक्सीजन की मात्रा अधिक होती है, जो स्वास्थ्य के लिए लाभदायक होती है। ध्यान, योग, प्राणायाम और वेदपाठ करने से मानसिक शांति प्राप्त होती है।

इस समय में जन्मे बच्चे बहुत ही तेजस्वी और आध्यात्मिक होते हैं।

पांचवा प्रहर

सुबह 6:00 बजे से लेकर 9:00 बजे तक के समय को पांचवा प्रहर कहा जाता है। यह दिन का पहला प्रहर होता है। ये पहर आंशिक सात्विक और आंशिक राजसिक होता है, नकरात्मक बिल्कुल नहीं होता है। इस पहर में सोना नहीं चाहिए। क्रोध नहीं करना चाहिए और घर में गंदगी बिल्कुल नहीं रखनी चाहिए। इस समय सूर्य की किरणें पूरे वातावरण को ऊर्जावान बनाती हैं। पूजा-पाठ और सकारात्मक कार्यों के लिए यह समय उत्तम है। ऐसे में प्रतिदिन की पूजा इसी समय करनी चाहिए। इस पहर में घर के हर कोने में चंदन या गुलाब की सुंगध वाली अगरबत्ती जलाएं, ऐसा करने से घर में सुख-समृद्धि आती है। सूर्योदय के समय गायत्री मंत्र और हनुमान चालीसा का पाठ विशेष फलदायी होता है। इस समय नकारात्मक ऊर्जा का नाश होता है और दिन की अच्छी शुरुआत होती है।

वहीं जिन बच्चों का जन्म इस प्रहर में होता है वे नाम और प्रतिष्ठा खूब कमाते हैं। हालांकि इनके जीवन में स्वास्थ्य संबंधित समस्याएं बनी रहती हैं।

छठा प्रहर

प्रात: 9:00 बजे से लेकर दोपहर 12:00 बजे तक का समय छठा प्रहर कहलाता है। इस दिन का दूसरा पहर कहते हैं। इसमें कार्य शक्ति बढ़ जाती है, यह समय कर्मयोग का होता है। शिक्षा, व्यापार और श्रम करने का यह सबसे उपयुक्त समय है। इस पहर में मांगलिक कार्य करने से बचना चाहिए। इस पहर में अगर हनुमान जी को लाल फूल चढ़ाएं तो संपत्ति का लाभ मिलता है। कर्जे से राहत मिलती है। विद्या-अध्ययन, सत्संग और सेवा कार्य करना लाभदायी होता है।

इस प्रहर में जन्मे बच्चे प्रशासनिक सेवा और राजनीति क्षेत्र में जाते हैं, जहां इन्हें जबरदस्त सफलता मिलती है।

सातवां प्रहर

दोपहर 12:00 बजे से लेकर शाम 3:00 बजे तक का समय सातवां प्रहर कहलाता है। इसको दिन का तीसरा पहर भी कहते हैं, ये तमोगुणी पहर होता है। इस समय यज्ञ, दान-पुण्य और शुभ कार्य करना श्रेष्ठ माना गया है। इसमें कार्यक्षमता कम होती है। इस समय किए गए कार्यों में सफलता प्राप्त होती है। इसे देवताओं का काल भी कहा जाता है। इस दौरान हल्का भोजन करने की परंपरा है, जिससे शरीर स्वस्थ रहता है। लेकिन इस दौरान सोना नहीं चाहिए। साथ ही स्नान करने से बचना चाहिए।

इस पहर में जन्म लेने वाले बच्चों को शुरुआत में शिक्षा में बाधा आती है साथ ही उनका स्वभाव जिद्दी होता है।

आठवां प्रहर

शाम 3:00 बजे से लेकर 6:00 बजे तक का समय दिन का आखिरी और आठवां प्रहर होता है। ये दिन का चौथा पहर होता है। ये पहर सात्विक है पर इसमें तमोगुण की प्रधानता होती है। इस दौरान अधिक परिश्रम और नींद से बचना चाहिए। लेकिन भोजन नहीं करना चाहिए। इस पहर के दौरान नए कार्य शुरू करना अशुभ माना जाता है। इस समय सोने से आलस्य बढ़ता है और स्वास्थ्य प्रभावित होता है। देवी-देवताओं की आराधना और ध्यान करने से आत्मिक शांति प्राप्त होती है।

इस समय में जन्म लेने वाले बच्चे फिल्म, मीडिया और गलैमर के क्षेत्र में नाम-यश कमाते हैं, प्रेम विवाह की संभावना ज्यादा होती है।

8 प्रहर का धार्मिक महत्व

हर एक प्रहर का धार्मिक महत्व है, जिसमें किए जानें वाले अलग-अलग कार्य बनाए गए हैं। ऐसा कहा जाता है कि जो लोग प्रहर का ध्यान रखते हुए अपना कार्य करते हैं उनके कार्यों में कभी किसी प्रकार का विघ्न नहीं पड़ता है।

निष्कर्ष :-
प्रहर केवल समय के अंश नहीं हैं, बल्कि ये प्रकृति और ब्रह्मांड के साथ हमारे सामंजस्य को दर्शाते हैं। यदि हम इन प्रहरों का सही उपयोग करें, तो हम जीवन में संतुलन, ऊर्जा और आध्यात्मिक विकास सुनिश्चित कर सकते हैं।

अष्टयाम :-

वैष्णव मंदिरों में आठ प्रहर की सेवा-पूजा का विधान होती है, जिसे 'अष्टयाम' के नाम से जाना जाता है। इसलिए जो जातक अपने कार्यों का शुभ परिणाम चाहते हैं, उन्हें इन प्रहरों के बारे में अवश्य जान लेना चाहिए। वल्लभ सम्प्रदाय में मंगला, श्रृंगार, ग्वाल, राजभोग, उत्थापन, भोग, संध्या-आरती तथा शयन के नाम से ये कीर्तन-सेवाएं हैं। अष्टयाम हिन्दी का अपना विशिष्ट काव्य-रूप जो रीतिकाल में विशेष विकसित हुआ। इसमें कथा-प्रबंध नहीं होता परंतु कृष्ण या नायक की दिन-रात की चर्या-विधि का सरस वर्णन होता है। यह नियम मध्यकाल में विकसित हुआ जिसका शास्त्र से कोई संबंध नहीं।



रविवार, 8 जून 2025

"जुग सहस्त्र जोजन पर भानु, लील्यो ताहि मधुर फल जानू" का अर्थ

हनुमान चालीसा (Hanuman Chalisa) का दोहा "जुग सहस्त्र जोजन पर भानु, लील्यो ताहि मधुर फल जानू"

Distance Between Sun and Earth
सैंकड़ों साल पहले गोस्वामी तुलसीदास ने हनुमान चालीसा की रचना की थी। हनुमान चालीसा का एक दोहा है, इस दोहे में सूरज और पृथ्वी के बीच की दूरी बताई गई है। आश्चर्य की बात यह है कि इस वक्त विज्ञान ने इतनी तरक्की नहीं की थी और तब भी शास्त्रों में इसकी जानकारी पहले से ही लिखी थी। हनुमान चालीसा में एक दोहा है -
"जुग सहस्त्र जोजन पर भानु,
लील्यो ताहि मधुर फल जानू"

इसी दोहे में सूरज और धरती के बीच की दूरी बताई गई है। आइए जानते हैं इसका क्या अर्थ है और कैसे इससे सूरज और पृथ्वी के बीच की दूरी पता चलती है।

कितनी है सूरज और धरती के बीच की दूरी
हनुमान चालीसा के इस 18वीं चौपाई में ही सूरज और धरती के बीच की दूरी का गणित छिपा है। यह दोहा अवधी भाषा में है इस दोहे का हिंदी भाषा में अर्थ यह है कि हनुमान जी ने एक युग सहस्त्र योजन की दूरी पर स्थित भानु (सूर्य) को मीठा फल (आम) समझकर खा लिया था। बता दें कि योजन पहले दूरी के लिए इस्तेमाल की जाने वाली ईकाई थी। इसमें एक युग का मतलब 12000 वर्ष, एक सहस्त्र का मतलब 1000 और एक योजन यानी 8 मील होता है। अब देखा जाए तो युग x सहस्त्र x योजन = 12000x1000x8 मील। इस प्रकार यह दूरी 96000000 मील है। किलोमीटर में अगर इस दूरी को देखें तो एक मील में 1.6 किमी होते हैं तो इस हिसाब से 96000000x1.6= 153600000 किमी। इस गणित के आधार गोस्वामी तुलसीदास ने प्राचीन समय में ही बता दिया था कि सूर्य और पृथ्वी के बीच की दूरी करीब 15 करोड़ किलोमीटर है।

यह ठीक वही दूरी है जो नासा ने पृथ्वी से सूर्य तक पहुंचने के लिए गणना की है। यह जानना वाकई अविश्वसनीय है कि प्राचीन भारतीय इतने प्रतिभाशाली थे कि वे किसी भी आधुनिक उपकरण या कैलकुलेटर के बिना पृथ्वी और सूर्य के बीच की दूरी की गणना कर सकते थे।

सूरज को मुंह में रख लिया था
शास्त्रों के मुताबिक हनुमानजी भगवान शिव के ही अवतार हैं और उन्हें जन्म से ही कई दिव्य शक्तियां प्राप्त थीं। हनुमान चालीसा के अनुसार बचपन में बाल हनुमान को खेलते हुए सूर्य ऐसे दिखाई दिया जैसे वह कोई मीठा फल हो। वे उसे खाने की चाह में तुरंत ही सूर्य तक उड़कर पहुंच गए।

हनुमान जी ने स्वयं का आकार इतना विशाल बनाया कि उन्होंने सूर्य को ही अपने मुख में रख लिया। उनके ऐसा करने से पूरी सृष्टि में अंधकार फैल गया और सभी देवी-देवता डर गए। जब इंद्र देव को यह पता चला कि किसी वानर बालक ने सूर्य को खा लिया है तो वे क्रोधित हो गए। इंद्र हनुमान जी के पास पहुंचे और उन्होंने बाल हनुमान की ठोड़ी पर अपने शस्त्र वज्र से प्रहार कर दिया। इस प्रहार से केसरी नंदन की ठुड्डी कट गई। इसी वजह से वो हनुमान कहलाए। ठुड्डी को संस्कृत में हनु कहा जाता है।

सीखने को है बहुत कुछ
हनुमान का एक अर्थ है निरहंकारी या अभिमानरहित भी होता है। हनु का अर्थ हनन करना और मान का अर्थ होता है अहंकार, यानी जिसने अपने अहंकार का हनन कर दिया हो। हनुमानजी को कोई अभिमान नहीं था। हमें हनुमान जी से सीखना चाहिए और समृद्ध जीवन जीने के लिए अपने अहंकार को त्यागना चाहिए।

भगवान हनुमान भारतीय महाकाव्य रामायण के महान केंद्रीय पात्र हैं। हनुमान अपनी शक्ति के लिए प्रसिद्ध हैं और वे सभी प्रकार के हथियारों से अछूते हैं। उनके पास अत्यधिक गति (मनोजवम, मरुथा तुल्य वेगम) तेज, बुद्धि, मृत्यु का भय न होना (चिरंजीवी) है, उन्होंने मोहक इंद्रियों पर विजय प्राप्त कर ली है। उन्हें आठ सिद्धियों और नौ भक्तियों का ज्ञान है। दुनिया का सबसे खतरनाक हथियार ब्रह्मास्त्र भी उन्हें कभी नुकसान नहीं पहुंचा सकता। वे श्री राम के सबसे शक्तिशाली लेकिन बहुत आज्ञाकारी भक्त हैं।

तुलसीदास या गोस्वामी तुलसीदास, जिन्होंने रामचरितमानस लिखा था, वे ही हनुमान चालीसा के रचयिता हैं। ऐसा कहा जाता है कि उन्होंने वाराणसी में हनुमान जी के दर्शन भी किए थे, जहाँ वे रहते थे और उन्होंने वाराणसी में संकटमोचन हनुमान मंदिर नामक एक मंदिर बनवाया था, जहाँ उन्हें भगवान हनुमान के दर्शन हुए थे।



शनिवार, 7 जून 2025

भारत के नक्शे में क्यों दिखाई देता हैं श्रीलंका?

भारत के नक्शे में श्रीलंका को दिखाना क्यों है जरूरी?

जब हम भारत देश का जिक्र करते हैं तो इसे विविधताओं का देश कहा जाता है। भारत की अनूठी परंपराएं, संस्कृति और भाषाएं, खान-पान, वेशभूषा और यहां की कलाएं इसे अन्य देशों से अलग बनाती हैं। भारत की सीमा 7 देशों से लगती है। इन देशों में अफगानिस्तान, पाकिस्तान, चीन, नेपाल, भूटान, बांग्लादेश और म्यांमार शामिल है।

हम बचपन से ही भूगोल के विषय में भारत का नक्शा देखते आ रहे हैं। मानचित्र में दिखाया जाता है कि कौन सा राज्य देश के किस भाग में स्थित है। यह चित्र भारतीय सीमा को खूबसूरती से दर्शाता है, लेकिन इसमें पाकिस्तान या नेपाल की सीमाएं नहीं दिखाई गई हैं।

हालांकि जब हम भारत (India) के नक्शे को देखते हैं तो हमें श्रीलंका (Sri Lanka) जरूर नजर आता है। लेकिन हम अन्य देश नहीं देखते हैं। जबकि श्रीलंका एक अलग देश है। अब बड़ा सवाल यह है कि अगर भारत की सीमा श्रीलंका से नहीं लगती है तो भारत के नक्शे में श्रीलंका क्यों दिखाई देता है? अब आपके मन में सवाल उठ रहा होगा कि क्या ऐसा पडोसी देश होने की वजह से है? लेकिन पाकिस्तान और चीन भी तो भारत के पडोसी देश हैं। बावजूद इसके भारत के मैप श्रीलंका को ही क्यों दिखाया जाता है पाकिस्तान और चीन को क्यों नहीं?

ऐसा नहीं है कि श्रीलंका से हमारे अच्छे संबंध है तो इसे भारत के नक्शे में दिखाए जाने से कुछ दिक्कत नहीं होती है जबकि इसके पीछे एक अहम वजह है।

जानें भारत के समुद्री सीमा की लंबाई

अगर हम भारत की समुद्री सीमा की बात करें तो इसकी कुल लंबाई 7516.6 किलोमीटर है। भारत की समुद्री सीमा गुजरात, गोवा, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, ओडिशा, दादर और नगर हवेली, दमन एवं दीव, लक्षद्वीप, पुडुचेरी, अंडमान और निकोबार दीप समूह से होकर गुजरती है। लेकिन इसमें भी श्रीलंका नहीं आता है। श्रीलंका एक अलग देश है लेकिन हम उसे भारत के मानचित्र पर हमेशा नीचे की तरफ देखते ही देखते हैं। हम सभी जानते हैं कि श्रीलंका पर भारत का कोई अधिकार नहीं है।

समुद्री क़ानून (ओसियन लॉ /Law of the Sea) क्या है?

भारत के नक्शे में श्रीलंका दिखाए जाने का मतलब ये नहीं है कि भारत का उस पर कोई अधिकार है या फिर दोनों देश के बीच ऐसा कोई करार है। दरअसल भारत के नक्शे में श्रीलंका को दिखाए जाने का मुख्य कारण समुद्री कानून है। इसे ओसियन लॉ भी कहा जाता है। अगर भारतीय नक्शे में श्रीलंका को नहीं दिखाया जाता तो यह कानूनन अपराध माना जाएगा। यही वजह है कि हर भारतीय नक्शे में श्रीलंका को जरूर दिखाया जाता है। और इसमें हिंद महासागर का कितना अहम रोल है।

दुनिया के कई देश ऐसे हैं जो समुद्री सीमा से लगते हैं। वर्ष 1956 में संयुक्त राष्ट्र (United Nations /यूनाइटेड नेशंस) ने ‘कन्वेंशन ऑफ द लॉ ऑफ द सी’ (Convention of the law of the Sea) (UNCLOS-1) का सम्मेलन आयोजित किया गया और इसके बाद 1958 में इस सम्मेलन का रिजल्ट घोषित किया गया। इस सम्मेलन में अलग-अलग देशों की समुद्री सीमा और उनसे जुड़ी संधियों व समझौतों पर गहन चर्चा की गई। ऐसे में अलग-अलग कानून बनाए गए। वहीं, इसके बाद भी बैठकों का दौर जारी रहा और साल 1973 से 1982 तक तीन बैठकों (तीसरा सम्मेलन (UNCLOS-III)) का आयोजन किया गया। बैठकों में अलग-अलग समुद्री सीमाओं को लेकर कानून बनाए गए और उन्हें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता देने के लिए प्रक्रिया हुई। इसी में ‘लॉ ऑफ द सी’ शामिल था। इस कानून के तहत किसी भी देश के नक्शे में उस देश की आधार रेखा यानी बेसलाइन से 200 नॉटिकल माइल यानि कि 370.4 किलोमीटर की सीमा को दिखाना अनिवार्य कर दिया गया। सीधे शब्दों में समझें तो अगर कोई देश समुद्र के किनारे बसा हुआ है या फिर उसका एक हिस्सा समुद्र से जुड़ा है तो इस स्थिति में उस देश के नक्शे में देश की सीमा से आस-पास का क्षेत्र भी नक्शे में दिखाया जाएगा।

लॉ ऑफ द सी के मुताबिक, अगर किसी देश की सीमा समुद्र से लगती है तो लगभग 200 नॉटिकल माइल यानी करीब 370 किलोमीटर तक का समुद्री इलाका उस देश का समुद्री इलाका माना जाएगा। संबंधित देश की नौसेनाएं भी इस 370 किलोमीटर की दूरी पर तैनात की जा सकती हैं। (एक नॉटिकल माइल्स (nmi) में 1.824 किलोमीटर (km) होते हैं।)

भारत के नक्शे में श्रीलंका क्यों?

अब हम आते हैं श्रीलंका पर। दरअसल श्रीलंका से भारत की दूरी 18 नॉटिकल मील यानि कि 33.33 किलोमीटर है। भारत का धनुषकोडी इलाका और श्रीलंका के थलाईमन्नार की दूरी 30 किलोमीटर है। अब अंतरराष्ट्रीय कानून के अनुसार 370 किलोमीटर तक के एरिया को भारत को अपने नशे में दिखाना होगा। ऐसे में इसी कारण श्रीलंका को भी भारत के नक्शे में दिखाना जरूरी होता है। इसी तरह श्रीलंका भी भारत के कुछ हिस्सों को अपने मानचित्र में दिखाएगा।

इससे साफ हो जाता है कि भारत के नक्शे में इस वजह से श्रीलंका अहम स्थान रखता है और ये ही कारण है इसपर कोई विवाद भी नहीं होता है। इसी नियम का पालन अन्य समुद्री भी करते हैं।

हालांकि, पाकिस्तान, चीन, नेपाल, भुटान, बांग्लादेश और म्यांमार को इसलिए मैप पर दिखाया जाता है क्योंकि इन्हें शामिल किए बगैर पूरे भारत के नक्शे को दिखा पाना संभव नहीं है।

भूमि सीमा को लेकर भी जान लें सबकुछ

वहीं अगर हम भारत की भूमि सीमा की बात करें तो यह करीब 15,200 किलोमीटर है। भारत की भूमि सीमा 17 प्रदेशों के 82 जिलों से होकर गुजरती है। यानी भारत के 82 जिले चीन, पाकिस्तान, भूटान, अफगानिस्तान, म्यांमार, बांग्लादेश और नेपाल से सीमा साझा करते हैं। भारत, बांग्लादेश के साथ सबसे अधिक सीमा साझा करता है। भारत, बांग्लादेश के साथ 4096.7 किलोमीटर की सीमा साझा करता है। वहीं आप अक्सर चीन के साथ सीमा विवाद की खबरें सुनते होंगे। भारत, चीन के साथ 3488 किलोमीटर की सीमा साझा करता है। वहीं पाकिस्तान के साथ भारत की सीमा की लंबाई 3323 किलोमीटर है। भारत, नेपाल का भी पड़ोसी देश है और नेपाल के साथ 1751 किलोमीटर की सीमा साझा करता है। वहीं भारत, म्यांमार के साथ 1643 किलोमीटर लंबी सीमा साझा करता है। भारत, भूटान के साथ 699 किलोमीटर की सीमा साझा करता है। वहीं भारत के साथ अफगानिस्तान की भी सीमा लगती है। भारत के साथ अफगानिस्तान की सीमा की लंबाई 106 किलोमीटर है।


रविवार, 13 अप्रैल 2025

यज़ीदी धर्म और हिन्दू धर्म

यज़ीदी धर्म और हिन्दू धर्म

यज़ीदी धर्म क्या है? यज़ीदी शब्द, कुर्द से निकला है। जिसका अर्थ होता है "जिसने मुझे बनाया" अर्थात निर्माता और ईश्वर। यज़ीदीवाद एक ईश्वर यानी एकेश्वरवाद में विश्वास रखते हैं। यज़ीदी ईश्वर को खुदा कहते हैं। प्रत्येक यज़ीदी को, नैतिकता, सही - गलत, न्याय, सच्चाई, वफादारी, दया और प्रेम जैसे सिद्धांतों पर आधारित है। यज़ीदी खुद को सबसे पुराने धर्मों में से एक का सदस्य होने दावा करते हैं और मिथ्रावाद, यार्सन और ज़ारथ्रिस्ट्रा के साथ अपने संबंधों का विवरण देते हैं। यज़ीदियों का इतिहास एक मौखिक इतिहास है। यज़ीदी के बारे में बहुत ही कम दस्तावेज मिले हैं। यज़ीदी आमतौर पर मानते हैं कि, उनकी उत्पत्ति मिथरिक धर्म से 14वीं शताब्दी ई.पू. से है। 7वीं शताब्दी तक, यज़ीदी शब्द के ऐतिहासिक स्रोत के बारे में कोई उल्लेख नहीं मिलता है। ऐसा अनुमान है कि, सदी के अंत में मोस्लेम के मौलवियों और इतिहासकारों ने यज़ीदी शब्द का इस्तेमाल किया था। करीब पिछले 50 वर्षों में यज़ीदी वास्तविक संपर्क में आने लगे थे। जब उस्मान सम्राज्य का पतन हुआ था। तो कई यज़ीदी भाग गए और आकार अर्मेनियाई लोगों के साथ और सोवियत संघ के कारकेस क्षेत्रों में रहने लगे थे। प्रथम विश्व युद्ध के अंत में 1923 में जब तुर्की की नींव रखी गई तब इन यज़ीदीयों का विभाजन हो गया था। तब से यह यज़ीदी तुर्की, इराक, सीरिया और पूर्व सोवियत संघ में रह रहे हैं।
यज़ीदी समुदाय यज़ीदी कैलेण्डर के अनुसार, उनका नव वर्ष अप्रैल के पहले बुधवार को होता है और पैतृक कब्रों पर विलाप द्वारा इसे चिन्हित किया जाता है। वसंत के मौसम में ग्राम त्योहारों, जिसमें स्थानीय धार्मिक स्थलों पर दावत, संगीत और मन्नत शामिल है। प्रत्येक गांव का अपना - अपना अभियान होता है। जिन्हें अक्सर बड़ी बस्तियों में आयोजित किया जाता है। वर्ष का सबसे बड़ा त्यौहार "शरद जमुनिया" जिसे अक्टूबर के महीने में आयोजित किया जाता है। जब सभी "लालिश" तीर्थ यात्रा करने में सक्षम होते है। जहां सभी की उपस्थिति एक धार्मिक कर्तव्य माना जाता है। 
दुनिया में सबसे लुप्तप्राय धार्मिक अल्पसंख्यक में एक यज़ीदी मुख्यतः हालहिं के वर्षों में सब की नजर में चढ़ गए हैं। 2014 में इस्लामिक स्टेट ने माउंट सिंजर के यज़ीदियों के प्राचीन समुदाय पर निर्ममता पूर्वक हमला किया। सैकड़ों पुरुषों का नरसंहार किया, महिलाओं और बच्चों को या तो मार डाला या उन्हें अपना गुलाम बना लिया और यह चौंका देने वाला नरसंहार हाल के वर्षों में चर्चा का विषय रहा है। 
लेकिन क्या आप जानते हैं, हिन्दुओं और यज़ीदियों के बीच सांस्कृतिक रूप से कई समानताएं देखने को मिलते हैं। जैसे कि हम जानते हैं कि, हिन्दू धर्म में पुनर्जन्म का विशेष महत्व होता है। हमारे ग्रंथों - शास्त्रों में पुनर्जन्म की अवधारणाओं को स्पष्ट उल्लेख किया गया है। महत्वपूर्ण बात यह है कि, पारगमन या पुनर्जन्म की यह अवधारणा यज़ीदी मान्यताओं में भी देखने को मिलती है। जीवन और मृत्यु के बाद का यह विचार दोनों धर्मों में एक समानता प्रकट करता है।
इसके अलावा हिन्दू धर्म में भौहों के मध्य तिलक करने का विशेष महत्व होता है। हिन्दू संस्कृति में इसे "टीका" भी कहते हैं। माथे के बीच में पवित्र चिन्ह के रूप में टीका लगाते हैं। यज़ीदी भी पवित्रता को विशेष महत्व देते हैं और वह भी भौहों के बीच तिलक करने के लिए जाने जाते है
यज़ीदियों और हिंदुओं के बीच एक प्रमुख समानता यह है कि, हिन्दू संस्कृति में भगवान शिव ने अपनी ऊर्जा की शक्ति से अपने पुत्र कार्तिकेय को बनाया है। वहीं यज़ीदी देवता तवसी मेलेक को भी उनके पिता ने ही बनाया है। जो यज़ीदियों के प्रमुख देव माने जाते हैं।
हमारे हिन्दू धर्म में भगवान के मंदिरों को एक प्रमुख स्थल माना जाता है। मंदिरों की कला, वहां उत्कीर्ण भित्ति चित्र का भी विशेष महत्व है। यज़ीदियों में भी मंदिरों का विशेष महत्व है। "लालिश" को यज़ीदियों का सबसे पवित्र मंदिर माना जाता है। इसके अतिरिक्त पारंपरिक हिन्दू तरीके, यहां की आरती और पूजा के कई धार्मिक तरीके भी 
यज़ीदी रिवाजों में देखने को मिलते हैं। हिंदू संस्कृति में इस्तेमाल किए जाने वाले, आरती के थाल उनके लैंप भी काफी मिलते जुलते है। यज़ीदियों में इसे "संजकस" कहा जाता है। इस प्रकार आरती के रूप में अग्नि का प्रयोग, दोनों संस्कृतियों में समानताएं प्रकट करता है।
इस प्रकार कई धरातल पर, यज़ीदी संस्कृति हिन्दू संस्कृति में समानताएं देखने को मिलती है। भौगोलिक रूप से अलग - अलग होने के उपरांत भी, इन दोनों संस्कृति में महत्वपूर्ण समानताएं जुड़ी हुई है।
आद्य हिन्द-ईरानी धर्म  से तात्पर्य हिन्द-ईरानी लोगों के उस धर्म से है जो वैदिक एवं जरुस्थ्र धर्मग्रन्थों की रचना के पहले विद्यमान था।
दोनों में अनेक मामलों में साम्य है। जैसे, सार्वत्रिक बल 'ऋक्' (वैदिक) तथा अवेस्ता का 'आशा', पवित्र वृक्ष तथा पेय 'सोम' (वैदिक) एवं अवेस्ता में 'हाओम', मित्र (वैदिक), अवेस्तन और प्राचीन पारसी भाषा में 'मिथ्र'भग (वैदिक), अव्स्तन एवं प्राचीन पारसी में 'बग'
ईरानी भाषा की गणना आर्य भाषाओं में ही की जाती है। भाषा-विज्ञान के आधार पर कुछ यूरोपीय विद्वानों का मत है कि आर्यों का आदि स्थान दक्षिण-पूर्वी यूरोप में कहीं था। इसी मत के अनुसार जब आर्य अपने-अपने अन्य बन्धुओँ का साथ छोड़कर आगे बढ़े तो कुछ लोग ईरान में बस गये तथा कुछ लोग और आगे बढ़कर भरत में आ बसे।
भारत और ईरान-दोनों की ही शाखा होने के कारण, दोनों देशों की भाषाओं में पर्याप्त साम्य पाया जाता है। इन देशों के प्राचीनतम ग्रन्थ क्रमश: 'ऋग्वेद' तथा 'जेन्द अवेस्ता' हैं। 'जेन्द अवेस्ता' का निर्माण-काल लगभग शती ई.पु. है, जबकि ऋग्वेद इससे सहस्रों वर्ष पूर्व रचा जा चुका था। 'जेन्द' की भाषा पूर्णत: वैदिक संस्कृत की अपभ्रंश प्रतीत होती है तथा इसके अनेक शब्द या तो संस्कृत शब्दों से मिलते-जुलते है अथवा पूर्णँत: संस्कृत के ही हैं। इसके अतिरिक्त 'अवेस्ता' में अनेक वाक्य ऐसे हैं, जो साधारण परिवर्तन से संस्कृत के बन सकते हैं, संस्कृत और जिन्द में इसी प्रकार का साम्य देखकर प्रो॰ हीरेन ने कहा है कि जिन्द भाषा का उद्भव संस्कृत से हुआ है।
भाषा के अतिरिक्त वेद और अवेस्ता के धार्मिक तथ्यों में भी पार्याप्त समानता पाई जाती है। दोनों में ही एक ईश्वर की घोषणा की गई है। उनमें मन्दिरों और मूर्तियों के लिए कोई स्थान नहीं है। इन दोनों में वरुण को देवताओं का अधिराज माना गया है। वैदिक 'असुर' ही अवेस्ता का 'अहर' है। ईरानी `मज्दा' का वही अर्थ है, जो वैदिक संस्कृत में 'मेधा' का। वैदिक `मित्र' देवता ही 'अवेस्ता' का `मिथ्र' है। वेदों का यज्ञ 'अवेस्ता' का `यस्न' है। वस्तुत: यज्ञ, होम, सोम की प्रथाएं दोनों देशों में थीं। अवेस्ता में 'हफ्त हिन्दु' और ऋग्वेद में 'आर्याना' का वर्णन मिलता है
पहलवी और वौदिक संस्कृत लगभग समान `मित्र' और 'मिथ्र' की स्तुतियां एक -से शब्दों में हैं। प्राचीन काल में दोनों देशों के धर्मो और भाषाओँ की भी एक-सी ही भूमिका रही है। ईरान में अखमनी साम्राज्य का वैभव प्रथम दरियस के समय में चरमोत्कर्ष पर रहा। उसने अपना साम्राज्य सिन्धु घाटी तक फैलाया। तब भारत-ईरान में परस्पर व्यापार होता था। भारत से वहां सूती कपड़े, इत्र, मसालों का निर्यात और ईरान से भारत में घोड़े तथा जवाहरात का आयात होता था। दरियस ने अपने सूसा के राजप्रासादों में भारतीय सागौन और हाथीदांत का प्रयोग किया तथा भारतीय शैली के मेराबनुमा राजमहलों का निर्माण करवाया।

शनिवार, 12 अक्टूबर 2024

राम नाम सत्य है

शव यात्रा के दौरान क्यों बोलते हैं ‘राम नाम सत्य है’ (Ram Naam Satya Hai)

कलियुग एक ऐसा युग है जहां धर्म समाप्ति की ओर है और अधर्म अपनी चरम सीमा पर है। कहते हैं इस युग में केवल ‘राम नाम’ लेना ही आपका बेड़ा पार लगा देगा। कई लोग आजीवन ‘राम नाम’ का रट लगाते हैं, ताकि उनका उद्धार हो जाये लेकिन जब मृत्यु के बाद उनकी शवयात्रा निकलती है, तो वहां भी परिजन 'राम नाम सत्य है, सत्य बोलो गत है' का ही उद्घोष करते हैं।

कहते हैं कि ‘इस संसार खाली हाथ आये थे और खाली हाथ जाओगे’। लेकिन यह छोटी सी बात भी लोगों को समझ नहीं आती और लोग इस संसार की मोह-माया से इस कदर बंध जाते हैं कि वो न केवल जीवन कष्टमय बना लेते हैं बल्कि मृत्यु का भय भी उत्पन्न कर लेते हैं। मरते समय किसी मनुष्य को इस संसार में बिताये अपने जीवन और संबंधियों से इतना मोह हो जाता है कि वह मृत्यु को अपनाना ही नहीं चाहता। लेकिन मृत्यु जितना सच है, उतना ही सच यह बात है कि ये सब आपका इसी संसार में छूट जाने वाला है।

यह बात हमारे मानस में बार बार उतारी गई है कि जो जन्म लेता है उसकी मृत्यु तो अटल सत्य है। कुछ मृत्यु को लेकर स्वीकृति का भाव अपनाते हैं, कुछ उसके बारे में सोचना नहीं चाहते, तो कुछ उसके आने की कल्पना से भी भयभीत हो जाते हैं।

हिंदु धार्मिक मान्यताओं के अनुसार भी व्यक्ति जब अपने जीवन की आखिरी पल जी रहा होता है तो वह राम का नाम जप करता है। कहा जाता है कि सिर्फ राम का नाम लेने से ही जीवन में मोक्ष की प्राप्ति होती है। रामायण में भी राजा दशरथ ने भी अपने अंतिम समय में राम-राम बोलकर ही मोक्ष प्राप्ति की थी। शास्त्रों के अनुसार भी यदि आप राम के नाम का जाप करते हैं तो आपके कष्ट कम होते हैं।

'राम नाम सत्य है, सत्य बोलो गत है' :-
प्रत्येक संस्कृति और धर्म में मनुष्य की अंतिम क्रिया के अलग-अलग विधान हैं। हिंदू धर्म से जुड़ी कई परंपराएं सदियों से चली आ रही है और सभी परंपराओं से विशेष कारण और महत्व जुड़े होते हैं। हिंदू धर्म में किसी व्यक्ति की मृत्यु के बाद उसकी अंतिम क्रिया या अंतिम संस्कार का विधान है। अंतिम क्रिया में मृतक की शवयात्रा निकाली जाती है और शव को दाह संस्कार के लिए श्मशान ले जाया जाता है।

धर्मराज युधिष्ठिर ने बताया ‘राम नाम सत्य है’ का अर्थ
महाभारत के मुख्य पात्र और पांडवों में सबसे बड़े धर्मराज युधिष्ठिर ने एक श्लोक के बारे में बताया है। इस श्लोक के माध्यम से इसके सही अर्थ का पता चलता है।

'अहन्यहनि भूतानि गच्छंति यमममन्दिरम्।
शेषा विभूतिमिच्छंति किमाश्चर्य मत: परम्।।'

अर्थ है -
मृतक को जब श्मशान ले जाया जाता है तब सब कहते हैं ‘राम नाम सत्य है’ लेकिन अंतिम संस्कार के बाद जब सब घर लौट जाते हैं तो राम नाम को भूलकर मोह माया और मृतक की संपत्ति में लिप्त हो जाते हैं। ‘राम नाम सत्य है, सत्य बोलो गत है’। राम नाम सत्य है मृतक को सुनाने के लिए नहीं कहा जाता है बल्कि यह मृतक के साथ चल रहे परिजन और लोगों को सुनाया जाता है कि, राम का नाम ही सत्य है। जब राम बोलोगे तब ही गति होगी।

क्या है उद्देश्य?
'राम नाम सत्य है, सत्य बोलो मुक्ति है' बोलने का मतलब मृतक को सुनाना नहीं होता है बल्कि शव यात्रा में साथ में चल रहे परिजन, मित्रों और रास्ते से गुजर रहे लोगों को केवल यह समझाना होता है कि जिंदगी में और जिंदगी के बाद भी केवल राम नाम ही सत्य है बाकी सब व्यर्थ है। एक दिन मृत्यु के बाद संसार में सबकुछ छोड़कर जाना है। साथ में सिर्फ हमारा कर्म ही जाता है। क्योंकि कर्म श्रीराम की तरह अमर हैं। इसलिए जीवन में रहते हुए अच्छे कर्म करें। आत्मा को गति सिर्फ और सिर्फ राम नाम से ही मिलेगी।

किसी की मृत्यु होने पर राम का नाम लिया जाता है। इसका अर्थ होता है कि जीव को मुक्ति मिल गई है। आत्मा संसार चक्र से आजाद हो गई है। एक अर्थ ये भी कि आत्मा सब कुछ छोड़ भगवान के पास चली गई है। ये परम सत्य है। हिंदू शास्त्रों के अनुसार 'राम नाम सत्य है' एक बीज अक्षर है। राम नाम जपने से बुरे कर्मों से मुक्ति मिल जाती है। कुछ लोगों का मानना है कि इसको जपने से मृतक के परिजनों को मानसिक शांति मिलती है। इस दौरान राम नाम सत्य है सुनने से उन्हें ये अहसास होता है कि यह संसार व्यर्थ है।

शवयात्रा में ‘राम नाम सत्य है’ कहने के मुख्य कारण
राम नाम सत्य है कहे जाने के अन्य कारण यह भी है, यह शब्द सुनने के बाद मार्ग पर चल रहे लोगों का ध्यानाकर्षण हो और वे समझ जाए कि शवयात्रा जा रही है, जिससे शवयात्रा के लिए मार्ग खाली छोड़ दे। क्योंकि शवयात्रा को कहीं भी रोकना अशुभ माना गया है और इसलिए शवयात्रा घर से निकलने के बाद श्मशान तक लगातार चलती रहती है।

राम नाम सत्य है कहने का एक कारण यह भी है कि, मान्यता है कि मृत्यु के बाद भी हमारे कुछ अंग सक्रिय होते हैं, जिनमें कान भी एक है। इसलिए अंतिम समय में अमृतरूपी राम का नाम लिया जाता है। जिससे यह शब्द मृतक के कान में जाए और उसे मोक्ष की प्राप्ति हो।

'राम नाम सत्य है' का उद्घोष शस्त्रों में वर्णित है?
हमारे तंत्रों में इसका वर्णन मिलता है।

'रुद्रयामल तन्त्र’ में एक श्लोक है -

शिवे शिवे न संचारों भवत प्रेतस्य कस्यचित।
अतसिद्दाहपर्यंतम राम नाम जपो वरम।।
अर्थ :- मृत व्यक्ति के शव में कोई प्रेत आत्मा का प्रवेश ना हो, इसलिए अग्नि देने तक ‘राम’ नाम का उच्चारण करना चाहिए।

‘प्रेतसाधन-तन्त्र’ में भी कहा है -

'शवसाधनवेलायां रामनाम विवर्जयेत्।'
अर्थ :- शवसाधन करने के समय ‘राम’ नाम नहीं लिया जाता है, क्योंकि इस नाम को सुनकर प्रेत, भूत, पिशाच, डाकिनी, शाकिनी, ब्रह्मराक्षस आदि भाग जाते हैं। निकृष्ट योनि जीव भाग जाते हैं, इसी कारण से लोग शव को ले जाते अथवा दाह करते समय 'राम नाम सत्य है' ऐसा बोलते हैं। इसलिए विवाह आदि जैसे शुभ कार्यों में “राम नाम सत्य है” को अमंगल-सूचक माना जाता है। लेकिन वास्तव में राम-नाम सदा सत्य एवं पवित्र है, इसमें कोई भी सन्देह नहीं है। भगवान के नाम में जो कोई आक्षेप करेगा उसको अवश्य नरक की प्राप्ति होगी। 

आनंद रामायण के अनुसार :-

श्रीशब्धमाद्य जयशब्दमध्यंजयद्वेयेनापि पुनःप्रयुक्तम्। अनेनैव च मन्त्रेण जपः कार्यः सुमेधसा।
अर्थ :- बुद्धिमान लोग श्री राम जय राम जय जय राम मंत्र का जाप करतें हैं।

हम ऐसे समय यमराज जी की भी वंदना कर सकतें हैं। गरुड़ पुराण प्रेत कल्प अध्याय क्रमांक 4 के अनुसार, शव-यात्रा के समय पुत्रादिक परिजन तिल, कुश, घृत और ईंधन लेकर ‘यम-गाथा’ अथवा वेद के ‘यम-सूक्त' का पाठ करते हुए श्मशानभूमि की ओर जाएं। यम-सूक्त यजुर्वेद के पैतीसवें अध्याय में मिलेगा।

हमें वेदों में इसके कई मंत्र मिलेंगे, जब भी कभी किसी की मृत्यु का समाचार आता है उस समय भी हम “ॐ शांति शांति शांति” बोलते हैं। कई लोग तो आजकल पश्चिमी परंपरा से ग्रसित होने के कारण RIP बोलते हैं। हमारे वेद मंत्रों में ही वर्णन हैं कि मृत्यु का समाचार सुनने के पश्चात क्या बोलें। यजुर्वेद 40.14 के अनुसार :-

वा॒युरनि॑लम॒मृत॒मथे॒दं भस्मा॑न्त॒ꣳ शरी॑रम्। ओ३म् क्रतो॑ स्मर। क्लि॒बे स्म॑र। कृ॒तꣳ स्म॑र।
अर्थ :- इस समय गमन करता हुआ प्राण वायु अमृत (अमरता) रूप वायु को प्राप्त हो. यह देह अग्नि में हुत होकर भस्म रूप हो। हे प्रणव रूप ॐ / ब्रह्म (ब्रह्म स्वरूप आत्मा) बाल्यावस्थादि मे किए कर्मों के स्मरण पूर्वक मैं लोकादि की कामना करता हूं। इसलिए सनातनी किसी कि मृत्यु की खबर सुनकर ॐ शान्ति शान्ति शान्ति बोलते हैं
वेद मंत्र बोलना सबके बस की बात नहीं हैं इसलिए "राम नाम सत्य हैं" बोलना अधिक श्रेयस्कर है। क्योंकि राम तो सत्यस्वरूप, मर्यादा पुरुषोत्तम देवता ही हैं। उनके नाम से बढ़कर और क्या हो सकता है. उसके उच्चारण मात्र से ही हम भव सागर तर जाते हैं। तो मृत शरीर के दुर्गुणों को निरस्त करने के लिए राम नाम ही एक मात्र साधन है। उसका जाप हमें तो क्या समस्त वातावरण उससे पवित्र हो जाता है।

राम नाम सत्य है ये बोलना कब से शुरू हुआ मुरदे के पिछे राम नाम सत्य है ऐसा क्यों बोला जाता है।

एक समय कि बात जब तुलसीदास अपने गांव में रहते थे। वो हमेशा राम कि भक्ति मे लीन रहते थे उनको घरवाले ने और गांव वाले ने ढोंगी कह कर घर से बाहर निकाल दिया तो तुलसीदास गंगा जी के घाट पर रहने लगे वही प्रभु की भक्ति करने लगे।

जब तुलसीदास रामचरितमानस की रचना शुरू कर रहे थे। उसी दिन उसके गांव में एक लडके की शादी हुई और वो लडका अपनी दुल्हन को लेकर घर अपने घर आया और रात को किसी कारण वश उस लडके कि मृत्यु हो गई लडके के घर वाले रोने लगे सुबह होने पर सब लोग लडके को अर्थी पर सजाकर शमशान घाट ले जाने लगे तो उस लडके कि दुलहन भी सती होने कि इच्छा से अपने पति के अर्थी के पीछे पीछे जाने लगे लोग उसी रास्ते से जा रहे थे।

जिस रास्ते में तुलसीदास जी रहते थे, लोग जा रहे थे तो जो लडके की दुल्हन की नजर तुलसीदास पर पडी तो उस दुल्हन ने सोची अपने पति के साथ सती होने जा रही हुँ एक बार इस ब्राह्मण देवता को प्रणाम कर लेती हुँ।

वो दुल्हन नहीं जानती थी कि ये तुलसीदास है उसने तुरंत तुलसीदास को पैर छुकर प्रणाम किया तो तुलसीदास ने उसे अखण्ड सौभाग्यवती होने का आशीर्वाद दिया। तो सब लोग हँसने लगे और बोला रे तुलसीदास हम तो सोचते थे तुम पाखंडी हो लेकिन तुम तो बहुत बडे मूर्ख भी हो इस लडकी की पति मर चुका है|

ये अखण्ड सौभाग्यवती कैसे हो सकती है। सब बोलने लगे तुम भी झुठा तेरा राम भी झुठा तुलसीदास जी बोले-हम झुठे हो सकते हैं लेकिन मेरे राम कभी भी नहीं झूठे हो सकते है। तो सबने बोला परिणाम दो तो तुलसीदास जी ने अर्थी को रखवाया और उस मरे हुये लडके के पास जाकर उसके कान में बोला “राम नाम सत्य है”।

ऐसा एक बार बोला तो लडका हिलने लगा दुसरा बार फिर तुलसीदास ने लडके के कान में बोला राम नाम सत्य है। लडका को थोडा अचेत और आया तुलसीदास फिर तीसरी बार उस लडके के कान में बोला राम नाम सत्य है, और वो लडका अर्थी से निचे उठ कर बैठ गया सभी को बहुत आश्चर्य हुआ कि मरा हुआ कैसे जीवित हो सकता है।

सबने मान लिया और तुलसीदास के चरणों में दण्डवत प्रणाम करके माफी मांगने लगा तो तुलसीदास जी बोले अगर आपलोग यहाँ इस रास्ते से नहीं जाते तो मेरे राम के नाम को सत्य होने का प्रमाण कैसे मिलता ये तो सब हमारे राम कि लीला है उसी दिन से ये प्रथा चालु हो गई की मुर्दे के पिछे राम नाम सत्य है बोला जाता हैं।


शनिवार, 5 अक्टूबर 2024

33 कोटि हिन्दू देवी-देवता

33 करोड़ देवता हैं या कि 33 प्रकार के, जानिए दोनों ही मतों का विश्लेषण

क्या आप इस क्रम को मानते हैं :- जड़, वृक्ष, प्राणी, मानव, पितर, देवी-देवता, भगवान और ईश्वर। सबसे बड़ा ईश्वर, परमेश्वर या परमात्मा होता है। वेदों में जिसे ब्रह्म (ब्रह्मा नहीं) कहा गया है। ब्रह्म का अर्थ है विस्तार, फैलना, अनंत, महाप्रकाश। प्रत्येक धर्म में देवी और देवता होते हैं यह अलग बात है कि हिंदू अपने देवी-देवताओं को पूजते हैं जबकि दूसरे धर्म के लोग नहीं। अत: यह कहना की हिन्दू धर्म सर्वेश्वरदावी धर्म है गलत होगा। पहले धर्म को पढ़े, समझे फिर कुछ कहें।

कुछ विद्वान कहते हैं कि हिन्दू देवी या देवताओं को 33 कोटि अर्थात प्रकार में रखा गया है और कुछ कहते हैं कि यह सही नहीं है। दरअसल वेदों में 33 कोटि देवताओं का जिक्र किया है। धर्म गुरुओं और अनेक बौद्धिक वर्ग ने इस कोटि शब्द के दो प्रकार से अर्थ निकाले हैं। कोटि शब्द का एक अर्थ करोड़ है और दूसरा प्रकार अर्थात श्रेणी भी। तार्किक दृष्टि से देखा जाए तो कोटि का दूसरा अर्थ इस विषय में अधिक सत्य प्रतीत होता है अर्थात तैंतीस प्रकार की श्रेणी या प्रकार के देवी-देवता। परन्तु शब्द व्याख्या, अर्थ और सबसे ऊपर अपनी-अपनी समझ और बुद्धि के अनुरूप मान्यताए अलग-अलग हो गयीं।


शास्त्रों में 33 कोटि देवी-देवताओं का उल्लेख

ऋग्वेद - ऋग्वेद में 33 कोटि देवी-देवताओं का उल्लेख मिलता है। ऋग्वेद के अनुसार :

"त्रिंशतं त्रीणि शतं स ह सप्त सधा शतम्।"

(ऋग्वेद, 1.45.2)

यजुर्वेद - यजुर्वेद में भी 33 कोटि देवी-देवताओं का वर्णन है :

"त्रिंशतं त्रीणि शतं स ह सप्त सधा शतम्।"

(यजुर्वेद, 21.31)

अथर्ववेद - अथर्ववेद में भी 33 कोटि देवी-देवताओं का उल्लेख मिलता है :

"त्रिंशतं त्रीणि शतं स ह सप्त सधा शतम्।"

(अथर्ववेद, 10.23.4)

वैदिक विद्वानों अनुसार :-

वेदों में जिन देवताओं का उल्लेख किया गया है उनमें से अधिकतर प्राकृतिक शक्तियों के नाम है जिन्हें देव कहकर संबोधित किया गया है। दरअसल वे देव नहीं है। देव कहने से उनका महत्व प्रकट होता है। उक्त प्राकृतिक शक्तियों को मुख्‍यत: आदित्य समूह, वसु समूह, रुद्र समूह, मरुतगण समूह, प्रजापति समूह आदि समूहों में बांटा गया हैं।

यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि कुछ जगह पर वैदिक ऋषि इन प्रकृतिक शक्तियों की स्तुति करते हैं और कुछ जगह पर वे अपने ही किसी महान पुरुष की इन प्रकृतिक शक्तियों से तुलना करके उनकी स्तुति करते हैं। जैसे उदाहरण के तौर पर इंद्र नामक एक बिजली और एक बादल भी होता है। वहीं, इंद्र नाम से आर्यों का एक वीर राजा भी है जोकि बादलों के देश में रहता है और आकाशमार्ग से आता-जाता है। वह आर्यों की हर तरह से रक्षा करने के लिए हर समय उपस्थित हो जाता है। शक्तिशाली होने के कारण उसकी तुलना बिजली और बादल के समान की जाती है। अत: शब्दों का अर्थ देशकाल, परिस्थिति के अनुसार ग्रहण करना होता है। एक शब्द के कई-कई अर्थ होते हैं। वैदिक विद्वानों के अनुसार 33 प्रकार के अव्यय या पदार्थ होते हैं जिन्हें देवों की संज्ञा दी गई है। ये 33 प्रकार इसके अनुसार हैं :-

प्रारंभ में ऋषियों ने 33 प्रकार के अव्यय जाने थे। परमात्मा ने जो 33 अव्यय बनाए हैं वैदिक ऋषि उसी की बात कर रहे हैं। उक्त 33 अव्यवों से ही प्रकृति और जीवन का संचालन होता है। वेदों के अनुसार हमें इन 33 पदार्थों या अव्ययों को महत्व देना चाहिए। इनका ध्यान करना चाहिए तो ये पुष्ट हो जाते हैं।

1. इन 33 में से 8 वसु है। वसु अर्थात हमें वसाने वाले आत्मा का जहां वास होता है। ये आठ वसु हैं :- धरती, जल, अग्नि, वायु, आकाश, चंद्रमा, सूर्य और नक्षत्र। ये आठ वसु प्रजा को वसाने वाले अर्थात धारण या पालने वाले हैं। 

2. इसी तरह 11 रुद्र आते हैं। इन रुद्रों ने नाम हैं :- प्राण, अपान, व्यान, समान, उदान, नाग, कुर्म, किरकल, देवदत्त और धनंजय। प्रथम पांच प्राण और दूसरे पांच उपप्राण हैं अंत में 11वां जीवात्मा हैं। दरअसल यह रुद्र शरीर के अव्यय है। जब तक ये शरीर मे विद्यमान है, हमारा शरीर गतिमान है। जब यह अव्यय एक-एक करके शरीर से निकल जाते हैं तो यह रोदन कराने वाले होते हैं। अर्थात जब मनुष्य मर जाता है तो उसके भीतर के यह सभी 11 रुद्र निकल जाते हैं जिनके निकलने के बाद उसे मृत मान लिया जाता है। तब उसके सगे-संबंधी उसके समक्ष रोने लग जाते हैं। इसीलिए इन्हें कहते हैं रुद्र। रुद्र अर्थात रुलाने वाला।

ये सभी शरीर के अलग-अलग भागों में स्थित होते हैं तथा अलग-अलग अंगों व क्रियाओं को संचालित करते हैं। ये इस प्रकार है

1. प्राण :- प्राण गले से लेकर हृदय तक के अंगों एवं स्वर तंत्र, श्वसन तंत्र, भोजन नली, श्वास नली, फेफड़े-हृदय आदि को स्वस्थ रखता है। यह हृदय में स्थित होता है।

2. अपान :- अपान का कार्य मल-मूत्र त्याग, प्रसव आदि क्रियाओं को संचालित करता है। यह गुदा और मूत्रेन्द्रियों के बीच स्थित होता है।3. व्यान :- यह शरीर में रक्त संचार करता है। इसका स्थान मष्तिष्क का मध्य भाग है।

4. उदान :- उदान गले के ऊपर के अंगों मुंह, दांत, नाक, आंख, कान, माथा, मस्तिष्क आदि का संचालन करता है। उदान विविध वस्तुएँ बाहर से शरीर के भीतर ग्रहण करता है। यह कंठ में स्थित होता है।

5. समान :- इसका स्थान नाभि में होता है, पाचक रसों का उत्पादन और उनका स्तर उपयुक्त बनाये रहना इसी का काम है।

6. नाग :- नाग का कार्य वायु सञ्चार, डकार, हिचकी, गुदा वायु का उत्तसर्जन करना। यह “प्राण” का “उपप्राण” है तथा यह भी हृदय में स्थित होता है।

7. कूर्म्म :- कूर्म से पलक मारने और बन्द होने की क्रिया होती है। यह “अपान” का “उपप्राण” है तथा यह भी गुदा और मूत्रेन्द्रियों के बीच स्थित होता है।

8. कृकल :- कृकल का कार्य भूख-प्यास को संचारित करना है। यह “समान” का “उपप्राण” है यह भी नाभि में स्थित होता है।

9. देवदत्त :- यह छींक आने और अंगड़ाई आने की क्रिया है। यह “उदान” का “उपप्राण” है इसका स्थान भी कंठ में होता है।

10. धनञ्जय :- धनञ्जय जीवित अवस्था में शरीर का पोषण करता है और मरने पर देह सड़ा-गला कर शीघ्र नष्ट करने का प्रबन्ध करता है। इसका प्रधान केन्द्र मस्तिष्क का मध्य भाग है। यह “व्यान” का “उपप्राण” है इसका स्थान भी मष्तिष्क का मध्य भाग होता है।

11. जीवात्मा :- इसके निकलते ही शरीर क्रिया करना बंद कर देता है।

3. 12 आदित्य होते हैं। आदित्य का अर्थ यहाँ भगवान सूर्य से है। सूर्य भगवान प्रत्येक राशि मे एक माह के लिए विचरण करते है फिर दूसरी राशि मे प्रवेश करते है। इस प्रकार 12 माह मे 12 राषियो मे चक्कर लगाते है। समय के 12 माह को 12 आदित्य कहते हैं। इसी आधार पर हमारा हिन्दू कलैण्डर बनाया जाता है इसलिए इन्हे 12 प्रकार से व्यक्त किया जाता है इन्हें आदित्य इसलिए कहते हैं क्योंकि यह हमारी आयु को हरते हैं क्योकि जैसे-जैसे दिन बढ़ते है। हमारी आयु भी कम होती जाती है। 8 वसु, 11 रुद्र और 12 आदित्य को मिलाकर कुल हुए 31 अव्यय।

4. 32वां है इंद्र। इंद्र का अर्थ बिजली या ऊर्जा। 33वां है यज्ज। यज्ज अर्थात प्रजापति, जिससे वायु, दृष्टि, जल और शिल्प शास्त्र हमारा उन्नत होता है, औषधियां पैदा होती है।

ये 33 कोटी अर्थात 33 प्रकार के अव्यव हैं जिन्हें देव कहा गया। देव का अर्थ होता है दिव्य गुणों से युक्त। हमें ईश्वर ने जिस रूप में यह 33 पदार्थ दिए हैं उसी रूप में उन्हें शुद्ध, निर्मल और पवित्र बनाए रखना चाहिए।

उपरोक्त मत का खंडन :-

पहले तो कोटि शब्द को समझें। कोटि का अर्थ प्रकार लेने से कोई भी व्यक्ति 33 देवता नहीं गिना पाएगा। कारण, स्पष्ट है कि कोटि यानी प्रकार यानी श्रेणी। अब यदि हम कहें कि आदित्य एक श्रेणी यानी प्रकार यानी कोटि है, तो यह कह सकते हैं कि आदित्य की कोटि में 12 देवता आते हैं जिनके नाम अमुक-अमुक हैं। लेकिन आप ये कहें कि सभी 12 अलग-अलग कोटि हैं, तो जरा हमें बताएं कि पर्जन्य, इन्द्र और त्वष्टा की कोटि में कितने सदस्य हैं?

ऐसी गणना ही व्यर्थ है, क्योंकि यदि कोटि कोई हो सकता है तो वह आदित्य है। आदित्य की कोटि में 12 सदस्य, वसु की कोटि या प्रकार में 8 सदस्य, रुद्र की कोटी में 11 सदस्य, अन्य तो कोटी इंद्र और यज्ज। इस तरह देखा जाए तो कुल 5 कोटी ही हुई। तब 33 कोटी कहने का क्या तात्पर्य?

द्वितीय, उन्हें कैसे ज्ञात कि यहां कोटि का अर्थ प्रकार ही होगा, करोड़ नहीं? प्रत्यक्ष है कि देवता एक स्थिति है, योनि हैं जैसे मनुष्य आदि एक स्थिति है, योनि है। मनुष्य की योनि में भारतीय, अमेरिकी, अफ्रीकी, रूसी, जापानी आदि कई कोटि यानी श्रेणियां हैं जिसमें इतने-इतने कोटि यानी करोड़ सदस्य हैं। देव योनि में मात्र यही 33 देव नहीं आते। इनके अलावा मणिभद्र आदि अनेक यक्ष, चित्ररथ, तुम्बुरु, आदि गंधर्व, उर्वशी, रम्भा आदि अप्सराएं, अर्यमा आदि पितृगण, वशिष्ठ आदि सप्तर्षि, दक्ष, कश्यप आदि प्रजापति, वासुकि आदि नाग, इस प्रकार और भी कई जातियां देवों में होती हैं जिनमें से 2-3 हजार के नाम तो प्रत्यक्ष अंगुली पर गिनाए जा सकते हैं।

प्रमुख देवताओं के अलावा भी अन्य कई देवदूत हैं जिनके अलग-अलग कार्य हैं और जो मानव जीवन को किसी न किसी रूप में प्रभावित करते हैं। इनमें से कई ऐसे देवता हैं जो आधे पशु और आधे मानव रूप में हैं। आधे सर्प और आधे मानव रूप में हैं। माना जाता है कि सभी देवी और देवता धरती पर अपनी शक्ति से कहीं भी आया-जाया करते थे। यह भी मान्यता है कि संभवत: मानवों ने इन्हें प्रत्यक्ष रूप से देखा है और इन्हें देखकर ही इनके बारे में लिखा है। अज एकपाद' और 'अहितर्बुध्न्य' दोनों आधे पशु और आधे मानवरूप हैं। मरुतों की माता की 'चितकबरी गाय' है। एक इन्द्र की 'वृषभ' (बैल) के समान था।

पौराणिक मत :-

निश्चित ही प्राकृतिक शक्तियों के कई प्रकार हो सकते हैं लेकिन हमें यह नहीं भुलना चाहिए की इन प्राकृतिक शक्तियों के नाम हमारे देवताओं के नाम पर ही रखे गए हैं। जैसे चंद्र नामक एक देव है और चंद्र नामक एक ग्रह भी है। इस ग्रह का नामकरण चंद्र नामक देव के नाम पर ही रखा गया है। इस तरह के देवों का उनके नाम के ग्रहों पर आधिपत्य रहा है।

इसी तरह ये रहे प्रमुख 33 देवता :-

12 आदित्य :- 1. अंशुमान (यह प्राण वायु का प्रतिनिधित्व करते है), 2. अर्यमन (यह प्रातः और रात्रि के चक्र को दर्शाते है), 3. इन्द्र (यह देवो के राजा है समस्त इन्द्रियों पर इन्ही का अधिकार है), 4. त्वष्टा (यह वनस्पति और औषधियों का प्रतिनिधत्व करते है), 5. धातु (यह प्रजापति के रूप है इन्हे सृष्टिकर्ता भी कहाँ जाता है), 6. पर्जन्य (यह मेघों का प्रतिनिधित्व करते है जो वर्षा के कारक है), 7. पूषा (यह अन्न का प्रतीक है तथा उसमे उपस्थित ऊर्जा, स्वाद और रस को दर्शाते है), 8. भग (यह शरीर में चेतना, ऊर्जा शक्ति, काम शक्ति तथा जीवंतता की अभिव्यक्ति को दर्शाते है), 9. मित्र (यह सृष्टि के विकास के कर्म को दर्शाते है), 10. वरुण (यह जल का प्रतिनिधित्व करते है तथा भाग्य को भी दर्शाते है), 11. विवस्वान (यह तेज और ऊर्जा का प्रतिनिधित्व करते है) और 12. विष्णु (यह ब्रह्माण्डीय कानून और उसके संचालन का प्रतिनिधत्व करते है)। 

8 वसु :- 1. आप (जल), 2. ध्रुव (ध्रुव तारा), 3. सोम (चन्द्रमा), 4. धर (पृथ्वी), 5. अनिल (वायु), 6. अनल (अग्नि), 7. प्रत्यूष (अंतरिक्ष) और 8. प्रभाष (अरुणोदय या सूर्योदय)। 

11 रुद्र :- 1. शम्भु, 2. पिनाकी, 3. गिरीश, 4. स्थाणु, 5. भर्ग, 6. भव, 7. सदाशिव, 8. शिव, 9. हर, 10. शर्व और 11. कपाली।

2 अश्विनी कुमार :- 1. नासत्य और 2. द्स्त्र। कुछ विद्वान इन्द्र और प्रजापति की जगह 2 अश्विनी कुमारों को रखते हैं। प्रजापति ही ब्रह्मा हैं। अश्वनीकुमार त्वष्टा की पुत्री और सूर्य देव की संतान है जिन्हे आयूर्वेद का आदि आचार्य माना जाता है इनके नाम इस प्रकार है।

इस प्रकार हिन्दू धर्म में वर्णित 33 कोटि देवताओं का योग इस प्रकार है –   

33 कोटि देवता = 8 (वसु) + 12 (आदित्य) + 11 (रूद्र) + 2 (अश्वनीकुमार) = 33

इसके अलावा ये भी हैं देवता :-

49 मरुतगण : मरुतगण देवता नहीं हैं, लेकिन वे देवताओं के सैनिक हैं। वेदों में इन्हें रुद्र और वृश्नि का पुत्र कहा गया है तो पुराणों में कश्यप और दिति का पुत्र माना गया है। मरुतों का एक संघ है जिसमें कुल 180 से अधिक मरुतगण सदस्य हैं, लेकिन उनमें 49 प्रमुख हैं। उनमें भी 7 सैन्य प्रमुख हैं। मरुत देवों के सैनिक हैं और इन सभी के गणवेश समान हैं। वेदों में मरुतगण का स्थान अंतरिक्ष लिखा है। उनके घोड़े का नाम 'पृशित' बतलाया गया है तथा उन्हें इंद्र का सखा लिखा है।- (ऋ. 1.85.4)। पुराणों में इन्हें वायुकोण का दिक्पाल माना गया है। अस्त्र-शस्त्र से लैस मरुतों के पास विमान भी होते थे। ये फूलों और अंतरिक्ष में निवास करते हैं।

7 मरुतों के नाम निम्न हैं - 1. आवह, 2. प्रवह, 3. संवह, 4. उद्वह, 5. विवह, 6. परिवह और 7. परावह। यह वायु के नाम भी है। इनके 7-7 गण निम्न जगह विचरण करते हैं - ब्रह्मलोक, इन्द्रलोक, अंतरिक्ष, भूलोक की पूर्व दिशा, भूलोक की पश्चिम दिशा, भूलोक की उत्तर दिशा और भूलोक की दक्षिण दिशा। इस तरह से कुल 49 मरुत हो जाते हैं, जो देव रूप में देवों के लिए विचरण करते हैं।

12 साध्यदेव : अनुमन्ता, प्राण, नर, वीर्य्य, यान, चित्ति, हय, नय, हंस, नारायण, प्रभव और विभु ये 12 साध्य देव हैं, जो दक्षपुत्री और धर्म की पत्नी साध्या से उत्पन्न हुए हैं। इनके नाम कहीं कहीं इस तरह भी मिलते हैं :- मनस, अनुमन्ता, विष्णु, मनु, नारायण, तापस, निधि, निमि, हंस, धर्म, विभु और प्रभु।

64 अभास्वर : तमोलोक में 3 देवनिकाय हैं - अभास्वर, महाभास्वर और सत्यमहाभास्वर। ये देव भूत, इंद्रिय और अंत:करण को वश में रखने वाले होते हैं।

12 यामदेव : यदु ययाति देव तथा ऋतु, प्रजापति आदि यामदेव कहलाते हैं।

10 विश्वदेव : पुराणों में दस विश्‍वदेवों को उल्लेख मिलता है जिनका अंतरिक्ष में एक अलग ही लोक है।

220 महाराजिक :

30 तुषित : 30 देवताओं का एक ऐसा समूह है जिन्होंने अलग-अलग मन्वंतरों में जन्म लिया था। स्वारोचिष नामक द्वितीय मन्वंतर में देवतागण पर्वत और तुषित कहलाते थे। देवताओं का नरेश विपश्‍चित था और इस काल के सप्त ऋषि थे- उर्ज, स्तंभ, प्रज्ञ, दत्तोली, ऋषभ, निशाचर, अखरिवत, चैत्र, किम्पुरुष और दूसरे कई मनु के पुत्र थे।

पौराणिक संदर्भों के अनुसार चाक्षुष मन्वंतर में तुषित नामक 12 श्रेष्ठगणों ने 12 आदित्यों के रूप में महर्षि कश्यप की पत्नी अदिति के गर्भ से जन्म लिया। पुराणों में स्वारोचिष मन्वंतर में तुषिता से उत्पन्न तुषित देवगण के पूर्व व अपर मन्वंतरों में जन्मों का वृत्तांत मिलता है। स्वायम्भुव मन्वंतर में यज्ञपुरुष व दक्षिणा से उत्पन्न तोष, प्रतोष, संतोष, भद्र, शांति, इडस्पति, इध्म, कवि, विभु, स्वह्न, सुदेव व रोचन नामक 12 पुत्रों के तुषित नामक देव होने का उल्लेख मिलता है। बौद्ध धर्मग्रंथों में भी वसुबंधु बोधिसत्व तुषित के नाम का उल्लेख मिलता है। तुषित नामक एक स्वर्ग और एक ब्रह्मांड भी है।
 
अन्य देव - ब्रह्मा (प्रजापति), विष्णु (नारायण), शिव (रुद्र), गणाधिपति गणेश, कार्तिकेय, धर्मराज, चित्रगुप्त, अर्यमा, हनुमान, भैरव, वन, अग्निदेव, कामदेव, चंद्र, यम, हिरण्यगर्भ, शनि, सोम, ऋभुः, ऋत, द्यौः, सूर्य, बृहस्पति, वाक, काल, अन्न, वनस्पति, पर्वत, धेनु, इन्द्राग्नि, सनकादि, गरूड़, अनंत (शेष), वासुकी, तक्षक, कार्कोटक, पिंगला, जय, विजय, मातरिश्वन्, त्रिप्रआप्त्य, अज एकपाद, आप, अहितर्बुध्न्य, अपांनपात, त्रिप, वामदेव, कुबेर, मातृक, मित्रावरुण, ईशान, चंद्रदेव, बुध, शनि आदि।

अन्य देवी - दुर्गा, सती-पार्वती, लक्ष्मी, सरस्वती, भैरवी, यमी, पृथ्वी, पूषा, आपः सविता, उषा, औषधि, अरण्य, ऋतु त्वष्टा, सावित्री, गायत्री, श्री, भूदेवी, श्रद्धा, शचि, दिति, अदिति, दस महाविद्या, आदि।

निष्कर्ष : वेदों के कोटि शब्द को अधिकतर लोगों ने करोड़ समझा और यह मान लिया गया कि 33 करोड़ देवता होते हैं। लेकिन यह सच नहीं है। यह भी सच नहीं है कि देवता 33 प्रकार के होते हैं। पदार्थ अलग होते हैं और देवी या देवता अलग होते हैं। यह सही है कि देवी  और देवता 33 करोड़ नहीं होते हैं लेकिन 33 भी नहीं। देवी और देवताओं की संख्या करोड़ों में तो नहीं लेकिन हजारों में जरूर है और सभी का कार्य नियुक्त है।

इसके अलावा ये भी जानें -

दो पक्ष :- कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष

तीन ऋण :- देव ऋण, पितृ ऋण, ऋषि ऋण

चार युग :- सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग, कलियुग

चार धाम :- द्वारिका, बद्रीनाथ, जगन्नाथपुरी, रामेश्वरम धाम

चार पीठ :- शारदा पीठ (द्वारिका) ज्योतिष पीठ (जोशीमठ बद्रिधाम) गोवर्धन पीठ (जगन्नाथपुरी) शृंगेरी पीठ

चार वेद :- ऋग्वेद, अथर्वेद, यजुर्वेद, सामवेद

चार आश्रम :- ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास

चार अंत :- करण: मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार

पंच गव्य :- गाय का घी, दूध, दही, गो मूत्र, गोबर

पंच तत्त्व :- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश

छह दर्शन :- वैशेषिक, न्याय, सांख्य, योग, पूर्व मिसांसा, दक्षिण मिसांसा

सप्त ऋषि :- विश्वामित्र, जमदाग्नि, भरद्वाज, गौतम, अत्री, वशिष्ठ और कश्यप

सप्त पुरी :- अयोध्या पुरी, मथुरा पुरी, माया पुरी (हरिद्वार), काशी, कांची (शिन कांची - विष्णु कांची), अवंतिका और द्वारिकापुरी

आठ योग :- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान एवं समाधि

10 दिशाएं :- पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ईशान, नैऋत्य, वायव्य, अग्नि, आकाश एवं पाताल

12 मास :- चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, अषाढ़, श्रावण, भाद्रपद, अश्विन, कार्तिक, मार्गशीर्ष, पौष, माघ, फाल्गुन

15 तिथियां :- प्रतिपदा, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थी, पंचमी, षष्ठी, सप्तमी, अष्टमी, नवमी, दशमी, एकादशी, द्वादशी, त्रयोदशी, चतुर्दशी, पूर्णिमा, अमावास्या

समृतियां :- मनु, विष्णु, अत्री, हारीत, याज्ञवल्क्य, उशना, अंगीरा, यम, आपस्तम्ब, सर्वत, कात्यायन, ब्रहस्पति, पराशर, व्यास, शांख्य, लिखित, दक्ष, शातातप, वशिष्ठ।




गुरुवार, 3 अक्टूबर 2024

कार्तियानी अम्मा, केरल


96 साल की महिला ने परीक्षा में किया टॉप, आए 100 में से 98 नंबर

किसी भी चीज को करने, सीखने और समझने के लिए जुनून की जरूरत होती है और ऐसा ही कमाल का जुनून देखने को मिला केरल के अलाप्पुझा जिले के चेप्पड़ गांव के मुत्तोम निवासी कार्तियानी अम्मा के अंदर। जिन्होंने 96 साल की उम्र में साक्षरता परीक्षा दी। इस बुजुर्ग महिला ने ना सिर्फ ये परीक्षा दी बल्कि 100 में से 98 नंबर लाकर पहला स्थान भी हासिल किया। कार्त्यायनी अम्मा ने न केवल दक्षिणी राज्य के साक्षरता मिशन के तहत 96 साल की उम्र में सबसे उम्रदराज छात्रा होने के लिए प्रसिद्धि हासिल की थी, बल्कि चौथी कक्षा के समकक्ष परीक्षा 'अक्षरलक्षम' परीक्षा में उच्चतम अंक हासिल करने के लिए भी प्रसिद्धि हासिल की थी।

42 हजार उम्मीदवारों में से बनी थीं टॉपर

साक्षरता परीक्षा (लिटरेसी परीक्षा) की आयोजन 5 अगस्त 2018 को हुआ था जिसमें करीब 42933 लोगों ने हिस्सा लिया था। जिसमें नागरिकों की साक्षरता की जांच की जाती है। अम्मा उन्हीं लोगों में से सबसे उम्रदराज महिला थीं।

रातों रात मशहूर हुईं थी अम्मा

कार्तियानी अम्मा 'चेप्पाड राजकीय एलपी स्कूल' में परीक्षा में बैठी थीं। पढ़ने-लिखने को प्रेरित इस बुजुर्ग महिला ने 6 महीने पहले राज्य साक्षरता मिशन के एक कार्यक्रम में नामांकन कराया था। इस परीक्षा को उन्होंने पास कर लिया और उन्हें योग्यता मुताबिक चौथी कक्षा में पढ़ने के लिए भेजा गया। शुरू से ही उनकी पढ़ने और लिखने में बहुत रुचि थी। परीक्षा में भाग लेने के बाद से ही वह रातों रात सोशल मीडिया पर मशहूर हो गईं।

इस परीक्षा में 100 अंकों के सवाल पूछे गए थे, जिसमें लिखने, पढ़ने और गणित की समझ की जांच की गई थी। उन्होंने अपनी रीडिंग टेस्ट में 30 में से 30 अंक, मलयालम लेखन में 40 में से 40 अंक और गणित में 30 में से 28 अंक प्राप्त किए। बता दें रिजल्ट बुधवार को जारी हुआ था। वहीं इस परीक्षा में कई जेलों के कैदियों ने भी हिस्सा लिया था।

अपनी उपलब्धि पर टिप्पणी करते हुए, कार्थ्ययनी अम्मा ने मीडिया को बताया कि प्रश्नपत्र में कुछ ऐसे भाग शामिल नहीं थे जो उन्होंने परीक्षा के लिए पढ़े थे। उन्होंने कहा, "मैंने बिना किसी कारण के बहुत कुछ सीखा। मेरे लिए परीक्षाएँ बहुत आसान थीं।" 'अक्षरालक्षम' परीक्षा के लिए कार्थ्ययनी अम्मा के पास बैठे रामचंद्रन पिल्लई ने 100 में से 88 अंक प्राप्त किए।

अम्मा ने 100 में से 98 अंक लाकर उन सभी लोगों को चौंका दिया जो ये सोचते हैं कि पढ़ने- लिखने की एक उम्र तय है। उन्होंने  96 साल की उम्र में सभी को पीछे छोड़ दिया।

कुल 42,933 ने ये परीक्षा दी। जिसमें SC वर्ग के 8,215, ST वर्ग के 2,882 उम्मीदवार शामिल थे। जिनमें  37,166 उम्मीदवार महिलाएं हैं।

केरल राज्य साक्षरता मिशन प्राधिकरण (केएसएलएमए) की परियोजना 'अक्षरलक्षम', जिसका उद्देश्य केरल के वृद्ध और वंचित लोगों के बीच निरक्षरता को समाप्त करना है, ने इस वर्ष 99.08 प्रतिशत सफलता प्राप्त की है, क्योंकि 43,330 उम्मीदवारों में से 42,933 उम्मीदवार परीक्षा में सफल हुए हैं। 'अक्षरलक्षम' कार्यक्रम की शुरुआत केरल सरकार ने 26 जनवरी 2018 को की थी।

बता दें कि केरल सरकार ने 'अक्षरालक्षम साक्षरता मिशन' नाम का अभियान चलाया था, जिसका उद्देश्य केरल में 100 फीसदी साक्षरता करना है।

60 साल की बेटी से ली प्रेरणा

शहर से करीब एक घंटे की ड्राइव पर स्थित कार्थायिनी अम्मा ने जनवरी 2018 में अपनी स्कूली शिक्षा तब शुरू की, जब ग्राम पंचायत की साक्षरता मिशन ब्रिगेड सरकारी आवास योजना के तहत लक्षम वीडू कॉलोनी में उनके घर पहुंची। लेकिन साक्षरता मिशन के लोगों के उनके पास आने से पहले ही कार्थायिनी अम्मा को पढ़ाई में रुचि थी। कार्तियानी अम्मा कहती हैं कि उन्हें उनकी बेटी ने प्रेरित किया था। दो साल से भी ज़्यादा समय पहले, उनकी 60 वर्षीय बेटी अम्मिनी अम्मा ने साक्षरता मिशन का कोर्स साल 2016 में पास किया, जो औपचारिक शिक्षा प्रणाली में कक्षा 10 के बराबर है। अपनी बेटी को बैग पैक करते और स्कूल के लिए निकलते देखकर कार्थायिनी अम्मा को भी कलम और कागज़ उठाने की प्रेरणा मिली।

अम्मा तो जब साक्षरता मिशन जैसे प्रोग्राम के बारे में पता चला तो उन्होंने अपना रजिस्ट्रेशन करा लिया और मेहनत के साथ पढ़ना और लिखना सीखा। खास बाात ये है कि अम्मा के बारे में जानकर 90 साल की उम्र के करीब के 30 और बुजुर्गों ने अपना रजिस्ट्रेशन करवाया और पढ़ना शुरू किया।

अम्मा बताती हैं, "पैसों की तंगी के कारण मैं स्कूल नहीं जा पाई थी। मैंने अपने बच्चों की देखभाल की। जब मेरी बेटी ने दसवीं की परीक्षा पास की, मैंने भी वैसा ही करने का सोचा। मैं 100 साल की उम्र में दसवीं की परीक्षा पास कर लूंगी।" कुछ महीने पहले ही अक्षरलक्षम मिशन के तहत एक और परीक्षा में अम्मा ने पूरे नंबर हासिल किए थे। कार्तियानी अम्मा ने साक्षरता परीक्षा में 100 में 98 अंक आने पर वह काफी खुश हैं। उन्होेंने कहा वह अपनी पढ़ाई जारी रखना चाहती हैं।

कभी नहीं स्कूल, करती थीं घरों में काम

कार्तियानी अम्मा का मन शुरू से ही पढ़ाई- लिखाई में लगता था। आपको जानकर हैरानी होगी वह कभी भी अपने जीवन में स्कूल नहीं गईं। वहीं अपने संभालने के लिए स्वीपर और दूसरों के घरों में काम किया। वह अपने बच्चों और पोते-पोते के साथ रहती हैं। उनके पति की 1961 में मृत्यु हो गई। उनकी बेटी अम्मिनिअम्मा, जो खुद भी स्कूल छोड़ चुकी थीं, ने अपनी मां को कक्षाओं में शामिल होने के लिए प्रेरित किया।

उन्हें मार्च 2020 में, उन्हें अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद से नारी शक्ति पुरस्कार मिला। केरल ने इस वर्ष की शुरुआत में गणतंत्र दिवस परेड में "नारी शक्ति और महिला सशक्तिकरण की लोक परंपराओं" की एक झांकी प्रस्तुत की, जिसमें कार्त्यायनी शामिल थीं।

2019 में, कनाडा की एक संस्था 'कॉमनवेल्थ लर्निंग' ने कार्तियानी अम्मा को अपना गुडविल एंबेसडर नियुक्त किया। जिसमें लगभग 53 देश शामिल हैं।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ बातचीत में उन्होंने 10वीं कक्षा पूरी करने की इच्छा व्यक्त की थी, साथ ही उन्होंने आगे पढ़ाई करने में भी रुचि दिखाई थी - विशेष रूप से कंप्यूटर की मूल बातें सीखने में।

शेफ-लेखक विकास खन्ना ने कार्त्यायनी अम्मा की प्रेरणादायक कहानी पर एक समीक्षकों द्वारा प्रशंसित वृत्तचित्र और उनकी उल्लेखनीय जीवन यात्रा पर एक सचित्र बच्चों की किताब का निर्देशन किया।

डॉक्यूमेंट्री से लिया गया शीर्षक ' बेयरफुट एम्प्रेस' ब्लूम्सबरी द्वारा प्रकाशित किया गया है।

गुरुवार 01 नवंबर केरल के मुख्यमंत्री सेमिनार हॉल में होने वाले सम्मान समारोह में मुख्यमंत्री पिनरई विजयन 96 वर्षीय, देश के लिए मिसाल बन चुकी वृद्ध करथियानी अम्मा को सम्मानित किया। अम्मा ने कहा- ‘मुझे पता था जितना ज्यादा में पढ़ाई करूंगी उससे ज्यादा मेरे नंबर आएंगे।’ उन्होंने कहा- मैं छोटे बच्चों को पढ़ाई करती देखती थी। मैं भी चाहती थी कि पढ़ाई करूं। जब बच्चों ने पूछा तो मैंने कहा क्यों नहीं, मैं भी पढ़ूंगी। उन्होंने कहा- 10वीं तक पढ़ाई करने के बाद मैं कंप्यूटर सीखना चाहती हूं। खाली समय में मैं कंप्यूटर चलाउंगी और टाइपिंग करूंगी। जब मुझे पढ़ाई करना चाहिए था तब मैं नहीं कर पाई। लेकिन खुशी है कि अब पढ़ाई पूरी कर रही हूं।’ कार्तियानी अम्मा 96 की उम्र में भी स्वस्थ हैं, कुछ भी हो लेकिन दिन में दो बार चाय पीना नहीं भूलती हैं।

96 साल की उम्र में साक्षरता परीक्षा में टॉप करने वाली कार्तियानी अम्मा को केरल के एजुकेशन मिनिस्टर सी. रवींद्रनाथ ने लैपटॉप गिफ्ट किया है। उन्होंने अलपुझा जिले के चेप्पाड गांव में अम्मा के घर जाकर एक नया लैपटॉप दिया। जिसे पाने की खुशी अम्मा के चेहरे पर साफ देखी जा सकती है। बता दें, उन्हें 'Dell' कंपनी का लैपटॉप गिफ्ट किया गया है जिसकी कीमत 25, 000 हजार रुपये है। सरप्राइज गिफ्ट से खुश अम्मा ने शिक्षा मंत्री के सामने ही अंग्रेजी में अपना नाम टाइप कर मंत्री को आश्चर्यचकित कर दिया। इंडियन एक्सप्रेस की खबर के मुताबिक शिक्षामंत्री उस क्षेत्र के आधिकारिक दौरे पर थे। किसी ने उन्हें बताया कि अम्मा कंप्यूटर सीखना चाहती हैं। इतना सुनते ही मंत्री लैपटॉप की शॉप पर गए और 25 हजार का लैपटॉप खरीद कर अम्मा को गिफ्ट कर दिया।

केरल राज्य साक्षरता मिशन के तहत सबसे बुजुर्ग शिक्षार्थी बनकर 2018 में सुर्खियाँ बटोरने वाली कार्तियानी अम्मा का मंगलवार, 10 अक्टूबर को तटीय जिले अलप्पुझा में उनके निवास पर निधन हो गया। वह 101 वर्ष की थीं। बताया जाता है कि स्ट्रोक के कारण वह कुछ समय तक बिस्तर पर रहीं।

गणतंत्र दिवस 2018 पर केरल राज्य साक्षरता मिशन अथॉरिटी ने 'अक्षरालाक्षम' परियोजना शुरू की थी जिसका उद्देश्य केरल में 100 फीसदी साक्षरता करना है। इसके जरिए आदिवासियों, मछुआरों और गरीब लोगों के बीच साक्षरता का प्रचार प्रसार किया जा रहा है। 

2018 में गणतंत्र दिवस पर केरल सरकार द्वारा शुरू की गई 'अक्षरलक्षम' साक्षरता परियोजना राज्य भर में 20,86 मान्यता प्राप्त शिक्षण केंद्रों के माध्यम से संचालित होती है। केरल के 21,908 वार्डों में किए गए परीक्षण सर्वेक्षण के बाद शिक्षण केंद्रों की स्थापना की गई।

केएसएलएमए की अध्यक्ष पीएस श्रीकला ने कहा, "हम उन लोगों को बेहतर शिक्षा और आजीविका के अवसर प्रदान करने के लिए तत्पर हैं, जिन्हें विभिन्न कारणों से अपनी स्कूली शिक्षा छोड़नी पड़ी।" "वित्तीय और स्वास्थ्य संबंधी मुद्दे, आस-पास के क्षेत्रों में स्कूलों की कमी, माता-पिता से समर्थन की कमी और स्कूल में बुरे अनुभवों ने उन्हें अपनी शिक्षा छोड़ने के लिए मजबूर किया होगा। यह 'अक्षरलक्षम' परियोजना का केवल पहला चरण है। हमारा लक्ष्य केरल में 4 वर्षों के भीतर सभी 18.5 लाख पहचाने गए निरक्षरों को साक्षर बनाना है," उन्होंने कहा।



बुधवार, 2 अक्टूबर 2024

कुट्टियाम्मा (Kuttiyamma), केरल


केरल में 104 साल की बुर्जुग महिला ने किया कमाल, राज्य साक्षरता मिशन की परीक्षा में 89 अंक हासिल किए

कहते हैं पढ़ने-लिखने की कोई उम्र नहीं होती और भारत के सबसे दक्षिणी राज्य केरल की एक बूढ़ी दादी अम्मा ने ये साबित कर दिखा दिया है। केरल (Kerala) के कोट्टयम (Kottayam) में रहने वाली एक 104 वर्षीय सबसे उम्रदराज महिला ने राज्य साक्षरता मिशन की परीक्षा (State Education Exam) में 89 अंक हासिल किए हैं। जिस उम्र में इंसान को दिखाई भी देना बंद हो जाता है , चलने फिरने में परेशानी होती है उस उम्र में केरल की इस दादी अम्मा ने साक्षरता परीक्षा पास कर गजब का रिकॉर्ड बनाया है। बुजुर्ग महिला का नाम कुट्टियाम्मा (Kuttiyamma) है। उनकी शिक्षिका रेहना ने बताया कि कुट्टियाम्मा को पढ़ाई का शौक है। वह सीखती और लिखती हैं, उन्होंने केरल राज्य साक्षरता मिशन की परीक्षा में 100 में से 89 अंक प्राप्त किए। इस परीक्षा में उन्होंने काफी बेहतरीन प्रदर्शन किया है। कुट्टियाम्मा ने कारनामा करके लोगों के सामनें एक मिशाल पेश की है। साक्षरता टेस्ट के बाद अब उनका लक्ष्य इक्विवेलेंस टेस्ट पास करना है। इसके लिए वो अंग्रेजी की पढ़ाई कर रही हैं। इसके लिए वो रोजाना 2 घंटे पेपर पढ़ती हैं।

आपको यह बात जानकर हैरानी होगी कि, उन्होंने कभी स्कूल का मुंह तक नहीं देखा है। उन्होंने अपनी साक्षरता परीक्षा की तैयारी करते समय पहली बार पेन और पेपर उठाया था। पहले वह सिर्फ पढ़ सकती थीं, लेकिन साक्षरता प्रेरक रेहना की मदद से, उसने लिखना सीखा और अपने घर पर प्रत्येक सुबह और शाम आयोजित होने वाली कक्षाओं में कर्तव्यनिष्ठा से भाग लिया। कुट्टियाम्मा को अक्षरों में से रूबरू कराने वाली रिहाना जान बताती है कि साक्षरता टेस्ट के बाद इक्विवेलेंसी टेस्ट पास करके वो चौथी कक्षा की पढ़ाई शुरू करेंगी।

104 साल की महिला को परीक्षा में 89 अंक मिले

कोट्टायम की रहने वाली बुजुर्ग महिला कुट्टियम्मा ने जब केरल राज्य साक्षरता मिशन के टेस्ट में 89 प्रतिशत अंक हासिल किए तो हर जगह से उनकी सराहना होने लगी। केरल के शिक्षा मंत्री वासुदेवन शिवनकुट्टी के साथ-साथ आम लोग सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर उनकी तारीफ कर रहे हैं। केरल के शिक्षा मंत्री वायुदेवन शिवनकुट्टी (Vasudevan Sivankutty) ने एक खुशमिजाज कुट्टियम्मा की तस्वीर ट्वीट की और उन्हें 100 में से 89 अंक प्राप्त करने के लिए शुभकामनाएं दीं। ये साक्षरता टेस्ट कोट्टायम जिले के अयारकुन्नम पंचायत द्वारा आयोजित किया गया था। सुबह और शाम की शिफ्ट में कुट्टियम्‍मा के घर पर ही कक्षाएं लगाई गईं।

जैसे ही परीक्षा (केरल स्‍टेट लिटरेसी मिशन टेस्ट) शुरू हुई, कुट्टियम्मा, जो कम सुन पाती हैं, ने निरीक्षकों को याद दिलाया - "जो भी बोलो, जोर से बोलो।"

उनसे पहला सवाल यह था कि ये पंक्तियाँ किसने कही थीं - 'ओर्कुका, जीविकालय सर्व जीविकालुम् भूमियुदे अवकाशकाल'? और कुट्टियाम्मा ने अपना स्कोर कार्ड सही उत्तर वैकोम मुहम्मद बशीर के साथ खोला। जब उनसे उनकी पाठ्य पुस्तक में किसी कविता की पहली चार पंक्तियां गाने के लिए कहा गया, तो कुट्टियम्मा ने 'मावेली नाडु वान्निदुम कालम...' का पूरा गीत गाया।

परीक्षा के बाद उससे पूछा गया कि उसे कितने अंक मिलेंगे। कुट्टियाम्मा ने बिना दांत वाली मुस्कान बिखेरते हुए कहा - "मैंने वह सब लिख दिया है जो मुझे आता है। अब आप अंक दीजिए।" उनके त्वरित उत्तर से कुन्नुमपुरम आंगनवाड़ी में हंसी की लहर दौड़ गई।

युवाओं का हौसला बढ़ाते हुए कुट्टियम्मा कहती है कि वह अपनी प्राथमिक शिक्षा पूरी किए बगैर दुनिया से विदा नहीं लेंगी।

कुट्टियम्‍मा की 16 साल की उम्र में शादी हो गई थी। उनके पति का नाम टी के कोन्ति था। वह आयुर्वेद‍िक दवा बेचने वाली एक दुकान में काम करते थे। 2002 में कोन्ति का निधन हो गया था। कुट्टियम्‍मा के पांच बच्‍चे हुए। जानकी, गोपालन, राजप्‍पन, गोपी और रवींद्रन। गोपी आज दुनिया में नहीं हैं। कुट्टियम्‍मा अभी अपने बेटे गोपालन के साथ रहती हैं। खाना पकाने और घर के कामों में दशकों बीत गए, और कुट्टियामा कहती हैं कि वह संतुष्ट थीं लेकिन हमेशा महसूस करती थीं कि कुछ कमी रह गई है।

एक साल पहले ही कुट्टियाम्मा को उनकी पड़ोसी रेहाना जॉन, जो 34 वर्षीय साक्षरता प्रशिक्षक हैं, के प्रोत्साहन से पढ़ना सीखने के लिए राजी किया गया था। जॉन ने कुट्टियाम्मा की अपने पोते-पोतियों की पढ़ाई के प्रति जिज्ञासा को देखा था और उन्हें कुछ किताबें देने की पेशकश की थी। इससे पहले, जॉन की सबसे बुजुर्ग छात्रा 85 वर्ष की थी।

कुछ सौम्य प्रोत्साहन के बाद, वे हर शाम मिलने लगे और साथ मिलकर साक्षरता पुस्तकों पर गहन अध्ययन करने लगे। जॉन ने कहा, "बहुत कम दृष्टि और सुनने की समस्याओं को छोड़कर, वह एक आदर्श और कभी-कभी शरारती छात्रा थी, जिसने मेरे शिक्षण को सार्थक बना दिया।" "मेरे घर पहुँचने से पहले वह हमेशा अपनी पाठ्यपुस्तक, नोटबुक और पेन तैयार रखती है। इसके अलावा, वह मुझे देने के लिए घर पर पकाए गए व्यंजनों में से कुछ अतिरिक्त रखती है।"

कुट्टियाम्मा ने सोमवार को समाचार एजेंसी एएनआई को बताया, "शिक्षक ने मुझे मलयालम में पत्र पढ़ना और लिखना जैसी हर चीज सिखाई।" उसकी शिक्षिका फेहरा जॉन ने कहा, "वह अब पत्र लिख सकती है और बहुत खुश है।" कुट्टियम्मा को अनेक प्रार्थना गीत गाने में आनंद आता है तथा वह प्रतिदिन समाचार पत्र भी पढ़ती हैं।

104 साल की उम्र में भी बिल्कुल स्वस्थ हैं। कुट्टियम्मा बताती हैं कि अपना काम खुद से करने और आयुर्वेद के चलते वह बिल्कुल फिट हैं। वह बताती है कि उनके जमाने में लड़कियों के पढ़ाई पर जोर नहीं दिया जाता था बल्कि लड़के भी चौथी कक्षा से ज्यादा नहीं पढ़ते थे। उनके पिता एक भूमिहीन किसान थे उस समय पढ़ाई लिखाई पर ज्यादा जोर नहीं दिया जाता था।

केरल के शिक्षा मंत्री ने दी बधाई

केरल के शिक्षा मंत्री वी शिवनकुट्टी ने शुक्रवार, 12 नवंबर को सोशल मीडिया पर ट्वीट किया, "कोट्टायम की 104 वर्षीय कुट्टियाम्मा ने केरल राज्य साक्षरता मिशन की परीक्षा में 89/100 अंक हासिल किए हैं। ज्ञान की दुनिया में प्रवेश करने के लिए उम्र कोई बाधा नहीं है। अत्यंत सम्मान और प्यार के साथ, मैं कुट्टियम्मा समेत सभी नए सीखने वालों को उनके सुखद भविष्य की कामना करता हूं।''

खबर वायरल होने के बाद कुट्टियम्मा एक तरह से स्थानीय स्टार बन गई हैं और सोशल मीडिया पर भी उन पर प्यार बरस रहा है। कुट्टियम्मा की इस उपलब्धि से लोग प्रेरित और भावुक हो गए। एक यूजर ने ट्वीट किया, "मैं पूरे सम्मान के साथ कुट्टियम्मा को उनके समर्पण के लिए सलाम करता हूं। यह निश्चित रूप से दूसरों को प्रेरित करेगा।" एक अन्य ने तो यहां तक ​​कहा, "मुझे आगे की पढ़ाई करने के लिए प्रेरित करने के लिए धन्यवाद"। एक अन्य यूजर ने लिखा, " भगवान उसका भला करे, अगर आपके पास कुछ करने की इच्छाशक्ति है तो उम्र मायने नहीं रखती।" एक उपयोगकर्ता ने टिप्पणी की, "यह देखकर बहुत खुशी हुई, इसे आयोजित करने वाले समर्थकों को बधाई।"

इससे पहले भी कई वर्षों में बुजुर्ग महिलाएं इन परीक्षाओं में असाधारण रूप से सफल रही हैं। केरल की सौ वर्षीय भागीरथी अम्मा और 96 वर्षीय कार्तियिनी अम्मा को महिला सशक्तिकरण में उनके असाधारण योगदान के लिए केंद्र सरकार द्वारा 2019 के लिए नारी शक्ति पुरस्कार के लिए संयुक्त रूप से चुना गया था। पीटीआई की रिपोर्ट के अनुसार, कुट्टियाम्मा की तरह, उन्होंने भी केरल साक्षरता मिशन परीक्षा में असाधारण रूप से अच्छा स्कोर किया था। उनसे पहले, अलप्पुझा की कार्तियानी अम्मा ने अक्टूबर 2018 में केरल राज्य साक्षरता मिशन प्राधिकरण के एक प्रमुख कार्यक्रम “अक्षरालक्षम” में 100 में से 98 अंक हासिल किए थे।

केरल राज्य साक्षरता मिशन का उद्देश्य क्या है?

1998 में स्थापित केरल राज्य साक्षरता मिशन प्राधिकरण (Kerala State Literacy Mission Authority) (केएसएलएमए) राज्य सरकार द्वारा वित्त पोषित है और इसका उद्देश्य सभी नागरिकों के लिए साक्षरता, सतत शिक्षा और आजीवन सीखने को बढ़ावा देना है। यह एक स्वायत्त संस्था है जिसे राज्य सरकार द्वारा पूरी तरह से वित्त पोषित किया जाता है। इस संस्था को केंद्र सरकार के राष्ट्रीय साक्षरता मिशन के तहत शुरू किया गया था। वर्तमान में यह चौथी, सातवीं, 10वीं, 11वीं और 12वीं कक्षा के लिए समकक्ष शिक्षा कार्यक्रम चलाता है।

साक्षरता कार्यक्रम के मुख्य लाभार्थी निरक्षर, नव-साक्षर, स्कूल छोड़ चुके लोग तथा आजीवन शिक्षा में रुचि रखने वाले व्यक्ति हैं।

भारतीय राष्ट्रीय सर्वेक्षण द्वारा 'घरेलू सामाजिक उपभोग: भारत में शिक्षा' पर प्रकाशित की गयी रिपोर्ट के अनुसार केरल में 96.2% साक्षरता दर के इस साथ सूची में सबसे ऊपर है। 2011 की जनगणना के अनुसार, राज्य में लगभग 96.11% पुरुष और 92.07% महिलाएं साक्षर थीं।



रविवार, 29 सितंबर 2024

शिवलिंग, आयरलैंड


आयरलैंड के कई सौ साल पुराने शिवलिंग का रहस्य क्या है

क्या आप दुनिया के सबसे रहस्यमय शिव लिंग (Shiv Linga) के बारे में जानते हैं? ये आयरलैंड (Ireland) में है। वहां की एक पहाड़ी इलाके में इसे गोलघेरे के बीच लगाया गया है। एक लंबे शिव लिंग सरीखा है। कहा जाता है कि इसे आयरलैंड में खास जादुई ताकत रखने वालों ने सैकड़ों साल पहले स्थापित किया था। इसे कई बार नुकसान पहुंचाने की भी कोशिश की गई लेकिन इसका कुछ नहीं बिगड़ा।

आयरलैंड की काउंटी मीथ के तारा (स्टार) की पहाड़ी पर एन फ़ोराध (राजा की सीट) के ऊपर स्थित है। स्टार, जिसका अर्थ संस्कृत में ‘तारा’ है, भगवान शिव की पत्नी का दूसरा नाम है। इसी इलाके में पत्थर के चौड़े ईंटों का घेरा बनाकर उसे स्थापित किया गया था। कब स्थापित किया गया था, इसके बारे में लोगों को सही सही अंदाज नहीं है। वहां के लोग इसे रहस्यमय पत्थर के रूप में जानते हैं। इसे लिआ फेइल (Lia Fail), जिसे (भाग्य का पत्थर) (Stone of Destiny) कहा जाता है। लोग इसकी पूजा करते हैं।

वैदिक परंपरा के अभ्यासकर्ताओं के लिए लिया फेल, शिव लिंगम (Shiva Lingam) से बहुत मेल खाता है। यह शिवलिंग 5500 साल पुराना है। उस समय कोई अन्य धर्म अस्तित्व में भी नहीं था।

1632 से 1636 ईसवीं के बीच लिखा गया फ्रांसीसी भिक्षुओं के एक प्राचीन दस्तावेज - द माइनर्स ऑफ द फोर मास्टर्स के अनुसार, कुछ खास जादुई ताकत रखने वाले एक ग्रुप (चार अलौकिक लोगों) के नेता तुथा डि देनन (Tuatha Dé Danann) ने इसे स्थापित किया था। वे पूर्व-ईसाई गेलिक आयरलैंड के मुख्य देवता थे। लिया फ़ेल, तुआथा डे दानन द्वारा आयरलैंड में लाई गई चार रहस्यमयी वस्तुओं में से एक थी। कुछ वैज्ञानिकों का अनुमान है आयरलैंड में कांस्य बनाना इसी ग्रुप के लोगों ने किया था।

माना जाता है कि Tuatha Dé Danann जो लोग इस पत्थर को आइरलैंड में लेकर आये थे, वह एक जंग हार गये थे। जिस कारण इन्हें आइयरलैंड़ में ही रूकना पड़ा था। किंवदंती के अनुसार, उन्हें आयरलैंड में केवल 'एस सिधे' - परी टीलों के लोगों के रूप में जमीन के नीचे रहने की अनुमति थी।

यह बहुत खास पत्थर था

तुथा डि देनन का मतलब होता है देवी दानू के बच्चे, उन्होंने 1897 बीसी से 1700 बीसी तक आयरलैंड पर शासन किया था। ईसाई भिक्षुओं ने पत्थर को प्रजनन क्षमता की प्रतीक (उर्वरता का प्रतीक) मूर्ति के रूप में देखा। यह इतना महत्वपूर्ण पत्थर था कि इसका उपयोग 500 ईस्वी तक सभी आयरिश राजाओं के राज्यभिषेक के अवसर पर किया गया।

इसकी ऊंचाई तीन फीट तीन इंच है। इस पत्थर को लेकर मान्यताएं है कि जब आयरलैंड के राजा ने इस पर पैर रखा था, तो खुशी से यह पत्थर दहाड़ने लगा था।

यूरोप में देवी दानू थीं और वैदिक परंपरा में भी

यूरोपीय परंपरा में देवी दानू को नदीयों की देवी कहा जाता है। हम उनके नाम से कई नदियों में खोज सकते हैं, जैसे कि देन्यूब, दोन, डनीपर और डिनिएस्टर यह सभी युरोप कि नदियाँ हैं। कुछ आयरिश ग्रंथों में इस देवी के पिता को दागदा (Dagda) के नाम से जाना जाता है, जो आयरलैंड में पिता का प्रतीक माने जाते हैं, इन्हें वहां के लोग एक अच्छा देवता भी मानते हैं।

वैदिक परंपरा में दानू देवी का जिक्र मिलता है, जो दक्ष की बेटी और कश्यप मुनि की पत्नी थीं, जो नदियों की देवी थीं। संस्कृत में दानू शब्द का अर्थ है 'बहने वाला पानी'। दक्ष की दो बेटियां थीं, उनकी दूसरी बेटी सती का विवाह भगवान शिव से हुआ। वैदिक परंपरा को मानने वालों के लिए लिआ फैल नाम शिव लिंग से बहुत मेल खाता है।

कई बार नुकसान पहुंचाने की कोशिश हुई

हाल के वर्षों में आयरलैंड के शिवलिंग को कई बार नुकसान पहुंचाने की कोशिश की गई। जून 2012 में एक व्यक्ति ने पत्थर पर 11 बार आक्रमण किया।

फिर, मई 2014 में किसी ने सतह पर लाल और हरा रंग डालकर खराब करने की कोशिश की। यह बहुत अमानवीय कृत्य था।

पर दुखद स्थिति यह है कि हाल के ही कुछ वर्षों में इस पवित्र पत्थर को अपवित्रता के अधीन कर दिया गया है।  यहां लोग काला जादू और तांत्रिक क्रियाएं करने आते रहते हैं। हैरानी में डालने वाला तथ्य तो यह है कि इस पवित्र पत्थर जो कि हजारों वर्ष पुराना है उसकी देखभाल वहां पर कोई नहीं करता है।

दुनियाभर में शिव की पूजा का प्रचलन था, इस बात के हजारों सबूत बिखरे पड़े हैं। हाल ही में इस्लामिक स्टेट द्वारा नष्ट कर दिए गए प्राचीन शहर पलमायरा, नीमरूद आदि नगरों में भी शिव की पूजा के प्रचलन के अवशेष मिलते हैं।

भारत के बाहर शिवलिंग कहां कहां

- ग्लासगो, स्काटलैंड में सोने के शिवलिंग है।

- तुर्किस्तान के शहर में बारह सौ फुट ऊंचा शिवलिंग है।

- हेड्रोपोलिस शहर में तीन सौ फुट ऊंचा शिवलिंग है।

- दक्षिण अमेरिका के ब्राजील देश में अनेक शिवलिंग हैं।

- कारिथ, यूरोप में पार्वती का मंदिर है।

- मेक्सिको में अनेक शिवलिंग हैं।

- कम्बोडिया में प्राचीन शिवलिंग है।

- जावा और सुमात्रा प्रदेशों में भी कई अनेकों शिवलिंग हैं।

- इंडोनेशिया में अनेक भव्य देवालय एवं प्राचीन शिलालेश हैं। इन शिलालेखों में शिव-विषयक लेख ही अधिक हैं। जिनके आरम्भ में लिखा रहता है - ॐ नम: शिवाय।

- इजिप्ट का सुप्रसिद्ध स्थल और आयरलैंड का धर्मस्थल शंकर का स्मारक लिंग ही है।

- नेपाल, पाकिस्तान और भूटान आदि कई देशों में ईश्वर शिवलिंग के प्रमाण मिलते हैं।

- चीन में नीलसरस्वती का मंदिर है।

शिवलिंग :-

शिवलिंग के तीन हिस्से होते हैं। पहला हिस्सा जो नीचे चारों ओर भूमिगत रहता है। मध्य भाग में आठों ओर एक समान सतह बनी होती है। अंत में इसका शीर्ष भाग, जो कि अंडाकार होता है जिसकी पूजा की जाती है। इस शिवलिंग की ऊंचाई संपूर्ण मंडल या परिधि की एक तिहाई होती है।

ये तीन भाग ब्रह्मा (नीचे), विष्णु (मध्य) और शिव (शीर्ष) का प्रतीक हैं। शीर्ष पर जल डाला जाता है, जो नीचे बैठक से बहते हुए बनाए एक मार्ग से निकल जाता है। शिव के माथे पर तीन रेखाएं (त्रिपुंड) और एक बिंदू होता है, ये रेखाएं शिवलिंग पर समान रूप से अंकित होती हैं।

सभी शिव मंदिरों के गर्भगृह में गोलाकार आधार के बीच रखा गया एक घुमावदार और अंडाकार शिवलिंग के रूप में नजर आता है। प्राचीन ऋषि और मुनियों द्वारा ब्रह्मांड के वैज्ञानिक रहस्य को समझकर इस सत्य को प्रकट करने के लिए विविध रूप में इसका स्पष्टीकरण दिया गया है।

शिवलिंग आखिर कितने पुराने

पुरातात्विक निष्कर्षों के अनुसार प्राचीन शहर मेसोपोटेमिया और बेबीलोन में भी शिवलिंग की पूजा किए जाने के सबूत मिले हैं। इसके अलावा मोहन-जोदड़ो और हड़प्पा की विकसित संस्कृति में भी शिवलिंग की पूजा किए जाने के पुरातात्विक अवशेष मिले हैं।

सभ्यता के आरंभ में लोगों का जीवन पशुओं और प्रकृति पर निर्भर था इसलिए वह पशुओं के संरक्षक देवता के रूप में पशुपति की पूजा करते थे। सैंधव सभ्यता से प्राप्त एक सील पर तीन मुंह वाले एक पुरुष को दिखाया गया है जिसके आस-पास कई पशु हैं। इसे भगवान शिव का पशुपति रूप माना जाता है।

ईसा से 2300-2150 वर्ष पूर्व सुमेरिया, 2000-400 वर्ष पूर्व बेबीलोनिया, 2000-250 ईसापूर्व ईरान, 2000-150 ईसा पूर्व मिस्र (इजिप्ट), 1450-500 ईसा पूर्व असीरिया, 1450-150 ईसा पूर्व ग्रीस (यूनान), 800-500 ईसा पूर्व रोम की सभ्यताएं थीं।

प्रमुख रूप से शिवलिंग दो प्रकार के होते हैं - पहला आकाशीय या उल्का शिवलिंग और दूसरा पारद शिवलिंग।

पुराणों के अनुसार शिवलिंग के प्रमुख 6 प्रकार होते हैं

1. देव लिंग :- जिस शिवलिंग को देवताओं या अन्य प्राणियों द्वारा स्थापित किया गया हो, उसे देवलिंग कहते हैं।

2. असुर लिंग :- असुरों द्वारा जिसकी पूजा की जाए, वह असुर लिंग । रावण ने एक शिवलिंग स्थापित किया था, जो असुर लिंग था।

3. अर्श लिंग :- प्राचीनकाल में अगस्त्य मुनि जैसे संतों द्वारा स्थापित इस तरह के लिंग की पूजा की जाती थी।

4. पुराण लिंग :- पौराणिक काल के व्यक्तियों द्वारा स्थापित शिवलिंग को पुराण शिवलिंग कहा गया है।

5. मनुष्य लिंग :- प्राचीनकाल या मध्यकाल में ऐतिहासिक महापुरुषों, अमीरों, राजा-महाराजाओं द्वारा स्थापित किए गए लिंग को मनुष्य शिवलिंग कहा गया है।

6. स्वयंभू लिंग :- भगवान शिव किसी कारणवश स्वयं शिवलिंग के रूप में प्रकट होते हैं। इस तरह के शिवलिंग को स्वयंभू शिवलिंग कहते हैं। भारत में स्वयंभू शिवलिंग कई जगहों पर हैं।



शनिवार, 28 सितंबर 2024

हथिया नक्षत्र (हस्त नक्षत्र)

हथिया नक्षत्र क्या है और इसमें कितने दिन बारिश होती है? जानें इसके ज्योतिषीय और वैज्ञानिक पहलुओं को

ज्योतिष शास्त्र के अनुसार, देश के अधिकांश हिस्सों में हो रही यह बारिश, हथिया नक्षत्र का प्रभाव है। हथिया नक्षत्र में बारिश की अवधि लगभग एक हफ्ते से 10 दिन तक होती है। यह नक्षत्र सितंबर के दूसरे पखवाड़े से लेकर अक्तूबर के पहले पखवाड़े में आता है। आइए जानते हैं इसके ज्योतिषीय और वैज्ञानिक पहलुओं को -

हथिया नक्षत्र क्या है?

हथिया नक्षत्र (हस्त नक्षत्र) एक ऐसा समय होता है जब लगातार बारिश की हल्की फुहारें होती हैं। किसानों के लिए इस नक्षत्र को काफी अच्छा माना जाता है। माना जाता है कि फसलों के लिए किसान इस नक्षत्र का इंतजार करते हैं। हथिया नक्षत्र 5 तारों का समूह है, जिसकी हाथ के पंजे के जैसी आकृति है। इसका ग्रह स्वामी चंद्र है। पश्चिम में इसे α, β, γ, δ और ε Corvi से दर्शाया जाता है। तारामंडल में इसकी स्थिति 10VI00-23VI20 है। इस अवधि को आमतौर पर शुभ माना जाता है। मान्यता है कि इस नक्षत्र में लगातार बारिश होती है। हालांकि मूसलाधार बारिश कम देखी जाती है। हथिया नक्षत्र में बारिश की अवधि स्थान और वर्ष के आधार पर भिन्न हो सकती है। कुछ वर्षों में, बारिश अधिक तीव्र और लंबे समय तक हो सकती है, जबकि अन्य वर्षों में यह कम हो सकती है।

नक्षत्र क्या होते हैं?

भारत में नक्षत्र परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही है। आसमान में तारों के समूह को नक्षत्र कहते हैं। ये सभी नक्षत्र चंद्रमा के पथ में स्थित होते हैं, जिनके समीप से चंद्रमा गति करता है। सूर्य पंचांग से इनकी गणना करना मुश्किल है, लेकिन चंद्र पंचांग से इनकी गणना आसानी से की जा सकती है। चंद्रमा 27 नक्षत्रों में गति करता है। इन्हें ही प्रधान नक्षत्र माना जाता है। इसके साथ ही एक गुप्त नक्षत्र भी माना गया है जिसे अभिजीत कहा जाता है। इस तरह इनकी संख्या 28 हो जाती है।

वेद-पुराण में नक्षत्रों का वर्णन

ऋग्वेद में सूर्य की गणना भी नक्षत्र में की गई है। भागवत पुराण के अनुसार, ये सभी नक्षत्र प्रजापति दक्ष की पुत्रियां और चंद्रमा की पत्नी हैं। शिव महापुराण में एक कथा के अनुसार, राजा दक्ष ने अपनी 27 पुत्रियों का विवाह चंद्रमा से किया था। लेकिन वो सभी 27 में से रोहिणी से ज्यादा प्रेम करते थे। चंद्रमा के इस व्यवहार से बाकी 26 दक्ष पुत्रियां दुखी रहती थीं। उन्होंने पिता को अपनी व्यथा बतायी। दक्ष ने चंद्रमा को समझाया लेकिन वो नहीं माने तो उन्होंने चंद्रमा को क्षय रोग का श्राप दे दिया।

चंद्रमा इससे घबरा कर ब्रह्मा के पास गये। ब्रह्मा ने उन्हें शिव की स्तुति करने को कहा। तब चंद्रमा ने सोमनाथ ज्योतिर्लिंग की स्थापना कर घोर तप किया। उनकी इस तपस्या से प्रसन्न होकर शिव ने कहा कि आज से हर मास में दो पक्ष होंगे (कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष) इनमें लगातार तुम्हारी रोशनी घटेगी और बढ़ेगी, और जब पूर्णिमा को तुम अपने पूर्ण रूप में रहोगे तब रोहिणी नक्षत्र में वास करोगे।

27 नक्षत्रों के नाम क्या-क्या हैं?

1 - अश्विन, 2 - भरणी, 3 - कृतिका, 4 - रोहिणी, 5 - मृगशिरा, 6 - आर्द्रा, 7 - पुनर्वसु, 8 - पुष्य, 9 - अश्लेषा, 10 - मघा, 11 - पूर्वा फाल्गुनी, 12 - उत्तरा फाल्गुनी, 13 - हस्त, 14 - चित्रा, 15 - स्वाति, 16 - विशाखा, 17 - अनुराधा, 18 - ज्येष्ठा, 19 - मूल, 20 - पूर्वाषाढ़ा, 21 - उत्तराषाढ़ा, 22 - श्रवण, 23 - धनिष्ठा, 24 - शतभिषा, 25 - पूर्वा भाद्रपद, 26 - उत्तरा भाद्रपद और 27 - रेवती, 28 - अभिजीत।

ऐसे बनता है वर्षा का योग

ज्योतिषीय शास्त्र के अनुसार 27 नक्षत्रों में कुछ नक्षत्र स्त्री और कुछ पुरुष नक्षत्र होते हैं। इसके अलावा कुछ नपुंसक नक्षत्र भी होते हैं। सूर्य और चंद्रमा के परस्पर विपरीत नक्षत्रों (स्त्री-पुरुष नक्षत्र में) में होने से वर्षा का योग बनता है। लेकिन सूर्य और चंद्र दोनों के स्त्री-स्त्री अथवा स्त्री-नपुंसक के नक्षत्र में होने पर वर्षा न होकर बादलों का आवागमन रहता है। अगर सूर्य व चंद्र पुरुष-पुरुष नक्षत्र में होते हैं तो वर्षा नहीं होती मौसम साफ रहता है।

ग्रहों का भी रहता है प्रभाव

शास्त्रों के अनुसार, पूर्व तथा उत्तर की वायु चलने पर वर्षा तुरंत होती है और वायव्य दिशा की ओर अगर बारिश होती है तो तूफानी वर्षा होती है। नवग्रहों का भी अच्छी बारिश के योग में महत्वपूर्ण प्रभाव बना रहता है। अगर बुध और शुक्र एक राशि में मौजूद हैं और उन पर गुरु ग्रह की दृष्टि पड़े तो अच्छी बारिश के योग बनते हैं। वहीं अगर गुरु और शुक्र ग्रह एक राशि में हैं और उस पर बुध ग्रह की दृष्टि हो तो क्रूर ग्रहों की दृष्टि पड़ने पर बाढ़ व भूस्खलन जैसी स्थिति बनती हैं।

कहावतों में हथिया का कैसा है वर्णन?

मानसून की विदाई की बेला में शुरू हुई बारिश ने कवि घाघ की कहावत को सच साबित किया है। कवि घाघ ने अपनी रचना में लिखा है, ‘हथिया पुरवाई पावै, लौट चौमास लगावै। मौजूदा समय में हथिया नक्षत्र चल रहा है और पुरवाई पिछले कई दिनों से लगातार बह रही है। पुरवाई का साथ पाते ही मानसून ने जोरदार दस्तक दी है। पितृपक्ष का समय मानसून की विदाई का होता है। कहावत है - बोली लुखरी फूला कास, अब छोड़ो वर्षा की आस। इस समय में शाम होते ही लुखरी, यानी लोमड़ी की आवाज गूंजने लगती थी और कास भी जमकर फूलने लगा करते थे। किसान वर्षा की उम्मीद छोड़ चुके होते थे। लेकिन पितृपक्ष के हथिया नक्षत्र ने किसानों की उम्मीदें जगा दी हैं। हथिया नक्षत्र ने पुरवाई का साथ पाकर पिछले 48 घंटे से बरसात का माहौल बना दिया है। रुक-रुककर बदरा झूमझूम के बरस रहे हैं। किसानों के चेहरों पर मुस्कान छा गई है। किसानों के लिए पितृपक्ष में यह बरसात आगामी रबी की फसलों के लिए बहुत लाभदायक साबित होगी।

जलवायु परिवर्तन से बदल सकता है मौसम पूर्वानुमान

मौसम विभाग के अनुमान से लेकर ज्योतिष गणना तक पर कई बार सवाल उठते रहे हैं। खुद विज्ञान भी वैज्ञानिक आधार पर अपने पूर्वानुमानों को सटीक होने का दावा नहीं करता, तो हाल में हुए कई शोध यह भी बताने लगे हैं कि जलवायु परिवर्तन के कारण बारिश का पूर्वानुमान और ज्यादा मुश्किल होता जाएगा। दूसरी ओर ज्योतिषीय गणना भी कई बार सटीक नहीं हो पाती है।



गुरुवार, 12 सितंबर 2024

84 लाख योनियां

84 लाख योनियों के प्रकार और गतियां

हिंदू-धर्म ग्रंथों, वेदों और पुराणों में सभी योनियों के बारे में बताया गया है। 84 लाख योनियां अलग-अलग पुराणों में अलग-अलग बताई गई हैं, लेकिन हैं सभी एक ही। अनेक आचार्यों ने इन 84 लाख योनियां, अर्थात सृष्टि में पाए जाने वाले विभिन्न प्रकार के जीव-जंतु। इन्हें दो भागों में बांटा है। पहला योनिज तथा दूसरा आयोनिज अर्थात 2 जीवों के संयोग से उत्पन्न प्राणी योनिज कहे गए और जो अपने आप ही अमीबा की तरह विकसित होते हैं उन्हें आयोनिज कहा गया।

इसके अतिरिक्त स्थूल रूप से प्राणियों को 3 भागों में बांटा गया है -

1. जलचर : जल में रहने वाले सभी प्राणी।
2. थलचर : पृथ्वी पर विचरण करने वाले सभी प्राणी।
3. नभचर : आकाश में विहार करने वाले सभी प्राणी।

उक्त 3 प्रमुख प्रकारों के अंतर्गत मुख्य प्रकार होते हैं अर्थात 84 लाख योनियों में प्रारंभ में निम्न 4 वर्गों में बांटा जा सकता है।

1. जरायुज : माता के गर्भ से जन्म लेने वाले मनुष्य, पशु जरायुज कहलाते हैं।
2. अंडज : अंडों से उत्पन्न होने वाले प्राणी अंडज कहलाते हैं।
3. स्वदेज : मल-मूत्र, पसीने आदि से उत्पन्न क्षुद्र जंतु स्वेदज कहलाते हैं।
4. उदि्भज : पृथ्वी से उत्पन्न प्राणी उदि्भज कहलाते हैं।

पद्म पुराण के अनुसार

महर्षि वेदव्यास द्वारा रचित पद्म पुराण के अनुसार, यह माना गया है कि हर प्राणी को उसके कर्म के अनुसार ही अगला जन्म मिलता है। व्यक्ति के उच्च कर्म ही उसे इन जन्म चक्र से मुक्त कर सकते हैं। शास्त्रों के अनुसार 84 लाख योनियों में मनुष्य योनि को सर्वश्रेष्ठ माना जाता है।

पद्म पुराण (Padma Purana) के एक श्लोकानुसार...
जलज नव लक्षाणी, स्थावर लक्ष विम्शति, कृमयो रूद्र संख्यक:।
पक्षिणाम दश लक्षणं, त्रिन्शल लक्षानी पशव:, चतुर लक्षाणी मानव:।। - (78:5 पद्मपुराण)

अर्थात जलचर 9 लाख, स्थावर अर्थात पेड़-पौधे 20 लाख, सरीसृप, कृमि अर्थात कीड़े-मकौड़े 11 लाख, पक्षी/नभचर 10 लाख, स्थलीय/थलचर 30 लाख और शेष 4 लाख मानवीय नस्ल के। कुल 84 लाख।

आप इसे इस तरह समझें

1. पानी के जीव-जंतु - 9 लाख
2. पेड़-पौधे - 20 लाख
3. कीड़े-मकौड़े - 11 लाख
4. पक्षी - 10 लाख
5. पशु - 30 लाख
6. देवता-दैत्य-दानव-मनुष्य आदि - 4 लाख

कुल योनियां - 84 लाख।

'प्राचीन भारत में विज्ञान और शिल्प' ग्रंथ में शरीर रचना के आधार पर प्राणियों का वर्गीकरण किया गया है जिसके अनुसार -

1. एक शफ (एक खुर वाले पशु) - खर (गधा), अश्व (घोड़ा), अश्वतर (खच्चर), गौर (एक प्रकार की भैंस), हिरण इत्यादि।
2. द्विशफ (दो खुर वाले पशु) - गाय, बकरी, भैंस, कृष्ण मृग आदि।
3. पंच अंगुल (पांच अंगुली) नखों (पंजों) वाले पशु - सिंह, व्याघ्र, गज, भालू, श्वान (कुत्ता), श्रृंगाल आदि। (प्राचीन भारत में विज्ञान और शिल्प- पेज 107-110)

अंत में मिलती है मानव की योनि

यानी कि जन्म के बाद किसी भी जीव को बारी-बारी से एक खास योनी में जन्म लेकर चक्र पूरा करना पड़ता है। उस जन्म के निर्धारित चक्र पूरे होने के बाद उसे दूसरी योनि में भेज दिया जाता है। वहां पर उसे निर्धारित अवधि के मुताबिक बार-बार जन्म लेकर चक्र पूरा करना पड़ता है। अंत में वह कर्मों के आधार पर देवता, दैत्य या मनुष्य के रूप में जन्म लेती है। इस योनि में आने के बाद आत्मा 4 लाख बार इसी योनि में जन्म लेती रहती है।

क्यों श्रेष्ठ है मनुष्य योनि?

आत्मा को 52 अरब वर्ष एवं 84 लाख योनियों में भटकने के बाद मानव शरीर मिलता है। इसलिए मानव तन को दुर्लभ माना जाता है। क्योंकि इतनी योनियों में एक मनुष्य योनि ही है जिसमें विवेक जैसा दुर्लभ गुण पाया जाता है।

पद्म पुराण में किया गया है वर्णन - मनुष्य जन्म कब मिलता है : 
एक प्रचलित मान्यता के अनुसार एक आत्मा को कर्मगति अनुसार 30 लाख बार वृक्ष योनि में जन्म होता है। उसके बाद जलचर प्राणियों के रूप में 9 लाख बार जन्म होता है। उसके बाद कृमि योनि में 10 लाख बार जन्म होता है। और फिर 11 लाख बार पक्षी योनि में जन्म होता है। उसके बाद 20 लाख बार पशु योनि में जन्म लेना होता है अंत में कर्मानुसार गौ का शरीर प्राप्त करके आत्मा मनुष्य योनि प्राप्त करता है और तब 4 लाख बार मानव योनि में जन्म लेने के बाद पितृ या देव योनि प्राप्त होती है। इसके साथ ही वह जन्म-जन्मांतर से मुक्त होकर बैकुंठ धाम चली जाती है। यह सभी कर्मानुसार चलता है। जबकि नीच कर्म करने वाली आत्मा को फिर से 84 लाख योनियों में जन्म लेने के लिए नीचे भेज दिया जाता है। अर्थात उल्टेक्रम में गति करता है। वेद-पुराणों में इसे दुर्गति कहा गया है, यानी कि किसी आत्मा के फिर से जन्म-मृत्यु के चक्र में फंसने का फेर, जिसे एक आदर्श स्थिति नहीं मानी जाती।

मनुष्य का पतन कैसे होता है : 
कठोपनिषद अध्याय 2 वल्ली 2 के 7वें मंत्र में यमराजजी कहते हैं कि अपने-अपने शुभ-अशुभ कर्मों के अनुसार शास्त्र, गुरु, संग, शिक्षा, व्यवसाय आदि के द्वारा सुने हुए भावों के अनुसार मरने के पश्चात कितने ही जीवात्मा दूसरा शरीर धारण करने के लिए वीर्य के साथ माता की योनि में प्रवेश कर जाते हैं। जिनके पुण्य-पाप समान होते हैं, वे मनुष्य का और जिनके पुण्य कम तथा पाप अधिक होते हैं, वे पशु-पक्षी का शरीर धारण कर उत्पन्न होते हैं और कितने ही जिनके पाप अत्यधिक होते हैं, स्थावर भाव को प्राप्त होते हैं अर्थात वृक्ष, लता, तृण आदि जड़ शरीर में उत्पन्न होते हैं। 

अंतिम इच्छाओं के अनुसार परिवर्तित जीन्स जिस जीव के जीन्स से मिल जाते हैं, उसी ओर ये आकर्षित होकर वही योनि धारण कर लेते हैं। 84 लाख योनियों में भटकने के बाद वह फिर मनुष्य शरीर में आता है।